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फुटबॉल के मौसम में फुटबॉल पर व्यंग्य लिखना सीखें

मां बाप की जब इच्छा करती है, बच्चों को फुटबॉल बना देते है.

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फुटबॉल, भारत और व्यंग.
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श्वेतांक
12 जुलाई 2018 (Updated: 12 जुलाई 2018, 02:23 PM IST) कॉमेंट्स
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"अच्छा तो आप भी व्यंग्यकार बनना चाहते हैं." मेरे मुंह से अचानक निकल गया. "बनना क्या चाहते हैं. हम मूलत: व्यंग्यकार हैं. वो तो बस आज तक लिखने का वक्त नहीं मिल पाया." उन्होंने पूरे आत्मविश्वास से जवाब दिया. मैंने कहा-"मगर व्यंग्य ही क्यों? लेख लिखिए. आप विचारवान शख्स हैं, जिसके पास हर उस बात पर कोई विचार है, जिस पर विचार ने भी कभी विचार नहीं किया." वे व्यंग्य समझ नहीं पाए अलबत्ता बोले- "ये बात ठीक है कि मेरे दिमाग में विचारों का जखीरा है. लेकिन मैं उसे व्यंग्य में तब्दील करना चाहता हूं. व्यंग्य में लोकप्रियता ज्यादा है. आप खुद को ही देखिए, धीरे-धीरे कितने लोकप्रिय हो रहे हैं." मैंने खुद को देखा. देखकर शर्म आई कि इधर तोंद बढ़ी जा रही है, और इन्हें लोकप्रियता बढ़ी दिख रही है. लेकिन मुद्दा व्यंग्य लेखन का था, तो पहले उस पर फोकस किया और कहा- "क्या बात करते हैं. आप चूंकि मेरे घर से वो ही अखबार मांगकर ले जाते हैं, जिसमें मेरा व्यंग्य प्रकाशित होता है, इसलिए आपको लगता है कि मैं लोकप्रिय हूं. और मैं सिर्फ वो ही अखबार मंगवाता हूं, जिसमें मेरा व्यंग्य प्रकाशित होता है." "नहीं...नहीं. हर लोकप्रिय आदमी अपनी लोकप्रियता के विषय में ऐसा ही कहता है. मुहल्ले का पनवाड़ी तक कह रहा था कि उसने अखबार में आपका फोटो छपा देखा है." वे बोले. "तो आप कविता लेखन के जरिए लोकप्रिय होने की कोशिश कीजिए." मैंने एक सुझाव और दिया. "देखिए,व्यंग्यकार बनने के लिए क्या करना चाहिए- ये बताना हो तो बताइए वरना मार्केट में कई गुरु पड़े हैं. मुझे सिर्फ एक किलो मिठाई लेकर उनके घर जाना है. उनके व्यंग्य की तारीफ करनी है, और गुर सीखने हैं. आप पड़ोसी हैं, इसलिए सोचा कि मिठाई का डिब्बा कहीं और देने से अच्छा है कि पड़ोस में ही दी जाए. आपके यहां मिठाई दूंगा तो भाभीजी हर बार की तरह उसी में से कुछ मेरे घर भी भेजेंगी ही. आपका और मेरा पड़ोसी धर्म निभ जाएगा. मैं व्यंग्यकार बन जाऊंगा." उन्होंने दो टूक कहा. "लेकिन कविता से आपको क्या एलर्जी है ?" "देखिए, एलर्जी कई तरह की हैं. एक तो हिन्दुस्तान का हर दूसरा शख्स खुद को कवि मानता है. हर चौथे शख्स के पास अपनी लिखी कविताओं की डायरी है. हर छठे शख्स ने कविता की किताब छपवाई है. और हर आठवें शख्स ने कविता के नाम पर गली-मुहल्ले-शहर का कोई अवॉर्ड जीता है. वैसे मेरी एलर्जी की बड़ी वजह यह है कि मेरी पहली प्रेमिका का नाम कविता था, और उसने मुझे बिन बताए डंप कर दिया था. उस दिन से मुझे इस नाम से नफरत है." मैं मुस्कुराया- "अच्छा हुआ, व्यंग्य नाम रखने वाले इक्का दुक्का ही होंगे."अबकी बार उन्होंने भी खीसें ही निपोरीं. मैं समझ गया था कि अब वे नहीं मानेंगे. दरअसल, मेरी उन्हें व्यंग्यकार बनने से रोकने की कोशिश सिर्फ इसलिए थी क्योंकि मैं नहीं चाहता था कि मार्केट में एक और व्यंग्यकार आए. व्यंग्य छपना लगातार मुश्किल हो रहा है, और ऐसे में एक और व्यंग्यकार बेवजह कंपटीशन पैदा करेगा. फिर, वे पड़ोसी भी थे. वे चाहेंगे कि मैं संपादकों से आग्रह भी करूं कि उन्हें छापा जाए. संपादक यूं बड़े खुर्राट होते हैं, लेकिन क्या पता मेरी सुन ही लें. वे बोले-"कुछ टिप्स देंगे ?" मैंने कहा-"आप जाते हुए सीजन के व्यंग्यकार बन जाइए." "जाता हुए सीजन?" ये क्या बला है. मैंने कहा-"फुटबॉल पर दो चार व्यंग्य ठेल दीजिए. इस वक्त हर छोटा बड़ा व्यंग्यकार सिर्फ फुटबॉल से व्यंग्य निकाल रहा है. आप भी निकालिए." वे बोले-"आइडिया तो अच्छा है." "अच्छा नहीं सुपरहिट आइडिया है. बस कुछ घंटे बचे हैं और आप जाते हुए सीजन में दो तीन व्यंग्य फुटबॉल पर लिख मारिए. संपादक भी इस वक्त फुटबॉल पर आए व्यंग्य को बिना पढ़े छाप रहे हैं. धुआंधार. फुटबॉल के जाते हुए सीजन में दो चार व्यंग्य छप गए तो आप अपने आप व्यंग्यकार मान लिए जाएंगे." "सही कह रहे हो गुरु. लेकिन क्या लिखूं." वे बुदबुदाए और फुटबॉल की तरह मेरे सोफे पर गोलायमान अवस्था में चिंतनमग्न होने लगे. मैंने कहा- "देखिए, फुटबॉल भले छोटी सी हो लेकिन उसके पेट में हजारों व्यंग्य हैं. आपको बस चीरा लगाना है, और अपना व्यंग्य निकालना है. वैसे, सच यह है कि फुटबॉल अगर बोल सकती तो कहती- दैया दैया.....ई हिन्दुस्तान में खिलाड़ी एकु ना है.....लेकिन व्यंग्यकार लाइन लगाकर हैं. सब मिलकर मार ही डालेंगे. वे मुस्कुराए और बोले-"अच्छा चलता हूं. दिमाग में आइडिया आ गया है." मैंने सोचा-"फुटबॉल चीज ही ऐसी है आखिर. गोल. आइडिया छिप ही नहीं सकता. वैसे भी, भले वर्ल्ड कप में हम फुटबॉल न खेल रहे हों, खिलाड़ी तो अच्छे हैं ही. मां बाप की जब इच्छा करती है, बच्चों को फुटबॉल बना देते है. बॉस जूनियर कर्मचारियों को फुटबॉल बनाकर रखता है. सरकार तो आम आदमी को फुटबॉल मानती ही है और उसके साथ बरसों से फुटबॉल की तरह ही खेल रही है. कभी इस गोल, कभी उस गोल!
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