Where is Asaduddin Owaisi in Muslim politics of Bihar
Where is Asaduddin Owaisi in Muslim politics of Bihar
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आजादी के बाद से बिहार का मुस्लिम समाज परंपरागत रूप से कांग्रेस के साथ जुड़ा रहा था. 70 के दशक के मध्य तक कांग्रेस और मुसलमानों के बीच सब कुछ ठीक-ठाक चलता रहा, लेकिन 1975 की इमरजेंसी और उसमें संजय गांधी द्वारा चलाए गए नसबंदी कार्यक्रम ने पहली बार मुस्लिम समाज को कांग्रेस से दूर कर दिया. इसका नतीजा यह हुआ कि 1977 के लोकसभा और विधानसभा चुनावों में कांग्रेस की बुरी तरह हार हो गई. तब जनता पार्टी के नाम से एकजुट विपक्ष के एक नारे ने मुस्लिम समाज को बहुत आकर्षित किया था.
इंदिरा हटाओ, इंद्री बचाओ
'इंद्री' पुरुषों के प्रजनन अंग से जुड़े एक हिस्से को कहते हैं, जिसे परिवार नियोजन के लिए ऑपरेशन से जुड़ी प्रक्रिया के दौरान निष्क्रिय कर दिया जाता है.
इन चुनावों में पहली बार कांग्रेस की हार हुई. इस हार में मुस्लिम समाज का बड़ा योगदान रहा था. इस चुनाव के नतीजों ने सामाजिक स्तर पर भी मुस्लिम समाज के भीतर एक परिवर्तन का संकेत दिया. कांग्रेस के जमाने में बिहार की मुस्लिम लीडरशिप पर अगड़े वर्ग के मुस्लिम नेताओं का ही दबदबा था. लेकिन 1977 के चुनावी नतीजों ने मुस्लिम समाज के पिछड़े नेतृत्व को सतही तौर पर ही सही, लेकिन आगे आने का मौका दिया. 1977 के पहले तक सिर्फ पठान, शेख, सैयद जैसी अगड़ी मुस्लिम जातियां ही सियासत में मुसलमानों का प्रतिनिधित्व करती थीं, जबकि राज्य में कुल मुस्लिम आबादी की लगभग दो-तिहाई पिछड़े वर्ग के मुसलमानों की है.

भारत की पूर्व पीएम इंदिरा गांधी (फोटो: पीटीआई)
'जनता पार्टी प्रयोग' के दौर में पहली बार पसमांदा मुसलमानों (बिहार में पिछड़े वर्ग के मुसलमानों के लिए 'पसमांदा मुसलमान' शब्द का प्रयोग किया जाता है) का छिट-पुट नेतृत्व दिखना शुरू हुआ. 1978 में जब कर्पूरी ठाकुर की जनता सरकार ने मुंगेरी लाल कमीशन की सिफारिश को स्वीकार करते हुए पिछड़े वर्ग को दो भागों (पिछड़ा और अति पिछड़ा वर्ग) में बांटकर 20 प्रतिशत आरक्षण देने की घोषणा की, तो इसका असर सिर्फ बहुसंख्यक हिंदू समाज पर ही नहीं हुआ, बल्कि अल्पसंख्यक मुस्लिम समाज के अंदर भी वर्गीय आधार पर गोलबंदी दिखनी शुरू हुई. क्योंकि इस आरक्षण से मुसलमानों के बीच भी पिछड़ी और अति पिछड़ी जातियों की पहचान सुनिश्चित कर उन्हें आरक्षण का लाभ दिया गया था.
इस आरक्षण से आहत होकर सवर्ण हिंदुओं और सवर्ण मुसलमानों ने पुनः कांग्रेस की ओर रुख कर लिया. बेलछी कांड के बाद दलित वर्ग भी कांग्रेस के साथ खड़ा हो ही गया था. इस दलित-सवर्ण एकता का नतीजा यह हुआ कि 1980 के चुनावों में कांग्रेस पुनः सत्ता में आ गई. उस चुनाव में पिछड़े वर्ग (जिसमें सभी धर्मों के पिछड़े वर्ग के वोटर शामिल थे) का वोट लोकदल और जनता पार्टी के बीच बिखर गया था. सत्ता में आते ही कांग्रेस के मुख्यमंत्री जगन्नाथ मिश्र ने मुसलमानों के वोट के महत्व को समझते हुए उर्दू को राज्य की द्वितीय राजभाषा का दर्जा प्रदान कर दिया. साथ ही मदरसों का अनुदान बढ़ा दिया, जिससे पिछड़े वर्ग के मुसलमानों का बड़ा तबका भी कांग्रेस के साथ हो गया और अगले लगभग एक दशक तक कांग्रेस के साथ ही रहा.
इस बीच एक चीज जो समाजशास्त्रियों द्वारा महसूस की जाने लगी वह थी- राज्य के पिछड़े मुसलमानों की स्थिति में कोई उल्लेखनीय सुधार न होने के बावजूद इस तबके में राजनीतिक चेतना का विकास. अब वे सवर्ण मुस्लिम लीडरशिप का पिछलग्गू बन कर रहने के लिए तैयार नहीं थे. लेकिन जनता पार्टी और लोक दल के कई गुटों में बंट जाने तथा पुराने जनसंघ के नए अवतार भारतीय जनता पार्टी का प्रभाव बढ़ने के संकेत मिलने के कारण कांग्रेस के साथ रहने को ही विवश थे. कांग्रेस का तत्कालीन नेतृत्व मुसलमानों के बीच हो रहे इस प्रकार के बदलावों को भांपने में नाकाम रहा था. साथ ही इस दौर की घटनाओं- शाहबानो मामला, बाबरी मस्जिद इत्यादि ने मुसलमानों को कांग्रेस के साथ अपने संबंधों पर पुनर्विचार के लिए मजबूर कर दिया. कांग्रेस से मुसलमानों के फिर से अलगाव की शुरुआत 1989 की घटनाओं से हुई. 1989 में जहां केन्द्र की राजीव गांधी सरकार ने अयोध्या में राम मंदिर बनाने के लिए शिलापूजन की अनुमति दे दी, वहीं बिहार के भागलपुर में सांप्रदायिक दंगा भड़क गया, जिसे रोकने में सतेन्द्र नारायण सिंह की कांग्रेसी सरकार नाकाम रही. इन दो घटनाओं के कारण बिहार के मुसलमानों का कांग्रेस से मोहभंग हो गया.
1990 में मंडल कमीशन के द्वारा पिछड़े वर्गों को देशव्यापी आरक्षण दिए जाने और लालू यादव जैसे मजबूत पिछड़े वर्ग के नेता के हाथ में बिहार की सत्ता की बागडोर चली जाने के कारण राज्य के पिछड़े मुसलमानों को कांग्रेस का एक मजबूत विकल्प मिल गया. उधर जनता दल और भाजपा ने कांग्रेस के सवर्ण वोटरों का बड़ा हिस्सा पहले ही हथिया लिया था. 1990 में राम मंदिर आंदोलन के नायक लालकृष्ण आडवाणी को गिरफ्तार कर लालू यादव बिहार के मुसलमानों के एकछत्र नेता बन गए. पिछड़े वर्ग से आने वाले गुलाम सरवर लालू के पहले कार्यकाल में विधानसभा के अध्यक्ष बनाए गए थे. लालू मुसलमानों की रहनुमाई का दावा जरूर करते रहे, लेकिन उन्होंने मुसलमानों को सिर्फ वोटबैंक बना कर रखा था.
इसके बाद लगभग 20 वर्षों तक राज्य का मुस्लिम समाज लालू यादव के साथ रहा. 2005 के विधानसभा चुनाव में जब बिहार की सत्ता लालू परिवार के हाथ से फिसलकर जदयू-भाजपा गठबंधन के नीतीश कुमार के पास पहुंच गई, तब भी उस चुनाव में मुस्लिम समाज मोटे तौर पर लालू यादव के साथ ही खड़ा था. नीतीश कुमार को तब मुसलमानों ने बहुत तवज्जो नहीं दी थी.

बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार (फोटो: पीटीआई)
सत्ता में आते ही नीतीश कुमार ने बड़ा दांव खेला
जिस तरह कर्पूरी ठाकुर सरकार ने 1978 में पिछड़े वर्ग के बीच अति पिछड़े वर्ग की पहचान कर उन्हें सरकारी नौकरियों में आरक्षण दिया था, उसी तरह नीतीश कुमार ने अति पिछड़ी जातियों (जिनमें मुस्लिम समाज की कुछ जातियां भी शामिल हैं और उनकी संख्या बहुत बड़ी है) को पंचायत और म्युनिसिपल इकाइयों में आरक्षण दे दिया. इन निकायों में अति पिछड़े वर्ग के लिए सीटें रिजर्व हो गईं. पसमांदा मुसलमानों के विकास के लिए और इस समाज की महिलाओं के विकास के लिए कई योजनाएं शुरू कर दी गईं. पसमांदा मुस्लिम समाज के नेता अली अनवर को राज्यसभा भेज दिया. इसके बाद लालू यादव का मुस्लिम जनाधार बुरी तरह बिखर गया. मुस्लिम समाज की अति पिछड़ी जातियां नीतीश कुमार के साथ हो गई.
2009 के लोकसभा और 2010 के विधानसभा चुनावों में यह स्पष्ट तौर पर देखा गया कि नीतीश कुमार के भाजपा से गठबंधन के बावजूद पिछड़े वर्ग के मुसलमानों ने नीतीश की वजह से एनडीए के उम्मीदवारों को जमकर वोट दिया था. 2010 के विधानसभा चुनावों में तो लालू यादव की पार्टी राजद की हालत यह हो गई थी कि उसे इतनी सीटें भी नहीं मिलीं कि वह विधानसभा में मुख्य विपक्षी दल का दर्जा हासिल कर सके. इसका कारण यह था कि लालू दंपति के 15 साल के शासनकाल में ऐसा कुछ भी नहीं हुआ था, जिससे राज्य के पिछड़े मुसलमानों (जिनकी नुमाइंदगी का लालू यादव दावा करते रहे हैं) की आर्थिक-सामाजिक हैसियत में कोई परिवर्तन आया हो. वहीं इसके उलट राज्य के पिछड़े मुसलमानों को नीतीश कुमार के शासनकाल में अपनी हैसियत में बदलाव का अहसास जरूर हुआ था.
2013-14 से भाजपा का नेतृत्व नरेन्द्र मोदी और अमित शाह के हाथ में चला गया, जिस कारण नीतीश कुमार भाजपा से अलग होकर लालू यादव के साथ चले गएॉ. इससे 2015 के चुनावों में बिहार के मुसलमानों के सामने कोई भ्रम की स्थिति उत्पन्न नहीं हुई. लालू-नीतीश के महागठबंधन को मुसलमानों का पूरा सहयोग मिला, जिस कारण उस चुनाव में महागठबंधन ने तीन-चौथाई बहुमत हासिल कर लिया.

बिहार के पूर्व मुख्यमंत्री लालू यादव (फोटो: पीटीआई)
इसके बाद अब नीतीश कुमार फिर भाजपा गठबंधन के साथ आ गये. आज की स्थिति 2009-10 जैसी भी नहीं है, क्योंकि तब मुसलमानों को आडवाणी के नेतृत्व वाली भाजपा से उतनी दिक्क़त नहीं थी, जितनी आज की भाजपा से है. आज बिहार के मुसलमानों की राजनीति को करीब से देखने पर यही लगता है कि वे अब एक शांत मतदाता के रूप में प्रत्येक सीट पर उसी उम्मीदवार के पक्ष में एकजुट होकर वोट देने की रणनीति पर काम कर रहे हैं, जो भाजपा गठबंधन के उम्मीदवार को हराने की कुव्वत रखता हो.
उत्तर प्रदेश के मुसलमानों ने भी 1999 के लोकसभा और 2002 के विधानसभा चुनावों के चतुष्कोणीय मुकाबले में इसी रणनीति पर काम किया था और हर सीट पर, जहां जिसका उम्मीदवार (कहीं सपा, कहीं कांग्रेस, कहीं बसपा तो कहीं रालोद) भाजपा के उम्मीदवार से मुकाबला करता दिखा, उसे वोट दे दिया था. लेकिन बिहार में अधिकांश सीटों पर आमने-सामने का ही मुकाबला होना है. कहीं-कहीं कन्हैया कुमार की सीपीआई, माले और पप्पू यादव फैक्टर मुकाबले को तिकोना बना सकता है. ऐसे में बिहार के मुसलमानों का राजद और कांग्रेस के गठबंधन के साथ रहना मजबूरी है, क्योंकि यही गठबंधन भाजपा गठबंधन का मुकाबला करता दिखाई दे रहा है.
अब बात असदुद्दीन ओवैसी की एंट्री से पड़ने वाले प्रभाव की
असदुद्दीन ओवैसी 2015 के विधानसभा चुनावों से ही बिहार के सीमांचल (पूर्णिया डिवीजन) में अपने प्रत्याशी खड़े करते रहे हैं, लेकिन उन्हें कोई खास सफलता नहीं मिली. 2019 के विधानसभा उपचुनाव में उनकी पार्टी का खाता जरूर खुला, लेकिन उसके अपने स्थानीय कारण हैं और जिसका एनडीए को कोई विशेष लाभ मिलने वाला नहीं है. अब एनडीए को ओवैसी की उपस्थिति का लाभ क्यों नहीं मिलना है, जरा इसे समझने की कोशिश करते हैं.

पूर्णिया क्षेत्र (फोटो स्क्रीनशॉट: गूगल मैप्स)
ओवैसी को लोकसभा (या विधानसभा चुनावों में) किशनगंज जिले में ही ठीक-ठाक वोट मिले हैं. किशनगंज में मुस्लिम बहुसंख्यक हैं. वहां लगभग 70 प्रतिशत आबादी मुसलमानों की है. ऐसे में वहां भाजपा की जीत की कोई संभावना स्थानीय मुसलमानों को नहीं दिखती है. कम से कम मोदी-शाह युग में तो नहीं ही दिखती है. ऐसे में बहुसंख्यक समाज के बीच जाति की राजनीति का फैक्टर वहां भी काम करता है. यह ठीक उसी प्रकार है, जैसे देश के उन जिलों में, जहां हिंदू बहुसंख्यक हैं, वहां हिंदू समाज के भीतर जाति की राजनीति का फैक्टर प्रभावी होता है. किशनगंज में मुसलमानों की लगभग आधी आबादी सुरजापुरी लोगों की है. लोकसभा चुनाव में ओवैसी ने एक सुरजापुरी मुसलमान को अपना प्रत्याशी बनाया था. इसलिए ओवैसी की पार्टी को ठीक-ठाक वोट मिल गया था. अक्टूबर 2019 में किशनगंज विधानसभा क्षेत्र के उपचुनाव में AIMIM के कमरूद होदा को तभी सफलता मिली, जब उनका सीधा मुकाबला भाजपा की स्वीटी सिंह से हुआ था.
रही बात राज्य के अन्य क्षेत्रों में ओवैसी द्वारा उम्मीदवार उतारे जाने की, तो इन क्षेत्रों में मुस्लिम अल्पसंख्यक हैं और वे भाजपा गठबंधन को हराने के इरादे से ही वोट करेंगे.
दूसरा महत्वपूर्ण फैक्टर ओवैसी के सवर्ण होने से (अगड़े वर्ग से) जुड़ा है, जिससे राज्य के अन्य हिस्सों (किशनगंज को छोड़कर) के पिछड़े वर्ग के मुसलमानों के उनसे जुड़ने में स्वाभाविक रूप से दिक्कत होगी. जहां तक सवर्ण मुसलमानों (पठान, शेख, सैयद आदि) का सवाल है, तो वे कभी ओवैसी की पार्टी से जुड़ भी नहीं सकते. राज्य के सवर्ण मुसलमानों में कभी भी बहुत ज्यादा धार्मिक रुझान कभी देखा नहीं गया. मोटे तौर पर उनका व्यवहार सवर्ण हिंदुओं जैसा ही रहा है. इसलिए बिहार में ओवैसी की पार्टी के कामयाब होने की बहुत ज्यादा संभावना नहीं दिख रही है.
विडियो- बिहार चुनाव में प्रवासी मजदूरों का क्या रोल रहने वाला है?