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इस देश में 30 फीसदी महिला आरक्षण दिया गया, पता है नतीजा क्या हुआ?

रवांडा में लैंगिक समानता लाने के लिए साल 2003 में संविधान में संशोधन किया गया. संशोधन के माध्यम से देश में महिलाओं को सभी निर्णय लेने वाली संस्थाओं में 30 फीसदी आरक्षण दिया गया.

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story of how rwanda gave reservation to women parliamentarians which is now 61 percent
देश के उत्तराधिकार कानून में भी बदलाव किया गया. जिससे महिलाएं अपने नाम पर प्रॉपर्टी खरीद सकती थीं और बिजनेस करने के लिए किसी भी तरह का कॉन्ट्रैक्ट साइन कर सकती थी. (फोटो- AFP)
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प्रशांत सिंह
20 सितंबर 2023 (Updated: 20 सितंबर 2023, 11:37 PM IST) कॉमेंट्स
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भारत के संसद भवन में महिलाओं के लिए 33 प्रतिशत आरक्षण वाला बिल पारित हो गया है. इस विधेयक में संसद और राज्य की विधानसभाओं में महिलाओं (Womens Reservation Bill) के लिए एक तिहाई सीट आरक्षित करने का प्रावधान है. हालांकि, बिल लागू होने में अभी वक्त है. लेकिन देशभर में एक चर्चा छिड़ गई है. चर्चा संसद में महिलाओं के प्रतिनिधित्व की. वर्तमान में लोकसभा में 78 महिला सांसद मौजूद हैं. ये लोकसभा के कुल सांसदों का लगभग 14 फीसदी है. महिला सदस्यों के प्रतिनिधित्व के मामले में भारत कई देशों से पीछे है. इस लिस्ट में सबसे आगे अफ्रीकी देश रवांडा (Rwanda) का नाम है. वहांकी संसद में लगभग 61 फीसदी महिलाएं बैठती हैं.

रवांडा की अपनी कहानी है

रवांडा क्षेत्रफल में भारत के मेघालय से थोड़ा बड़ा है. इस देश की आबादी लगभग 1 करोड़ तीस लाख है. यहां महिलाओं का राजनीति में आने का इतिहास काफी पुराना है.

रवांडा में दो मुख्य समुदाय थे. हुतू और तुत्सी. हुतूओं का अधिकतर काम खेती-गृहस्थी से जुड़ा था. वहीं तुत्सी मवेशी पालन करते थे. कृषि आधारित समाज में मवेशी संपन्नता की निशानी हैं. ऐसे में तुत्सी अल्पसंख्यक होकर भी पारंपरिक तौर पर ज़्यादा प्रभावशाली रहे. 17वीं सदी में तुत्सी राजशाही भी आ गई. फिर आया साम्राज्यवाद का दौर. पहले जर्मनी, फिर बेल्जियम. दोनों देशों ने रवांडा में अपना शासन चलाया. इन्होंने भी तुत्सियों को वरीयता दी.

दी लल्लनटॉप के अभिषेक  बेल्जियम लिखते हैं कि बेल्जियम ने अपने फ़ायदे के लिए नस्लीय नफ़रत भी भड़काई. वो एक ‘पहचान पत्र’ का सिस्टम लाया. जिसके तहत हर इंसान के आइडेंटिटी कार्ड में उसके समुदाय का ज़िक्र होता. पहचान पत्र के इस सिस्टम ने समुदायों के बीच की खाई और गहरी की. बेल्जियम के सपोर्ट वाले तुत्सी एलीट हुतू किसानों पर अधिक से अधिक कॉफी की खेती का दबाव बनाते. उस कॉफी से बेल्जियम कमाता और कमाई के एवज में उच्च वर्ग वाले तुत्सियों को भी फ़ायदा देता. हुतू वंचित और शोषित रह जाते.

full story of rwanda genocide
रवांडा जनसंहार (फाइल फोटो: एएफपी)

दूसरे विश्व युद्ध के बाद रवांडा में आज़ादी की मांग तेज़ होने लगी. साथ ही साथ, लंबे समय से शोषण के शिकार हुतू अब बड़े स्तर पर पलटवार करने लगे. उन्होंने तुत्सियों को निशाना बनाना शुरू किया. एकाएक सोसायटी का समीकरण बदल गया. बहुसंख्यक अपनी संख्या के कारण वरीयता में रखे जाने लगे. 1957 से 1959 के बीच हुतू समुदाय ने अपनी राजनीतिक पार्टियां बनाईं. इसके कारण तुत्सी राजा किगेरी-5 को हजारों तुत्सी लोगों के साथ देश छोड़कर जाना पड़ा. रवांडा में तुत्सी राजशाही ख़त्म हो गई.

जुलाई 1962 में रवांडा आज़ाद भी हो गया. अब हुतूओं के हाथ में सत्ता आ गई. उन्होंने बरसों हुए शोषण का बदला लेना शुरू कर दिया. कई तुत्सी मारे गए. कइयों को अपना देश छोड़कर भागना पड़ा. जवाब में तुत्सी समुदाय के भीतर भी कई विद्रोही गुट बन गए. रवांडा में यही क्रम बन गया. तुत्सी विद्रोही रवांडा में हमला करते. हुतू सरकार उनसे लड़ती. सरकार विद्रोहियों के किए का बदला लेने के लिए आम तुत्सी आबादी को निशाना बनाती. जो उदार हुतू थे, वे इसकी आलोचना करते. 

मगर सरकार के पास पुराने इतिहास का झुनझुना था. वो कहती कि हम तो बस कोर्स करेक्शन कर रहे हैं. जो हमारे समुदाय के साथ हुआ, उसका बदला ले रहे हैं. ये एक घटना से दूसरी घटना को जोड़कर अंत में जस्टिफ़ाई करने का तरीका था. ताकि हर कृत्य जायज दिखने लगे. रवांडा सरकार ने इस फ़ॉल्ट लाइन को पकड़ लिया था. उन्होंने तुत्सियों को पहले तो अलग साबित किया, फिर उनके पुरखों की ग़लतियों का ठीकरा उस समय की पीढ़ी पर फोड़ने लगे. हुतूवादी सरकार को भारी समर्थन मिलने लगा. इसने उनका काम आसान कर दिया था. हालांकि, अगला स्टेप उससे कहीं ज़्यादा ख़तरनाक होने वाला था.

रवांडा जनसंहार के 29 साल पूरे हो चुके हैं.(फोटो: एएफपी)

1990 में रवांडा पैट्रियॉटिक फ्रंट (RPF) जैसे तुत्सी विद्रोही बलों ने रवांडा पर आक्रमण का प्रयास किया. 1993 में RPF और रवांडा के राष्ट्रपति जे हब्यारिमाना के बीच एक शांति समझौता हुआ. लेकिन किस्मत को कुछ और ही रचना था. 1994 में सब कुछ बदल गया. रवांडा के राष्ट्रपति और बुरुंडी के राष्ट्रपति को ले जा रहे एक विमान को मार गिराया गया. हादसे में दोनों राष्ट्रपतियों की मौत हो गई. लेकिन इस बात का पता नहीं लग सका कि विमान किसने गिराया. तुत्सी चरमपंथियों ने या हुतू चरमपंथियों ने. इस कारण शांति वार्ता पटरी से उतर गई.

अगले 100 दिनों में जो हुआ वो किसी भी देश के लिए काफी दर्दनाक होगा. हुतू उग्रवादियों ने 8 लाख से अधिक तुत्सी और उदारवादी हुतूओं का नरसंहार किया. नफरत भरे भाषणों और राजनीतिक प्रचारों के माध्यम से लोगों को उकसाया गया. अगले कुछ सालों में कई लोगों की हत्याएं हुई और अन्य स्थायी रूप से विस्थापित हो गए.

महिलाओं पर हिंसा के कारण बदलाव

रवांडा में हुए इस नरसंहार के बीच करोड़ों महिलाओं को यौन हमलों और लिंग पर आधारित हिंसा का सामना करना पड़ा. लेकिन इन हिंसाओं में मेन टारगेट पुरुष थे. इसका असर ये हुआ कि जंग खत्म होने के बाद रवांडा में जो आबादी बची, उसका 70 फीसदी हिस्सा महिलाएं थी. हिंसा में कई परिवारों के मुखिया की मौत हुई. तो किसी के परिवार में कमाने वाला नहीं रहा. महिलाओं को कानूनी तौर पर भी इसका नुकसान उठाना पड़ा. उनके पास अपने पति की जमीन और अन्य संपत्ति अपने नाम ट्रांसफर कराने के अधिकारी भी नहीं थे.

इस कड़ी में रवांडा सरकार ने एक बड़ा बदलाव करने का फैसला किया. देश में लैंगिक समानता लाने के लिए साल 2003 में संविधान में संशोधन किया गया. संशोधन के माध्यम से देश में महिलाओं को सभी निर्णय लेने वाली संस्थाओं में 33 फीसदी आरक्षण दिया गया. इतना ही नहीं एक ‘मिनिस्ट्री ऑफ जेंडर’ भी स्थापित की गई. ये अफ्रीका में अपनी तरह की पहली मिनिस्ट्री थी. देश के उत्तराधिकार कानून में भी बदलाव किया गया. जिससे महिलाएं अपने नाम पर प्रॉपर्टी खरीद सकती थीं और बिजनेस करने के लिए किसी भी तरह का कॉन्ट्रैक्ट साइन कर सकती थीं.

बदलाव से असल में क्या बदला?

रवांडा के संविधान में किए गए बदलाव को दो दशक हो चुके हैं. देश के 80 सीटों वाले निचले सदन में 49 सीटों पर महिलाओं का कब्जा है. वर्ल्ड इकोनॉमिक फोरम (WEF) द्वारा जारी किए गए साल 2023 के जेंडर गैप इंडेक्स के अनुसार रवांडा 146 देशों में 12वें स्थान पर है. माने लैंगिक समानता के पैमाने में काफी सुधार हुआ है. भारत इस इंडेक्स के अनुसार 127वें पायदान पर है. रवांडा से 115 स्थान पीछे.

इंडियन एक्सप्रेस की रिपोर्ट में इंटरनेशनल जर्नल ऑफ सोशियोलॉजी के हवाले से बताया गया कि रवांडा में इन बदलावों के मिले-जुले बदलाव देखने को मिले हैं. एक तरफ सरकार के स्तर पर महिलाओं की हिस्सेदारी बढ़ी है, वहीं दूसरी ओर शिक्षा, लिंग आधारित हिंसा और ग्रामीण गरीबी जैसे मुद्दों पर कानून पास किए गए हैं, जो विशेष रूप से महिलाओं के लिए मायने रखते हैं. लेकिन इन बदलावों का फायदा एलीट महिलाओं को मिला है. रिपोर्ट में बताया गया कि आज भी कई महिलाओं को बुनियादी शिक्षा नहीं मिल पा रही है.

रवांडा की जनसंख्या का एक बड़ा हिस्सा अभी भी लैंगिक भूमिकाओं के बारे में पारंपरिक विचार रखता है. सदियों पुरानी परंपराओं की तुलना में कानूनी बदलाव अब भी नए हैं. यही नहीं रवांडा का राजनीतिक माहौल भी कुछ और ही दर्शाता है. युद्ध के बाद से RPF के अध्यक्ष पॉल कागामे सत्ता में बने हुए हैं. ये भी माना जाता है कि उन्हें लोगों का समर्थन मिला हुआ है. उधर उनके आलोचक उन पर सत्तावादी रुख अपनाने और असहमति का कोई भी विचार रोकने के आरोप लगाते हैं. DW की रिपोर्ट के अनुसार जब डायने रविगारा ने 2017 के राष्ट्रपति चुनाव में कागामे को चुनौती देनी चाही तो चुनाव आयोग ने उनकी उम्मीदवारी स्वीकार नहीं की.

RPF गठबंधन वाली महिलाओं की राजनीति काफी हद तक सामान्य रूप से सत्तारूढ़ दल की राजनीति के भीतर फिट बैठती है. लेकिन ये भी कहा जाता है कि ऐसा राज लैंगिंक समानता के प्रावधानों को पहले स्थान पर लाने की अनुमति देता है. महिला आरक्षण से हुए लाभ को बनाए रखने के लिए संयुक्त राष्ट्र महिला ने कहा है कि अन्य बाधाओं से भी निपटना होगा. जैसे कि लैंगिक समानता कानूनों का सीमित उपयोग. महिला से जुड़े कैंपेन के लिए फंड की कमी. शिक्षा के स्तर में सुधार. पितृसत्तात्मक दृष्टिकोण जैसी रूढ़िवादी सोच.   

(ये भी पढ़ें: रवांडा जनसंहार: क्या हम कभी इतिहास से सबक लेंगे या उसे बदलकर बस अपनी पीठ थपथपाते रहेंगे?)

वीडियो: दुनियादारी: रवांडा नरसंहार के हीरो पर सरकार मुकदमा क्यों चला रही है?

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