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‘मदर इंडिया’ के जवाब में बना कौन सा क़ानून?

साल 1929 में पास हुए शारदा एक्ट के बाद भारत में लड़कियों की शादी की न्यूनतम उम्र 14 साल कर दी गई थी.

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कैथरीन मायो की किताब मदर इंडिया जिसने भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन को रूककर सोचने पर मजबूर कर दिया (तस्वीर: Amazon)
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23 सितंबर 2022 (Updated: 21 सितंबर 2022, 06:49 IST)
Updated: 21 सितंबर 2022 06:49 IST
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पिछले साल यानी दिसंबर 2021 की बात है. केंद्र सरकार ने संसद में एक बिल पेश किया, जिसमें लड़कियों की शादी की उम्र 18 से बढ़ाकर 21 साल करने का प्रावधान था. बिल ने एक नई बहस को जन्म दिया. पक्ष में कहा गया कि इससे बाल विवाह पर रोक लगेगी. वहीं विरोधियों ने कहा कि उम्र बढ़ाने से ऐसे मामलों में इजाफा होगा जहां मां-बाप लड़कियों को अपनी मर्जी से शादी नहीं करने देते. इसके अलावा जब शादी की उम्र 18 होते हुए बाल विवाह नहीं रुका, तो 21 में क्योंकर रुकेगा, ये भी सवाल था. बहरहाल सवालों के जवाब और जवाबों के सवाल का ये सिलसिला संसद में जारी रहेगा. क्योंकि ये बिल वर्तमान यानी सितम्बर 2022 में संसद की स्टैंडिंग कमिटी के पास है. फिलहाल अपन चलते हैं इतिहास में.

शुरुआत GK के सवाल से. ऑस्कर के लिए नॉमिनेट होने वाली पहली भारतीय फिल्म कौन सी थी?
जवाब है 1957 में आई, महबूब खान निर्देशित मदर इंडिया. मदर इंडिया को भारतीय इतिहास की सबसे महान फिल्मों में से एक गिना जाता है. कहानी एक भारतीय औरत की, जो अपने बेटों के लिए हड्डी तोड़ मेहनत करती है, और फिर उनमें से एक बेटे को, एक औरत की इज्जत बचाने के लिए गोली मार देती है. 

जब फिल्म बनी तो इसे तमाम तरीके के अवार्ड मिले, तत्कालीन राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री के लिए इसकी स्पेशल स्क्रीइंग रखी गई. सरकार ने खूब सराहा. लेकिन कुछ दिन पहले यही सरकार फिल्म बनने से पहले इसकी स्क्रिप्ट मांग रही थी. ये चेक करने के लिए की फिल्म राष्ट्रविरोधी तो नहीं है. सरकार की इस कैफियत की वजह थी एक किताब,‘मदर इंडिया’. जो सन 1927 में लिखी गई थी. लेखिका का नाम था कैथरीन मायो. सरकार को शक था कि फिल्म किताब पर बेस्ड है. ऐसा क्या था इस किताब में?

क्या लिखा था कैथरीन ने?

कैथरीन की किताब दरअसल एक प्रोपोगेंडा थी. कैथरीन भारत को आजादी दिए जाने के सख्त खिलाफ थीं. उसने इसके लिए भारत में महिलाओं की हालत को नमूने के तौर पर पेश किया. यहां तक तो सही था. भारत में कम उम्र की लड़कियों की शादी कर दी जाती थी. उन्हें गर्भवती होना पड़ता था. और कइयों पर ‘बाल विधवा’ होने का कलकं लगा दिया जाता था. लेकिन कैथरीन एक कदम आगे गई. 

कैथरीन मायो और उनकी किताब 'मदर इंडिया' (तस्वीर: Wikimedia Commons) 



उन्होंने भारतीय पुरुषों के नस्लीय पक्ष को कारण बताते हुए लिखा कि भारतीय मर्द की सेक्सुअलिटी में दिक्कत है. और इसी के चलते भारत समलैंगिकता और वेश्यावृत्ति का अड्डा बना हुआ है. किताब के दावों का ब्रिटिश सरकार ने खूब समर्थन किया. अंग्रेज़ बहादुर बोले कि इन्हीं कारणों से भारत आजादी के लायक नहीं है. किताब का भरपूर विरोध हुआ. पुतले जलाए गए. स्वयं गांधी जी ने किताब का जवाब देते हुए लिखा, 

“किताब को पढ़कर लगता है मानो किसी नाली के इंस्पेक्टर को देश भर की नालियों की रिपोर्ट तैयार करने को कहा जाए. और वो पूरी रिपोर्ट में सिर्फ नालियों से उठने वाली दुर्गंध का बखान करता रहे. मिस कैथरीन ने भारत की नालियों का ब्यौरा दिया होता तो ठीक होता, लेकिन उनका कहना है कि भारत सिर्फ एक नाली ही है.”

आपके मन में एक सवाल उठ रहा होगा कि इस किताब का भारत में लड़कियों की विवाह की उम्र से क्या लेना-देना है? सिलसिलेवार ढंग से समझिए.

आजादी का आंदोलन और मदर इंडिया 

भारत में स्वायत्ता की मांग पर साल 1919 में सरकार ने गवर्नमेंट ऑफ़ इंडिया एक्ट पास किया. लेकिन कांग्रेस इससे संतुष्ट नहीं थी. 1925-26 आते-आते स्वायत्ता की मांग पूर्ण स्वराज में तब्दील होने लगी. आजादी की मांग देश-विदेश से उठने लगी थी. खासकर अमेरिका में. जहां भारतीय आजादी के समर्थक इसे अमरीकी क्रांति से जोड़कर देख रहे थे. ब्रिटिश सरकार के लिए ये चिंता की बात थी. उन्होंने कैथरीन मायो को एक किताब लिखने का न्योता दिया. मायो अमेरिकी फेमिनिस्ट सर्कल्स में काफी नाम रखती थीं. इसलिए उन्होंने भारत की महिलाओं पर एक किताब लिखने का बीड़ा उठाया.

फिल्म मदर इंडिया का एक दृश्य (तस्वीर: IMDB)

मायो को इसके लिए क्यों चुना गया? दो कारण. मायो इससे पहले फिलीपींस की आजादी के विरोध में ऐसी ही एक किताब लिख चुकी थीं. दूसरा कारण ये था कि तब महिला अधिकारों को लेकर दुनियाभर में आंदोलन चल रहे थे. ब्रिटेन में महिलाओं को वोट का अधिकार मिलने की एक लम्बी लड़ाई चल रही थी. जिसके नतीजे में उन्हें 1928 में वोटिंग का अधिकार मिल गया. ऐसे माहौल में ब्रिटिश सरकार को लगा कि भारत में महिलाओं की स्थिति को राष्ट्रवाद के खिलाफ एक हथियार बनाया जाए. उन्होंने मायो की किताब का खूब समर्थन किया. और तर्क से तर्क जोड़ते हुए पूछा कि भारतीय समाज में चल रही कुरीतियों बाल विवाह, आदि के चलते ये किस तरह संभव है कि भारतीय स्वशासन की जिम्मेदारी संभाल सकेंगे.

वहीं दूसरी तरफ भारतीय राष्ट्रवादी आंदोलन के नेताओं ने कैथरीन की किताब का जमकर विरोध किया. दक्षिणपंथी धड़े द्वारा इसे हिन्दू धर्म की अवहेलना के तौर पर देखा गया. इस धड़े का कहना था कि भारत की महानता उसके इतिहास, उसकी परम्पराओं में निहित है. लेकिन गांधी आदि नेताओं के लिए मायो की बात एक सवाल बनकर खड़ी हो गयी. आंकड़े साफ़ हकीकत बयान कर रहे थे. 1921 की जनसंख्या रिपोर्ट के अनुसार भारत में, 

- 10 से 15 वर्ष की बीच की प्रति हजार लड़कियों में से 382 की शादी हो चुकी थी. और इनमें से 17 तो विधवा भी हो चुकी थीं. 
-5 से 10 साल की उम्र की हर हजार हिन्दू लड़कियों में 111 शादी शुदा थीं. और 10 से 15 साल की उम्र के बीच हर 1000 लड़कियों में से 437 की शादी हो चुकी थी. 
- 5 से 10 साल की उम्र की मुसलमान लड़कियों में 1000 में से 50 की शादी हो चुकी थी. वहीं 10 से 15 साल की उम्र के बीच हर 1000 लड़कियों में से 344 की शादी हो चुकी थी. 
- इसके अलावा 600 संख्या ऐसी लड़कियों की थी जिनकी शादी के वक्त उम्र 12 महीने से कम थी. 

इन आंकड़ों और मायो की किताब से नेताओं को अहसास हुआ कि भारतीय समाज की कुरीतियों का सफाया किए बिना राष्ट्रवादी आंदोलन का तर्क मजबूत नहीं हो पाएगा. बात ऐसी थी कि अगर आप अपने यहां जातिवाद और बाल विवाह जैसी कुरीतियों को समर्थन दोगे तो विदेश में आजादी का सवाल किस मुंह से उठाओगे.

ऐज ऑफ कंसेंट 

इसके एवज में साल 1927 में सारा राष्ट्रवादी डिस्कोर्स महिलाओं के अधिकारों के इर्द गिर्द घूमने लगा. और उसी साल लेजिस्लेटिव असेम्बली में पेश हुआ एक बिल. चाइल्ड मैरिज रेस्ट्रेंट एक्ट, यानी बाल विवाह रोकथाम क़ानून. कहने को तो ये बिल बाल विवाह रोकने के लिए था, लेकिन इसके पीछे कहीं लम्बी बहस थी, जो शुरू हुई थी 1856 में. क्या हुआ था उस साल?

भारत में बाल विवाह का डेटा (तस्वीर:  Wikimedia Commons)

लार्ड डलगोजी ने एक क़ानून पास कर विधवा पुनर्विवाह को क़ानून सम्मत घोषित कर दिया था. इस विषय को हम 7 दिसंबर के एपिसोड में कवर कर चुके हैं. लिंक डिस्क्रिप्शन में मिल जाएगा. इस क़ानून के एक साल बाद ही 1857 की क्रांति हो गई. और दबा दी गई. इस विद्रोह का एक बड़ा कारण धार्मिक परम्पराओं से छेड़छाड़ थी. इसलिए उसी साल रानी विक्टोरिया ने अहद उठाया कि ब्रिटिश सरकार भारतीय समाज की धार्मिक परम्पराओं से छेड़छाड़ नहीं करेगी. लेकिन इसके चार दशक बाद ब्रिटिश सरकार को एक क़ानून बनाना पड़ा, जो धर्म की लाइन को छूने की जुर्रत कर रहा था. साल 1887 में बॉम्बे हाई कोर्ट के पास एक केस आया. 

11 साल की एक लड़की की तब मौत हो गई थी जब उसके 35 साल के पति ने उसके साथ सेक्स करने की कोशिश की. IPC के तहत सेक्स के लिए सहमति देने के लिए 10 साल की उम्र नियत थी. इसलिए जब ये केस सामने आया तो सरकार को दखल देना पड़ा. और 1891 में ऐज ऑफ कंसेंट, यानी वो उम्र जब एक लड़की यौन संबंध के लिए सहमति दे सकती है, उसे 10 से बढ़ाकर 12 साल कर दिया गया. इस क़ानून का विरोध हुआ. सरकार ने तर्क दिया कि 12 साल से पहले कुछ ही लड़कियों को माहवारी या पीरियड होते हैं. इसलिए ये क़ानून हिन्दू धर्म की रीतियों में दखल नहीं देता. अब यहां से 3 दशक आगे बढ़ते हैं.

लड़कियों की शादी की न्यूनतम उम्र 

साल 1921 में लेजिस्लेटिव असेम्बली का गठन हुआ. और इसके अगले ही साल असेम्ब्ली के एक मेंबर राय बहादुर बक्शी सोहन लाल ने प्रस्ताव रखा कि ऐज ऑफ कंसेंट को 12 से बढ़ाकर 14 कर देना चाहिए. ये बिल 1925 में पास हुआ लेकिन कंसेंट की उम्र 13 साल ही राखी गई. इसके बावजूद ये क़ानून बिना धार की तलवार सरीखा था. शादी के लिए कोई नियत उम्र नहीं थी. उसके बाद सेक्स कब किया जाता है, इसको ट्रैक करना कतई व्यावहारिक बात न थी.

महात्मा गांधी (तस्वीर: Wikimedia Commons)

इसलिए साल 1927 में ने एक नया बिल पेश हुआ. ये बिल ऐज ऑफ़ कंसेंट के बजाय ‘ऐज ऑफ मैरिज’ को ध्यान में रखकर बनाया था. बिल पेश करने वाले हरबिलास शारदा पहले जोधपुर कोर्ट में जज हुआ करते थे. उनके नाम पर इस एक्ट को शारदा एक्ट के नाम से भी जाना जाता है. 1924 में जब अजमेर-मेवाड़ रीजन को लेगिसलेजिव असेम्बली में सीट मिली तो वो मेंबर चुने गए. उन्होंने इस बिल के पीछे कारण बताया कि इससे बाल विधवाओं की संख्या में कमी आएगी. बिल में लड़कियों की शादी की उम्र 16 साल करने का प्रस्ताव था. ये बिल पास तो नहीं हो पाया लेकिन सरकार एक कमिटी बनाने के लिए राजी हो गई. 

इस कमिटी का काम था पूरे देशभर में घूमकर ऐज ऑफ कंसेंट पर जनता की राय जानने की कोशिश करना. कमिटी बन गई लेकिन सरकार का असली मकसद ये नहीं था. उन्हें डर था कि शादी की उम्र के मामले में दखल देकर वो वो धर्म के अखाड़े में टांग अड़ा रहे हैं. और अगर ये क़ानून पास हुआ तो एक बार फिर बिल उनके नाम पर फटेगा और जनता में विद्रोह और पनपेगा. अगले दो साल तक बिल ज्यों का त्यों पड़ा रहा. कमिटी ने भी कोई रिपोर्ट पेश नहीं की. फिर जून 1929 में ब्रिटेन में एक घटना हुई. उस साल हुए चुनावों में पहली बार ब्रिटेन में 21 साल से ऊपर की महिलाओं ने वोट डाला था. नतीजा हुआ की कंजर्वेटिव पार्टी को हराकर लेबर पार्टी सरकार बनाने में सफल हो गई. और ब्रिटिश सरकार के आते ही भारत में शारदा एक्ट को समर्थन मिलने लगा. जल्द ही सरकारी कमिटी की रिपोर्ट भी आ गई. 

शारदा एक्ट कैसे पास हुआ? 

कमिटी ने लड़कियों की उम्र 14 नियत करने की सिफारिश की. लेकिन साथ ही इसे ऐज ऑफ कंसेंट से बदलकर ऐज ऑफ मैरिज करने का सुझाव दिया. पहले शारदा एक्ट सिर्फ हिन्दुओं तक सीमित था लेकिन बाद में इसमें पूरे ब्रिटिश इंडिया के नागरिकों के लिए लागू करने का फैसला लिया गया. असेंबली के मुस्लिम सदस्य इस फैसले से कतई खुश नहीं थे. मुहम्मद अली जिन्ना ने कहा कि ये समस्या मुख्यतः हिन्दुओं की है. और मुस्लिमों को इससे बाहर रखा जाना चाहिए. 

हर बिलास शारदा (तस्वीर: Wikimedia Commons)

वहीं असेम्बली के कुछ हिन्दू सदस्यों का भी मानना था कि ये बिल हिन्दू धार्मिक अधिकारों पर चोट करता है. 23 सितम्बर को बिल पर हुई आख़िरी बहस में एक हिन्दू सदस्य MK आचार्य ने अपना प्रतिरोध जताते हुए कहा, आप इस बिल से शायद बाल विधावाओं की संख्या को 3 लाख घटा सकें. लेकिन अगले 10 सालों में आप 30 साल अनब्याही लड़कियों की फौज खड़ी कर डोज जो या तो किडनैप की जाएंगी, या पुरुषों के आकर्षण का केंद्र बनेंगी या उन्हें अपना शिकार बनाएंगी.

तमाम बहसों के बाद 28 सितम्बर को असेम्बली में बिल पास हुआ और 67 बनाम 14 वोटों से बिल पास हो गया. बिल को लागू होने में 6 महीने का वक्त लगा. इस दौरान लोगों ने जमकर अपनी 14 साल से कम उम्र की बेटियों की शादियां कराई. जिससे पता चलता है कि इस क़ानून से सभी खुश नहीं थे. आजादी के बाद 1949 में इस बिल में संशोधन कर लड़कियों की शादी की उम्र बढाकर 15 कर दी गई. 1978 में एक और बार संसोधन हुआ. जिसके बाद लड़कियों की उम्र 18 और लड़कों की 21 कर दी गई. उसके बाद इस कड़ी में लेटेस्ट चरण 2021 दिसंबर में पेश हुआ बिल है. जिसके बारे में हम आपको शुरुआत में ही बता चुके हैं.

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