उधार लेकर शराब पीते थे ग़ालिब, अपनी फ़ेवरेट ब्रांड में पीने के पहले क्या मिलाते थे?
ग़ालिब ने कहा - “जी, शराब पीता हूं. सुअर का गोश्त नहीं खाता हूं.”
ग़ालिब शराब पीते थे. गले तक क़र्ज़ में डूबे थे, लेकिन शराब पीते रहते थे. लिखते रहते थे. गोया उनके लिखने और उनके वजूद के लिए शराब ज़रूरी हो. बात बहुत पहले से शुरू करते हैं.
1857 की क्रांति हो चुकी थी. ग़ालिब उस युद्ध और खूनख़राबे से दुखी थे. अपनी फ़ारसी डायरी दास्तानबू में उन्होंने बाक़ायदे 57 की क्रांति का बयान लिखा. बताया है कि कैसे उस युद्ध में उनके दोस्तों की जान गई. और कैसे दिल्ली के राजघाट से चांदनी चौक तक लाशें आती रहीं थीं.
विद्रोह थमने के बाद जब अंग्रेज अफ़सरों ने कमान सम्हाली, तो पहला ध्येय था कि ऐसी दिक़्क़तें दोबारा न हो. मुग़लों के क़रीब रहे मुसलमानों को इकट्ठा किए जाने का फ़रमान जारी हुआ. ग़ालिब भी पकड़े गए. ग़ालिब से अंग्रेज अफ़सर ने पूछा,
“मुसलमान हो?”
ग़ालिब ने जवाब दिया,
“जी, आधा मुसलमान हूं.”
अफ़सर का जवाब आया,
“आधा मुसलमान? इसका क्या मतलब है?”
ग़ालिब ने कहा,
“जी, शराब पीता हूं. सुअर का गोश्त नहीं खाता हूं.”
आसपास वालों ने इस बात पर मुहर लगाई, ग़ालिब बच गए.
कितनी प्यारी थी ग़ालिब को शराब? बस ऐसे समझ लीजिए कि ग़ालिब ज़िन्दगी भर दो चीजों के लिए परेशान रहे. एक, हुकूमती और सरकारी दफ़्तरों के लिए, जहां से उनकी पेंशन शुरू हो सके. जिसके लिए उन्होंने कलकत्ता, लखनऊ और बनारस की यात्रा की. और दूसरी चीज़, ब्रिटिश शासन में मौजूद अपने दोस्तों की दोस्ती के लिए. क्योंकि ये दोस्त उनके लिए फ़ौज की कैंटीन से शराब का इंतज़ाम करते थे. और सबसे अधिक पसंद थी, मेरठ छावनी की कैंटीन. जहां ग़ालिब की फ़ेवरेट शराब मिल जाती थी.
शराब थी - जिन. और ब्रांड का नाम - ओल्ड टॉम. ग़ालिब के बारे में लिखा मिलता है यूं तो वो विस्की और रम पी लेते थे, लेकिन ओल्ड टॉम उनकी मनपसंद शराब हुआ करती थी. और चूंकि अंग्रेज अफ़सरों के लिए ये विलायत से मंगाई जाती थी, तो इसको पाने के लिए ग़ालिब को कैंटीन के शराब घरों का रुख़ करना पड़ता था.
कहते हैं कि पटियाला घराने के तत्कालीन महाराजा मोहिंदर सिंह ने ग़ालिब को ऑफ़र भी दिया. यहां आकर रह जाओ. ग़ालिब का मूड बन रहा था, लेकिन अचानक से मूड चटक गया, जब पता चला कि वहां ओल्ड टॉम थी महंगी. और वही ओल्ड टॉम मेरठ से दिल्ली कम समय और कम पैसे में आ जा रही थी.
ग़ालिब जिन कैसे पीते थे? उसमें गुलाब जल मिलाकर. अब यहीं पर दो कहानियां हैं. ग़ालिब ओल्ड टॉम में थोड़ा गुलाब जल और थोड़ा पानी मिलाकर ग्लास में पी लेते थे. और यहीं पर एक दूसरी कहानी है. इस कहानी में शामिल होता है ग़ालिब के गली क़ासिम जान वाले किराए के घर में काम करने वाला कल्लू. सुप्रीम कोर्ट के वक़ील और कवि सैफ़ महमूद अपनी किताब Beloved Delhi: A Mughal City And Her Greatest Poets में इसका ज़िक्र करते हैं और कहते हैं कि कल्लू ग़ालिब की ड्रिंक बनाता था.
उसके लिए इस्तेमाल होता था मिट्टी के एक पात्र का, जिसे “आब खोरा” कहते हैं. इस आब खोरा में ओल्ड टॉम में गुलाब जल के साथ पेग बनाकर उसे या तो ज़मीन में कुछ घंटों के लिए गाड़ दिया जाता, या उसे कुछ देर पानी भरे बर्तन या किसी पानी भारी जगह के अंदर रख दिया जाता. कुछ घंटों बाद निकालकर ग़ालिब को उनकी शराब दे दी जाती. ग़ालिब मस्त.
लेकिन ग़ालिब का हिसाब-क़िताब सही नहीं चल रहा था. पेंशन के लिए लड़ रहे थे, सरकारी दफ़्तरों के चक्कर काट रहे थे, और शराब भी थी. सवाल उठाने वाले सवाल उठाते, फिर ग़ालिब को उधार दे देते. ग़ालिब ऐसे ही चल रहे थे. ग़ालिब ऐसे ही चले. चलते-चलते जिस शहर पहुंचते, वहीं अपने जीवन का सबसे जरूरी काम करते- लिखना.
ग़ालिब का क़िस्सा हमने क्यों बताया? क्योंकि 15 फरवरी को गालिब का निधन हुआ था
(साथी दीपक कौशिक के सहयोग से)
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