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ट्रेन की पटरियां तो देखी होंगी, कभी मन में सवाल नहीं आया कि वहां पर पत्थर क्यों पड़े रहते हैं?

ट्रेन की पटरी के किनारे पड़े पत्थरों को तो हम सबने देखा है. लेकिन हाई स्पीड ट्रेनों और मेट्रो के ट्रैक पर ये पत्थर कम देखने मिलते हैं. ऐसा क्यों?

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train track stones science explained
सांकेतिक तस्वीर
21 फ़रवरी 2024 (Updated: 24 फ़रवरी 2024, 01:45 IST)
Updated: 24 फ़रवरी 2024 01:45 IST
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‘गिरगर्दन घाट’ ( Gir Gardan Ghat) का नाम सुना है? ये वही घाट है, जहां सड़क पर भी लोग पैराशूट पहनकर चलते हैं. ऐसा हम नहीं कह रहे. ऐसा ‘खट्टा-मीठा’ फिल्म का विख्यात रोडरोलर इंजीनियर ‘अवॉर्ड’ अंशुमान बताता है ('अवॉर्ड' अंशुमान को नहीं पहचानते तो नीचे चिपकी फोटो देखें). गनीमत है कि ट्रेनें इस गिरगर्दन घाट से होकर नहीं गुजरतीं. फिर भी ट्रेनों को सुरक्षित बनाने के लिए खास उपाय किए जाते हैं. जिनमें से एक है ट्रेन ट्रैक के पत्थर, जो बस यूं ही ऐसे पड़े रहते हैं. जैसे अलग-अलग ब्रैंड्स के मेल्स (mails) से आपका स्पैम फोल्डर (spam folder) . आपने कभी सोचा है कि आखिर इनका काम क्या है? अगर इनका कोई जरूरी काम है भी, तो मेट्रो और हाई स्पीड ट्रेनों की पटरियों में ये क्यों नहीं देखने को मिलते?


इन्हीं सब सवालों के जवाब जानने के लिए हमने एक मोटी सी, रेलवे इंजीनियरिंग की किताब उठाई. फिर भी हमें कुछ खास समझ नहीं आया. तो हमने इस किताब और सिविल इंजीनियर वीरेंद्र विक्रम की मदद से पूरा मामला समझने की कोशिश की. हमने समझा, अब आपको भी समझाते हैं.

रेलवे ट्रैक के इन पत्थरों को टेक्निकल भाषा में 'बैलस्ट'(Ballast) कहते हैं. भारी-भरकम नाम सुनकर घबराइये नहीं, ये कुछ ऐसा ही है, जैसे ‘बुड्ढी के बाल’ वाली मिठाई को 'कॉटन कैंडी' नाम दे दिया जाता है. खैर 'बैलस्ट' शब्द पहले पानी के जहाजों को अपनी जगह पर रखने वाले मटेरियल के लिए इस्तेमाल किया जाता था. या फिर जो चीज कोई भार उठाती है. उसे भी 'बैलस्ट' कहते हैं. ऐसा मोटा-मोटा शब्दिक अर्थ 'बैलस्ट' का निकाल सकते हैं. 

अब आते हैं, दो सवाल 

1. ये पटरियों पर क्यों होते हैं? 
2. इतने ही जरूरी हैं तो हाई स्पीड ट्रेन या मेट्रो ट्रैक्स पर क्यों कम देखने मिलते हैं?

लेकिन सवालों के जवाब समझने से पहले थोड़ा सा ट्रेन की पटरी को समझ लेते हैं. 

रेल की पटरी में कई हिस्से होते हैं. जिनके पीछे अपना-अपना विज्ञान है. पहले नीचे लगी फोटो देखिए, फिर समझाते हैं सबके क्या-क्या काम हैं.

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ट्रेन की पटरी के अलग-अलग हिस्सों को समझें. Source: research gate; Faris, Muhammad & Núñez, Alfredo & Su, Zhou & De Schutter, Bart. (2018). Distributed Optimization for Railway Track Maintenance Operations Planning. 10.1109/ITSC.2018.8569335.

1.  एक तो हो गयी पटरी खुद, जिसे रेल (Rail) कहते हैं. ये खास तरह के मजबूत स्टील के बनाए जाते हैं. ताकि ट्रेन के वजन से इनका आकार न बदले. इनका आकार भी खास तरह का होता है. ताकि मुड़ते वक्त ट्रेन पटरी से उतर न जाए.

2. दूसरा है, स्लीपर (Sleeper). जो पटरियों के बीच का एक हिस्सा है. इसे लंबी यात्रा में पसरकर सो जाने वाले स्लीपर बर्थ न समझें. दरअसल, ये पटरी के बीच लगाए जाने वाले कंक्रीट या लकड़ी के ब्लॉक होते हैं. अगर ध्यान में आए, तो विज्ञान की किताबों में एक सवाल हुआ करता था. ट्रेन की पटरियों के बीच लकड़ी के गट्ठे क्यों लगाए जाते हैं? इसका कारण है, स्टील या धातुएं गर्म होकर फैलती हैं और ठंडी होने पर सिकुड़ती हैं. मौसम बदलने पर पटरियां भी फैल सकती हैं. पटरियों के बीच की दूरी बराबर रहे, इसलिए ये स्लीपर लगाए जाते हैं. पहले ये लकड़ी के होते थे. लेकिन आज-कल ये सीमेंट से बनाए जाते हैं.

3. फास्टनिंग (Fastening). फास्टनिंग है पटरी और स्लीपर को जोड़ने वाली चीज. आपने पटरियों से लगी जलेबी जैसी लोहे की संरचना देखी होगी, वही वाली. न ध्यान में आ रही हो तो उसका जुगाड़ ऊपर लगे फोटो में किया गया है. 

4. 'बैलस्ट' (Ballast) ये वही है जिसके बारे में इतनी देर से हम चर्चा कर रहे हैं. ट्रेन की पटरी का पत्थर का बिस्तर. इसके बारे में थोड़ा सा डीटेल में बात करते हैं. 

फिल्म दे दना दन, (Image credit: Eros Now)
क्या हैं ये पत्थर?

जैसा कि हमने जाना कि इन पत्थरों को 'बैलस्ट' कहते हैं. तो इनको सम्मान देने और अपनी सुविधा के लिए, इस आर्टिकल में हम भी इन्हें यही संज्ञा दे देंगे. पहले लकड़ी और सीमेंट के स्लीपर्स (sleepers) के लिए 'बैलस्ट' के लिए पत्थरों का साइज अलग-अलग होता था. मेटल के स्लीपर के लिए अलग. लेकिन आजकल इनका साइज फिक्स है, 50mm या करीब 2 इंच. कमाल है! गजब की डीटेल्स का खयाल रखा जाता है. वैसे इसका भी कारण है. पत्थर ज्यादा बड़े होंगे, तो सामूहिक तौर पर वो लचक नहीं दे पाएंगे. वहीं ज्यादा छोटे हुए तो इसका उल्टा इसलिए एक साइज फिक्स किया गया है. ताकि इंटरलॉकिंग सही से हो, माने पत्थर बराबर सेट हो पाएं. 

वैसे 'बैलस्ट' सिर्फ पत्थर के नहीं होते. इसके लिए कोयला और मोरम (moorum) वगैरह का इस्तेमाल भी किया जाता है. कहीं-कहीं नदी के पत्थर भी इसके लिए इस्तेमाल किए जाते हैं. ये सब नीचे बताए कारणों पर भी निर्भर कर सकता है. 

'बैलस्ट' कैसे भी हों, बस उनमें ये क्वालिटी होनी जरूरी हैं-

1. भार उठा सकने वाले होने चाहिए. 
2. टूटे-फूटें न.
3. पानी न सोखें 
4. काफी टाइम तक (durable) चलने वाले हों 
5. सस्ते हों, खर्चा कम लगे. 

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अब बात 'बैलस्ट' की क्यों?

बता दें, पटरी भी ट्रेन के लोड से आगे पीछे खिसक सकती है. ये एकदम फिक्स नहीें होती. इस मूवमेंट को creep कहते हैं. ये कई वजहों से हो सकता है, जिससे explain करने के लिए अलग-अलग कई थ्योरी (theory) हैं. जैसे कि जब ट्रेन आगे की तरफ जाती है, तो पटरी पर पीछे की तरफ फोर्स लगती है. न्यूटन के तीसरे नियम टाइप (every action has an equal and opposite reaction). 

इस सबकी वजह से ट्रेन की पटरी यहां-वहां हिलती भी रहती हैं. साथ ही आगे या पीछे की तरफ खिसकती भी रहती हैं. जाहिर है, ऐसे में अगर ट्रेन की पटरी को जमीन पर ही बिछा दें तो धीरे-धीरे वो धंसती भी जाएगी. यहीं पिक्चर में आते हैं ये पत्थर. जो पटरियों को एक ठोस बेस देते हैं. यही नहीं अभी और भी है. इसकी वजह से ट्रैक के स्लीपर (sleeper) अपनी जगह पर भी रहते हैं. ट्रेन के गुजरते समय ये स्लीपर को सपोर्ट भी देते हैं.

इसके अलावा ट्रैक में पानी जमा न हो और पटरियों में जंग न लगे, ये सब काम भी इन्हीं के हैं. मतलब ये पानी के जमीन के अंदर जाने का रास्ता आसान करते हैं. कीचड़ भी जमा नहीं होने देते. ताकि जंग की वजह से पटरी खराब होने बचे.

1991 में एक फिल्म आई ‘पत्थर के फूल’. ये पत्थर भले बड़े कूल हों लेकिन ये फूलों को दूर रखते हैं. यानी कि इनकी वजह से ट्रैक पर बेवजह के झाड़ नहीं उगते जो ट्रैक को नुकसान पहुंचा सकते हैं. (जग्गू दादा को इस बात से शिकायत हो सकती है.) 

अब अगर ये पत्थर इतने ही चमत्कारी हैं. तो फिर मेट्रो और हाई स्पीड ट्रेनों में ये पत्थर क्यों नहीं देखने मिलते हैं.

हाई स्पीड ट्रैक्स में क्यों नहीं मिलते ये पत्थर?

एक बात आपने नोटिस की होगी. हाई स्पीड ट्रेनों और मेट्रो के ट्रैक पर ये पत्थर कम देखने मिलते हैं. मगर क्यों? याद है ‘3 इडियट्स’ फिल्म में जब रैंचो प्रोफेसर ‘वायरस’ से पूछता है, स्पेस में पेंसिल क्यों नहीं इस्तेमाल करते, लाखों डॉलर बच जाते. तो प्रोफेसर कहता है, पेंसिल की नोक टूट कर किसी की आंख में जा सकती है.

काश इसका भी ऐसा सिंपल सा जवाब होता. वैसे एक वजह ये भी है. ट्रेन की रफ्तार तेज होने की वजह से पत्थर उछलकर, ट्रेन या लोगों को नुकसान पहुंचा सकते हैं. लेकिन ये इतनी बड़ी वजह नहीं जितना कि मेंटेनेंस का पेंच. पूरा खेल है रोकड़े का और जरूरत का.

Delhi Metro security going off track with rising crime, suicide attempts
कंक्रीट से बना मेट्रो ट्रैक(सांकेतिक तस्वीर, India Today)

दरअसल जब पटरी में पत्थरों का इस्तेमाल किया जाता है. तो पत्थर धीरे-धीरे बिखरते रहते हैं. जिसकी वजह से रेगुलर रखरखाव और मरम्मत की जरूरत पड़ती है. आमतौर पर मरम्मत में कई घंटे लग सकते हैं. और तब तक ट्रैक को बंद रख सकना पड़ता है. वहीं मेट्रो वगैरह में समय की कीमत होती है. ट्रैक को आए दिन बंद करके मरम्मत करना, इस मामले में सही नहीं रहता. इसलिए कई जगह छोटी दूरी के ट्रैक्स पर कंक्रीट से स्लीपर्स को फिक्स कर दिया जाता है और पत्थरों का इस्तेमाल नहीं किया जाता. दूसरी तरफ पत्थर सस्ते होते हैं. हजारों किलोमीटर लंबी पटरियों को कंक्रीट से पाटना किफायती नहीं रहता. इसलिए वहां पत्थरों का इस्तेमाल किया जाता है. "पैसे का चक्कर बाबू भइया!"

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