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तारीख़: सोवियत संघ और अफ़ग़ानिस्तान के झगड़े में ओसामा को फलने-फूलने का मौका कैसे मिला?

आज ही के दिन रेड आर्मी ने अफ़ग़ानिस्तान पर हमला किया था.

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ओसामा बिन लादेन मुजाहिदीन के साथ मिलकर लड़ने अफ़ग़ानिस्तान आया था. बाद में उसने अल-क़ायदा की स्थापना की.
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24 दिसंबर 2020 (Updated: 24 दिसंबर 2020, 10:18 IST)
Updated: 24 दिसंबर 2020 10:18 IST
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तारीख़- 24 दिसंबर.

इस तारीख़ का संबंध एक आक्रमण से है, जब रातोंरात एक देश ने दूसरे देश में अपनी सेना उतारी. और, तीन दिनों के भीतर तख़्तापलट कर दिया. बाद में ये तख़्तापलट उसी देश पर भारी पड़ गया. दस सालों तक उसके हिस्से में आया बस नुकसान. अंतत: उसे सिर झुकाकर लौटना पड़ा. इसी आक्रमण ने ग्लोबल टेररिज्म का जो मॉडल खड़ा किया, उसे पूरी दुनिया भुगत रही है. क्या है पूरी कहानी? जानते हैं विस्तार से.

ये क़िस्सा है अफ़ग़ानिस्तान का. साल 1973 की बात है. अफ़ग़ानिस्तान में राजशाही चल रही थी. किंग ज़हीर शाह पिछले 40 सालों से सत्ता में थे. फिर एक दिन उनके नीचे से कुर्सी खींच ली गई. राजा साहब दर-बदर हो गए. उन्हें देश छोड़कर जाना पड़ा.

कुर्सी खींचने वाला कोई और नहीं बल्कि राजा साहब का भतीजा था. नाम मोहम्मद दाऊद ख़ान. वो सेना में जनरल के पद पर काम कर चुके थे. 1953 से 1963 तक देश के प्रधानमंत्री भी रहे. सोवियत संघ से उनकी खूब पटती थी. सोवियत ने अफ़ग़ानिस्तान में अच्छा-खासा निवेश किया था. अफ़ग़ान आर्मी के एक-तिहाई सिपाही सोवियत संघ में ट्रेनिंग पाते थे.


दाऊद ख़ान ने अपने चाचा का तख़्तापलट किया और देश में राजशाही खत्म कर दी.
दाऊद ख़ान ने अपने चाचा का तख़्तापलट किया और देश में राजशाही खत्म कर दी.

जब दाऊद ख़ान दोबारा सत्ता में आए, उन्होंने राजशाही खत्म कर दी. अफ़ग़ानिस्तान गणतंत्र बन गया. और, दाऊद ख़ान देश के पहले राष्ट्रपति. उन्हें अफ़ग़ानिस्तान की कम्युनिस्ट पार्टी का साथ मिला. साथ ही सोवियत संघ का भी.

दाऊद ख़ान ने सबको साधने की कोशिश की. इस चक्कर में उनका झुकाव अमेरिका की तरफ हो गया. ये बात सोवियत संघ की आंखों में खटकने लगी. कम्युनिस्ट पार्टी का एक धड़ा दाऊद ख़ान से खार खाता था. ख़ल्क़ गुट. ये गुट ज़्यादा कट्टर था. इसके नेता थे नूर मोहम्मद तराक़ी. अप्रैल, 1978 में तराकी ने दाऊद ख़ान को हटाने की साज़िश रची. 24 अप्रैल को सैनिकों ने दाऊद ख़ान के पैलेस पर हमला बोला. और, परिवार सहित उनकी हत्या कर दी.

खल्क़ गुट के नूर मोहम्मद तराक़ी अफ़ग़ानिस्तान के नए प्रधानमंत्री बने. पर वो भी कभी चैन से शासन नहीं कर पाए. तराकी को सोवियत संघ का फुल सपोर्ट था, पर उनके अपने ही लोग ख़िलाफ़ में खड़े थे. खासकर, कबीलाई इलाक़ों में. अक्टूबर, 1978 में तराक़ी भी साज़िश का शिकार हो गए. उनके अपने ही डिप्टी पीएम हफ़ीज़ुल्लाह अमीन ने उनकी हत्या करवा दी.


हफ़ीज़ुल्लाह अमीन.
हफ़ीज़ुल्लाह अमीन.

ये मर्डर सोवियत संघ के लिए अलार्म की तरह था. तब वहां लियोनिड ब्रेझनेव का शासन चल रहा था. उनकी थ्योरी थी कि ‘एक बार जो देश कम्युनिस्ट धड़े में शामिल हो गया, उसे किसी भी कीमत पर पूंजीवादी गुट में नहीं जाने दिया जाएगा.’ ब्रेझनेव को अफ़ग़ानिस्तान में खतरा दिखा. उन्होंने रेड आर्मी को तैयार रहने का आदेश दिया.

फिर आया 24 दिसंबर, 1979 का दिन. ऑपरेशन को हरी झंडी मिल गई. आधी रात में सोवियत संघ के 280 मिलिट्री एयरक्राफ़्ट काबुल में उतरे. तकरीबन 25,000 सैनिकों को एयरलिफ़्ट कर काबुल में उतारा गया. सोवियत आर्मी को बहुत कम विरोध झेलना पड़ा. काबुल बहुत आसानी से उनके कब्ज़े में आ गया.

27 दिसंबर को स्पेशल दस्ते ने प्रधानमंत्री हफ़ीज़ुल्लाह अमीन को मार दिया. सोवियत संघ ने बाबराक कमाल को सत्ता सौंपी. बतौर कठपुतली सरकार. सब आदेश मॉस्को से आते थे. एकमात्र ‘हां’ के ऑप्शन के साथ.

सोवियत सेनाएं तुरंत वापस लौटने के मूड में नहीं थी. उनका इरादा था, काबुल से बाहर सुदूर गांवों तक में कम्युनिस्ट सरकार को स्थापित करना. लेकिन ये काम इतना आसान नहीं था.


मुजाहिदीन को कई इस्लामिक राष्ट्र तो सपोर्ट कर ही रहे थे. अमेरिका भी गुपचुप तरीके से हथियार और पैसे मुहैया करा रहा था.
मुजाहिदीन को कई इस्लामिक राष्ट्र तो सपोर्ट कर ही रहे थे. अमेरिका भी गुपचुप तरीके से हथियार और पैसे मुहैया करा रहा था.

क्योंकि वहां मुजाहिदीन तैयार बैठे थे. कम्युनिस्ट नास्तिक थे. वे धर्म को नहीं मानते थे. इसलिए, मुजाहिदीन को इस्लाम पर खतरा नज़र आया. मुजाहिदीन को अमेरिका, पाकिस्तान और सऊदी अरब से भरपूर सपोर्ट भी मिल रहा था. सबके अपने-अपने हित थे. पाकिस्तानी खुफिया एजेंसी मुजाहिदीनों को ट्रेन कर रही थी. मुजाहिदीन ने सोवियत संघ के ख़िलाफ़ ‘जिहाद’ (पवित्र युद्ध) छेड़ दिया. सोवियत अफ़ग़ानिस्तान की भुलभुलैया में खोकर रह गए. हर नए दिन के साथ उनका नुकसान बढ़ता चला गया.

1980 के दशक के अंतिम सालों में सोवियत संघ ढहने के कगार पर था. अफ़ग़ानिस्तान में खर्च बढ़ता ही जा रहा था. मगर नतीजा, वही ढाक के तीन पात. सोवियत संघ के 15,000 सैनिक इस युद्ध में मारे गए. आखिरकार, सोवियत संघ ने बाहर निकलने का फ़ैसला किया. अप्रैल, 1988 में जेनेवा में समझौता हुआ. पाकिस्तान और अफ़ग़ानिस्तान के बीच. सोवियत संघ और अमेरिका इसके गारंटर बने. इस समझौते में मुजाहिदिन को शामिल नहीं किया गया था. इसलिए, उन्होंने जेनेवा संधि को मानने से इनकार कर दिया.

मई, 1989 में अंतिम सोवियत सैनिक अफ़ग़ानिस्तान छोड़कर निकल गया. मगर देश सिविल वॉर से नहीं निकल पाया. इसका फायदा उठाया ओसामा बिन लादेन ने. लादेन सऊदी अरब का रहनेवाला था. वो मुजाहिदिन के तौर पर लड़ने अफ़ग़ानिस्तान आया था.


अफ़ग़ानिस्तान छोड़कर वापस लौटते सोवियत सैनिक.
अफ़ग़ानिस्तान छोड़कर वापस लौटते सोवियत सैनिक.

लादेन ने आतंकी संगठन अल-कायदा की स्थापना की. अल-कायदा ने 1998 में केन्या में अमेरिकी दूतावास पर हमला किया. इसमें दो सौ से ज़्यादा लोग मारे गए. इसके बाद अमेरिका ने अफ़ग़ानिस्तान में अल-कायदा के ठिकानों पर हवाई हमले किए.

11 सितंबर, 2001 का दिन. जब अल-कायदा ने वर्ल्ड ट्रेड सेंटर की इमारतों से यात्री विमान टकरा दिए. तीन हज़ार से अधिक लोगों की मौत हुई. इससे नाराज़ अमेरिकी राष्ट्रपति जॉर्ज डब्ल्यू बुश ने अफ़ग़ानिस्तान में ‘वॉर ऑन टेरर’ शुरू किया. ये अभी तक खत्म नहीं हुआ है. अमेरिका को अफ़ग़ानिस्तान में कभी मनचाहा नतीजा नहीं मिल सका. इसके बावजूद अमेरिका जल्द-से-जल्द अफ़ग़ानिस्तान से बाहर निकलने की कोशिश में जुटा है.

जाते-जाते एक क़िस्सा.


एक पुरानी कथा है. सिकंदर दुनिया जीतने के इरादे से निकला. बाकी जगहों पर उसकी सेना ने बड़ी आसानी से कब्ज़ा जमा लिया. लेकिन जब वो अफ़ग़ानिस्तान पहुंचा, उसकी एक न चली. तीन सालों तक डेरा डाले रहने के बाद भी नतीजा सिफ़र था.

एक दिन सिकंदर को उसकी मां की चिट्ठी मिली. उसकी मां ने मज़ाक उड़ाते हुए कहा था, ‘तुम कैसे लड़ाके हो? इतने समय में इतनी छोटी-सी ज़मीन नहीं जीत पा रहे हो.’

सिकंदर ने जवाब में अफ़ग़ानिस्तान के तीन इलाक़ों की मिट्टी भेजी. और, उसे बगीचे में गिराने के लिए कहा. सिकंदर की मां ने ऐसा ही किया. अगले दिन से पूरे शहर में लड़ाई छिड़ गई. लोग एक-दूसरे को जान से मारने लगे. सिकंदर की मां को जवाब मिल गया था.

अफ़ग़ानिस्तान को ‘साम्राज्यों की कब्रगाह’ ऐसे ही नहीं कहा जाता. विदेशी हुकूमतें इस ज़मीन पर कभी फल-फूल नहीं पाती हैं.


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