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अमेरिका को इराक़ में किए ‘युद्ध अपराध’ के लिए सज़ा कब मिलेगी?

अमेरिका को इराक युद्ध से क्या हासिल हुआ?

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अमेरिका के पूर्व राष्ट्रपति जॉर्ज बुश
अमेरिका के पूर्व राष्ट्रपति जॉर्ज बुश
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23 मार्च 2023 (Updated: 23 मार्च 2023, 22:14 IST)
Updated: 23 मार्च 2023 22:14 IST
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17 मार्च 2023 को इंटरनैशनल क्रिमिनल कोर्ट (ICC) ने दो लोगों के ख़िलाफ़ अरेस्ट वॉरंट जारी किया. रूस के राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन और रूस की चिल्ड्रेन्स राइट्स कमिश्नर मारिया अलेक्सयेवेना. दोनों पर यूक्रेन में वॉर क्राइम्स के आरोप हैं. यूक्रेन वॉर फ़रवरी 2022 में शुरू हुआ था. एक साल में ICC का इतना एक्टिव होना अच्छी ख़बर है. इससे भरोसा मिलता है कि अंतरराष्ट्रीय संस्थाएं मुस्तैदी से अपना काम कर रही हैं.

लेकिन जब हम थोड़ा इतिहास पलटते हैं, तब हमें कुछ और ही कहानी दिखती है. वियतनाम वॉर में हज़ारों बेगुनाह मारे गए. अफ़ग़ानिस्तान में 20 साल युद्ध चला. अफ़ग़ान नागरिक आज भी उसका दंश झेल रहे हैं. एक झूठी खुफिया जानकारी के आधार पर इराक़ को तबाह कर दिया गया. इसी की वजह से इस्लामिक स्टेट पैदा हुआ. हवाई हमलों में मासूम बच्चों की हत्याएं हुईं. मगर इन सबके सूत्रधार अमेरिका पर किसी अंतरराष्ट्रीय संस्था ने एक ऊंगली तक नहीं उठाई. किसी अमेरिकी राष्ट्रपति के ख़िलाफ़ ICC ने अरेस्ट वॉरंट नहीं निकाला.

मसलन, मार्च 2003 में अमेरिका के तत्कालीन राष्ट्रपति जॉर्ज डब्ल्यु बुश ने इराक़ पर हमले का आदेश दिया था. कहना ये कि सद्दाम हुसैन के पास वेपंस ऑफ़ मास डिस्ट्रक्शन (WMDs) हैं. यानी, भयानक बर्बादी पैदा करने वाले हथियार. इसी को आधार बनाकर अमेरिका ने सेना उतारी. सद्दाम को अरेस्ट कर फांसी पर लटकाया. और, फिर कहा कि WMD वाली बात भ्रामक थी. हमें इराक़ में ऐसा कोई हथियार नहीं मिला.

तो फिर,

- अमेरिका ने इराक़ वॉर शुरू क्यों किया था?
- इराक़ की बर्बादी के दोषियों को सज़ा क्यों नहीं हुई?
- 20 बरस बाद इराक़ के असल हालात क्या हैं?
- और, इस युद्ध का असली विजेता कौन है?

साल 2003 की बात है. इराक़ युद्ध की शुरुआत हो चुकी थी. हफ़्तों से इंतज़ार कर रही अमेरिका और उसके सहयोगी देशों की सेनाएं इराक़ की सीमा में घुस गईं. उससे पहले ही राजधानी बग़दाद पर बम गिराए जा रहे थे. पश्चिमी देशों ने इस हमले को ‘ऑपरेशन इराक़ी फ़्रीडम’ का नाम दिया था. हमले का आधार थी, कुछ खुफिया जानकारियां. वो ये कि सद्दाम हुसैन के पास ख़तरनाक रासायनिक, जैविक और परमाणु हथियार हैं. उससे पूरी दुनिया को ख़तरा है.

अमेरिका के पास 35 देशों का सपोर्ट था. इराक़ अकेला था. उसके लिए लड़ते रहना बेहद मुश्किल था. जल्दी ही सद्दाम अपना महल छोड़कर भाग गया. 09 अप्रैल को बग़दाद के फिरदौस चौक में लगी उसकी आदमकद मूर्ति गिरा दी गई. एक समय तक ये मूर्ति उसके एकछत्र राज का प्रतीक हुआ करती थी.

अमेरिका के पूर्व राष्ट्रपति जॉर्ज बुश

01 मई 2003 को जॉर्ज बुश ने एयरक्राफ़्ट कैरियर USS अब्राहम लिंकन पर खड़े होकर कहा, Mission Accomplished. यानी, मिशन पूरा हो चुका है. उनका मतलब था कि इराक़ में यूएस आर्मी का मकसद पूरा हो चुका है. अब दूसरी चीजों पर ध्यान दिया जाएगा.

23 मई को इराक़ की सेना और खुफिया एजेंसियों को भंग कर दिया गया. सेना में लाखों लोग काम करते थे. उनके पास हथियार थे. सेना भंग होने के बाद उनके पास कोई नौकरी नहीं बची. हथियारबंद बेरोज़गारों की पूरी फौज़ इराक़ की सड़कों पर इकट्ठा हो चुकी थी. ये आगे चलकर बड़ा नुकसान करने वाला था.
जून 2003 में सद्दाम के दो बेटे, उदय और क़ैस हुसैन को मार गिराया गया. हालांकि, सद्दाम अभी भी पकड़ से बाहर था.

वो पकड़ा गया, दिसंबर 2004 में. अमेरिका को उम्मीद थी कि सद्दाम के बाद इराक़ शांत पड़ जाएगा. 30 दिसंबर 2006 को उसको फांसी पर चढ़ा दिया गया. लेकिन इराक़ में हिंसा का ग्राफ़ लगातार बढ़ता गया. इसकी जद में हर कोई आया. अमेरिका, उसकी सहयोगी सेनाएं, आम नागरिक, बच्चे, कोई नहीं छूटा. सबको बराबर दंश झेलना पड़ा. WMD वाली बात झूठी साबित हो चुकी थी. इराक़ में अलक़ायदा का कहर बढ़ने लगा था. नई सरकार भ्रष्ट थी. उसने मदद के लिए मिले पैसे अपनी जेब में भर लिए थे. इराक़ आपसी झगड़े और सिविल वॉर जैसी समस्याओं से जूझ रहा था. अमेरिकी सैनिकों पर हमले बढ़ गए थे. जॉर्ज बुश का कार्यकाल पूरा हो चुका था. वो अपनी ग़लती मान चुके थे. इस वजह से अमेरिका में इराक़ वॉर के ख़िलाफ़ माहौल बनने लगा. वहां से सैनिकों को वापस बुलाने की मांग उठने लगी.

इराक़ के पूर्व राष्ट्रपति सद्दाम हुसैन 

आख़िरकार, 21 अक्टूबर 2011 को अमेरिका के राष्ट्रपति बराक ओबामा ने एक बड़ी प्रेस कॉन्फ़्रेंस की. इसमें उन्होंने ऐलान किया कि इराक़ में तैनात अमेरिकी सैनिक वापस लौट रहे हैं.

इस ऐलान के बाद ही गठबंधन सेनाओं ने बोरिया-बिस्तर बांध लिया. 08 दिसंबर 2011 को अंतिम अमेरिकी सैनिक इराक़ से निकल गया. वैसे, अमेरिका फिर से इराक़ में वापस जाने वाला था. दूसरे ख़तरे से निपटने के लिए. इसके तार भी ऑपरेशन इराक़ी फ़्रीडम से जुड़े हुए थे. हालांकि, इस कथित ऑपरेशन के कारण हुए नुकसान की चर्चा के बिना आगे की कहानी पता नहीं चलेगी.

इराक़ वॉर में कितना नुकसान हुआ था?

- इराक़ युद्ध मार्च 2003 से दिसंबर 2011 तक चला था.

- कुल मौतें: 01 लाख 89 हज़ार. ये लोग सीधी लड़ाई का शिकार हुए थे. इसमें उन मौतों को नहीं गिना गया है, जो वॉर के कारण पैदा हुई समस्याओं से मारे गए थे.

- युद्ध के दौरान यूएस आर्मी के 04 हज़ार 488 सैनिक मारे गए. 32 हज़ार 223 घायल हुए. इसमें उन सैनिकों को शामिल नहीं किया गया है, जो पोस्ट-ट्रॉमेटिक स्ट्रेस डिसऑर्डर (PTSD) का शिकार हुए थे. ऐसे सैनिकों की बड़ी संख्या थी, जो युद्ध के कारण मानसिक बीमार पड़े थे. उनका आंकड़ा कभी जाहिर नहीं किया गया.

- पूरी लड़ाई में लगभग 01 लाख 34 हज़ार आम नागरिकों की मौत हुई. 28 लाख लोगों को अपना घर-बार छोड़कर भागना पड़ा. ये दूसरे विश्वयुद्ध के बाद हुआ सबसे बड़ा विस्थापन था.

- युद्ध को कवर करने गए 150 पत्रकार हताहत हुए.

- इस युद्ध के कारण अमेरिका के खजाने पर लगभग 14 लाख करोड़ रुपये का बोझ पड़ा.

सबसे दिलचस्प आंकड़ा वो था, जिसके लिए अमेरिका ने इराक़ पर हमला किया था. वेपंस ऑफ़ मास डिस्ट्रक्शन. वो कितने मिले? शून्य. गठबंधन सेनाओं को सद्दाम के पास एक भी ऐसे हथियार नहीं मिले, जिसके लिए पूरा बखेड़ा खड़ा किया गया था.

जनवरी 2004 में पूर्व वेपंस इंस्पेक्टर डेविड के ने अमेरिकी संसद में कहा, WMD को लेकर हम पूरी तरह ग़लत थे. हमें जो इंटेलीजेंस मिला था, वो झूठा साबित हुआ है. ये दुखद है.
2004 में अमेरिका के विदेश मंत्री कॉलिन पॉवेल ने माना कि जैविक हथियारों वाली लैब्स का दावा ग़लत था. पॉवेल ने 2003 में यूएन में कहा था कि इराक़ के पास ऐसी लैब्स हैं, जिनमें जैविक हथियार बनाए जा रहे हैं.

मार्च 2005 में प्रेसिडेंशियल कमीशन ने अपनी रिपोर्ट में साफ़ लिखा कि, इराक़ युद्ध से पहले जो कुछ खुफिया जानकारी दी गई थी, उसमें रत्तीभर सच्चाई नहीं थी.
जुलाई 2016 में ब्रिटेन के पूर्व प्रधानमंत्री टोनी ब्लेयर ने इराक़ वॉर में हुई तबाही के लिए माफ़ी मांगी. ब्लेयर के कार्यकाल में ही इराक़ वॉर शुरू हुआ था. उनके आदेश पर ब्रिटिश आर्मी भी इराक़ में लड़ने गई थी.

इराक़ में युद्ध के दौरान लड़ने अमेरिकी सैनिक 

मई 2022 में जॉर्ज बुश की ज़ुबान उस समय फिसल गई, जब उन्होंने यूक्रेन की जगह इराक़ का नाम ले लिया. असल में वो यूक्रेन वॉर के लिए पुतिन की आलोचना करने आए थे. लेकिन उनके मुंह से इराक़ निकल गया. जनता ने कहा, आख़िरकार! बुश ने अपनी ग़लती मान ली.
आप वीडियो देख लीजिए.

बकौल बुश, यूक्रेन पर रूस का हमला मानवाधिकार उल्लंघन करने और अंतरराष्ट्रीय कानूनों की धज्जियां उड़ाने जैसा है. लेकिन इराक़ पर हमले को क्या कहेंगे? क्या उस गैर-ज़रूरी युद्ध के लिए किसी को वॉर क्रिमिनल कहा जाएगा? क्या उसके लिए बुश और उनके सहयोगियों के ख़िलाफ़ वॉरंट निकलेगा? इसकी संभावना बहुत कम है. क्योंकि वैश्विक राजनीति में जो ताक़तवर होता है, वही सही और ग़लत तय करता है. और, अमेरिका अपने ऊपर ऊंगली उठाने में हमेशा पीछे रह जाता है.

अब आपके मन में कुछ सवाल उठ रहे होंगे. मसलन, अगर अमेरिका को WMD का झूठ पता था, फिर उसने हमला किया ही क्यों? इसकी तीन अलग-अलग वजहें गिनाई जाती हैं.
- नंबर एक. सद्दाम हुसैन और WMD. जनवरी 2002 में जॉर्ज बुश ने स्टेट ऑफ़ द यूनियन एड्रेस दिया. इसमें उन्होंने तीन देशों को मानवता का दुश्मन बताया. ईरान, इराक़ और नॉर्थ कोरिया. बुश बोले, ये तीनों देश ‘एक्सिस ऑफ़ इविल’ यानी बुराई की धुरी हैं. इसी वजह से इस भाषण को ‘एक्सिस ऑफ़ इविल’ एड्रेस भी कहा जाता है. बुश का कहना था कि इन तीनों देशों के पास ख़तरनाक हथियार हैं और वे आतंकियों को सपोर्ट दे रहे हैं. यहीं से WMD की चर्चा शुरू हुई और बुश ने इसे बार-बार दोहराया. फिर उनके करीबी नेताओं ने इसका प्रचार किया. इराक़ उनके लिए आसान टारगेट था. क्योंकि वहां 1970 के दशक से सद्दाम का शासन चल रहा था. उसका दमन का रिकॉर्ड था. सद्दाम को दुश्मन नंबर एक घोषित करके अमेरिकी जनता को लामबंद किया जा सकता था. ये तुक्का फिट बैठा. अमेरिकी मीडिया ने भी इसका ख़ूब प्रचार किया. बिना सबूत के उन्होंने WMD और सद्दाम को लेकर प्रोपेगैंडा फैलाया. नतीजा ये हुआ कि, इराक़ युद्ध से पहले 72 प्रतिशत जनता हमले के समर्थन में खड़ी हो चुकी थी. न्यू यॉर्क टाइम्स और दूसरे मीडिया संस्थानों ने बाद में माना कि उनसे तथ्यों को परखने में ग़लती हुई.

- नंबर दो. प्रभुत्व की लड़ाई. 9/11 के हमले ने अमेरिका की सैन्य क्षमता पर बड़े सवाल खड़े किए थे. इस घटना ने उनकी सुपरपावर की छवि बिगाड़ दी थी. हमले में शामिल अधिकतर आतंकी सऊदी अरब से ताल्लुक रखते थे. मगर उसके साथ अमेरिका की दोस्ती थी. उसने सऊदी अरब को भुलाकर अफ़ग़ानिस्तान पर हमला किया. कहा कि हमले में शामिल अलक़ायदा का गढ़ अफ़ग़ानिस्तान में है. शुरुआती कार्रवाई में नेटो सेना ने तालिबान और अलक़ायदा को भारी नुकसान पहुंचाया. लेकिन तालिबान का सरगना मुल्ला उमर और अलक़ायदा का सरगना ओसामा बिन लादेन उनकी पहुंच से दूर भागे. अमेरिका को अंदाजा हो चुका था कि अफ़ग़ानिस्तान में लड़ाई लंबी खिंचेगी. ये एक और असफ़लता होती. इससे मिडिल-ईस्ट में उसका प्रभुत्व ख़तरे में पड़ जाता. ऐसी स्थिति में उसको जल्दी में एक बड़े टारगेट की ज़रूरत थी. ताकि पूरे इलाके को संदेश दिया जा सके. जॉर्ज मेसन यूनिवर्सिटी में एसोसिएट प्रफ़ेसर अहसान बट्ट ने 2019 में अल जज़ीरा के लिए लिखा था,

‘अरब वर्ल्ड के बीचोंबीच एक आसान और निर्णायक जीत पूरे इलाके में संदेश देने का काम करने वाली थी. खासकर उन देशों में जहां उद्दंड सरकारों का शासन चल रहा था. जैसे, सीरिया, लीबिया, ईरान या नॉर्थ कोरिया. ये जीत साबित करती कि अमेरिका प्रभुत्व कायम रहने वाला है. आसान भाषा में कहें तो, इराक़ वॉर अमेरिका की सुपरपावर वाली छवि को स्थापित करने के मकसद से प्रेरित था.’

ओसामा बिन लादेन 

- नंबर तीन. तेल. इराक़ के पास कच्चे तेल का बड़ा भंडार था. सद्दाम हुसैन ने उनको नेशनलाइज कर दिया था. वहां पश्चिमी कंपनियों को एंट्री नहीं थी. कई जानकारों और अमेरिकी सरकार से जुड़े लोगों ने लिखा है कि भले ही तेल इकलौता कारण नहीं था, लेकिन ये इराक़ पर हमले के सबसे बड़ी वजहों में ज़रूर था. इस दावे के पक्ष में कई तर्क दिए जाते हैं. मसलन, एग्जॉन, मोबील, शेवरॉन जैसी तेल कंपनियों ने जॉर्ज बुश और डिक चेनी के इलेक्शन कैंपेन में ख़ूब पैसा लगाया था.  बुश राष्ट्रपति बने और चेनी उपराष्ट्रपति. डिक चेनी हेलबर्टन नाम की एक तेल कंपनी में बड़े पद पर थे. सद्दाम के जाने के बाद इन कंपनियों ने इराक़ में एंट्री की. तेल के कुओं को प्राइवेट कंपनियों के लिए खोल दिया गया. इसका फायदा पश्चिमी कंपनियों को हुआ.

इराक़ वॉर खत्म होने के बाद क्या हुआ?

- 2011 में अमेरिकी सैनिकों के निकलने के बाद अलक़ायदा के आतंकियों ने अपना प्रभाव बढ़ाना शुरू किया. 2014 में अबू बक्र अल बग़दादी ने इस्लामिक स्टेट ऑफ़ इराक़ एंड सीरिया (ISIS) की स्थापना की. इसी को अल-दाएश भी कहते हैं. इस गुट में इराक़ आर्मी के वे सैनिक भी शामिल हुए, जिन्हें अमेरिका ने नौकरी से निकाल दिया था. ISIS पूरी दुनिया में इस्लामी ख़िलाफ़त की स्थापना करना चाहता था. इसके लिए उसने टेरर कैंपेन शुरू किया. उन्हें हराने के लिए अमेरिका वापस आया. अक्टूबर 2019 में अमेरिका ने बग़दादी को मार दिया. उसके बाद से IS कमज़ोर पड़ा है. वो सीरिया के इदरिस में सिमट गया है. लेकिन कई हिस्सों में उसके समर्थकों ने आतंक फैलाना जारी रखा है.

- सद्दाम के तख़्तापलट के बाद 2005 में इराक़ का नया संविधान बना. उसमें ये व्यवस्था की गई कि हर तबके को पर्याप्त अधिकार दिया जाएगा. नए संविधान में तय हुआ कि, देश का राष्ट्रपति कुर्द होगा. संसद के स्पीकर का पद सुन्नियों को मिलेगा. और, सरकार का मुखिया यानी प्रधानमंत्री शिया होगा. इस व्यवस्था ने कुछ समय तक तो स्थिरता दी. लेकिन लॉन्ग टर्म में इसने इराक़ को परेशान ही किया. अगस्त 2022 में इराक़ सिविल वॉर की कगार पर पहुंच गया था. दरअसल, अक्टूबर 2021 में हुए चुनावों में मिलिशिया से राजनेता बने मुक्तदा अल-सद्र की सद्री मूवमेंट सबसे बड़ी पार्टी बनकर उभरी. लेकिन जब सरकार बनाने की बारी आई, तब गठबंधन की ज़रूरत महसूस हुई. 

आठ महीनों तक चली कश्मकश के बाद भी सद्री मूवमेंट बहुमत नहीं जुटा पाया. फिर उनकी पार्टी के सभी सांसदों ने इस्तीफ़ा दे दिया. तब को-ऑर्डिनेशन फ़्रेमवर्क नाम का नया गठबंधन बना. इसमें ईरान की चलने वाली थी. अल-सद्र ऐसे नेता के तौर पर उभरे थे, जो एक साथ ईरान और अमेरिका की मुख़ालफ़त कर रहे थे. ईरान का विरोध बाकी शिया संगठनों को रास नहीं आ रहा था. लेकिन जनता का बड़ा धड़ा अल-सद्र के साथ जुड़ने लगा था. उन्होंने को-ऑर्डिनेशन फ़्रेमवर्क की चाल का विरोध किया. जब बात नहीं बनी तो अल-सद्र ने राजनीति से संन्यास ले लिया. इस ऐलान के बाद उनके समर्थकों ने इराक़ी सेना पर हमला कर दिया. वे संसद में घुस गए. अल-सद्र को आगे आकर हिंसा रोकने की अपील करनी पड़ी. उनके समर्थक रुक तो गए, लेकिन हिंसा की चिनगारी अभी भी पनप रही है. इसका सीधा असर आम लोगों की ज़िंदगी पर पड़ता है.

- इस्लामिक स्टेट के खात्मे के बाद भी लगभग ढाई हज़ार अमेरिकी सैनिक इराक़ में बने हुए हैं. वे इराक़ की सरकार को सलाह और समर्थन देते हैं.

- ईरान के समर्थन से चलने वाले कई सैन्य गुट भी इराक़ में ऑपरेट कर रहे हैं. ये गुट सीधे प्रधानमंत्री को रिपोर्ट करते हैं.

- इन सबके अलावा, इराक़ी कुर्दिस्तान में तुर्किए और ईरान की सेना ऑपरेशन चलाती रहती है. इराक़ को उनके साथ भी बनाकर चलना होता है.

- इराक़ वॉर और फिर इस्लामिक स्टेट के साथ हुई लड़ाई के कारण इंफ़्रास्ट्रक्चर बुरी तरह तबाह हो चुका है. देश की आबादी का एक बड़ा हिस्सा बुनियादी सुविधाओं के अभाव में जीने के लिए मज़बूर है.

अब सवाल आता है कि, इराक़ वॉर का फायदा किसको मिला?

तेल कंपनियों को? अमेरिका को? अमेरिकी नेताओं को? या, किसी और को?

19 मार्च को न्यू यॉर्क टाइम्स में विवियन यी और अलिसा जे. रुबिन ने एक रिपोर्ट लिखी है. इसका टाइटल है, In Us-Led Iraq War, Iran was the big winner. यानी, अमेरिका के नेतृत्व में हुए इराक़ वॉर का सबसे बड़ा विजेता ईरान है.

वे लिखते हैं कि 20 साल में ईरान ने इराक़ के अंदर अपने भरोसे के सैन्य गुट बना लिए. इराक़ की राजनीति में उनका प्रभाव बढ़ा और उन्हें इसका आर्थिक फायदा भी मिला. इसने ईरान को मिडिल-ईस्ट की पोलिटिक्स में प्रासंगिक बना दिया. इस दावे में कितना दम है?

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