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खुदीराम बोस: 18 साल का लड़का, जो फांसी का फंदा देख मुस्कुरा उठा

कहानी खुदीराम बोस की, जिन्होंने 18 साल की उम्र में अंग्रेज़ी हुकूमत को हिलाकर रख दिया.

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पुलिस की क़ैद में खुदीराम बोस (फ़ाइल फोटो)
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कमल
11 अगस्त 2021 (Updated: 10 अगस्त 2021, 03:50 AM IST)
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आज है 11 अगस्त और आज की तारीख़ का संबंध है खुदीराम बोस से. आज ही के दिन यानी 11 अगस्त, 1908 को इस अट्ठारह साल के लड़के ने हंसते-हंसते फांसी के फंदे को चूम लिया था.
ये लिखते हुए मुझे ख्याल आया कि 18 साल की उम्र में मैं क्या कर रहा था? आप में से कई लोग भी 18 की उम्र के आसपास होंगे. जिस उम्र में हम इंजीनियरिंग के कॉलेज की ख़ाक छान रहे थे, उस उम्र में इस लड़के ने पूरे भारत में क्रांति ला दी थी. 18 साल की उम्र में खुदीराम इतना कुछ कर चुका था कि आने वाले सालों में दुनिया ग्लोबल वॉर्मिंग से बच गई, तो भी हम अपनी ज़िंदगी में उसका 1% भी कर पाए तो बहुत होगा. ख़ैर इस सेल्फ़ पिटी से आगे बढ़ते हैं. खुदीराम बोस की कहानी 3 दिसम्बर 1889 को बंगाल के मेदिनीपुर जिले में त्रैलोक्यनाथ बोस और लक्ष्मी प्रिया देवी के घर एक बेटे का जन्म हुआ. बेटा पैदा होने से घर में ख़ुशी का माहौल था. लेकिन साथ-साथ घरवालों के मन में एक अनजान डर भी समाया हुआ था. दरअसल बात ये थी कि त्रैलोक्यनाथ के इससे पहले भी दो बेटे पैदा हो चुके थे. लेकिन बीमारी के कारण छोटी उम्र में ही उनकी मृत्यु हो गई. इसलिए तय हुआ कि बच्चे को बुरी नज़र से बचाने के लिए एक टोटका किया जाए. त्रैलोक्यनाथ की बेटी ने 3 मुट्ठी चावल देकर बच्चे को ख़रीद लिया. असल में नहीं, बस टोटके के तौर पर. गांवों में चावल को खुदी भी बोला जाता है, इसलिए बच्चे का नाम पड़ गया खुदीराम.
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खुदीराम बोस (तस्वीर: wikimedia)


खुदीराम ने कक्षा नौ तक पढ़ाई की. और उसके बाद अनुशीलन समिति नाम की एक संस्था से जुड़ गए. जो क्रांति के प्रचार-प्रसार का काम करती थी. 15 साल की उम्र में खुदीराम पहली बार गिरफ़्तार हुए. अंग्रेज सरकार के ख़िलाफ़ पर्चे बांटने के जुर्म में.
उन दिनों जिला सेशन जज हुआ करता था डग्लस किंग्सफोर्ड, जिसको भारतीय फूटी आंख नहीं सुहाते थे. कोई छोटा सा केस भी अगर उसके सामने आता तो वो कम से कम 15 कोड़ों की सजा देता. अनुशीलन समिति ने तय किया कि किंग्सफोर्ड को मारकर भारतीयों पर होने वाले जुल्म का बदला लिया जाएगा. पहली कोशिश में किताब में छुपाकर एक बम किंग्सफोर्ड के पास भेजा गया. परंतु किंग्सफोर्ड ने किताब खोली ही नहीं और ये कोशिश नाकाम रही.
तब तय हुआ कि किंग्सफोर्ड के सामने जाकर ही उस पर हमला किया जाएगा. लेकिन तब तक अंग्रेज सरकार ने उसका ट्रांसफर मुज़फ़्फ़रपुर, बिहार में कर दिया था. अपने मिशन को अंजाम देने के लिए अप्रैल 1908 में खुदीराम मुज़फ़्फ़रपुर पहुंचे. प्रफुल्ल कुमार चाकी नाम का एक और क्रांतिकारी उनके साथ थे. वहां पहुंचकर उन दोनों ने मोतीझील इलाक़े में एक धर्मशाला में किराए पर कमरा लिया, जिसका मालिक एक बंगाली ज़मींदार था. उन्हें लगा कि दो बंगाली अगर एक बंगाली धर्मशाला में रहेंगे तो किसी को शक नहीं होगा.
अंग्रेजों को इस बात का पता था कि किंग्सफोर्ड पर हमला हो सकता है. इसलिए उसकी सुरक्षा को बढ़ा दिया गया. दो बंगाली एक अनजान शहर में थे, जहां की भाषा भी वो नहीं जानते थे. इसके बावजूद वो किसी प्रकार पुलिस की नज़र से छिपते-छिपाते रहे. पहले कुछ हफ़्ते उन्होंने वहां रहकर किंग्सफोर्ड की दिनचर्या का पता लगाया. किंग्सफोर्ड पर हमला  इसके बाद सही मौक़ा देखकर 30 अप्रैल की शाम दोनों किंग्सफोर्ड हाउस के बाहर पहुंच गए. वहां मौजूद सिक्योरिटी गार्ड ने उन्हें वहां से भगाना चाहा. लेकिन दोनों नज़दीक ही एक पेड़ के पास जाकर बैठ गए. गार्ड ने सोचा ये 18-19 साल के लड़के क्या ही करेंगे. इसलिए उसने इसके आगे कुछ नहीं कहा.
किंग्सफोर्ड हाउस में उस दिन किंग्सफ़ोर्ड के अलावा वहां के लोकल बैरिस्टर प्रिंगल केनेडी का परिवार भी मौजूद था. रात आठ बजे तक उन लोगों ने ब्रिज, ताश का गेम खेला और उसके बाद सब लोग बाहर आ गए. बाहर कुछ बग्गियां खड़ी थीं. केनेडी की पत्नी और बेटी जाकर सबसे आगे वाली बग्गी में बैठ गए. किंग्सफोर्ड पर हमला करने के इरादे से खुदीराम और प्रफुल्ल कुमार एक पेड़ की ओट में छुपे थे. जैसे ही एक बग्गी आगे बढ़ी, खुदीराम ने दौड़ते हुए उसकी ओर एक बम फेंक दिया. इससे बग्गी में धमाका हो गया. खुदीराम को लगा वो अपने मिशन में कामयाब हो गए हैं. लेकिन जिस बग्गी में बम फेंका गया था, उसमें किंग्सफोर्ड था ही नहीं. बग्गी में केनेडी की पत्नी और बेटी बैठे थे. इस हमले में दोनों की मौत हो गई.
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डग्लस किंग्सफोर्ड (फ़ाइल फोटो)


जैसे ही बम का धमाका हुआ. खुदीराम और प्रफुल्ल कुमार चाकी वहां से भाग गए. दोनों को शहर में कोई पहचानता नहीं था. इसलिए सम्भव था कि वो वहां से निकल जाते. लेकिन भारत के क्रांतिकारियों और चादरों की अजब दुश्मनी थी. काकोरी ट्रेन लूट के क़िस्से में हमने आपको बताया था कि क्रांतिकारियों की एक चादर स्टेशन पर छूट गई थी. उसी चादर की निशानदेही से बिस्मिल और उनके साथी पकड़े गए थे.
यहां पढ़ें- काकोरी कांड से पहले बिस्मिल दस रुपये का नोट क्यों छाप रहे थे?

यहां भी कुछ ऐसा ही हुआ. दोनों युवा लड़के थे. इन कामों का ज़्यादा अनुभव भी नहीं था. उस दिन गलती से उनकी चादर और जूते वहीं किंग्सफ़ोर्ड हाउस के पास छूट गए, जो बाद में पुलिस के हाथ लग गए. उसी रात पुलिस ने सारे शहर में मुनादी करवा दी- दो बंगाली लड़के हत्या के जुर्म में फ़रार हैं और जो उनकी खबर देगा, उसे 5000 रुपए का इनाम दिया जाएगा. खुदीराम और प्रफुल्ल को लगा कि अगर साथ भागे तो लोगों को शक होगा. इसलिए दोनों ने अलग-अलग होना बेहतर समझा.
1 मई 1908 को प्रफुल्ल समस्तीपुर स्टेशन पहुंचे और एक ट्रेन में जाकर बैठ गए. पहचान छुपाने के मकसद से उन्होंने नए जूते और कपड़े भी ख़रीद लिए. ट्रेन में प्रफुल्ल के साथ एक बंगाली दरोग़ा नंदलाल बैनर्जी भी सफ़र कर रहा था. नए-नए कपड़ों में एक बंगाली को देखकर उसे शक हुआ. अगले स्टेशन पर उसने अपने साथियों को सूचना दी और प्रफुल्ल को पुलिस ने पकड़ लिया. पुलिस प्रफुल्ल को ले जाने की तैयारी कर ही रही थी कि वो हाथ छुड़ाकर भाग निकला. उसने पुलिस कॉन्स्टेबल पर एक रिवॉल्वर से कुछ गोलियां भी फ़ायर कीं. इसके बावजूद जब वह वहां से निकल नहीं पाया तो उसने उसी रिवॉल्वर से खुद को गोली मार ली.
प्रफुल्ल ने नंदलाल बैनर्जी को अपना नाम दिनेश चंद्र रे बताया था. उसकी शिनाख्त करने के लिए पुलिस ने प्रफुल्ल का सिर काटकर कलकत्ता भिजवाया ताकि ये पक्का हो सके कि ये वही प्रफुल्ल कुमार चाकी है.
उधर खुदीराम रेलवे ट्रैक पर चलते-चलते पूसा के पास वैनी रेलवे स्टेशन पहुंच गए. अब तक वो लगभग 30 किलोमीटर चल चुके थे. भूख और प्यास से बुरा हाल था. स्टेशन में जैसे ही वो पानी पीने के लिए पंप के पास गए. पुलिस ने चारों तरफ़ से घेर लिया. खुदीराम के पास बंदूक़ भी थी. लेकिन वो इतना थक चुके थे कि कुछ नहीं कर पाए. पुलिस उन्हें पकड़कर मुज़फ़्फ़रपुर स्टेशन ले गई. तब तक उनकी गिरफ़्तारी की खबर चारों तरफ़ आग की तरह फैल चुकी थी. किसी को यक़ीन नहीं हो रहा था कि 18 साल के लड़के ने किसी अंग्रेज को मार गिराया है. पुलिस स्टेशन पहुंचकर जैसे ही खुदीराम वैन से उतरे, तो ज़ोर से चिल्लाए- वन्दे मातरम ! जज का फ़ैसला  13 जून 1908 को इस मामले में फ़ैसला सुनाते हुए जज ने खुदीराम को फांसी की सजा सुनाई. जज भी हैरान था कि मौत सामने थी, लेकिन 18 साल के उस लड़के के चेहरे पर शिकन तक ना आई.
फ़ैसला देने के बाद जज ने उससे पूछा,
‘क्या तुम फ़ैसला समझ गए हो?’ 
इस पर खुदीराम ने जवाब दिया,
‘हां लेकिन मैं कुछ कहना चाहता हूं’
जज ने कहा,
‘मेरे पास इसके लिए वक्त नहीं है’
जिसके बाद खुदीराम बोले,
‘अगर मुझे मौक़ा दिया जाए, तो मैं ये बता सकता हूं कि बम कैसे बनाया गया था.’
वहां खुदीराम को मौत की सजा दी जा रही थी. और वो इस फ़िक्र में थे कि बम बनाने का फ़ॉर्म्युला ज़्यादा से ज़्यादा लोगों तक पहुंचा सकें.
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प्रफुल्ल कुमार चाकी (फ़ाइल फोटो)


सजा के बाद खुदीराम ने अपने वकील से कहा,
चिंता मत करो, पुराने समय में राजपूत औरतें आग में जौहर कर लेती थीं. मैं भी बिना किसी डर के अपनी मौत स्वीकार कर लूंगा.
मौत से इस कदर बेतकल्लुफ़ी थी कि जेलर आख़िरी इच्छा पूछने आया तो खुदीराम उससे भी मसखरी करने लगे. जेलर ने आख़िरी ख्वाहिश पूछी तो खुदीराम ने कहा, आम मिल जाएं तो बेहतर होगा. जेलर ने आम लाकर खुदीराम को दे दिए. कुछ देर बाद जेलर आया तो देखा आम ज्यों के त्यों पड़े थे. जेलर ने पूछा कि आम क्यों नहीं खाए तो खुदीराम ने जवाब दिया कि आम तो वो ख़ा चुका है.
जेलर ने जाकर गौर से आम की तरफ़ देखा तो पाया कि आम की गुठलियां इस तरह निकाली गई थीं कि आम साबुत ही दिखाई पड़ रहा था. ये देखकर खुदीराम खिलखिलाकर हंस पड़े. 11 अगस्त की सुबह 6 बजे खुदीराम को फांसी दे दी गई. वहां मौजूद लोगों के अनुसार फांसी मिलने तक एक बार भी ना वो घबराए, ना उनके चेहरे पर कोई शिकन आई. एपिलोग  खुदीराम की कहानी ने आज़ादी के आंदोलन को एक नई ऊर्जा दी. पहली बार भारतीयों को लगा कि जब एक छोटा सा लड़का आज़ादी के लिए जान दे सकता है तो वो क्यों नहीं. बच्चे-बच्चे के लिए खुदीराम एक मिसाल बन गए. उनके अंतिम संस्कार के बारे में उस वक्त के अख़बार में कुछ यूं छपा,
‘अस्थि चूर्ण और भस्म के लिए परस्पर छीना-झपटी होने लगी. कोई सोने की डिब्बी में, कोई चांदी के और कोई हाथी दांत के छोटे-छोटे डिब्बों में वह पुनीत भस्म भरकर ले गया. एक मुट्ठी भस्म के लिए हज़ारों स्त्री-पुरुष प्रमत्त (बावले) हो उठे थे. खुदीराम ने अपनी जान पर खेलकर इस प्रकार भारत जननी पर अपनी भक्ति श्रद्धांजलि अर्पित की. भगवान इस पुण्यात्मा को शांति प्रदान करे.’ 
कहते हैं कि बंगाल के सारे युवक उन दिनों जो धोती पहनते थे, उसकी बॉर्डर पर खुदीराम बुना होता था.
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बंगाल हाई कोर्ट में खुदीराम बोस की अपील के काग़ज़ (तस्वीर: advocatetanmoy.com)


फ़रवरी 1910 में एक ऐसी ही धोती सरकारी अधिकारियों के सामने लाई गई. उसके बॉर्डर पर एक कविता लिखी हुई थी.
एक बार बिदाय दे मां, घूरे आसी ! हंसी हंसी पोरबो फांसी देखबे भारतबासी !
हिंदी में जिसका अर्थ है,
एक बार मुझे विदा दो मां, मैं जल्दी लौटूंगा.पूरे भारत के लोग मुझे देखेंगे और मैं हंसते-हंसते फांसी पर झूल जाऊंगा.
खुदीराम को आज हम एक महान क्रांतिकारी के तौर पर जानते हैं. 18 साल का वो लड़का क्या क्रांतिकारी बनने की कोशिश नहीं कर रहा था? या कोशिश कर रहा था कि वो महान लोगों की श्रेणी में गिना जाए?
क्रिस्टोफर नोलन की एक फ़िल्म है, बैटमैन बिगिन्स. जिसके एक डायलॉग में इस सवाल का जवाब मौजूद है. फ़िल्म के एक सीन में ये पूछे जाने पर कि वो कौन है, बैटमैन जवाब देता है,
I am not who I am underneath, but what I do that defines me.
यानी,
मैं अंदर से क्या हूं, इससे कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता. सिर्फ़ मेरा काम ही मेरी पहचान है. मैं जो कर रहा हूं. बस वही हूं. 

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