दी लल्लनटॉप शो: देश का अगला राष्ट्रपति कौन होगा?
राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद के बाद अगला राष्ट्रपति मुस्लिम होगा, महिला या आदिवासी?

भारत में सबसे महत्वपूर्ण चुनावों में से एक का वक्त करीब आ रहा है. आज केंद्रीय चुनाव आयोग ने राष्ट्रपति चुनाव 2022 के लिए कैलेंडर जारी कर दिया. 18 जुलाई को भारत के 16 वें राष्ट्रपति चुनाव के लिए वोट डाले जाएंगे.
हम सब जानते हैं कि भारत में राष्ट्रपति के चुनाव में राजनीति के साथ गणित का भी खूब इस्तेमाल होता है. वोट सिर्फ वोट नहीं होता, उसका भी मूल्य होता है. फिर वरीयता का भी चक्कर होता है. इसीलिए आज दी लल्लनटॉप शो में हम आम जनता को ये समझाने की कोशिश करेंगे कि हमारे देश में राष्ट्रपति को कैसे चुना जाता है. ताकि आने वाले दिनों में राष्ट्रपति चुनाव की सरगर्मी के दौरान आप समझ सकें कि जो हो रहा है, वो क्यों हो रहा है और उसके पीछे कौनसा गणित काम कर रहा है - अंकगणित या फिर नेतानगरी वाला गणित.
आने वाले दिनों में चाय की टपरी से लेकर वॉट्सएप तक, इस बात पर सिर धुना ही जाएगा कि अगला राष्ट्रपति होगा कौन. और ये सवाल जायज़ भी है. लेकिन इस जायज़ सवाल पर आने से पहले ये बहुत ज़रूरी है कि हमारे यहां राष्ट्रपति चुनाव होता कैसे है? चलिए, शुरू से शुरू करते हैं -
राष्ट्रपति कब चुना जाता है?भारत में सारा काम संविधान के तहत होता है. और संविधान का अनुच्छेद 62 ये कहता है कि एक राष्ट्रपति का कार्यकाल खत्म होने से पहले अगले राष्ट्रपति के चुनाव की प्रक्रिया संपन्न हो जानी चाहिए. चूंकि राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद का कार्यकाल 24 जुलाई 2022 को खत्म हो रहा है, इसीलिए चुनाव भी इस तारीख से पहले करा लिया जाएगा.
ध्यान दीजिए, हम राष्ट्रपति के ''चुनाव'' की बात कर रहे हैं, तो ये काम भी हम बाकी चुनावों की तरह ही, केंद्रीय चुनाव आयोग के मार्फत करवाते हैं. इसीलिए आज आपने टेलिविज़न पर मुख्य चुनाव आयुक्त राजीव कुमार को देखा. आज आयोग ने एक प्रेस कॉन्फ्रेंस की, जिसमें ज़रूरी तारीखों का उल्लेख था. आप भी नोट कीजिए -
> राष्ट्रपति चुनाव की आधिकारिक अधिसूचना निकाली जाएगी 15 जून को. इस दिन से चुनाव के लिए नामांकन भरा जा सकेगा.
> 29 जून को नामांकन दाखिल करने की अंतिम तारीख होगी.
> 30 जून को नामांकनों की जांच होगी
> 2 जुलाई तक नामांकन वापिस लिए जा सकेंगे
> 18 जुलाई को वोटिंग होगी
> 21 जुलाई को मतों की गिनती होगी
आपने अक्सर सुना होगा, कि भारत और दूसरे कई संसदीय लोकतंत्रों में राष्ट्रपति का पद सेरेमोनियल है. वो राष्ट्राध्यक्ष होते हैं, सरकार के छोटे से छोटे और बड़े से बड़े काम उन्हीं के आदेश से चलते हैं, लेकिन उनके पास असल ताकत नहीं होती. वो बस चुनी हुई सरकार की सिफारिश पर अमल करते हैं. भारत में इक्का दुक्का परिस्थितियों को छोड़ दें, तो राष्ट्रपति अपने मत या अधिकार का इस्तेमाल नहीं करते. दो बड़ी मिसालें हम यहां बता देते हैं -
> देश के आम चुनावों में किसी भी दल या गठबंधन को पूर्ण बहुमत न मिले, तब राष्ट्रपति की भूमिका इस मामले में अहम हो जाती है कि वो सरकार बनाने का न्योता किसे और कब देते हैं
> कोई कानून दस्तखत के लिए उनके पास पहुंचे, तो वो उसे लंबित रख सकते हैं, वापस भी भेज सकते हैं. वैसे यहां भी कानून दूसरी बार राष्ट्रपति के पास भेज दिया जाए, तो उन्हें दस्तखत करने ही होते हैं.
राष्ट्रपति की इन गिनी चुनी शक्तियों के पीछे कारण है, उनका जनता द्वारा सीधे न चुना जाना. अब आप पूछ सकते हैं कि भारत तो हर चुनाव में आनंद लेने वाला देश है, तब एक खुला चुनाव राष्ट्रपति के लिए भी करवा देने से क्या फर्क पड़ जाएगा? तो इसका जवाब ये है, कि संविधान निर्माताओं ने भारत को एक संसदीय लोकतंत्र बनाया. और इसी हिसाब से शक्तियों का विभाजन किया गया है. ऐसी व्यवस्था में अगर राष्ट्राध्यक्ष के पद पर किसी व्यक्ति को सीधे जनता चुन लेगी, तो वो व्यक्ति कह सकता है कि मैं इकलौता व्यक्ति सबसे ज़्यादा लोगों की पसंद हूं. इसीलिए मैं सारे तंत्र से ऊपर हूं. मैं ही अपने आप में सरकार हूं.
इसकी मिसाल भी है. 1851 में लुई नेपोलियन ने यही किया था. ये नेपोलियन बोनापार्ट के भतीजे थे. और इन्हें जनता ने सीधे वोट से फ्रांस का राष्ट्रपति बनाया था. 1852 में लुई नेपोलियन को गद्दी छोड़नी थी क्योंकि तत्कालीन फ्रेंच व्यवस्था में वो दोबारा चुनाव नहीं लड़ सकते थे. इसीलिए उन्होंने 1851 के दिसंबर में ऐलान कर दिया कि चूंकि उन्हें जनता ने राष्ट्राध्यक्ष बनाया है, इसीलिए वो फ्रांस की संसद को भंग करते हैं. अगले साल उन्होंने खुद को फ्रांस का राजा घोषित कर दिया. माने फ्रेंच गणतंत्र समाप्त.
भारत भी एक गणतंत्र है. इसीलिए यहां भी किसी एक व्यक्ति को सर्वशक्तिशाली नहीं होने दिया जाता. अतः राष्ट्रपति का चुनाव सीधे जनता नहीं करती. व्यवस्था ये दी गई है कि राष्ट्रपति के लिए जनता की पसंद को चुने हुए जनप्रतिनिधि दर्ज कराएंगे.
राष्ट्रपति चुनाव में कौन वोट डाल सकता है?भारत में चुने हुए जनप्रतिनिधि राष्ट्रपति चुनाव में वोट डाल सकते हैं. लेकिन सभी नहीं. सिर्फ वही जनप्रतिनिधि ऐसा कर सकते हैं, जो राष्ट्रपति चुनाव के लिए तय इलेक्टोरल कॉलेज के सदस्य होते हैं. इलेक्टोरल कॉलेज में आते हैं सांसद और विधायक. संसद और विधानसभाओं के मनोनीत या नॉमिनेटेड सदस्यों को इलेक्टोरल कॉलेज में शामिल नहीं किया जाता, क्योंकि इन्हें जनता ने सीधे नहीं चुना होता. ये सरकार की सिफारिश पर राष्ट्रपति द्वारा सदन के सदस्य बनाए जाते हैं. इसके साथ ही MLC या विधान परिषदों के सदस्य भी इलेक्टोरल कॉलेज के सदस्य नहीं होते. कारण फिर वही - क्योंकि इन्हें सीधे जनता नहीं चुनती.
ऐसे में ये सवाल उठ सकता है कि अगर MLC को जनता नहीं चुनती, तो राज्यसभा सांसदों को भी तो जनता नहीं चुनती. तब उन्हें इलेक्टोरल कॉलेज का सदस्य कैसे मान लिया जाता है? लेकिन भारत की विधायी व्यवस्था में ये माना जाता है कि राज्यसभा सांसद केंद्र में राज्यों के प्रतिनिधि होते हैं. इसीलिए वो राष्ट्रपति के चुनाव में वोट डाल सकते हैं. बशर्ते वो विधानसभाओं द्वारा चुने गए हों, मनोनीत न हों.
क्या सबके वोट की कीमत बराबर होती है?भारत में जनसंख्या का घनत्व इलाके के हिसाब से घटता-बढ़ता रहता है. मिसाल के लिए गोवा में एक विधानसभा क्षेत्र में अमूमन 22 से 25 हज़ार वोटर होते हैं. वहीं उत्तर प्रदेश में एक विधानसभा क्षेत्र में 3 या 4 लाख से ऊपर वोटर होना बहुत ही आम बात है. इसीलिए इलेक्टोरल कॉलेज में सांसदों और अलग अलग राज्यों के विधायकों के वोट की कीमत अलग अलग होती है. ताकि देश के हर नागरिक की पसंद बराबरी से दर्ज हो. सांसद और विधायक के वोट की कीमत के लिए आधार बनाया जाता है राज्य की जनसंख्या को. फिलहाल 1971 की जनगणना का इस्तेमाल हो रहा है. 2026 तक यही सिस्टम चलेगा.
विधायक के वोट का मूल्य ऐसे मालूम किया जाता है -
सूबे की जनसंख्या को विधायकों की संख्या से भाग देना है. तक जो संख्या मिले, उसे फिर 1000 से भाग देना है. फॉर्मूला आपको स्क्रीन पर नज़र आ रहा है. मिसाल के लिए, उत्तर प्रदेश की जनसंख्या 1971 में थी 8 करोड़, 38 लाख, 49 हज़ार 905. उत्तर प्रदेश विधानसभा में विधायकों की संख्या है 403. तो हमारे फॉर्मूले के हिसाब से उत्तर प्रदेश के एक विधायक के वोट की कीमत होगी 208. अब चूंकि हर विधायक के वोट का मूल्य 208 है, तो इस हिसाब से उत्तर प्रदेश की तरफ से कुल 83 हज़ार 824 वोट डाले जाएंगे.
जैसा कि लाज़मी है, सबसे वज़नी वोट यूपी के विधायक का ही होता है. सबसे कम मूल्य होता है सिक्किम के विधायक का - महज़ 7.
अब आते हैं सांसदों के वोट के मूल्य पर -
इसके लिए सभी राज्यों के विधायकों के वोट की कुल कीमत को, लोकसभा और राज्यसभा के कुल चुने हुए सांसदों की संख्या से भाग दे दिया जाता है. 1997 से ये संख्या थी 708. लेकिन चूंकि इस बार जम्मू कश्मीर में पूर्ववर्ती विधानसभा नहीं है, इसीलिए एक सांसद के वोट की कीमत 700 हो जाएगी. लेकिन इसका मतलब ये नहीं है कि राष्ट्रपति चुनाव में जम्मू कश्मीर या लद्दाख की राय दर्ज नहीं होगी. यहां से आए सांसद अब भी संसद में हैं. और ये राष्ट्रपति चुनाव में वोट भी देंगे.
एक बात जान लीजिए. ये खुला चुनाव नहीं है. लेकिन इसमें संसद या विधानसभा की तरह पार्टियां अपनी मर्ज़ी चलाने के लिए व्हिप जारी नहीं कर सकतीं. माने विधायकों या सांसदों को बाध्य नहीं कर सकतीं कि हमारे कहे के मुताबिक ही वोट दो.
वरीयता का चक्कर क्या है?राष्ट्रपति के चुनाव में वोट डालते वक्त मतदाता वरीयता दे सकता है. मतलब चॉइस. मतदाता वोट देते वक्त उम्मीदवार के सामने 1 या 2 लिखता है. जब मतों की गिनती होती है, तब सबसे पहले प्रथम वरीयता के वोट गिने जाते हैं. अगर ये कुल मतों के 50 फीसद से ज़्यादा नहीं होते, तब द्वितीय वरीयता के वोट गिने जाते हैं. इसमें जिसके सबसे ज़्यादा वोट हों, वो उम्मीदवार जीत जाता है. 1969 में वीवी गिरी के चुनाव में फैसला दूसरी वरीयता के वोट की गिनती के बाद आया था.
यहां तक आते आते आप समझ गए हैं कि चुनाव होता कैसे है. अब आते हैं इस सवाल पर चुनाव होगा किसका. इसी सवाल को दूसरी तरह से पूछने का तरीका है- चुनाव किसकी मर्ज़ी से होगा.
भारत के संविधान का अनुच्छेद 58 कहता है कि कम से कम 35 साल की उम्र का कोई भी भारतीय नागरिक राष्ट्रपति बन सकता है. बशर्ते वो चुनाव के लिए पात्र हो. ये पात्रता वही है, जो लोकसभा चुनाव के लिए होती है. मसलन किसी मामले में सज़ायाफ्ता न होना इत्यादि.
शुरुआत में हमने आपको बता दिया था कि राष्ट्रपति का पद सेरेमॉनियल होता है. लेकिन पॉलिटिकल मैसेजिंग की दुनिया में राष्ट्रपति पद का महत्व बहुत होता है. इसीलिए कौनसा दल या गठबंधन अपने उम्मीदवार को देश के सर्वोच्च संवैधानिक पद पर बैठा पाता है, इसपर सबकी नज़र रहती है. भाजपा आज केंद्र और ज़्यादातर राज्यों में सत्तारुढ़ है. लाज़मी है कि पार्टी अपनी पसंद के उम्मीदवार को राष्ट्रपति चुनाव जिताना चाहेगी. फिर दूसरी तरफ विपक्षी एकता की थ्योरी है. जो हर चुनाव से पहले सिर उठा लेती है. अगर विपक्ष वाकई भाजपा को एक साथ टक्कर देना चाहता है, तो राष्ट्रपति चुनाव इस एकता के लिटमस टेस्ट की तरह हो सकता है.
अब आते हैं हालिया गणित पर.
इंडिया टुडे के लिए लिखे अपने विश्लेषण में राहुल श्रीवास्तव ने इस गणित को बड़े दिलचस्प ढंग से समझाया है. राहुल लिखते हैं कि 2017 में जब भाजपा ने रामनाथ कोविंद को राष्ट्रपति पद के लिए उम्मीदवार बनाया था, तब पार्टी केंद्र के साथ-साथ NDA की शक्ल में 21 राज्यों पर राज कर रही थी. इन राज्यों की आबादी भारत की आबादी के कुल 70 फीसद के बराबर थी. इसीलिए किसी को हैरानी नहीं हुई, जब कोविंद को 65.65 फीसदी मत मिले और विपक्ष की कैंडिडेट मीरा कुमार को 34.35 फीसदी.
2022 में भाजपा के सांसद लोक सभा और राज्यसभा में तो बढ़ गए हैं, लेकिन राज्यों में पार्टी कुछ सिमटी है. अब NDA 17 राज्यों में सरकार चला रहा है, जिनकी आबादी देश की आबादी के 49.6 फीसदी के बराबर बैठती है. भाजपा गठबंधन अब महाराष्ट्र, तमिलनाडु, राजस्थान, छत्तीसगढ़ और झारखंड जैसे राज्यों में सत्ता से बाहर है. तेलुगू देसम पार्टी, शिवसेना और अकाली दल जैसी पार्टियों ने भी भाजपा से किनारा किया है. वैसे यहां ये बात भी दर्ज की जाए कि अगर 2017 से 2022 के बीच भाजपा राज्यों में कुछ कमज़ोर हुई है, तो केंद्र के दोनों सदनों में मज़बूत भी हुई है.
राष्ट्रपति चुनाव के जटिल गणित को ध्यान में रखते हुए अप्रैल 2022 में स्थिति कुछ यूं थी -
> संसद और राज्यों को मिलाकर भाजपा के पास कुल 48.9 फीसदी मत थे
> और सभी विपक्षी पार्टियों के पास मिलाकर 51.1 फीसदी मत थे.
इस गणित में कुछ बदलाव 10 जून को होगा, जब 57 सीटों पर राज्यसभा सांसद चुने जाएंगे. दर्शक जानते ही हैं कि 41 सीटों पर सांसद निर्विरोध चुने जा चुके हैं. वोटिंग की ज़रूरत सिर्फ 16 सीटों पर पड़ रही है, जो कि हरियाणा, महाराष्ट्र, राजस्थान और कर्नाटक से हैं. भाजपा के 24 सांसद रिटायर हुए थे. इनकी जगह पार्टी 14 सांसदों को निर्विरोध जिता चुकी है. जिन 16 पर चुनाव होने वाला है, उनमें से पार्टी 6 और जीत सकती है. कांग्रेस के 7 सांसद रिटायर हुए थे. इनकी जगह पार्टी 4 सांसदों को निर्विरोध जिता चुकी है. पार्टी दावा कर रही है कि 4 सांसद वो और जिता लेगी, और संख्या 6 तक जा सकती है. आम आदमी पार्टी के सांसद 3 से 10 हो गए हैं. और YSRCP के 6 से 9 होना तय हैं.
इसका मतलब राज्यसभा में गिनती में उठापटक होने तो वाली है. लेकिन अगर हम मुकाबला भाजपा वर्सेज़ अदर्स की तरह देखें, तो हेराफेरी के बावजूद मुकाबले का चरित्र बहुत ज़्यादा नहीं बदलेगा. भाजपा राज्यसभा चुनाव के नतीजे आने के बाद भी न सिर्फ सबसे ताकतवर पार्टी बनी रहेगी, बल्कि ये भी तय है कि उसकी ताकत इलेक्टोरल कॉलेज के लिए मान्य 50 फीसद मतों के आसपास ही रहेगी. विपक्ष के पास 50 फीसदी मत से ज़्याद तो होंगे, लेकिन क्या वो एक छाते के नीचे इकट्ठा हो पाएंगे, इसपर सवालिया निशान लगा हुआ है.
कागज़ पर एकमुश्त विपक्ष भले चुनाव जीतने के लिए ज़रूरी आंकड़े रखे, लेकिन हमारे सामने ऐसे कई उदाहरण हैं, जब YSRCP, BJD या TRS जैसे दलों ने संसद में भाजपा का साथ दिया हो. TRS ने बीते दिनों भाजपा और नरेंद्र मोदी सरकार को लगातार निशाने पर लिया है. ये देखना होगा कि क्या पार्टी यही रुख राष्ट्रपति चुनाव तक कायम रखती है या नहीं. अगर इन तीन चार दलों को छोड़ दिया जाए, तो हमारे सामने कांग्रेस और तृणमूल जैसे दल बचते हैं, जो भाजपा गठबंध की राय से इत्तेफाकी नहीं रखेंगे. लेकिन इन दलों की गोलबंदी में धुरी कौन बनेगा, और नारा क्या होगा, अभी ये कोई नहीं जानता.
ये समय, देश की राजनीति में मूलभूत बदलावों का समय है. भारतीय जनता पार्टी 2024 को लेकर कितनी गंभीर है, ये किसी से छिपा नहीं है. और इन तैयारियों में एक ऐसे राष्ट्रपति का चुनाव भी शामिल है, जिसके साथ सरकार को काम करने में आसानी रहे. क्योंकि राष्ट्रपति चुनी हुई सरकार का काम रोक तो नहीं सकते, लेकिन फाइलें लौटाकर, सवाल पूछकर सरकार के लिए असहजता पैदा कर सकते हैं. अगर मान लिया जाए कि भाजपा अपने पुख्ता गणित को और पुख्ता ही करेगी, तो सारा ध्यान इस बात पर चला जाएगा कि पार्टी 2022 के राष्ट्रपति चुनाव में उम्मीदवार को उतारते हुए कौनसी मैसेजिंग पर ध्यान देती है. आदिवासी, ओबीसी, मुस्लिम और महिला. इन शब्दों का अर्थ एक परोक्ष चुनाव से कहीं आगे तक होता है. रही बात विपक्ष की मैसेजिंग की, तो उसके पास 2024 से पहले ये साबित करने का आखिरी मौका है कि भाजपा का राजनैतिक विकल्प थ्योरी के साथ साथ प्रैक्टिकल में भी नज़र आ सकता है.