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ओलंपिक में अमेरिकी खिलाड़ी रेवेन सॉन्डर्ज़ ने क्यों किया प्रोटेस्ट?

सॉन्डर्ज़ ने हाथ से क्रॉस क्यों बनाया?

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अपने हाथों से प्रतीक बनातीं रेवेन सॉन्डर्ज़. फोटो- PTI
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2 अगस्त 2021 (Updated: 2 अगस्त 2021, 17:02 IST)
Updated: 2 अगस्त 2021 17:02 IST
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पाकिस्तान में एक बड़े उम्दा, क्रांतिकारी और बग़ावती शायर हुए, हबीब जालिब. वो एक नज़्म में लिखते हैं-
और सब भूल गए हर्फ़-ए-सदाक़त लिखना, रह गया काम हमारा ही बग़ावत लिखना
न सिले की, न सताइश की तमन्ना हम को, हक़ में लोगों के...हमारी तो है आदत लिखना
हर्फ़-ए-सदाक़त. यानी, सच्चाई के शब्द. अगर सताए हुओं के हक़ में बोलने पर पाबंदी हो, तो क्या करना चाहिए? पाबंदी माननी चाहिए. या उस फ़रमान की मुख़ालिफ़त करना चाहिए? आज हम जो प्रकरण आपको बताने जा रहे हैं, वो इसी सवाल से जुड़ा है. मामला है, तोक्यो ओलिंपिक्स. यहां बीते रोज़ 25 साल की एक खिलाड़ी ने सिल्वर मेडल जीता. वो अवॉर्ड लेने पोडियम पर आई. वहां उसने अपनी दोनों बांहें ऊपर को उठाईं और कलाइयों को जोड़कर हवा में एक निशान बनाया. क्या था इस निशान का मतलब? किसके लिए बनाया गया था ये? क्यों इसके चलते उस खिलाड़ी पर सज़ा की तलवार लटक रही है? क्या है ये पूरा मामला, विस्तार से बताते हैं.
शुरुआत करते हैं इतिहास से. अमेरिका के कैलिफॉर्निया प्रांत में एक विश्वविद्यालय है- सैन होज़े स्टेट यूनिवर्सिटी. 17 अक्टूबर, 2005 की बात है. इस यूनिवर्सिटी ने 20 फुट ऊंची दो मूर्तियों का अनावरण किया. मूर्तियों में ढाले गए थे दो पुरुष किरदार. एकाग्र मुद्रा में अपनी जगह पर खड़े. हवा में उठा हुआ एक हाथ. भिंची हुई मुट्ठी.
ये दोनों प्रतिमाएं मात्र स्टैचू नहीं, इतिहास का एक गौरवशाली परचम थीं. ये मूर्तियां उस क्षण की गवाह थीं, जिसने पूरे अमेरिका को झकझोर दिया था. इस एक क्षण से कई पीढ़ियों ने प्रेरणा पाई थी. ये मूर्तियां थीं, सैन होज़े स्टेट यूनिवर्सिटी के दो पुराने छात्रों की. उनके नाम थे- टॉमी स्मिथ और जॉन कार्लोस. क्या किया था इन दोनों ने?
ये बात है 53 साल पुरानी. सन् 1968 की. उस बरस मैक्सिको सिटी ने ओलिंपिक्स खेलों की मेज़बानी की थी. यहां 24 साल के टॉमी स्मिथ ने 19.83 सेकेंड्स में 200 मीटर की स्पर्धा पूरी की और गोल्ड मेडल जीता. इसी मुकाबले में तीसरे नंबर पर रहकर कांस्य पदक जीता, जॉन कार्लोस ने. टॉमी और जॉन, दोनों ही अमेरिकी धावक थे. मुकाबले के बाद मेडल सेरमनी में दोनों खिलाड़ियों को पदक दिया जाना था. यानी, अब जीत-हार की धुकधुकी ख़त्म हो चुकी थी. अब मेहनत के फल को चखने का समय था.
मगर टॉमी और जॉन, इन दोनों की धड़कनें तेज़ थीं. उनका मिशन तो अब शुरू हुआ था. मन में कुछ ठानकर वो पोडियम की ओर बढ़ गए. ओलिंपिक्स खेलों की एक परंपरा है. गोल्ड मेडल जीतने वाले खिलाड़ी को पदक दिए जाते समय उसके देश के राष्ट्रगान की धुन बजाई जाती है. तो उस दिन, जब स्टेडियम में अमेरिकी नैशनल ऐंथम 'स्टार स्पैन्गल्ड बैनर' की धुन बजनी शुरू हुई, तभी एक करिश्मा हुआ. मेडल रिसीव करने के पहले और तीसरे पायदान पर खड़े टॉमी और जॉन ने अपना सिर झुकाया. और, अपना एक हाथ हवा में तानकर मुट्ठियां भींचे खड़े रहे. और तब लोगों की नज़र गई उनके पैरों पर. देखा, दोनों केवल मोज़ा पहनकर पोडियम पर खड़े हैं.
ये सब- हाथ तानना, काले ग्लव्स पहनकर मुट्ठी भींचना, बिना जूतों के उनके पांव, उनमें डले काले मोज़े...ये सब एक बग़ावत के उपकरण थे. ये विद्रोह था, सामाजिक अन्याय के विरुद्ध. अमेरिका में होने वाले नस्लीय भेदभाव के विरुद्ध. इन दोनों खिलाड़ियों ने उस रोज़ अपने शरीर को ब्लैक पावर का परचम बना लिया था. क्या था इसका बैकग्राउंड? इस दौर में अमेरिका के भीतर ब्लैक अधिकारों के लिए एक बड़ा आंदोलन चल रहा था. इसके सबसे बड़े नायकों में एक थे, मार्टिन लूथर किंग. ओलिंपिक्स के आयोजन से छह महीने पहले- 4 अप्रैल, 1968 को मार्टिन लूथर किंग की हत्या कर दी गई. टॉमी स्मिथ और जॉन कार्लोस ने 1968 ओलिंपिंक्स में जो किया, उसका संबंध अमेरिका में चल रहे उसी सिविल राइट्स मूवमेंट से था. उनके नंगे पांव और उनमें दिख रहे काले मोज़े, ब्लैक कम्युनिटी की गरीबी का प्रतीक थे. टॉमी के गले का काला स्कार्फ़ ब्लैक प्राइड का प्रतीक था. जॉन के गले में डला बीड्स नेकलेस लिंच करके मार दिए गए ब्लैक्स का प्रतिनिधित्व कर रहा था. हवा में तने उनके मुट्ठीबंद हाथ ब्लैक अधिकारों के प्रति एकजुटता का संकेत दे रहे थे.
इन दोनों खिलाड़ियों ने खेल के सबसे प्रतिष्ठित अंतरराष्ट्रीय मंच पर अमेरिका के विकृत नस्लीय भेदभाव की पोल खोल दी थी. उसे शर्मसार कर दिया था. टॉमी और जॉन, रातोंरात आइकन बन गए. महान अमेरिकन बॉक्सर मुहम्मद अली ने कहा कि उन दोनों ने सदी का सबसे साहसी कारनामा कर दिखाया है. टॉमी और जॉन को मुहब्बत के साथ-साथ नफ़रत भी ख़ूब मिली. अमेरिका के रेसिस्ट व्हाइट धड़े ने टॉमी और जॉन को गालियां दीं. उन्हें जान से मारे जाने की धमकियां मिलीं. ख़ुद IOC के तत्कालीन प्रेज़िडेंट ऐवरी ब्रनडेज़ के कहने पर टॉमी और जॉन को मैक्सिको से निकाल फेंका गया.
इतनी नफ़रत मिली उन्हें कि सामान्य जीवन जीना सपना बन गया. लोग लिफ़ाफे में मरे हुए चूहे भरकर डाक से पार्सल भेजा करते उन्हें. एक की शादी टूट गई. एक की पत्नी ने आत्महत्या कर ली. उन्हें कोई नौकरी पर नहीं रखता था. कार धोने तक का काम नहीं देता था कोई उन्हें. बिजली बिल भरने, खाना पकाने के लिए गैस खरीदने तक के पैसे नहीं थे. उन्हें फर्नीचर काटकर उसकी लकड़ियों से खाना पकाना पड़ा था. टॉमी के भाई की स्कॉलरशिप छीन ली गई. इन सबके अलावा मारे जाने का डर अलग. हर पल इस अंदेशे में जीना कि पता नहीं कौन, कब मार डाले.
यहां तक कि पोडियम में उनके साथ खड़े हुए सिल्वर मेडल जीतने वाले ऑस्ट्रेलियन खिलाड़ी पीटर नॉर्मन तक को नहीं बख़्शा गया. 1972 ओलिंपिक्स के लिए क्वालिफ़ाई करने के बावजूद नॉर्मन को टीम में शामिल नहीं किया गया. जबकि नॉर्मन ने प्रोटेस्ट में हिस्सा नहीं लिया था. जैसे-जैसे समय बीता, टॉमी स्मिथ और जॉन कार्लोस कल्ट बनते गए. स्टैंड लेने के लिए उन्होंने बेशक़ बहुत तकलीफ़ें उठाईं. बहुत कुछ खोया. गुरबत और फ़ाक़ाकशी में दिन बिताए. मगर अब उनके किए की मिसाल दी जाती है. आज इसकी चर्चा क्यों? इसकी वजह है, ओलिंपिक्स से आई एक और प्रोटेस्ट की ख़बर. ये घटना है बीते रोज़ यानी 1 अगस्त, 2021 की. तोक्यो ओलिंपिक्स में शॉट पुट का मुकाबला हो रहा था. इसमें सिल्वर मेडल जीतने वाली खिलाड़ी का नाम है, रेवेन सॉन्डर्ज़. पदक लेने के लिए रेवेन मेडल सेरमनी में पहुंचीं. यहां मेडल रिसीव किया. फिर पोडियम पर खड़े-खड़े रेवेन ने अपने दोनों हाथ हवा में उठाए और कलाइयों को जोड़कर क्रॉस का निशान बनाया. और इस तरह रेवेन तोक्यो ओलिंपिक्स में पोडियम प्रोटेस्ट करने वाली पहली खिलाड़ी बन गईं.
रेवेन के इस प्रतीकात्मक विरोध का मुद्दा क्या था? रेवेन अमेरिका की हैं. ब्लैक हैं. समलैंगिक हैं. ब्लैक और समलैंगिक, दोनों ही सताए हुए वर्ग हैं. रेवेन के मुताबिक, उनके द्वारा बनाया गया क्रॉस एक इंटरसेक्शन है. एक ऐसा चौराहा, जहां आकर हर तरह के दबे-कुचले और उपेक्षित लोग एक-दूसरे से मिलते हैं.
ये पहला मौका नहीं, जब रेवेन का नाम सुर्ख़ियों में आया हो. आप सुपरहीरो हल्क को जानते हैं? रेवेन हल्क के चेहरे वाला एक ख़ास तरह का मास्क पहनती हैं. इस मास्क का डिज़ाइन देखने में ऐसा है, जैसा बैटमैन फ़िल्म में ज़ोकर ने पहना था. इस अनोखे मास्क की ख़ूब बातें होती हैं. इसके अलावा, रेवेन का हेयर स्टाइल भी बहुत कलरफ़ुल है.
Raven 2 रेवेन को अक्सर इस मास्क में देखा जाता है. फोटो- AP

उनके आधे बाल हरे रंग के और बाकी आधे बैंगनी रंग के हैं. ये सारी चीजें उनके लिए ख़ुद को अभिव्यक्त करने का ज़रिया हैं. अपनी ब्लैक आइडेंटिटी और समलैंगिक पहचान को एनजॉय करना. खुलकर, बोल्डनेस के साथ अपनी पर्सनैलिटी सामने रखना. ऐसी पर्सनैलिटी, जिसमें कोई दब्बूपना नहीं है. जिसमें अपनी लाइफ़ चॉइसेज़ के साथ बिंदास सिर उठाकर जीने का माद्दा है. किसी के जज किए जाने की कोई परवाह नहीं है.
वो मानसिक स्वास्थ्य पर भी जागरूकता फैलाती आई हैं. खिलाड़ियों से अच्छे प्रदर्शन की, पदक जीतने की अपेक्षाएं होती हैं. कई बार अपेक्षाओं का ये बोझ मानसिक तौर पर बहुत थकान देता है. इंसान को पस्त कर देता है. अवसादग्रस्त कर देता है. रेवेन इस मसले पर भी ख़ूब बातें करती हैं. बताती हैं कि 2018 में वो किस तरह मानसिक स्वास्थ्य की दिक्क़तों से जूझ रही थीं. वो इतने अवसाद में थीं कि आत्महत्या करने की सोचती थीं. मगर फिर उन्होंने थेरेपिस्ट की मदद ली. इससे उन्हें अपनी पहचान को डिस्कवर करने, अपने जीवन का बैलेंस खोजने में मदद मिली. इसीलिए रेवेन अब मेंटल हेल्थ पर ख़ूब अवेयरनेस फैलाती हैं. इसकी अहमियत पर बात करती हैं.
इन्हीं सारे मुद्दों पर स्टैंड लेते हुए रेवेन ने पोडियम पर क्रॉस बनाया. इस क्रॉस का मकसद बताते हुए उन्होंने कहा-
ये ब्लैक लोगों के लिए है. LGBTQ कम्युनिटी के लिए है. हर उस इंसान के लिए है, जो मानसिक स्वास्थ्य की दिक्कतों से जूझ रहा है.
रेवेन ने कहा, वो उम्मीद बांटना चाहती हैं. बहुत गरीबी, मेहनत और उतार-चढ़ाव के बाद उन्होंने ओलिंपिक्स का मेडल जीता. इस पल तक पहुंचने के लिए उन्होंने कइयों से प्रेरणा पाई. ऐसे ही वो चाहती हैं कि कोई उनकी यात्रा से भी प्रेरणा ले. रेवेन ने क्रॉस बनाने की मंशा पर बोलते हुए कहा-
मैं जानती हूं कि मैं कई लोगों को प्रेरित कर सकती हूं. छोटी बच्चियों, लड़कियों, लड़कों, LGBTQ लोगों, आत्महत्या और अवसाद से जूझ रहे लोगों...मैं कइयों को प्रेरित कर सकती हूं. ये बस मेरे लिए नहीं है. मेरे बारे में नहीं है. कई लोग हिम्मत हार जाते हैं. मैं उन सबसे कहना चाहती हूं कि अगर आप मज़बूत हैं, तो ठीक है. और अगर आप हर हमेशा स्ट्रॉन्ग फील नहीं करते, तब भी ठीक है. इसमें कोई बुराई नहीं. मानसिक समस्याओं से उबरने के लिए थेरपिस्ट की मदद लेने में कोई हर्ज नहीं.
रेवेन की कही किसी बात में कोई खोट नहीं. उन्होंने बेहद ज़रूरी मुद्दे उठाए हैं. लेकिन इसके बावजूद उनके खिलाफ़ अनुशासनात्मक कार्रवाई हो सकती है. उन्हें सज़ा दी जा सकती है. क्यों? इसकी वजह हैं, ओलिंपिक्स के नियम-क़ायदे. क्या हैं नियम कायदे? ओलिंपिक्स कमिटी का कहना है कि वो एक ग़ैर-राजनैतिक बॉडी हैं. उनका काम है, दुनिया के देशों को एक-दूसरे के साथ लाना. खेल और खेल भावना का जश्न मनाना. अंतरराष्ट्रीय एकता बनाना. इसी आधार पर IOC चार्टर की नियम संख्या 50 कहती है-
प्रोहिबिशन ऑफ़ प्रोपैगैंडा. ओलिंपिक की साइट्स, आयोजन स्थलों या ओलोंपिक आयोजन से जुड़ी किसी जगह पर किसी भी तरह के प्रदर्शन की अनुमति नहीं है. फिर चाहे वो राजनैतिक, धार्मिक या नस्लीय...किसी भी तरह का प्रोपैगैंडा हो.
इसी नियम के आधार पर ओलिंपिक्स कमिटी आयोजन स्थलों पर किसी भी तरह के प्रोटेस्ट की इजाज़त नहीं देती. मगर कई लोग इसकी आलोचना करते हैं. उनका कहना है कि ओलिंपिक्स सबसे बड़ा खेल आयोजन है. अगर कोई खिलाड़ी इस मंच पर किसी अन्याय या कुप्रथा का सांकेतिक विरोध करना चाहे, शांतिपूर्ण तरीके से उस मुद्दे को दुनिया के आगे रखना चाहे, तो उसे इसकी इजाज़त होनी चाहिए.
ख़ासकर ऐसे मुद्दों में, जो ब्लैक-ऐंड-वाइट हैं. मसलन, नस्लीय भेदभाव का विरोध. लैंगिक समानता का समर्थन. समलैंगिक अधिकारों के प्रति एकजुटता. ऐसे ज़रूरी मुद्दों के सामने रखे जाने में किसी को भी क्या आपत्ति हो सकती है? कोई भी संवेदनशील, तर्कशील व्यक्ति इन चीजों का विरोध कैसे कर सकता है? जब दुनिया का एक बड़ा धड़ा इस भेदभाव का भुक्तभोगी हो और कोई एथलीट सबसे बड़े अंतरराष्ट्रीय खेल आयोजन के पटल से इन मुद्दों के प्रति जागरूकता फैलाना चाहता हो, तो IOC को दिक्क़त क्यों होनी चाहिए?
ऐसे ही तर्कों के आधार पर कई खिलाड़ी समय-समय पर IOC का ये नियम तोड़ते आए हैं. ये जानते हुए कि उनपर कार्रवाई की जाएगी. ये नियम और भी कई टूर्नमेंट्स में लागू है. मगर बीते कुछ समय से इस नियम की निरर्थकता को लेकर जागरुकता बढ़ी है. मिसाल के लिए एक कॉन्ट्रास्ट देखिए. 2019 के पैन-अमेरिकन गेम्स की बात है. यहां भी प्रोटेस्ट ना करने वाला नियम लागू होता है. मगर अमेरिका की खिलाड़ी ग्वैन बैरी ने इस नियम की अनदेखी करते हुए प्रोटेस्ट स्वरूप अपनी मुट्ठी उठाई. कुछ और खिलाड़ियों ने ब्लैक राइट्स के समर्थन में घुटने के बल बैठ गए. USOPC, यानी US ओलिंपिक ऐंड पैरालिंपिक कमिटी ने इन खिलाड़ियों को सज़ा देते हुए एक साल के प्रोबेशन पर डाल दिया.
लेकिन फिर 2020 में अमेरिका के भीतर जॉर्ज फ्लॉइड की हत्या हुई. इस घटना ने ब्लैक राइट्स और ब्लैक ऐक्टिविज़म को बड़े मूवमेंट में तब्दील कर दिया. ब्लैक्स के साथ होने वाले भेदभाव और हिंसा के खिलाफ़ आवाज़ उठाना ज़रूरत बन गई. इन बदले हुए हालातों में टूर्नमेंट्स के भीतर खिलाड़ियों द्वारा किए जाने वाले प्रोटेस्ट पर भी राय बदली.
USOPC ने कहा, वो अब प्रोटेस्ट करने वाले एथलीट्स पर कार्रवाई नहीं करेगा. इसके बाद IOC पर भी रूल 50 को ख़त्म करने का दबाव बना. IOC ने इसके लिए एक सर्वे करवाया. इसमें 3,547 ओलिंपियन्स और खिलाड़ियों से उनकी राय पूछी गई थी. इनमें 67 पर्सेंट लोगों ने कहा कि मेडल पोडियम किसी भी तरह के विरोध प्रदर्शन के लिए उपयुक्त जगह नहीं है. इसी सर्वे के आधार पर IOC ने भी प्रोटेस्ट बैन वाला नियम लागू रखा.
मगर IOC के इस सर्वे पर बहुत सवाल उठे. आलोचकों ने कहा, सर्वे में 14 पर्सेंट रीस्पॉन्डर तो चीन के थे. चीन तो कतई नहीं चाहेगा कि इस तरह के अंतरराष्ट्रीय आयोजनों में किसी प्रोटेस्ट की अनुमति हो. क्योंकि उसके खिलाफ़ प्रोटेस्ट करने की तो दर्जनों वजहें हैं. मसलन, तिब्बत पर कब्ज़ा. हॉन्ग कॉन्ग का दमन. ताइवान के साथ दिखाई जाने वाली गुंडागर्दी. शिनजियांग में उइगरों के साथ हो रहा नरसंहार. कोई ताज्जुब नहीं कि कम्युनिस्ट पार्टी के समर्थक चाइनीज़ एथलीट्स प्रोटेस्ट्स को ग़लत ही मानेंगे.
यूरोपियन यूनियन के एथलीट्स ने भी IOC के इस सर्वे की ख़ूब आलोचना की. EU एथलीट्स बोले कि अभिव्यक्ति की आज़ादी मानवाधिकार का मसला है. एथलीट्स से प्रोटेस्ट का अधिकार छीनकर IOC मानवाधिकार उल्लंघन कर रहा है.
ढेरों आलोचनाओं के बावजूद IOC अड़ा रहा. हां, उसने इतना ज़रूर किया कि प्रतियोगिता की शुरुआत के पहले थोड़े-बहुत प्रोटेस्ट की परमिशन दी. ये भी कहा कि खिलाड़ी चाहें, तो प्रेस कॉन्फ्रेंस में अपनी बात, अपना नज़रिया सामने रख सकते हैं. मगर पोडियम पर किसी भी तरह के प्रोटेस्ट की अनुमति अब भी नहीं दी गई. प्रोटेस्ट का इतिहास IOC के ये नियम दशकों पुराने हैं. और इन नियमों से भी पुराना है प्रोटेस्ट का इतिहास. मसलन, साल 1906 का एथेंस ओलिंपिक्स. इसमें हिस्सा ले रहे एक एथलीट थे, पीटर ओकॉनर. पीटर आयरिश थे. मगर उन्हें ब्रिटिश झंडे तले भागीदारी करनी पड़ी थी. इस दौर में आयरलैंड के ब्रिटेन से अलग होने, आज़ाद देश होने की मुहिम शुरू हो चुकी थी. इसी क्रम में पीटर ने भी आयरिश कॉज़ के प्रति अपना समर्थन दिखाया. वो ओलिंपिक्स में फ्लैग पोस्ट के ऊपर चढ़ गए और वहां आयरिश झंडा दिखा दिया. बाकी ओलिंपिक्स प्रोटेस्ट्स के अतीत का सबसे चर्चित प्रकरण, टॉमी स्मिथ और जॉन कार्लोस का क़िस्सा तो हम आपको सुना ही चुके हैं.
IOC अब अपने नियमों का हवाला देकर रेवेन सॉन्डर्ज़ पर भी कार्रवाई कर सकता है. 2 अगस्त को IOC के प्रवक्ता मार्क ऐडम्स ने इस प्रकरण पर टिप्पणी भी की. मार्क बोले कि IOC इस वाकये की तफ़्तीश कर रहा है. इसे लेकर यूनाइटेड स्टेट्स ओलिंपिक्स ऐंड पैरालिंपिक कमिटी और वर्ल्ड ऐथलेटिक्स से बात की जा रही है. हालांकि मार्क ने ये नहीं बताया कि सज़ा कब दी जाएगी, क्या दी जाएगी. IOC सज़ा दे या न दे, रेवेन सॉन्डर्ज़ का उद्देश्य पूरा हो चुका है. वो चाहती थीं कि प्रोटेस्ट के बहाने उनके उठाए मुद्दों पर बात हो. बात तो हो रही है.

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