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जोसेफ स्टालिन की सनक के चलते यूक्रेन में भूखे मरे लाखों लोग

1930 में स्टालिन ने यूक्रेन का सारा अनाज लेकर विदेशों में निर्यात कर दिया

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होलोडोमोर यूक्रेन का वो काला इतिहास है जब सोवियत संघ की नीतियों के चलते 25,000 लोग हर दिन मारे जा रहे थे. (तस्वीर: AFP)
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कमल
9 मार्च 2022 (Updated: 8 मार्च 2022, 04:34 AM IST) कॉमेंट्स
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कौन दोबारा चक्कर काटेगा? दिसंबर की एक सर्द रात है. साल 1931. यूक्रेन के किसी गांव में मिखाइलो और वर्वरा अपनी बेटी का इंतज़ार कर रहे हैं. रात के 10 बज चुके हैं. और सुबह 8 बजे घर से निकली उनकी बेटी मारिया अभी तक घर नहीं लौटी है. उनका 11 साल का बेटा मिश्को बग़ल में लेटा है. मिश्को की आंखें बंद हैं. लेकिन पुरज़ोर कोशिश के बाद भी नींद आंखों के अंदर दाखिल नहीं हो पा रही है. आंखें बार-बार पेट की ओर देखकर दुहाई दे रही हैं, लेकिन पेट खुद भूख की गिरफ़्त में है. और ये कोई मामूली भूख नहीं है, एक महामारी है, जिसके आगे कोई और दर्द कहीं नहीं ठहरता.
तभी दरवाज़े पर दस्तक होती है. मारिया लौट चुकी है. मिखाइलो दरवाज़ा खोलते हैं, और जाने किस उम्मीद से मारिया के हाथों की ओर देखते हैं. हाथ ख़ाली है. मिखाइलो की उम्मीद भी खाली हो चुकी है. अब बारी ग़ुस्से की है. वर्वरा मारिया पर चिल्लाती हैं, ‘कहां थी दिन भर! पता नहीं बच्चों को ख़ाने वाले घूम रहे हैं.’
कोई और वक्त होता, तो घर से बाहर ना निकलने के लिए मां-बाप बच्चों को ऐसे ही डरा रहे होते. लेकिन आज ये सच है. और इस सच को मारिया भी जानती है. इसलिए कुछ कहना तो चाहती है, लेकिन उसे अहसास होता है. आज मुंह को बातें नहीं, रोटी का कौर चाहिए. ये सोचकर मारिया घर के पीछे का दरवाज़ा खोलती है. और पीछे के खेत से कुछ हरी पत्तियां तोड़ कर ले आती है. वर्वरा उन पत्तियों को पानी में उबाल कर एक शोरबा बनाती है. और एक प्लेट में निकालकर मिश्को के आगे रख देती है. मिश्को चम्मच के सूप को टटोलता है, कहीं कोई उम्मीद का टुकड़ा निकल आए. तीन-चार बार चम्मच प्लेट में घूमती है और फिर उंगलियों से फिसल जाती है. नींद ने आख़िरकार भूख पर जीत पा ली है. हमेशा-हमेशा के लिए.
कुछ मिनट गुजरते हैं. दरवाज़े पर एक और बार दस्तक होती है. अबकी बार महान सोवियत साम्राज्य के कुछ वर्कर आए हैं. वो मिश्को को एक सफ़ेद चादर में लपेटते हैं और लाश को उठा लेते हैं. मां-बाप, बहन कोई कुछ नहीं कहता. दरवाज़े पर पहुंचकर उनमें से एक पलटता है, और कहता है, “इस बुढ़िया को साथ भी ले चलते हैं, जब तक क़ब्रिस्तान पहुंचेंगे तब तक ये भी निपट लेगी. कौन फिर दोबारा चक्कर काटेगा!”  पूरी रात में पहली बार एक आंसू टपकता है. मारिया की आंख से. लेकिन वो अब भी कुछ नहीं बोलती. बात क्रूर थी. लेकिन सच थी. जो काम नहीं करेगा 1917 में रूस में क्रांति हुई. सोवियत संघ का उदय हुआ. प्रथम विश्व युद्ध और क्रांति कि चलते पूरे सोवियत संघ में भयंकर अकाल पड़ा. तब लेनिन ने अकाल के कारणों और समाधान को लेकर एक पत्र लिखा.
ये पत्र समस्त सोवियत संघ के कामगारों को लिखा गया था. इस पत्र में लेनिन लिखते हैं,
“अकाल का कारण अन्न की कमी नहीं है. हमारे पास बहुत सा अन्न पैदा करने की क्षमता है. अकाल की स्थिति के लिए बुर्जुवा ज़िम्मेदार हैं. जो राशन का भंडारण कर रहे हैं, और इस वजह से लोगों को राशन नहीं मिल पा रहा है”
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व्लादिमीर इलिच उल्यानोव का जन्म साल 1870 में 22 अप्रैल को वोल्गा नदी के किनारे बसे सिम्ब्रिस्क शहर में हुआ था. (तस्वीर: Wikimedia Commons)


इसके बाद लेनिन ने सोवियत साम्यवाद का मूल मंत्र जारी किया, “जो काम नहीं करेगा, उसे खाने का भी अधिकार नहीं है.” पहली नज़र में क्या नोबल विचार लगता है. अवश्य ही सभी लोगों को खाने के लिए मेहनत करनी चाहिए. लेकिन विचार निर्वात यानी वैक्यूम  में तो होते नहीं. विचार का अर्थ क्या निकलेगा, इस बात पर निर्भर करता है कि वो किसके हाथ में पड़ता है.
1928 में जब स्टालिन में पहली पंचवर्षीय योजना की शुरुआत की. तो उन्होंने एक प्रोग्राम चलाया, जिसके तहत ज़मीन की प्राइवेट ओनरशिप को ख़त्म कर दिया गया. यानी लोग अब अपने खेत में अनाज नहीं उगा सकते थे. इसके अलावा ‘कलेक्टिव फ़ार्म्स’ की शुरुआत की गई. जिसमें काम करके आपको कुछ पैसा मिलता. और जो भी उपज होती वो सरकार के पास जाती.  सोवियत यूक्रेन, जो तब दुनिया की ‘ब्रेड बास्केट’ के रूप में जाना जाता था. वहां किसानों और ज़मींदारों ने इस नए क़ानून का विरोध किया. और कलेक्टिव फ़ार्म्स में काम करने से मना कर दिया. इसके जवाब में स्टालिन ने एक और प्रोग्राम चलाया. इस प्रोग्राम का नाम था, डीकुलकाइज़ेशन. कुलक शब्द का अर्थ होता है, बंद मुट्ठी. इस तरह डीकुलकाइज़ेशन का अर्थ हुआ, उन सभी किसानों को बहिष्कृत करना, जो अपनी मुट्ठी खोलने को तैयार नहीं थे. यानी ज़मीन पर मालिकाना हक़ छोड़ने को तैयार नहीं थे.
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यूक्रेन में तबाही की खबर जब बाहर आई तो पूरी दुनिया में खलबली मच गई. (तस्वीर: Wikimedia Commons)


लेनिन अपने दौर में ही सोवियत संघ को औद्योगिक शक्ति बनाना चाहते थे. इसके लिए उनके पास दो रास्ते थे. पहला कि दूसरे देशों से लोन लें, और दूसरा कि कुछ बेचें. बेचने के लिए सोवियत संघ के पास एक ही चीज़ थी, राशन. इसके चलते 1920 के दशक में यूक्रेन से अधिकतर अनाज यूरोप के दूसरे देशों, जैसे फ़्रांस और जर्मनी को निर्यात कर दिया गया. और सोवियत संघ में अनाज की कमी होने लगी. तब स्टालिन ने एक डिक्री जारी की और राशन के भंडारण को गैर क़ानूनी घोषित कर दिया. अपने खेत में अनाज पैदा करने पर पाबंदी लगा दी गई. यूक्रेन में अन्न की कमी होने लगी. लोग भूखे मरने लगे, तो स्टालिन ने लेनिन की बात दोहराई. लेकिन थोड़ी अलग तरह से.
“जो काम नहीं करेगा, उसे खाने का भी अधिकार नहीं है.”
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“जिसे खाना नहीं मिल रहा, अवश्य ही वो काम भी नहीं कर रहा होगा”
होलोडोमोर 1930-1932 के बीच यूक्रेन में भयंकर अकाल पड़ा. इसे पीरियड को यूक्रेन के इतिहास में होलोडोमोर के नाम से जाना जाता है. होलोडोमोर का अर्थ है, ‘जान बूझ कर पैदा किया गया अकाल.’ लोग भूख से मर रहे थे, और दोष भी उन्हीं को दिया जा रहा था. सोवियत संघ के इतिहास में इस दौर को समझने के लिए जॉर्ज ऑरवेल के उपन्यास ‘द ऐनिमल फार्म’ को एक परफ़ेक्ट रूपक माना जाता है.
उपन्यास में जो ‘ऐनिमल फार्म’ दर्शाया गया है, उसके मालिक का नाम है जोंस. माना जाता है कि ऑरवेल ने इस किरदार का नाम गैरेथ जोन्स के नाम पर दिया था. कौन थे ये गैरथ जोंस वो पहले पत्रकार थे जिन्होंने यूक्रेन में अकाल की असलियत को दुनिया के सामने उजागर किया. जोंस ब्रिटेन के तत्कालीन PM डेविड लॉयड जॉर्ज के सलाहकार थे. और स्वतंत्र पत्रकार के रूप में भी काम किया करते थे. 1931 में जब अमेरिका ग्रेट डिप्रेशन की मार सह रहा था, जोंस के पास खबरें पहुंच रही थीं कि सोवियत संघ में दूध की नदियां बह रही हैं.
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अकाल से ग्रस्त इलाक़े और जोसेफ स्टालिन (तस्वीर: AFP)


1930 और 31 में जोंस सोवियत संघ की यात्रा पर गए. वहां उन्होंने जैसा सुना था, वैसा ही देखा. लेकिन जो देखा वो स्टेट प्रायोजित था. किसी विदेशी पत्रकार को यूक्रेन तो छोड़ो मॉस्को के गांवों में भी नहीं जाने दिया जाता था. हिटलर का इंटर्व्यू कर चुके जोंस जानते थे कि जहां कुछ छुपाया जा रहा हो. असलियत वहीं छुपी है. लेकिन दिक्कत ये थी कि सोवियत संघ के अकाल वाले इलाक़ों तक पहुंचा कैसे जाए?
सोवियत संघ में तब एक ही विदेशी पत्रकार की तूती बोलती थी. वॉल्टर डुरांटी. 1922 से लेकर 1936 तक डुरांटी न्यू यॉर्क टाइम्स के मॉस्को ब्यूरो के चीफ़ रहे. स्टालिन की पंचवर्षीय योजना, कलेक्टिव फ़ार्म्स के प्रयोग और यूरोप के पहले साम्यवादी एक्सपेरिमेंट पर डुरांटी ने न्यू यॉर्क टाइम्स में 11 रिपोर्ट लिखी. इसकी वजह से उन्हें 1932 का पुलित्ज़र प्राइज़ भी मिला. यूक्रेन में एंट्री के लिए डुरांटी रास्ता खोल सकते थे. इसलिए जोंस ने उनसे मदद मांगी. जब डुरांटी ने उनके लिखे पत्रों का जवाब नहीं दिया तो जोंस ने प्रधानमंत्री से पत्र लिखवाया. लेकिन इस पर भी बात ना बनी. लोग भूखे ज़रूर हैं पर भूख से मर नहीं रहे हैं आख़िर में जोंस ने खुद ही यूक्रेन में एंटर करने की ठानी और एक ट्रेन में बैठकर गैर क़ानूनी ढंग से यूक्रेन में घुस गए. इसके बाद जोंस ने जो देखा वो हमने आपको शुरुआत में बताया है. वो एक यूक्रेनियन परिवार की आप बीती थी. स्टालिन की नीतियों के तहत यूक्रेन के परिवार भुखमरी के भेंट चढ़ रहे थे. इतना सा भी अनाज दिखता तो, सोवियत अधिकारी उसे ज़ब्त कर मॉस्को भेज देते. जिस दौरान यूक्रेन में लोग कैनिबलिज़्म पर उतर आए थे, मॉस्को में अन्न के भंडार जमा हो रहे थे.
यूक्रेन में जिन कलेक्टिव फ़ार्म्स को सरकारी देखरेख में चलाया जा रहा था. वहां लोग मजबूरी में काम कर रहे थे. इसलिए ना फसल की देखरेख अच्छे से हो पा रही थी, ना ही सही बीज बोए जा रहे थे. एक करेला, दूसरे नीम चढ़ा कहने को इसी दौर में स्टालिन ने औद्योगीकरण में तेज़ी लाने के लिए राशन का एक्सपोर्ट और तेज कर दिया. जिससे अकाल की स्थिति और वीभत्स हो गई. 1931 से 34 के बीच यूक्रेन में अकाल के चलते लगभग 35 लाख लोग मारे गए.
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गैरेथ जोन्स (बाएं) और वॉल्टर डुरांटी (दाएं) (तस्वीर: Wikimedia Commons)


1933 में जोंस को पकड़कर सोवियत संघ से निकाला दे दिया गया. इस दौरान जोंस ने जो रिपोर्ट लिखी वो दुनिया भर के अख़बारों में छपी. और पहली बार सोवियत संघ की असलियत दुनिया के सामने आई. जिसके बाद वॉल्टर डुरांटी की बहुत किरकिरी हुई और उनसे पुलित्ज़र प्राइज़ वापस लेने की बात होने लगी. डुरांटी ने अपनी साख बचाने के लिए न्यू यॉर्क टाइम्स में एक क्लैरिफ़िकेशन छापा. उन्होंने लिख़ा, ‘सोवियत लोग भूखे ज़रूर हैं पर भूख से मर नहीं रहे हैं.’
बोतल से जिन्न बाहर आ चुका था. लेकिन तब तक जर्मनी में नाज़ीवाद परवान चढ़ चुका था. और दूसरे विश्व युद्ध के बाद यहूदियों के संहार की कहानी सामने आई तो होलोडोमोर की क्रूरता नेपथ्य में चली गई. सोवियत संघ हमेशा इस बात से इनकार करता रहा, और यूक्रेन की आजादी के बाद ही इसको लेकर शोध सामने आ सके. जोंस का क्या हुआ?
1935 में जब जोंस मंगोलिया में इन्वेस्टिगेटिव जर्नलिस्म कर रहे थे. तब उन्हें अगवा कर उनकी हत्या कर दी गई. माना जाता है कि इस हत्या में सोवियत सीक्रेट पुलिस का हाथ था.

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