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'जिंदा-सुखा', जिन्होंने ऑपरेशन ब्लू स्टार का बदला लेने के लिए कई मर्डर किए

उस वक़्त की सबसे बड़ी बैंक रॉबरी को अंजाम दिया. आख़िरकार आज ही के दिन फांसी पर चढ़ गए.

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साथ रहे, साथ वारदातें की, साथ ही फांसी पर चढ़े.
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मुबारक
9 अक्तूबर 2019 (Updated: 9 अक्तूबर 2019, 06:23 AM IST)
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1984 में 'ऑपरेशन ब्लू स्टार' हुआ. उस ऑपरेशन का दंश अगले कई साल तक भारत झेलता रहा. कितनी ही आपराधिक गतिविधियों की नींव रखी गई. भारत की इकलौती महिला प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी को अपनी जान गंवानी पड़ी. और भी कई लोगों को चुन-चुनकर मारा गया. इंदिरा की हत्या से भड़के लोगों ने निरपराध सिखों का कत्लेआम किया. एक मिलिट्री ऑपरेशन न जाने कितनी जानें लील गया. होते वक़्त भी और उसके बाद भी. इसी ऑपरेशन से ट्रिगर हुई हत्याओं में जनरल अरुण वैद्य की हत्या भी शामिल है. जनरल वैद्य ने इस ऑपरेशन की पूरी रूपरेखा तैयार की थी. उनकी ही सदारत में इसे अंजाम दिया गया था. दो साल बाद इसी की वजह से उन्हें मार डाला गया. उनके हत्यारों हरजिंदर सिंह 'जिंदा' और सुखदेव सिंह 'सुखा' को नौ अक्टूबर 1992 में पुणे की यरवडा जेल में फांसी दी गई.

कौन थे 'जिंदा-सुखा'

ये दोनों ही सिख ऑर्गेनाईजेशन खालिस्तान कमांडो फ़ोर्स (KCF) के सदस्य थे. अलग खालिस्तान की मांग करते इस संगठन के लिए इन दोनों ने कई वारदातों को अंजाम दिया. इनमें डकैती से लेकर मर्डर तक की हाज़िरी थी.
हरजिंदर सिंह यानी जिंदा अमृतसर जिले के एक किसान परिवार का बच्चा था. चार अप्रैल 1962 को पैदा हुआ था. जब ऑपरेशन ब्लू स्टार हुआ, उस वक़्त जिंदा अमृतसर के खालसा कॉलेज में बीए सेकंड ईयर में था. इस ऑपरेशन के तुरंत बाद उसने पढ़ाई छोड़ दी और अलग खालिस्तान की मांग करने वाले आंदोलन में शरीक हो गया.
कहते हैं कि दोनों में बहुत प्रेम था.
कहते हैं कि दोनों में बहुत प्रेम था.

सुखदेव सिंह 'सुखा' का जन्म राजस्थान के गंगानगर में हुआ था. उसके माता-पिता भी किसान थे. 1983 में करनपुर के ज्ञान-ज्योति कॉलेज से बीए करने के बाद सुखा एमए कर ही रहा था कि 'ब्लू स्टार' घटा. सुखा ने भी पढ़ाई को लात मार दी और अलगाववादियों से जा मिला.

जिंदा-सुखा द्वारा किए गए तीन हाई-प्रोफाइल मर्डर

1. कांग्रेस सांसद ललित माकन
ललित माकन पर 1984 में हुए सिख विरोधी दंगों में शामिल होने का आरोप था. एक 31 पेज की छोटी बुकलेट छापी गई थी उस वक़्त, जिनमें 227 नाम दर्ज थे. ये उन लोगों के नाम की लिस्ट थी, जिन पर तीन दिन के अंदर तकरीबन 3000 सिखों को मारने वाली भीड़ को उकसाने का आरोप था. ललित माकन का नाम इस लिस्ट में तीसरे नंबर पर था.
ललित माकन, हिटलिस्ट में काफी ऊपर नाम था.
ललित माकन, हिटलिस्ट में काफी ऊपर नाम था.

31 जुलाई 1985 का दिन था. ललित माकन तिलक नगर, दिल्ली के अपने घर से निकलकर, सड़क पार अपनी कार की तरफ बढ़े. जिंदा और सुखा अपने तीसरे साथी रंजित सिंह गिल के साथ एक स्कूटर पर वहां पहुंचे. सड़क पार कर रहे ललित माकन पर उन्होंने अंधाधुंध गोलियां बरसानी शुरू कर दीं. ललित अपने घर की तरफ भागे. उन तीनों ने तब भी गोलियां चलाना जारी रखा. इस गोलीबारी की चपेट में माकन की पत्नी गीतांजलि और एक मेहमान बालकिशन भी आ गए. ललित माकन की तुरंत मौत हो गई. रंजित सिंह को दो साल बाद अमेरिका में इंटरपोल की सहायता से पकड़ा गया. डिपोर्ट कर के इंडिया लाया गया. एक लंबी सुनवाई के बाद उसे उम्रकैद की सज़ा हुई. जिंदा और सुखा उस वक़्त हाथ नहीं लगे थे.
2. अर्जन दास, कांग्रेस के नेता
इनको मारने के पीछे भी सेम वजह थी. नानावटी कमीशन के सामने पेश हुए सिख दंगा-पीड़ितों में से कईयों ने अर्जन दास का नाम लिया था. अर्जन दास की शिरकत होने की बात कई चश्मदीद गवाह भी बताते थे. नतीजा ये रहा कि अर्जन दास का नाम हिटलिस्ट में काफी ऊपर पहुंच गया. एक और वजह शायद ये भी रही कि इंदिरा गांधी के पुत्र राजीव गांधी से उनकी गहरी दोस्ती थी. उन्हीं राजीव से जिन्होंने 1984 के दंगों पर कहा था, "जब बड़ा पेड़ गिरता है तो धरती हिलती ही है."
अर्जन दास की हत्या जिंदा-सुखा ने पांच सितंबर 1985 को की. इसके बाद भी वो पुलिस की पकड़ से बाहर रहे. अभी उन्हें और बड़े कारनामे अंजाम देने थे.
3. जनरल अरुण वैद्य को भी मार डाला
कहते हैं ऑपरेशन ब्लू स्टार का तमाम ब्लू प्रिंट जनरल अरुण वैद्य का था. उन्होंने ही इसे अंजाम तक पहुंचाया भी. ज़ाहिर है KCF के सदस्यों की हिटलिस्ट में उनका नाम काफी ऊपर होना ही था. ऑपरेशन के कुछ दिनों बाद जनरल वैद्य रिटायर हुए. पुणे रहने चले गए. मौत उनका पीछा करते हुए वहां तक भी पहुंची.
जनरल वैद्य, रिटायरमेंट के बाद मौत ने दबोचा.
जनरल वैद्य, रिटायरमेंट के बाद मौत ने दबोचा.

10 अगस्त 1986 का दिन था. जनरल वैद्य अपनी पत्नी के साथ मार्केट से लौट रहे थे. जिंदा और सुखा ने अपना स्कूटर अड़ा दिया. नौ गोलियां मारीं. ज़्यादातर उनके सर और गर्दन में लगी. उनकी तत्काल मौत हो गई. साथ बैठी पत्नी को भी चार गोलियां लगी. पलक झपकते सब हुआ. दोनों तत्काल फरार हो गए.

सुखा गिरफ्तार

जनरल वैद्य की हत्या करने के बाद दोनों ने तत्काल पुणे छोड़ दिया. एक ट्रक पकड़कर पहले मुंबई गए और उसके बाद उत्तर भारत आ गए. लेकिन महीने भर बाद सुखा पुणे लौटा. उसे वो हथियार लेने थे, जिन्हें उन्होंने फरारी के वक़्त पीछे ही छोड़ दिया था. पुणे में दुर्भाग्य से उसका एक ट्रक के साथ एक्सीडेंट हो गया. उस वक़्त भी वो वही काली बाइक चला रहा था, जो जनरल वैद्य की हत्या में इस्तेमाल हुई थी. पुलिस ने सुखा को यरवडा जेल भेज दिया. पर जिंदा अभी बाहर था.

भारत की सबसे बड़ी बैंक डकैती

सुखा के गिरफ्तार होने के बाद भी उसके जोड़ीदार ने अपने कारनामे जारी रखे. इस बार नए साथियों के साथ. 13 फ़रवरी 1987 को जिंदा ने खालिस्तान कमांडो फ़ोर्स के अपने साथियों के साथ मिलकर उस वक़्त की सबसे सनसनीखेज़ बैंक डकैती अंजाम दे डाली. लुधियाना में मिलर गंज के पंजाब नेशनल बैंक से लगभग पौने छह करोड़ रुपए लूट लिए. करीब 15 लोग पुलिस वालों की वर्दी पहने और सब मशीन गन से लैस बैंक में घुस आए और सारा पैसा लेकर फरार हो गए. ये भारतीय इतिहास की सबसे बड़ी डकैती थी. लिम्का बुक ऑफ़ रिकॉर्ड्स में भी इसे जगह मिली. जिंदा के साथ इस रॉबरी में KCF का चीफ जनरल लाभ सिंह भी शामिल था. इस कांड के बाद पुलिस ने जिंदा की युद्धस्तर पर तलाश शुरू कर दी.
लाभ सिंह, खलिस्तान कमांडो फ़ोर्स का चीफ जनरल.
लाभ सिंह, खालिस्तान कमांडो फ़ोर्स का चीफ जनरल.

गिरफ्तारी और फांसी

जब पुलिस किसी के पीछे पंजे झाड़कर पड़ जाती है तो उसे पाताल से भी खोज निकालती है. यहां भी ऐसा ही हुआ. बैंक डकैती के एक महीने बाद ही पुलिस ने जिंदा को दिल्ली से धर दबोचा. वो मजनूं का टीला इलाके में एक गुरुद्वारे में छिपा हुआ था. गिरफ्तारी के वक़्त उसने भागने की कोशिश की तो उसकी टांग में गोली मार दी गई.
सुखा की गिरफ्तारी से टूट चुकी जोड़ी जिंदा के गिरफ्तार होने के बाद फिर एक हो गई. पुणे के यरवडा जेल में. दोनों पर एक साथ केस चला. जज ने उन्हें फांसी की सज़ा सुनाई. दोनों ने हत्याओं की बात तो कुबूली लेकिन खुद को दोषी मानने से इनकार कर दिया. बल्कि उन तमाम हत्याओं को इंसाफ बताया. यहां तक कि दोनों ने राष्ट्रपति को एक ख़त भी लिखा था, जिसमें उन्हें क्षमा 'न' करने की अपील थी.
नौ अक्टूबर 1992 को दोनों को यरवडा जेल में फांसी दे दी गई. कहते हैं कि मरने से पहले वो सिखों की आज़ादी और खालिस्तान ज़िंदाबाद के नारे लगाते रहे.


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