The Lallantop
Advertisement

मोरबी पुल के टूटने के लिए कौन है जिम्मेदार?

करीब सात महीनों से मरम्मत के लिए बंद था पुल, पांच दिन पहले ही जनता के लिए खोला गया था.

Advertisement
morbi-bridge-collapse
हादसे के बाद पुल की तस्वीर. (आजतक)
pic
निखिल
31 अक्तूबर 2022 (Updated: 31 अक्तूबर 2022, 11:22 PM IST) कॉमेंट्स
font-size
Small
Medium
Large
font-size
Small
Medium
Large
whatsapp share

गुजरात के काठियावाड़ में पड़ने वाले मोरबी का नाम एक वक्त मोरवी था. ज़िला प्रशासन की वेबसाइट पर मोरवी की संपन्नता का बखान मिलता है. बताते हैं कि एक वक्त यहां घी और दूध की नदियां बहती थीं. तुर्क से लेकर मुग़ल और राजपूतों से लेकर अंग्रज़ों तक, जो ताकत अपने उरूज पर रही, उसने मोरबी पर शासन किया. और आखिर में आए ठाकोर वंश के राजा. भारत की स्वतंत्रता के वक्त मोरबी पर लखधीरजी ठाकोर का राज था. उनके ज़माने में मोरबी ने बहुत विकास हुआ था. बिजलीघर बना, टेलिफोन एक्सचेंज बना. लखधीरजी ठाकोर ने मंदिर भी बनवाए और इंजीनियरिंग कॉलेज भी खुलवाए. लेकिन मोरबी में एक पते का काम लखधीरजी ठाकोर से पहले भी हुआ था.

तब राजा थे सर वाघजी ठाकोर. जब 20 वीं सदी की शुरुआत हो रही थी, तब शहर के बीच से गुज़रने वाली मच्छू नदी पर एक पुल बनाया गया. 233 मीटर लंबे इस पुल में सिर्फ दो खंभे थे. इनपर से दो भारी भरकम तार लटकाए गए. और फिर इन तारों से पुल के उस हिस्से को लटकाया गया, जिसपर लोगों को चलना था. ये एक ससपेंशन ब्रिज था, जिसे हम सादी भाषा में झूला पुल कह देते हैं. बताते हैं कि यूरोप की अत्याधुनिक तकनीक से इस पुल का निर्माण किया गया था. लोग इस पुल को देखते और हैरत करते. क्योंकि तब ऐसे पुल विरले ही थे, जिनके बीच में कोई खंभा नहीं होता था. और जो हवा में हौले हौले झूलते भी थे. लेकिन कभी टूटते नहीं थे. वक्त के साथ ये मोरबी के लड़कों का शगल बन गया था. वो पुल पर जाते, और उसे हिलाते. वैसे ही, जैसे कभी-कभी लोग ऋषिकेश के लक्षमण झूला को हिलाते हैं.

इसीलिए 30 अक्टूबर की देर शाम जब मोरबी का पुल झूलते-झूलते गिर गया, तो किसी को यकीन नहीं हुआ. मरने वालों का सरकारी आंकड़ा इस बुलेटिन की तैयारी तक 134 था. लेकिन कुछ जगह संख्या 141 भी बताई जा रही है. शुरुआत में लगा कि छठ के मौके पर लोग वहां जुटे थे. दी लल्लनटॉप ने भी आपको यही बताया था. लेकिन फिर ये साफ हुआ कि छठ का मौका तो था, लेकिन लोग वहां छठ के लिए इकट्ठा नहीं हुए थे. मरम्मत के बाद महज़ पांच दिन पहले ये पुल खुला था. और 30 अक्टूबर का दिन त्योहारी सीज़न की आखिरी छुट्टी का दिन था. सैंकड़ों लोग पुल पर इकट्ठा थे. कोई रील बना रहा था, तो कोई तस्वीरें खींच रहा था. देखते-देखते सभी नदी में समा गए. ये दूसरी बार था, जब मच्छू नदी के पानी ने मोरबी वालों की जान ली थी. 1979 में इसी तरह पूरा मोरबी पानी में समा गया था. तब लगातार हो रही बारिश के चलते मच्छू नदी पर बना बांध ढह गया था. मरने वालों का आंकड़ा 2 हज़ार से 25 हज़ार तक बताया जाता है.

30 अक्टूबर की रात से लेकर अब तक आपको मोरबी हादसे के बारे में ढेर सारी जानकारी मिल चुकी है. इसीलिए दोहराव को टालने के लिए हम आपको संक्षेप में सारी घटनाएं बताते हैं. इसके बाद आएंगे सवालों पर. 30 अक्टूबर की शाम को जैसे ही पुल गिरने की खबर आई, गांधीनगर से लेकर दिल्ली तक सरकारें एक्शन मोड में आईं. हादसा गंभीर है, इसका अंदाज़ा सभी को था, इसीलिए रात में ही राजकोट समेत इलाके के सारे बड़े शहरों से फायर ब्रिगेड और स्टेट डिज़ास्टर रिस्पॉन्स फोर्स SDRF की टुकड़ियां मौके के लिए रवाना कर दी गईं. साथ में NDRF, और सेना के तीनों अंगों की टुकड़ियां भी पहुंची और राहत-बचाव का काम शुरू किया गया. कुछ लोग पुल के उस हिस्से पर फंसे हुए थे, जो पूरी तरह पानी में नहीं गिरा था. सबसे पहले इन्हें बचाया गया. इसके बाद राज्य और केंद्र की एजेंसियों का फोकस पूरी तरह पानी पर शिफ्ट हो गया. रात को ही गुजरात के मुख्यमंत्री भूपेंद्र पटेल समेत राज्य सरकार के तमाम बड़े मंत्री और अधिकारी मोरबी आ गए. जैसे-जैसे रात बीतती गई, अस्पताल में घायलों और मृतकों का अंबार लगने लगा.

फिर आया 31 अक्टूबर माने आज का दिन. राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री, गृहमंत्री और तमाम गणमान्य नागरिकों की ओर से संवेदना संदेश आने लगे. आज सरदार वल्लभ भाई पटेल का जन्मदिन है. इस मौके पर प्रधानमंत्री केवड़िया स्थित स्टैचू ऑफ यूनिटी पर पहुंचे. सरदार के संदेश को याद करते हुए उन्होंने मोरबी हादसे पर दुख प्रकट किया. प्रधानमंत्री कार्यालय की ओर से ऐलान किया गया मृतकों के परिवार जनों को प्रधानमंत्री राष्ट्रीय राहत कोष से 2 लाख और घायलों को 50 हज़ार की मदद दी जाएगी. आज प्रधामंत्री गुजरात के बनासकांठा भी पहुंचे, जहां विकास कार्यों के उद्घाटन और शिलान्यास के बाद उन्होंने लोगों को संबोधित किया. यहां वो मोरबी हादसे की बात करते हुए भावुक हो गए. खबर है कि प्रधानमंत्री 1 नवंबर को मोरबी जाकर स्थिति का जायज़ा ले सकते हैं. चूंकि हादसा काफी बड़ा है, गुजरात सरकार ने इसकी जांच पांच सदस्यों वाली स्पेशल इंवेस्टिगेशन टीम SIT को दे दी है.

मरम्मत के पांच दिन बाद कोई पुल गिर जाए तो सारा ध्यान उस कंपनी की तरफ जाना ही था, जिसने ये काम किया. इसी साल मार्च में मोरबी के ओरेवा ग्रुप को पुल का ठेका दिया गया था. ओरेवा ग्रुप को ज़्यादातर लोग अजंता घड़ियों के लिए जानते हैं. वैसे ये कंपनी कैलकुलेटर, सोलर पैनल और ई-बाइक्स भी बनाती है. ये कंपनी दिवंगत ओधवजी पटेल ने शुरू की थी. घड़ियों के लिए मशहूर मोरबी में ओधवजी को फादर ऑफ वॉल क्लॉक्स भी कहा जाता था. 2012 में ओधवजी के देहांत के बाद कंपनी उनके बेटे जयसुख ओधवजी के हाथ में आई. और उन्हीं के नेतृत्व में कंपनी को मार्च वाला ठेका मिला था.

इस ठेके के तहत पुल का स्वामित्व मोरबी नगर पालिका के पास ही रहा, लेकिन 15 साल के लिए पुल के मेंटेनेंस और संचालन का काम ओरेवा ग्रुप के पास चला गया. मार्च में ही पुल पर आवाजाही बंद कर दी गई और मेंटेनेंस का काम शुरू हुआ. तकरीबन 7 महीने बाद 26 अक्टूबर को गुजराती नववर्ष के मौके पर पुल को लोगों के लिए एक बार फिर खोला गया. इससे पहले जयसुख ओधवजी ने एक प्रेस कॉन्फ्रेंस की थी. तब एक पत्रकार ने बड़े पते का सवाल किया था. उन्होंने जयसुख से पूछा कि पुल की मरम्मत में कितना खर्च आया, किस सामग्री का इस्तेमाल हुआ और ये पुल कितने साल चलेगा.

इसका जवाब देते हुए जयसुख क्या कहा था कि 100 परसेंट रीनोवेशन हुआ है. मानक के अनुसार सामान का इस्तेमाल हुआ. काम करवाया गया अनुभवी लोगों से. और पुल को कम से कम 8 साल चलना था. तब ये पांच दिनों में क्यों गिर गया? ये सब इसलिए भी चौंकाने वाला है, क्योंकि इंडिया टुडे पर छपी तीर्थो बैनर्जी की रिपोर्ट के मुताबिक झूला पुल का ठेका इसी कंपनी के पास साल 2008 से लेकर 2018 तक था. इस 10 साल के कॉन्ट्रैक्ट के बाद कुछ साल ठेका किसी को नहीं दिया गया. मार्च 2022 में ठेका फिर ओरेवा के पास चला गया. इस ठेके के लिए शर्तें जनवरी 2020 में तय हुई थीं. तब मोरबी कलेक्टर के साथ हुई एक बैठक में तय किया गया था कि इस पैदल पुल पर बारी-बारी से लोगों को जाने दिया जाएगा. एक बार में 25 से 30. इसके लिए टिकट लगेगा. बालिग़ लोगों के लिए 17 रुपए और बच्चों के लिए 15 रुपए.

लेकिन हादसे के दौरान पुल पर मौजूद लोगों की संख्या 300 से भी ज़्यादा बताई जाती है. ये दावा भी किया जा रहा है कि 17 रुपए के टिकट के लिए 50 रुपए तक वसूले जा रहे थे. ऐसे में ये सवाल उठता है कि क्या मुनाफे के लिए भीड़ को बढ़ने दिया गया? आखिर कंपनी ने मोरबी नगरपालिका के अधिकारियों से सुरक्षा संबंधी अनुमति लिए बिना पुल को चालू क्यों किया? क्या मुनाफे का लालच हावी हो गया था?

SIT इन सवालों के जवाब ज़रूर तलाशेगी. फिलहाल खबर ये है कि कंपनी के खिलाफ मामला दर्ज कर लिया गया है. और 9 लोगों को गिरफ्तार किया गया है. जिनमें मेंटेनेंस से जुड़े दो डायरेक्टर्स के साथ वो तीन सिक्योरिटी गार्ड भी शामिल हैं, जिनका काम पुल पर भीड़ को रोकना था.

कंपनी ने पुल पर जाने के लिए जो टिकट जारी किया था, उसपर साफ लिखा था कि जांच के लिए टिकट दिखाना होगा. और अगर कोई व्यक्ति पुल को नुकसान पहुंचाता है, तो उसके खिलाफ कार्रवाई भी होगी. लेकिन इन नियमों को लागू करवाने के लिए कोई मौजूद नहीं था. ये हम अपने से नहीं कह रहे हैं. हादसे से पहले रौनक मनियार पुल पर गए थे. पुल पर इंतज़ाम को लेकर उनका कहना है कि वे 30 अक्टूबर की शाम करीब साढ़े 4 बजे पुल पर घूमने के लिए गए थे. उन्होंने वहां देखा कि पुलिस या किसी सुरक्षा बाल से वहां कोई मौजूद नहीं था. लोग पुल को हिला रहे थे. यहां तक कि कंपनी की ओर से भी वहां कोई चौकीदार भी मौजूद नहीं था.  

इसका मतलब कंपनी की लापरवाही तो थी. लेकिन प्रशासन की ओर से भी क्राउड कंट्रोल का कोई खास इंतज़ाम नहीं किया गया था. निजी कंपनी को ठेका दे देने से सरकार बरी नहीं हो जाती. निजी कंपनी के काम की निगरानी भी स्थानीय प्रशासन और राज्य सरकार की ही ज़िम्मेदारी है.

अब आते हैं इस खबर के एक दूसरे पहलू पर. सूबे में नवंबर महीने में चुनाव होने वाले हैं. चुनाव आयोग की ओर से आधिकारिक ऐलान चंद दिनों में हो जाएगा. इसीलिए प्रधानमंत्री मोदी समेत भाजपा के तमाम बड़े नेता सूबे का दौरा कर रहे हैं. धड़ाधड़ शिलान्यास और उद्घाटन किए जा रहे हैं. ऐसे में पांच दिन पहले तैयार हुआ पुल गिर गया तो सोशल मीडिया की दुनिया में गुजरात मॉडल पर तंज़ कसा जाने लगा. जैसा कि अपेक्षित था, भाजपा की ओर से डैमेज कंट्रोल की कोशिश की गई, लेकिन ये करते हुए खुद प्रधानमंत्री की सलाह को भुला दिया गया.  28 अक्टूबर को ही गृहमंत्रियों के चिंतन शिविर को संबोधित करते हुए प्रधानमंत्री ने फेक न्यूज़ को लेकर चिंता जताई थी. उन्होंने कहा था,

"एक छोटी सी फेक न्यूज पूरे देश में बवाल मचा सकती है. किसी भी जानकारी को आगे भेजने से दस बार सोचें, जानकारी कितनी सही है इसकी जांच करें. हमें लोगों को इस बारे में जागरूक करना होगा."  

प्रधानमंत्री ने साफ कहा था कि कोई वीडियो फॉर्वर्ड करने से पहले विचार किया जाए. उसकी पुष्टि की जाए. लेकिन भाजपा से जुड़े कई नेताओं - मिसाल के लिए प्रीती गांधी, अरुण यादव आदि ने एक वीडियो जारी करके दावा कर दिया कि हादसे से पहले कुछ युवाओं ने पुल को हिलाया. अरुण यादव ने तो ये भी दावा कर दिया कि ये गुजरात को बदनाम करने की साज़िश लगती है. इसी तरह के दावे कई लोगों ने किये थे, हमने आपको उन दो लोगों के नाम बताए, जिनके अकाउंट वेरिफाइड हैं, साथ में फॉलोवर्स की बड़ी संख्या भी.  

इस दावे का विस्तृत फैक्टचेक अलग से एक शो का विषय हो सकता है. इंडिया टुडे फैक्ट चेक के मुताबिक जो वीडियो शेयर किया गया, वो कुछ दिन पहले का हो सकता है. लेकिन वो हादसे से ऐन पहले का वीडियो नहीं है. कुछ बातें आम नज़रें भी पकड़ सकती हैं.

घटना रात में हुई और वीडियो में काफी उजाला नज़र आ रहा है. फिर पुल के नीचे नदी जलकुंभी से पटी नज़र आ रही थी. जबकि हादसे के वीडियो में साफ नज़र आता है कि पुल साफ पानी में गिरा. ये सोचने वाली बात है कि जिन लोगों ने वीडियो को हादसे से पहले का बताया, उनके दिमाग में ये बात क्यों नहीं आई? और जब इस बात को बार-बार रेखांकित किया जाने लगा, तो इन लोगों ने वीडियो डिलीट क्यों नहीं किया. जल्दबाज़ी में चूक होना एक बात है. लेकिन गलत बयानी पर कायम रहना फेक न्यूज़ को ठेलना क्यों न माना जाए?

यही बात उन समाचार संस्थानों पर भी लागू होती है, जिन्होंने इसी वीडियो को हादसे से पहले का बताकर ट्वीट कर दिया था. बाद में इनमें से कई ट्वीट्स डिलीट भी किए गए.

क्या झूला पुल को इस तरह से हिला देने भर से वो टूट सकता है? हमने ये सवाल ख्यात आर्किटेक्ट दिक्शू कुकरेजा से किया. वो CP कुकरेजा आर्किटेक्ट्स के मैनेजिंग प्रिंसिपल हैं. और वो गांधीनगर रेलवे स्टेशन और इंडिया इंटरनैशनल कंवेंशन सेंटर जैसे नामी प्रॉजेक्टस से जुड़े रहे हैं. उनका कहना है कि इस तरह के पुल बेहद मजबूत होते हैं. सिर्फ कुछ लोगों के हिलाने से केबल पुल नहीं टूटता है. इस तरह के पुल आंधी और तूफान को भी झेल सकते हैं. पुल के टूटने का कारण जानने के लिए जांच होनी चाहिए, केवल अंदाजा लगा कर कुछ भी कह देना गलत होगा.

विशेषज्ञ भी यही कहते हैं कि जल्दबाज़ी में फैसला सुनाने से बेहतर है कि जांच रिपोर्ट का इंतज़ार किया जाए. हमने उनसे ये भी पूछा कि क्या ससपेंशन ब्रिज सुरक्षित होते हैं? आर्किटेक्ट दिक्शू कुकरेजा का कहना कि ससपेंशन ब्रिज की मजबूती पर सवाल नहीं उठाना चाहिए, इस तरह के पुल काफी मजबूत होते हैं. जो पुल टूटा है वो करीब 100 साल पुराना है. कुकरेजा ने दी लल्लनटॉप से ये भी कहा कि ऐसे निर्माण या मेंटेनेंस के वक्त अलग-अलग चरण पर सरकार की तरफ से निगरानी की जाती है. लोहे, तार से लेकर नट बोल्ट तक कौनसे मानक के होंगे, ये पहले से तय है. ऐसे में किसी पुल का यूं गिर जाना कई स्तरों पर प्रश्न तो खड़े करता ही है. जिनके जवाब मिलना बहुत ज़रूरी है. 

देखिए वीडियो: मोरबी पुल के टूटने के लिए कौन है जिम्मेदार? सरकार या कंपनी, क्या है पूरा सच?

Subscribe

to our Newsletter

NOTE: By entering your email ID, you authorise thelallantop.com to send newsletters to your email.

Advertisement