जिस आदमी ने 1268 लोगों की जान बचाई उसे सरकार ने आतंकी घोषित कर दिया!
रवांडा नरसंहार के हीरो पर मुकदमा क्यों चला रही सरकार?
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आज बात एक ठगी से शुरू करते हैं. ये कहानी अगस्त 2020 की है. अमेरिका से एक जहाज दुबई आया. इसमें पॉल नाम का एक आदमी भी था. उसे एक ज़रूरी मीटिंग में हिस्सा लेना था. मीटिंग खत्म होते ही उसे वापस अपने घर लौटना था. प्लेन से उतरने के बाद पॉल ने जो पहला काम किया, वो था एक वॉट्सऐप मेसेज. पॉल ने अपनी पत्नी को लिखा,
‘मैं सुरक्षित दुबई पहुंच गया हूं. मीटिंग खत्म होते ही वापस आ जाऊंगा.’
घरवाले निश्चिंत होकर अपने-अपने काम में जुट गए. सब कुछ नॉर्मल सा चल रहा था. तब तक, जब तक कि उन्होंने टीवी नहीं खोला. वहां जो दिखा, उसने उनके होश उड़ा दिए. उनका अपना पॉल सैनिकों से घिरा हुआ था. उसे हथकड़ी पहनाकर मीडिया के सामने पेश किया जा रहा था. सरकार उसे ‘आतंकवादी’ बता रही थी. वो जगह न तो दुबई थी और न ही बेल्जियम. ये पूरा खेल पूर्वी अफ़्रीका के देश रवांडा में चल रहा था.
रवांडा (फोटो: गूगल मैप्स)
पॉल रवांडा कैसे पहुंचा?
ये उसे भी नहीं मालूम. उसे बस इतना याद रहा कि दुबई में उसकी मुलाक़ात एक पादरी से हुई थी. पादरी ने उसे एक आमंत्रण दिया. बुरूण्डी चलकर लेक्चर देने की दरख़्वास्त की. पॉल ने हां कर दी. दोनों लोग एक चार्टर्ड प्लेन में बैठे. इसके बाद पॉल बेहोश हो गया. जब उसे होश आया, वो रवांडा में था. असल में, वो पादरी रवांडा सरकार का सीक्रेट एजेंट था.
रवांडा सरकार ने कहा, ‘पॉल ने रवांडा में हमलों की साज़िश रची. इसकी सज़ा देने के लिए उसे गिरफ़्तार कर लाया गया है.’ ये ख़बर बाहर आते ही बवाल मच गया. विदेशी मीडिया में छपा, ‘होटल रवांडा’ के नायक को सरकार ने किडनैप करवाया.
ये पॉल कौन था, जिसे दुनिया ‘हीरो’ बता रही थी, जबकि रवांडा सरकार आतंकवादी? ‘होटल रवांडा’ की कहानी क्या है? होटल रवांडा और पॉल फिलहाल चर्चा में क्यों हैं? सब विस्तार से बताते हैं.
कोई त्रासदी कितनी वीभत्स, कितनी निर्दयी हो सकती है! अगर इसका चरम देखना हो तो ‘रवांडा नरसंहार’ को देखिए. 1994 का साल था. अप्रैल के महीने से शुरू हुई सनक जुलाई तक चली. जब पड़ोसियों ने अपने पड़ोसियों को मार डाला. पादरियों ने रोज़री छोड़कर तलवार उठा ली. टीचरों ने पढ़ने आए बच्चों को काट दिया. जो चर्च में आए, उन्हें ज़िंदा जला दिया गया. सौ दिनों के भीतर करीब दस लाख हत्याएं हुई. इस नरसंहार में सेना और प्रशासन ने हत्यारों को पूरा सहयोग दिया.
रवांडा नरसंहार में करीब 100 दिन में करीब 10 लाख लोग मारे गए थे. (तस्वीर: गेटी इमेजेज)
रवांडा नरसंहार हुआ क्यों था?
इसके लिए आपको थोड़ा बैकग्राउंड जानना होगा. रवांडा में दो मुख्य समुदाय हैं- हुटू और टुत्सी. हुटू हैं बहुसंख्यक और टुत्सी अल्पसंख्यक. हुटू खेती से जुड़े थे. जबकि टुत्सी मवेशीपालन करते थे. रवांडा में मवेशी समृद्धि, सोशल स्टेटस, संपन्नता के सूचक हैं. मसलन, किसी को शुभकामना देनी हो तो कहते हैं, ‘ईश्वर करे आपको हज़ार गायें मिल जाएं.’ किसी को गिफ़्ट देना हो तो गाय ही देते हैं.
ऐसे में टुत्सी अल्पसंख्यक होकर भी ज़्यादा प्रभावशाली रहे. 17वीं सदी में टुत्सी राजशाही भी आ गई. जब जर्मनी और बेल्जियम ने रवांडा में अपनी कॉलोनी बनाई, उन्होंने भी टुत्सियों को वरीयता दी. उन्होंने अपने फ़ायदे के लिए नस्लीय नफ़रत और भड़काई. टुत्सी अमीर होते जा रहे थे, जबकि हुटू लोगों को ग़ुलामी और दुत्कार के आदी हो चुके थे.
दूसरे विश्व युद्ध के बाद रवांडा में आज़ादी की मांग बढ़ी. बहुसंख्यक आबादी को वरीयता मिलने लगी थी. अचानक से हुटू पलटवार करने लगे. उन्होंने अपने साथ हुए शोषण का बदला लेना शुरू किया. रवांडा सोसायटी का समीकरण बदल चुका था.
टुत्सी समुदाय के लोग. (तस्वीर: एएफपी)
जुलाई 1962 में रवांडा को आज़ादी मिल गई. अब सत्ता हुटूओं के हाथ में आ गई. उन्हें लगा, अतीत के ज़ख्मों को भरने का बढ़िया मौका है. इस फेर में वे हिंसक हो गए. टुत्सी लोगों की हत्या करने लगे. कईयों को देश छोड़कर भागना पड़ा. टुत्सी भी चुप नहीं बैठे थे. उनके यहां भी गुट बनने लगे थे.
टुत्सी विद्रोही हमला करके छिप जाते. सरकार विद्रोहियों के किए का बदला लेने के लिए आम टुत्सी आबादी को निशाना बनाती. ये लंबे समय तक चला. सरकार हुटू समुदाय को इतिहास की याद दिलाती रहती थी. उन्हें डराती रहती कि अगर टुत्सी सत्ता में आ गए तो उनकी हालत बदतर हो जाएगी. ये सब इसलिए किया जा रहा था ताकि उन्हें कट्टर बनाए रखा जा सके. ताकि उनकी कुर्सी सलामत रहे. इस चाह में सरकार ने आम लोगों को ख़ून का प्यासा बना दिया. अंदर ही अंदर लोग सुलग रहे थे.
फिर आया 1994 का साल
6 अप्रैल को राजधानी किगाली के बाहर एक रॉकेट हमला हुआ. निशाना सटीक था. सेना का एक जहाज हवा में ही मलबे में बदल गया. अंदर बैठे थे रवांडा के राष्ट्रपति जुवेनाल हाबियारिमाना. उनके साथ बुरुंडी के राष्ट्रपति साइप्रियन नटेरियामरा भी थे. दोनों मौके पर ही मारे गए. दोनों हुटू समुदाय से थे.
जुवेनाल हाबियारिमाना और प्लेन का मलवा (फोटो: एएफपी)
इस प्लेन क्रैश ने दबी चिनगारी पर पेट्रोल डाल दिया. राजधानी किगाली में लॉकडाउन लगा दिया गया. सेना ने हुटू लोगों से कहा, टुत्सियों को मारना तुम्हारा पहला कर्तव्य है. सेना ने हथियार भी बांटे. फिर तो कत्लेआम मचा. हुटू पतियों ने टुत्सी पत्नी तक को नहीं बख़्शा. टुत्सी बच्चों को इसलिए मारा गया ताकि उनकी नई पीढ़ी कभी सिर न उठा सके. इस त्रासदी को इतिहास में ‘रवांडा नरसंहार’ के नाम से जाना जाता है.
नरसंहार के शुरुआती दिनों की बात है. किगाली में एक होटल था ‘डे मिल कोलिन’. जान बचाने के लिए लोग इसमें घुसने लगे. शरण लेने वालों में हुटू और टुत्सी दोनों थे. तब तक हत्यारों का ध्यान इस होटल पर नहीं गया था. इस होटल को बेल्जियम की एक कंपनी चलाती थी. मैनेजर एक यूरोपियन आदमी था. जैसे ही हालात बिगड़ने लगे, वो रवांडा से निकल गया. तब कंपनी ने पड़ोस के ‘होटल डिप्लोमैट’ से नया मैनेजर भेजा.
इस नए मैनेजर का नाम था, पॉल रोसेसबगीना. कुछ दिनों तक होटल में सब ठीक चला. लेकिन कब तक! एक दिन हुटू मिलिशिया की एक टुकड़ी ने धावा बोल ही दिया. उन्होंने मांग रखी कि टुत्सी लोगों को बाहर निकाला जाए. रोसेसबगीना हुटू थे. सेना में उनकी पैठ थी. उन्होंने उस पहचान के दम पर हुटू गुंडों को हमला करने से रोके रखा. जब इससे भी बात नहीं बनी तो उन्होंने होटल की तिजोरी में रखे पैसे भी हत्यारों के हवाले कर दिए.
रवांडा के राष्ट्रपति पॉल कगामी, पॉल रोसेसबगीना पर लांछन लगाते रहते हैं. (तस्वीर: एपी)
सिर्फ़ होटल में रुके रहना जान बचाने के लिए काफी नहीं था. वहां शरणार्थियों की संख्या बढ़ती जा रही थी. जबकि पानी और खाने की आपूर्ति लगातार कम हो रही थी. उन्हें सुरक्षित जगह तक पहुंचाना ज़रूरी हो गया था. आख़िरकार 70 दिनों के बाद यूएन की गाड़ियों में बिठाकर 1268 लोगों को निकाल लिया गया. मौत उन लोगों को छूकर चली गई थी. ये सब ऐतिहासिक था.
पॉल रोसेसबगीना की हैरतअंगेज़ कहानी कुछ बरस बाद बाहर आई. जब इस घटना पर हॉलीवुड फ़िल्म बनी. होटल रवांडा के नाम से. 2004 में आई ये फ़िल्म ऑस्कर में भी नॉमिनेट हुई. होटल डे मोन कोलिन बाद में ‘होटल रवांडा’ के नाम से मशहूर हो गया.
रोसेसबगीना इस फ़िल्म के नायक तो थे ही, असल ज़िंदगी में भी उन्हें दुनियाभर से सराहना मिली. अमेरिका ने उन्हें प्रेसिडेंशियल मेडल ऑफ़ फ़्रीडम देकर सम्मानित किया. उन्हें सेमिनारों में बोलने के लिए बुलाया जाने लगा. हालांकि, ये सम्मान बहुतों को खलता भी है. कई रिपोर्ट्स में दावा किया गया कि रोसेसबगीना की बताई कहानी में झूठ का अंश बहुत ज़्यादा है. ये भी कहा गया कि असल में रोसेसबगीना ने लोगों को बचाने के लिए पैसे खाए थे. उन्होंने शरणार्थियों से जान बचाने के एवज में रिश्वत भी ली. इसी तरह के और भी लांछन उनके ऊपर लगाए जाते हैं. रोसेसबगीना के सपोर्टर इन आरोपों को झूठा बताते हैं. उनका कहना है कि ये सब रवांडा के राष्ट्रपति पॉल कगामी का फैलाया प्रोपेगैंडा है.
रवांडा के मौजूदा राष्ट्रपति पॉल केगैमी(फोटो: एपी)
आज हम पॉल रोसेसबगीना और होटल रवांडा की चर्चा क्यों कर रहे हैं?
आपको याद है, शुरु में एक ठगी का क़िस्सा सुनाया था. कैसे एक आदमी को भरमाकर दुबई से रवांडा ले जाया गया और वहां उसके ऊपर आतंकवाद फैलाने का मुकदमा लाद दिया गया. जिस पॉल की कहानी आपने शुरुआत में सुनी थी, वो पॉल रोसेसबगीना हैं. होटल रवांडा के नायक. उन्हीं के ऊपर आतंकी हमलों की साज़िश रचने का आरोप लगाया गया है.
23 मार्च को रोसेसबगीना ने ट्रायल में हिस्सा लेने से मना कर दिया. उन्होंने कहा कि ‘उन्हें न्याय की कोई उम्मीद नहीं है. फ़ैसला पहले से ही तय हो चुका है.’ ये काफी हद तक सच भी लगता है. उनके ऊपर जो आरोप लगाए गए हैं, उसकी कॉपी भी उन्हें नहीं दी गई है. दो बार उनकी जमानत याचिका भी खारिज हो चुकी है.
रोसेसबगीना के ट्रायल में हिस्सा लेने से इनकार के बाद भी उनका मुकदमा चलता रहेगा. मुख्य न्यायाधीश ने कहा कि उन्हें ऐसा करने का अधिकार है, लेकिन इससे मुकदमा नहीं रुकने वाला.
पॉल रोसेसबगीना के बचने की गुंज़ाइश बेहद कम है. इसकी वजह बताई जा रही है, राष्ट्रपति पॉल कगामी से उनकी दुश्मनी. और रवांडा में कगामी की इच्छा के बिना एक कलम तक नहीं उठती. अदालत भी उन्हीं की कठपुतली है. कगामी पिछले 26 सालों से रवांडा को अपने इशारों पर नचा रहे हैं. 1994 से 2000 तक बतौर उप-राष्ट्रपति. और, साल 2000 से देश के राष्ट्रपति के तौर पर.
रोसेसबगीना और कगामी में दुश्मनी क्यों हुई?
रोसेसबगीना ने 1996 में रवांडा छोड़ दिया. उसके बाद वो बेल्जियम और अमेरिका में रहने लगे. उन्होंने बेल्जियम की नागरिकता भी ले ली. कगामी का शासन भी कोई दूध से धुला नहीं था. उनके समय में भी बेहिसाब हत्याएं हुई हैं. विरोधियों को चुन-चुनकर ठिकाने लगाया गया है. रोसेसबगीना ने विदेश में रहकर ही कगामी की आलोचना शुरू कर दी. चूंकि रोसेसबगीना की अपनी पहचान है, उनकी बातों को बल मिलता है. इससे विदेश में कगामी की किरकिरी होने लगी.
इसके अलावा, रोसेसबगीना रवांडा मूवमेंट फ़ॉर डेमोक्रेटिक चेंज (MRCD) और पार्टी फ़ॉर डेमोक्रेसी इन रवांडा (PDR) से भी जुड़े हैं. ये दोनों पार्टियां कगामी को सत्ता से हटाना चाहती हैं. MRCD का एक विद्रोही गुट है - नेशनल लिबरेशन फ़ोर्सेज़ (NLF). ये गुट रवांडा में हमले करता रहता है.
कगामी सरकार ने NLF के हमलों का दारोमदार रोसेसबगीना पर डाल दिया है. इसके अलावा, उनपर कॉन्गो आर्मी को सपोर्ट करने का आरोप भी लगा है. रोसेसबगीना हिंसक विरोध के आरोपों को झूठा बताते हैं.
जानकारों की मानें तो राष्ट्रपति कगामी ने एक तीर से दो शिकार किए हैं. पहला, उन्होंने अपने विरोधियों को संदेश दिया है कि ‘अगर ये सब रोसेसबगीना के साथ हो सकता है तो तुम किस खेत की मूली हो.’ दूसरा, इंटरनेशनल कम्युनिटी में उनको कम लताड़ा जाएगा. रोसेसबगीना के अलावा कोई ऐसा शख़्स नज़र नहीं आता, जिसकी बात को अंतरराष्ट्रीय मीडिया में गंभीरता से लिया जाता हो.
रोसेसबगीना असली नायक थे या उन्हें जबरदस्ती हीरो बनाया गया? या फिर वो किसी प्रोपेगैंडा का शिकार हो रहे हैं? इन सवालों पर बहस हो सकती है.
लेकिन ये बात तो तय है कि सनकी शासक अपनी ख़ब्त में किसी भी हद तक गिर सकते हैं. वे बुनियादी अधिकारों को दबाने के लिए कोई भी तिकड़म भिड़ा सकते हैं. वे न्याय के मंदिर को भी कठपुतली की तरह नचा सकते हैं. रवांडा के पॉल कगामी ऐसी तानाशाही का जीता-जागता उदाहरण हैं.