रवांडा नरसंहार की कहानी: जब 100 दिन में 10 लाख लोग मारे गए
लाखों लोग बेघर हुए. न UN. न ब्रिटेन-अमेरिका जैसे स्वघोषित मानवाधिकार रक्षक. किसी ने भी उनकी मदद नहीं की.
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रवांडा नरसंहार (फोटो: एएफपी)
एक दिन मैंने अपनी बेटी को बेडरूम में बुलाया. मैंने उससे कहा कि तुम जानती हो न उस नरसंहार में लाखों लोग मारे गए थे. सैकड़ों औरतों के साथ बलात्कार हुआ था. तुमने सुना भी होगा कि उस नरसंहार के दौरान हुए बलात्कारों की वजह से कई बच्चे पैदा हुए. मैं तुम्हें बताना चाहती हूं कि नरसंहार के दौरान, मेरे साथ भी बलात्कार हुआ था. उसी से तुम पैदा हुई. चूंकि बलात्कार करने वालों में कई लोग शामिल थे, इसीलिए मैं नहीं जानती कि तुम्हारे पिता कौन हैं.क्या हुआ था जस्टिन के साथ? जस्टिन के साथ हुआ अपराध दुनिया की सबसे ख़ौफनाक त्रासदियों के बीच घटा था. ये त्रासदी है अप्रैल 1994 से जून 1994 के बीच के करीब 100 दिनों की. जब पूर्वी अफ़्रीका के एक देश रवांडा में भीषण नरसंहार हुआ. 100 दिनों के भीतर आठ से दस लाख लोग मार डाले गए. यानी एक दिन में औसतन करीब 10 हज़ार लोगों का क़त्ल. हज़ारों अल्पसंख्यक महिलाओं के साथ सामूहिक बलात्कार किया गया. इस नरसंहार में मारने वाला पक्ष था बहुसंख्यक हुटू (इसे कई जगह हुतू भी कहते हैं). मरने वाले थे अल्पसंख्यक टुत्सी (इनका एक उच्चारण तुत्सी भी है). इस सरकार प्रायोजित नरसंहार में सेना और पुलिस के जिम्मे न केवल अल्पसंख्यकों को मारना था. बल्कि ज़्यादा से ज़्यादा बहुसंख्यक आबादी को हत्यारा बनाना भी था.

रवांडा (फोटो: गूगल मैप्स)
नतीजा ये हुआ कि हज़ारों पड़ोसियों ने अपने पड़ोसियों को काट डाला. चर्च के पादरियों ने रोज़री छोड़कर चाकू उठा लिया. स्कूल के टीचरों ने अपने यहां पढ़ने आए बच्चों को काट दिया. ईश्वर की शरण में आए लोगों को चर्च में बंद करके ज़िंदा जला दिया गया. हत्यारों को ख़ूब इनाम मिला. प्रशासन ने कहा, उनको मार दो तो उनका घर-ज़मीन सब तुम्हारा. लाखों लोग बेघर हो गए. न UN. न ब्रिटेन-अमेरिका जैसे स्वघोषित मानवाधिकार रक्षक. किसी ने भी रवांडा की सुध नहीं ली. किसी ने भी उनकी मदद नहीं की.

फिलिसियां काबूगा (फोटो: एएफपी)
अभी क्यों कर रहे हैं इस नरसंहार का ज़िक्र? इस नरसंहार के मुख्य संदिग्धों में से एक था- फिलिसियां काबूगा. दुनिया के मोस्ट वॉन्टेड अपराधियों में से एक. काबूगा बड़ा बिज़नसमैन था. रवांडा के सबसे अमीर लोगों में से एक. UN ट्रायब्यूनल के मुताबिक, काबूगा पर नरसंहार में शामिल हुटू मिलिशिया को बड़ा फंड देने का आरोप है. उसपर नरसंहार के लिए जनता को भड़काने और इस नरसंहार की साज़िश तैयार करने का भी आरोप है. इल्ज़ाम ये भी है उसने हत्यारों की मदद के लिए बड़ी संख्या में कटारें भी मंगवाईं बाहर से. ये कटार (बड़े साइज़ के चाकू) इस नरसंहार को अंजाम देने वाले प्रमुख हथियारों में से एक थे. 1997 में नरसंहार में भूमिका को लेकर काबूगा पर आरोप तय हुए. लेकिन केस कैसे चलता, काबूगा तो भागा हुआ था. आरोप तय होने के बाद बीते 23 सालों में काबूगा को पकड़ने की बहुत कोशिशें हुईं. मगर काबूगा सबको चकमा देता रहा. अब 23 साल बाद, 16 मई की सुबह आख़िरकार काबूगा पकड़ा गया. वो पहचान बदलकर फ्रांस में रह रहा था. अब 84 साल की उम्र में उसपर केस चलेगा. तब जाकर उसे उसके अपराधों की सज़ा मिल पाएगी.
मगर सवाल है कि ये नरसंहार हुआ क्यों? इसके लिए आपको रवांडा का थोड़ा बैकग्राउंड भी जानना होगा. रवांडा में दो मुख्य समुदायों की बसाहट है- हुटू और टुत्सी. हुटू हैं बहुसंख्यक. और टुत्सी हैं अल्पसंख्यक. हुटूओं का अधिकतर काम खेती-गृहस्थी से जुड़ा था. वहीं टुत्सी मवेशीपालन करते थे. कृषि आधारित समाज में मवेशी संपन्नता की निशानी हैं. ऐसे में टुत्सी अल्पसंख्यक होकर भी पारंपरिक तौर पर ज़्यादा प्रभावशाली रहे. 17वीं सदी में टुत्सी राजशाही भी आ गई.The arrest of Rwandan genocide suspect Felicien Kabuga has put the spotlight on a UN legal body that is still bringing people to justice for war crimes more than two decades after the eventshttps://t.co/Iw9fAeWXfb
— AFP news agency (@AFP) May 16, 2020
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फिर आया साम्राज्यवाद का दौर पहले जर्मनी, फिर बेल्जियम. इन्होंने भी टुत्सियों को वरीयता दी. बेल्जियम ने अपने फ़ायदे के लिए नस्लीय नफ़रत और भड़काई. बेल्जियम एक पहचान पत्र का सिस्टम लाया. इसके तहत हर इंसान के आइडेंटिटी कार्ड में उसके समुदाय का ज़िक्र होता. पहचान पत्र के इस सिस्टम ने समुदायों के बीच की खाई और गहरी की. बेल्जियम के सपोर्ट वाले टुत्सी एलीट हुटू किसानों पर अधिक से अधिक कॉफी की खेती का दबाव बनाते. उस कॉफी से बेल्जियम कमाता और कमाई के एवज में टुत्सी संभ्रांतों को भी फ़ायदा देता. हुटू वंचित और शोषित रह जाते.
सत्ता बदली, शोषितों का पलड़ा भारी हो गया दूसरे विश्व युद्ध के बाद रवांडा में आज़ादी की मांग तेज़ होने लगी. साथ ही साथ, लंबे समय से शोषण के शिकार हुटू अब बड़े स्तर पर पलटवार करने लगे. उन्होंने टुत्सियों को निशाना बनाना शुरू किया. एकाएक सोसायटी का समीकरण बदल गया. बहुसंख्यक अपनी संख्या के कारण वरीयता में रखे जाने लगे. रवांडा में टुत्सी राजशाही ख़त्म हो गई. जुलाई 1962 में रवांडा आज़ाद भी हो गया. अब हुटूओं के हाथ में सत्ता आ गई. उन्होंने बरसों हुए शोषण का बदला लेना शुरू कर दिया. कई टुत्सी मारे गए. कइयों को अपना देश छोड़कर भागना पड़ा. जवाब में टुत्सी समुदाय के भीतर भी कई विद्रोही गुट बन गए. रवांडा में यही क्रम बन गया. टुत्सी विद्रोही रवांडा में हमला करते. हुटू सरकार उनसे लड़ती. सरकार विद्रोहियों के किए का बदला लेने के लिए आम टुत्सी आबादी को निशाना बनाती.

रवांडा सरकार और RPF में जंग जारी रही और लोग मरते रहे (फोटो: एएफपी)
फिर भड़का चरमपंथ, गृह युद्ध शुरू हो गया 60 का दशक ख़त्म होते-होते सामुदायिक हिंसा में कमी आने लगी. बीच-बीच में एकाध घटनाएं होती थीं. मगर मोटा-मोटी हालात सामान्य थे. मगर फिर 90 के दशक में आकर टुत्सी चरमपंथियों ने फिर सिर उठाया. इनमें ज़्यादातर पड़ोसी देशों में रह रहे टुत्सी शरणार्थी शामिल थे. इन्होंने अपना चरमपंथी गुट बनाया. इसका नाम था- रवांडन पेट्रिअटिक फ्रंट. शॉर्ट में, RPF. इन्होंने मिलिटरी ट्रेनिंग और हथियार हासिल करके रवांडा पर हमला करना शुरू कर दिया. इनका मकसद था, रवांडा को जीतकर वहां अपनी हुकूमत कायम करना.
शांति समझौता भी कोई शांति नहीं लाया 1990 से 1993 तक रवांडा सरकार और RPF में ख़ूब जंग हुई. विद्रोहियों और अंतरराष्ट्रीय समुदाय के दबाव में रवांडा सरकार को एक शांति समझौता करना पड़ा. ये साल था 1993. मगर शांति समझौते के बस नाम में ही शांति थी. रवांडा की हुटू बहुसंख्यक सरकार को डर था कि कहीं टुत्सी सत्ता न हथिया लें. इस डर से सरकार ने समझौते की शर्तों को लागू नहीं किया. सरकार ने हुटू समुदाय के मन में डर बिठाने की कोशिश की. उन्हें बीते दौर का ख़ौफ़ याद दिलाना शुरू किया. कहा, एक बार फिर हुटू समुदाय दोयम दर्जे के नागरिक बना दिए जाएंगे. आम आबादी में टेंशन बढ़ने लगी.
प्लेन क्रैश में राष्ट्रपति मारे गए इसी माहौल में आई 6 अप्रैल, 1994 की तारीख़. शाम का समय था. कि राजधानी किगाली के बाहरी हिस्से में सेना का हवाई जहाज़ हवा में ही टुकड़े-टुकड़े हो गया. कौन था इस विमान के अंदर? विमान में थे रवांडा के राष्ट्रपति जुवेनाल हाबियारिमाना. जो कि अफ़्रीकी लीडरान के एक सम्मेलन में हिस्सा लेकर तंजानिया से वापस किगाली लौट रहे थे. पड़ोसी देश बुरांडी के राष्ट्रपति साइप्रियन नटेरियामरा भी उनके साथ विमान में थे. विमान हवा में ही था, जब इसपर रॉकेट से हमला हुआ. प्लेन क्रैश में दोनों राष्ट्रपति मारे गए.

रवांडा के राष्ट्रपति जुवेनाल हाबियारिमाना और प्लेन का मलवा (फोटो: एएफपी)
हमला किसने करवाया? ये हमला किसने किया, ये आज भी एक रहस्य है. कई थिअरीज़ चलती हैं इसपर. कुछ कहते हैं, RPF ने हमला किया. कुछ कहते हैं, इसके पीछे हुटू चरमपंथी संगठन 'इंटराहामवे' का हाथ था. क्योंकि वो नहीं चाहते थे कि राष्ट्रपति हाबियारिमाना RPF को सरकार में शामिल करें. बेल्जियम ने भी अपनी जांच में यही ऐंगल माना था. जो भी हो, मगर इस प्लेन क्रैश के तुरंत बाद जिस स्तर पर टुत्सी समुदाय का नरसंहार शुरू हुआ, उससे ये आशंका लगती है कि सब कुछ सुनियोजित तरीके से साज़िश बनाकर किया गया.
राष्ट्रपति की हत्या के बाद नरसंहार शुरू हो गया प्लेन क्रैश के कुछ ही घंटों के भीतर राजधानी किगाली में सेना ने जगह-जगह बैरिकेडिंग कर दी. सेना ने हुटू समुदाय से कहा कि तुस्तियों को मारना उनका कर्तव्य है. देखते ही देखते आम से दिखने वाले लोग हत्यारों में तब्दील हो गए. चाकू, हथौड़ी, कुल्हाड़ी हाथ में लिए ये लोग टुत्सी अल्पसंख्यकों को चुन-चुनकर मारने लगे. जान बचाने के लिए टुत्सी जिन इमारतों में छुपे, उन्हें पेट्रोल-केरोसिन छिड़ककर जला दिया गया. इमारत की ईंट-पत्थर के साथ उसमें छुपे लोग भी जलाकर मारे गए. जान बचाने की उम्मीद में लोग चर्चों में भागे आए. मगर वहां पादरियों ने हत्यारी भीड़ के साथ मिलकर हज़ारों-हज़ार लोगों को काट डाला. दोस्तों ने दोस्तों को. पड़ोसियों ने पड़ोसियों को. ऑफिस में साथ काम करने वालों ने अपने सहकर्मियों को. यहां कि हुटू पतियों ने टुत्सी समुदाय की अपनी पत्नियों को भी नहीं छोड़ा.Félicien Kabuga, a leading suspect in the 1994 #Rwanda
— INTERPOL (@INTERPOL_HQ) May 16, 2020
#genocide
, was arrested in France with #INTERPOL
support. Kabuga was the subject of an INTERPOL Red Notice, and was targeted by INTERPOL's Rwandan Genocide Fugitives Project https://t.co/bN21Je7aZ2
देखने वालों ने इस दौर में रवांडा और तंजानिया की सीमा के पास बहने वाले रुसुमो जलप्रपात में हज़ारों-हज़ार लाशों को तैरते देखा है. रूसुमो पुल के ऊपर जान बचाकर तंजानिया की ओर भागते टुत्सी शरणार्थी दिखते. और पुल के नीचे पानी में टुत्सी समुदाय के लोगों की लाशें ऐसे उभरतीं, मानो किसी ने हज़ारों-हज़ार पुतलों का विसर्जन कर दिया हो.

(फोटो: एएफपी)
सब देखकर भी अनदेखा करता रहा अमेरिका रवांडा का ये नरसंहार दुनिया के मुंह पर एक ज़ोरदार थप्पड़ था. इसने सबकी पोल खोल दी. सबसे ज़्यादा नंगे हुए अमेरिका, फ्रांस, बेल्जियम और UN. 1990 में RPF के चरमपंथियों ने जब पड़ोसी युगांडा से हथियार और ट्रेनिंग लेकर रवांडा पर हमला किया, तो CIA को सब ख़बर थी. युगांडा की राजधानी कंपाला स्थित अमेरिकी दूतावास को सब पता था. वो जानते थे कि चरमपंथियों द्वारा की जा रही हिंसा के कारण रवांडा में सांप्रदायिक तनाव बहुत बढ़ रहा है. उन्हें हिंसा की भी पूरी आशंका थी. मगर फिर भी अमेरिका चुप रहा. बल्कि वो तो RPF की मदद कर रहे युगांडन राष्ट्रपति योवेरी मुसेवेनी को सैन्य सहायता और बाकी के फंड्स भी देता रहा. इस फंडिंग ने, इस सैन्य सहायता ने नरसंहार की स्क्रिप्ट लिखी.
क्लिंटन ने मुआफ़ी मांगी बाद के सालों में फ्रीडम ऑफ इन्फॉर्मेशन ऐक्ट के माध्यम से कई ऐसे गोपनीय दस्तावेज सार्वजनिक हुए, जो बताते हैं कि किस तरह क्लिंटन प्रशासन सब कुछ जानते हुए भी लाखों लोगों को क़त्ल होते देखता रहा. बाद के सालों में बिल क्लिंटन ने कई बार मुआफ़ी मांगी इसकी. उन्होंने कई बार अफ़सोस जताते हुए कहा कि अगर अमेरिका कोशिश करता, तो कम-से-कम एक तिहाई लोगों की जान बचाई जा सकती थी.

अमेरिकी राष्ट्रपति बिल क्लिंटन ने कई बार मुआफ़ी मांगी. (फोटो: एएफपी)
और फ्रांस? उसने क्या किया? फ्रांस की भूमिका नरसंहार से पहले और उसके दौरान, दोनों स्तरों पर रही. फ्रांस की सरकार हुटूओं को सपोर्ट देती थी. 1990 से 1993 के बीच चले सिविल वॉर में भी फ्रांस हुटू सरकार की हर मुमकिन मदद कर रहा था. फ्रांस के तत्कालीन राष्ट्रपति फॉन्स्वा मितेहॉन् को लगता था कि अगर रवांडा में RPF की सरकार बन गई, तो फ्रांसीसी भाषा बोलने वाले एक देश से उनका प्रभाव कम हो जाएगा.
जनसंहार के समय रवांडा में तथाकथित पीसकीपिंग के लिए मौजूद फ्रांसीसी सैनिक न केवल लोगों को क़त्ल होते देखते रहे. बल्कि उनके ऊपर ख़ुद भी हत्याओं में शामिल होने के आरोप हैं. फरवरी 2010 में वॉल स्ट्रीट जरनल ने एक रिपोर्ट छापी थी. इसमें हुटू चरमपंथी मिलिशिया के एक पूर्व लीडर का बयान था. उसने नरसंहार के दौरान फ्रांसिसी सेना की भूमिका के बारे में बताते हुए 13 मई, 1994 की एक घटना का ज़िक्र किया था.
क्या थी ये घटना? पश्चिमी रवांडा में बिसेसेरो हिल्स का इलाका है. जान बचाने के लिए बड़ी संख्या में टुत्सी यहां आकर छुपे हुए थे. उन्हें बाहर निकालने के लिए फ्रांस की सेना ने गोलियां चलाईं. फिर जब छुपे हुए टुत्सी जान बचाने के लिए भागे, तो फ्रांसीसी सैनिकों ने भागते हुए लोगों पर अंधाधुंध गोलियां चलाईं. औरतों, बच्चों किसी को नहीं छोड़ा. इसके बाद हुटू हत्यारे ऐक्शन में आए. जो लोग घायल बच गए थे, उन्हें चाकुओं और कुल्हाड़ियों से काट डाला गया. अकेले 13 और 14 मई को करीब 40 हज़ार टुत्सी मारे गए. कई टुत्सी महिलाएं जो इस नरसंहार में बच गईं, उन्होंने बताया कि किस तरह फ्रांसीसी सैनिक अपनी आंखों के सामने उनके साथ बलात्कार होते हुए देखते रहे.
फ्रांस खुलकर अपनी भूमिका नहीं मानता. मगर अब वो इस अतीत पर शर्मिंदा होता है. इसी साल 7 अप्रैल को इस नरसंहार की 26वीं बरसी थी. इस मौके पर फ्रांस के राष्ट्रपति इमैनुअल मैक्रों ने कहा कि वो इस तारीख़ को फ्रांस में राष्ट्रीय शोक का दिन घोषित करना चाहते हैं. पिछले साल इन्हीं मैक्रों ने एक सरकारी शोध का भी आदेश दिया था. इस शोध का विषय है- नरसंहार से पहले और इसके दौरान रवांडा में फ्रांस की भूमिका. इस शोध का नतीजा 2021 में सामने आएगा.

फ्रांस के राष्ट्रपति इमैनुअल मैक्रों (फोटो: एपी)
पोप ने क्यों मांगी मुआफ़ी? बेल्जियम और कैथलिक चर्च, ये भी बड़े गुनाहगार हैं. इन दोनों ने अपनी पकड़ बनाने के लिए रवांडा को नस्लीय आधार पर बांटा. वहां नस्लीय नफ़रत फैलाई. कैथलिक चर्च की भूमिका इतनी भीषण थी इस नरसंहार में कि क्या कहें. UN के इंटरनैशनल क्रिमिनल ट्रायब्यूनल में रवांडा नरसंहार से जुड़ा जो केस है, उसमें कई पादरियों और ननों के नाम हैं. मसलन फादर सेरोंबा, जिसके चर्च में दो हज़ार टुत्सी छुपे हुए थे. फादर सेरोंबा ने चर्च पर बुलडोज़र चलवाकर उनको कुचलवा दिया. एक फादर वेन्सेसलस था. उसने तुस्तियों की हिट लिस्ट तैयार करने में मदद की. महिलाओं का बलात्कार किया. नतारमा नाम की जगह पर एक कैथलिक चर्च के अंदर 15 अगस्त, 1994 को करीब पांच हज़ार टुत्सी मार डाले गए. चर्च के इन गुनाहों पर शर्मसार होते हुए पोप फ्रांसिस ने 2017 में मुआफ़ी मांगी थी. पोप ने कहा था कि चर्च और उसके सदस्यों के पाप ने कैथोलिज़म का चेहरा क्षत-विक्षत कर दिया है. 2016 में इसी तरह रवांडा के कैथलिक बिशप्स ने लोगों से अपने गुनाहों की मुआफ़ी मांगी थी.
संयुक्त राष्ट्र ने क्या किया? UN से भी रवांडा को कोई मदद नहीं मिली. इसकी पीसकीपिंग सेना मौजूद थी रवांडा में. मगर वो सब कुछ होते हुए देखती रही. इसकी मिसाल के तौर पर एक स्कूल की घटना का ज़िक्र होता है. हज़ारों टुत्सी जान बचाने के लिए उस स्कूल में जमा हुए थे. वहां तैनात UN पीसकीपिंग सेना उन्हें मरने के लिए छोड़कर चली गई. ऐसी कई मिसालें हैं. आगे के सालों में बाकी सबकी तरह UN ने भी अपनी नाकामियों की मुआफ़ी मांगी थी रवांडा से.
रवांडा में अब क्या हो रहा है? नरसंहार के बाद जब टुत्सी सत्ता में लौटे, तो हुटू निशाना बनाए जाने लगे. हुटू समुदाय के हज़ारों लोग मारे गए. हज़ारों बेघर हुए. फिलहाल रवांडा के राष्ट्रपति हैं पॉल केगैमी. वो टुत्सी समुदाय से हैं. वो टुत्सी मिलिशिया संगठन RPF के कमांडर थे. साल 2000 से ही वो रवांडा के राष्ट्रपति हैं. रवांडा आर्थिक रूप से तरक्की कर रहा है. मगर पॉल केगैमी पर आरोप है कि उन्होंने रवांडा में लोकतंत्र ख़त्म कर दिया है. विपक्ष बस नाम का ही है वहां. उनके कई विरोधी और आलोचक रहस्यमय तरीके से गायब हो गए. कई तो अजीबो-गरीब हालत में मारे भी गए. कहते हैं कि नरसंहार में अपनी-अपनी भूमिकाओं के गिल्ट में दबे पश्चिमी देशों ने पश्चाताप के तौर पर पॉल केगैमी को फ्री-हैंड दिया हुआ है. माने तब भी और अब भी, रवांडा के मामले में अंतरराष्ट्रीय समुदाय ग़लतियां ही करता आ रहा है. पहले की ग़लतियों ने नरसंहार करवाया. उसके बाद की ग़लतियां तानाशाही लाईं.

रवांडा के मौजूदा राष्ट्रपति पॉल केगैमी(फोटो: एपी)
ना, घुप अंधेरा ही नहीं है दुनिया में कोई भी आपदा, कोई भी दौर, हर किसी को विक्षिप्त नहीं करता. भयानक से भयानक नफ़रत में भी कई लोग इंसान बने रहते हैं. रवांडा में भी ऐसा ही हुआ. मारे गए लोगों में टुत्सी समुदाय के अलावा कई हुटू भी शामिल थे. ये वो हुटू थे, जिन्होंने तुस्तियों की मदद की थी. उन्हें बचाया था. ऐसी ही एक कहानी है डेनिस की. 16 अप्रैल, 1994 का दिन था. नरसंहार शुरू हुए 10 दिन हो चुके थे. डेनिस उविमाना भी टुत्सी थीं. नौ महीने की गर्भवती. उनके घर में हत्यारे घुसे. घर के लोगों को काट डाला. एक बिस्तर के नीचे छुपी डेनिस पर उनकी नज़र नहीं गई. फर्श पर बिछे अपने रिश्तेदारों के खून पर लेटी डेनिस के बड़े बेटे ने उनसे पूछा- मां, क्या दुनिया ख़त्म होने वाली है? मगर डेनिस, उनका बेटा और गर्भ का बच्चा, तीनों बचा लिए गए. उनके हुटू पड़ोसियों ने जान पर खेलकर उन्हें बचाया. जैसे-तैसे उन्होंने डेनिस की डिलिवरी करवाई. डेनिस के एक हुटू पड़ोसी ने उन्हें और उनके बच्चे को सुरक्षित एक क्लिनिक पहुंचाया. उन्हें खाना देते रहे. डेनिस के नवजात बच्चे को टीका लगवाया. बरसों बाद डेनिस ने CNN से बात करते हुए कहा-
हर हुटू हत्यारा नहीं था. मैं और मेरे बच्चे कई बार क़त्ल होते. जो अगर हुटू पड़ोसियों ने हमें न बचाया होता. इनमें कुछ ऐसे हुटू पड़ोसी भी शामिल थे, जिनसे इस तरह की इंसानियत की कभी उम्मीद भी नहीं की थी मैंने. वो ईश्वर के भेजे फरिश्ते थे.16 अप्रैल की उस रात पैदा हुआ डेनिस का बेटा चार्ल्स अब जवान हो गया है. वो कभी अपने पिता से नहीं मिला. चार्ल्स को बस इतना पता है कि 5 अप्रैल, 1994 की सुबह उसके पिता ने उसकी मां को गले लगाया था. वो उन्हें आई लव यू कहकर बाहर निकले थे. और फिर कभी नहीं लौटे. उस नरसंहार में मारे गए करीब 10 लाख लोगों में चार्ल्स के पिता भी शामिल थे.
विडियो- चीन के विरोध के बावजूद ताइवान को WHO की मीटिंग में लाने के लिए जुटे भारत समेत कई देश