वो मौके, जब देश को एक दलित प्रधानमंत्री मिलते-मिलते रह गया
भारतीय राजनीति के इतिहास में ऐसे मौके आए हैं जब देश को दलित प्रधानमंत्री मिलने की पूरी-पूरी संभावना बन गई थी. जानें क्यों बार-बार पीएम की कुर्सी के करीब आकर भी उस पर नहीं बैठ पाए बाबू जगजीवन राम.
19 दिसंबर को विपक्ष के INDIA गठबंधन की दिल्ली में एक मीटिंग हुई. इस मीटिंग के बाद एक दिलचस्प ख़बर आई, कि देश के दो बड़े नेताओं ने बतौर प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार कांग्रेस नेता मल्लिकार्जुन खरगे का नाम प्रपोज़ किया है. खबरें आईं कि खरगे के नाम का प्रस्ताव ममला बनर्जी और अरविंद केजरीवाल ने दिया. रिपोर्ट के मुताबिक केजरीवाल ने कहा, "ये देश को पहला दलित प्रधानमंत्री देने का मौका है." हालांकि इन ख़बरों की कोई आधिकारिक पुष्टि हो न सकी और खुद खरगे ने इस चर्चा पर 'पहले जीत लें, फिर पीएम के चेहरे पर चर्चा की जाएगी' कहकर लगाम लगा दी.
मगर इस तमाम झमेले में एक की-वर्ड ने सबका ध्यान खींचा. देश का पहला दलित प्रधानमंत्री. हमें आज़ाद हुए 76 साल हो चुके हैं. अब तक एक भी दलित नेता भारत के शीर्ष पद पर नहीं बैठा है. लेकिन क्या कोई इसके करीब भी नहीं पहुंचा? भारतीय राजनीति के इतिहास में दो मौके ऐसे ज़रूर हुए हैं, जब देश को दलित प्रधानमंत्री मिलने की पूरी-पूरी संभावना बन गई थी. कौन से थे वो दो मौके? आइए, जानते हैं.
# पहला मौका - 1977
मौके की बात करने से पहले एक नाम की बात करना ज़रूरी है. बाबू जगजीवन राम. कांग्रेस का कद्दावर दलित चेहरा. लंबा-चौड़ा और आकर्षक पॉलिटिकल प्रोफाइल. वो आज़ादी के बाद से ही कांग्रेस की पहली पंक्ति के नेता रहे. देश की पहली कैबिनेट में मंत्री. 1971 के युद्ध में भारत के डिफेंस मिनिस्टर भी थे. हरित क्रांति के दौरान भारत के कृषि मंत्री रहे. आगे चलकर भारत के डेप्युटी प्राइम मिनिस्टर भी बने. और प्रधानमंत्री बनने के भी काफी करीब पहुंच गए थे.
हुआ कुछ यूं कि 1975 में इंदिरा गांधी ने इमरजेंसी लगा दी और कांग्रेस के बुरे दिनों का आगाज़ हो गया. इमरजेंसी के शुरुआती दौर में बाबू जगजीवन राम इंदिरा के साथ ही थे. लेकिन आगे चलकर दोनों के रिश्तों में खटास आ गई और बाबू जगजीवन राम ने अपनी एक पार्टी बना ली. 1977 की फरवरी में. नाम रखा 'कांग्रेस फॉर डेमोक्रेसी'. 1977 के मार्च महीने में लोकसभा चुनाव हुए. जगजीवन राम की पार्टी ने जनता पार्टी के साथ मिलकर इंदिरा गांधी के खिलाफ चुनाव लड़ा और जीता भी. उनकी पार्टी को भले ही सिर्फ 28 सीटें हासिल हुई थीं, लेकिन उनकी स्वीकार्यता का लोहा जनता पार्टी ने भी माना. उन्हीं की वजह से दलित वोट बैंक का एक बड़ा हिस्सा जनता पार्टी को वोट कर आया था. ज़ाहिर है उनका कद बड़ा होना ही था. जगजीवन राम अचानक से पीएम पद की रेस में खड़े पाए गए.
तीन नामों पर विचार चल रहा था. मोरारजी देसाई, चरण सिंह और जगजीवन राम. कहा जाता है कि जनता पार्टी के वरिष्ठ लोग जय प्रकाश नारायण के पास पहुंचे और उन्होंने मोरारजी देसाई को चुना. ये भी कहा जाता है कि बाबू जगजीवन राम की उम्मीदवारी के आड़े उनका एक भाषण आया था, जो कभी उन्होंने इमरजेंसी के सपोर्ट में दिया था.
मोरारजी देसाई पीएम बने और ज़ाहिर है, बाबू जगजीवन राम को जेपी का ये फैसला पसंद नहीं आया. वो सरकार में शामिल होने से कतराने लगे. शपथ ग्रहण समारोह में भी नहीं गए. हालांकि जेपी और मोरारजी देसाई ने उन्हें मना लिया. मोरारजी सरकार में उन्हें फिर से रक्षा मंत्री बनाया गया. साथ ही वो चरण सिंह के साथ उप-प्रधानमंत्री भी बने. लेकिन प्रधानमंत्री पद उनसे दूर जा चुका था.
# दूसरा मौक़ा - 1979
भारत को पहला दलित प्रधानमंत्री मिलने का दूसरा मौका भी जल्द ही आया. मौक़ा दूसरा था लेकिन कैंडिडेट पहला ही था. बाबू जगजीवन राम. जुलाई 1979 में मोरारजी सरकार गिर गई. बाबू जगजीवन का नाम फिर से रेस में आ गया. इस बार मुकाबले में सिर्फ एक नाम था. चरण सिंह. सरकार गिरने के बाद चरण सिंह, इंदिरा गांधी के बाहरी समर्थन की मदद से प्रधानमंत्री बन गए. हालांकि ये समर्थन ज़्यादा दिन रहा नहीं. अगस्त 1979 में इंदिरा गांधी ने समर्थन वापस ले लिया. महज़ 23 दिनों बाद उन्हें इस्तीफा देना पड़ा. बाबू जगजीवन राम के पास इस बार जेन्युइन मौक़ा था.
इंदिरा गांधी ने राष्ट्रपति नीलम संजीव रेड्डी को सलाह दी कि वो लोकसभा को भंग कर दें. जगजीवन राम ने इस फैसले को चुनौती दी. उन्होंने सदन में बहुमत साबित करने की इजाज़त मांगी. लेकिन ये मौक़ा उन्हें नहीं दिया गया. राष्ट्रपति ने लोकसभा भंग कर दी और जनवरी 1980 तक चरण सिंह केयरटेकर प्राइम मिनिस्टर बने रहे. बाबू जगजीवन राम ने इसे 'धोखा' करार दिया. उनका और उनके समर्थकों का कहना था कि कथित उच्च जाति के हिन्दू नेताओं को एक दलित का शीर्ष पद पर बैठना हज़म नहीं हो रहा था. वो एक 'अछूत', जाति व्यवस्था के सबसे निचले पायदान से आए व्यक्ति को अपना लीडर नहीं मानना चाहते थे. वजह चाहे जो रही हो, बाबू जगजीवन के हाथ से दूसरा मौक़ा भी निकल चुका था.
जनवरी 1980 में फिर से चुनाव हुए. इस बार जनता पार्टी बाबू जगजीवन राम को पीएम फेस बनाकर चुनावों में उतरी. अगर जनता पार्टी इन चुनावों में जीतती, तो जगजीवन राम प्रधानमंत्री बन जाते. ये उनके लिए तीसरा मौक़ा था. लेकिन ऐसा हो न सका. जनता पार्टी इन चुनावों में महज़ 31 सीटों पर सिमट गई.
# एक और नाम
एक आदमी और उसे हासिल हुए दो मौकों की बात करने के बाद, हम एक और नाम की बात करेंगे. इनकी चर्चा गाहे-बगाहे देश के शीर्ष पद के लिए होती रही है. बसपा सुप्रीमो मायावती. देश की पहली महिला दलित मुख्यमंत्री. 2007 के उत्तर प्रदेश चुनावों में मायावती ने दमदार जीत हासिल की. 2009 के लोकसभा चुनावों में उनकी पार्टी बसपा ने 21 सीटें हासिल कीं. सीट टैली में उनकी पार्टी पूरे मुल्क में तीसरे नंबर पर रही.
ये कांशीराम की शिष्या के राजनीतिक करियर का सबसे सुनहरा वक्त था. उनका नाम प्रधानमंत्री पद की रेस में लिया जाने लगा था. ये गठबंधन की सरकारों का दौर था और अन्य क्षेत्रीय छत्रपों के साथ उनके नाम की चर्चा भी होती रही.
2008 में पत्रकार अजय बोस ने 'बहन जी' नाम से मायावती के राजनीतिक जीवन पर किताब लिखी. उस किताब का अंत उन्होंने कुछ ऐसे ही किया था कि देश को अब बस मायावती की ताजपोशी का इंतज़ार है, और ये बात जल्द ही हकीकत में बदल सकती है. 2008 में इंडिया टुडे को दिए एक इंटरव्यू में खुद मायावती ने ताल ठोककर कहा था कि उन्हें प्रधानमंत्री बनने से कोई रोक नहीं सकता. बहन जी ये दावा वामदलों से बात करने के बाद ही कर रही थीं.
दरअसल 2008 में सीपीआई (एम) नेता प्रकाश करात ने मायावती से मुलाकात की थी. राजनीतिक गलियारों में चर्चा थी कि बसपा और लेफ्ट मिलकर 2009 लोकसभा चुनावों की रणनीति बना रहे हैं. उन दिनों लोकसभा में बीएसपी की 19 सीटें थीं. जबकि वामदलों का 59 सीटों पर कब्जा था. सूत्रों के हवाले से मीडिया में खबर आई कि लेफ्ट और बीएसपी के बीच डील हुई है. खबर के मुताबिक तय हुआ कि अगर 2009 के चुनावों में बसपा यूपी से 50 सीटें जीत लेती है. और लेफ्ट 59 सीटों पर भी दोबारा कब्जा करने में कामयाब होते हैं तो मिलकर सरकार बनाने का दावा पेश किया जा सकता है. लेफ्ट के रणनीतिकारों को लगा कि सबसे बड़ा दल होने के नाते वो एक दलित महिला को पीएम प्रोजेक्ट कर सकते हैं. मगर इन खबरों की कभी आधिकारिक पुष्टि नहीं हो पाई. फिर 2009 के नतीजे भी उम्मीद से विपरीत रहे, तो इस चर्चा पर भी विराम लग गया.
2012 में सपा ने बसपा को बुरी तरह हराकर यूपी की सत्ता रीक्लेम की. तब से अब तक मायावती का डाउनफॉल ही चल रहा है. देश की दूसरी महिला प्रधानमंत्री और पहली दलित प्रधानमंत्री बनने का उनका सपना अधूरा ही है और लगता नहीं अगले कई सालों तक पूरा होगा. हालांकि दुनिया है, कुछ भी हो सकता है. वो फिरंगी ज़ुबान में कहते हैं ना, You Never Know या Never Say Never.
बहरहाल, पहले दलित प्रधानमंत्री की तलाश अब भी जारी है. अब मल्लिकार्जुन खरगे का नाम चर्चा में है. जो 77 में हो न सका, क्या वो आज़ादी के 77 साल बाद 2024 में होगा? वक्त ही बताएगा.