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वो संत, जो ज़मीन का छठा हिस्सा मांगता था और लोग खुशी-खुशी दे देते थे

गांधी के चुने पहले सत्याग्रही. ज़िंदगी में सिर्फ एक विवाद हुआ. इनका सपना आज भी अधूरा है.

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बाएं से- महात्मा गांधी और विनोबा भावे. विनोबा गांधी के चुने पहले सत्याग्रही थे.
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निखिल
15 नवंबर 2020 (Updated: 14 नवंबर 2020, 05:06 AM IST) कॉमेंट्स
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गांधी की राजनीतिक विरासत मिली थी पंडित नेहरू को. लेकिन राजनीति गांधी के जीवन का एक हिस्सा भर थी. उनकी ज़िंदगी का दूसरा हिस्सा था आध्यात्म. वही आध्यात्म जिससे सत्याग्रह का महान विचार निकला था. और गांधी की इस विरासत का वारिस अगर कोई था, तो वो बिला शक विनोबा भावे ही थे. 11 सितंबर को विनोबा भावे का जन्मदिन होता है. 15 नवंबर को उन्होंने दुनिया छोड़ दी थी.
गांधी को दान में मिले थे विनोबा
महाराष्ट्र के रायगड का गागोडे गांव. यहां रहते थे एक चितपावन ब्राह्मण नरहरि भावे. इनके चार बेटे थे. विनायक, बालकृष्ण, दत्तात्रेय और शिवाजी. विनायक ही आगे चलकर विनोबा कहलाए. कहते हैं कि नरहरि ने अपने चारों बेटे महात्मा गांधी को दान में दे दिये थे. इसलिए विनोबा में बचपन से ही गांधी और उनके तौर-तरीकों की तरफ झुकाव था. 21 की उम्र में विनोबा गांधी जी के कोचराब आश्रम गए. उसके बाद उन्होंने स्कूल-कॉलेज से दूरी कर ली. लेकिन पढ़ना नहीं छोड़ा. आश्रम की गतिविधियों में हिस्सा लेते, और गीता का अध्ययन चलता रहता. गांधी ने उनकी लगन देखकर ही उन्हें वर्धा आश्रम की ज़िम्मेदारी दी थी. गांधी ने जब 1940 में अहिंसक असहयोग आंदोलन की नींव सत्याग्रह को बनाया, तो विनोबा को पहला सत्याग्रही कहा. नेहरू का नंबर विनोबा के बाद आया.
साबरमती के गांधी आश्रम में एक कुटी का नाम विनोबा के नाम पर विनोबा कुटीर रखा गया है.
साबरमती के गांधी आश्रम में एक कुटी का नाम विनोबा के नाम पर विनोबा कुटीर रखा गया है.


गांधी के वारिस
स्वतंत्रता आंदोलन में विनोबा की भागीदारी रही, लेकिन खालिस उनकी शख्सियत पर लोगों का ध्यान तब गया जब गांधी जी जाते रहे. एक आज़ाद देश नेहरू के सुरक्षित हाथों में था, लेकिन एक नए नवेले देश के प्रधानमंत्री की हैसियत से उनके पास गांधी के समग्र विचारों को आगे बढ़ाने के लिए न वक्त था, न ताकत. उस वक्त के गांधीवादियों में आचार्य नरेंद्र देव, राम मनोहर लोहिया और जयप्रकाश नारायण को गिना जाता था. लेकिन इन सब का झुकाव समाजवाद की ओर था. किसी भी वाद से दूर खालिस गांधी के बताए रास्ते पर चलने वाला अगर कोई था, तो वो थे विनोबा भावे.
किसी 'वाद' से दूर रहना ही उनके और गांधी के बीच की समानता नहीं थी. विनोबा के बारे में कई लोगों ने लिखा कि वो एक तरह से देश की चेतना बनने की ओर थे. गांधी की ही तरह उन्हें भी ताकत अपने पास रखने का मोह नहीं था. वो ताकत रखने के लिए एक मॉरल गाइड की भूमिका में ज़्यादा सहज थे.
भूदान -विनोबा का अधूरा सपना
आज़ादी के बाद पूरे देश में एक साथ शांति नहीं आ गई थी. तेलंगाना और आस-पास के इलाकों में वामपंथियों के नेतृत्व में एक हथियारबंद संघर्ष चल रहा था. ये दमन के खिलाफ खड़े भूमिहीन किसानों का आंदोलन तो था ही, लेकिन इस आंदोलन के कुछ लोग लोकतंत्र को नीची नज़र से भी देखते थे. विनोबा ने अप्रैल 1951 में तेलंगाना का दौरा किया. जेल जाकर वामपंथी चरमपंथियों से मिले. 18 अप्रैल, 1951 को वो नलगोंडा ज़िले के पोचमपल्ली पहुंचे. यहां उन्होंने लोगों से बात की तो हरिजनों (तब दलितों के लिए ये शब्द ज़्यादा चलन में था) की सबसे मूलभूत मांग ज़मीन की थी. उन्होंने विनोबा से कहा कि उनके 40 परिवारों को अगर 80 एकड़ ज़मीन मिल जाए, तो उनका गुज़ारा चल जाएगा.
विनोबा ने भूदान कराने के लिए देश भर की पैदल यात्रा की थी (फोटोः एमके गांधी डॉट ओआरजी)
विनोबा ने भूदान कराने के लिए देश भर की पैदल यात्रा की थी (फोटोः एमके गांधी डॉट ओआरजी)


विनोबा सारी मांगें सरकारों से मनवाने की सोच से इत्तेफाक नहीं रखते थे. उन्होंने गांव के लोगों से ही हरिजनों के लिए ज़मीन मांग ली. कहते हैं कि इस पर रामचंद्र रेड्डी नाम के एक किसान ने तुरंत 100 एकड़ ज़मीन देने की पेशकश कर दी. इसी घटना के बाद विनोबा को भूदान आंदोलन का विचार आया. फिर विनोबा ने पदयात्रा करते हुए बड़े किसानों से ज़मीन मांगनी शुरू की. वो कहते,
हवा और पानी की तरह ही ज़मीन भी है. उस पर सबका हक है. आप मुझे अपना बेटा मानकर अपनी ज़मीन का छठवां हिस्सा दे दीजिए, जिसपर भूमिहीन बस सकें, और खेती कर के अपना पेट पाल सकें.
विनोबा की इस अपील का काफी असर हुआ. लोगों ने बढ़-चढ़ कर ज़मीन दी. विनोबा जब पवनार वापस पहुंचे तो हज़ारों एकड़ का लैंड बैंक तैयार हो चुका था. इससे उत्साहित होकर विनोबा ने उत्तर भारत की यात्रा भी की. कांग्रेस ने विनोबा के आंदोलन को हाथोंहाथ लिया. उत्तर प्रदेश और बिहार में बड़े पैमाने पर भूदान हुआ. सरकार ने भूदान एक्ट भी पास करा दिया ताकी ज़मीन का व्यवस्थित बंटवारा हो सके.
भूदान के आलोचक इशारा करते हैं कि भूदान में जिस विनम्रता से ज़मीन मांगी गई, कांग्रेस ने उसका स्वागत इसलिए किया क्योंकि वो कानूनन सीलिंग से बड़े किसानों पर चोट करने से बचना चाहते थे. कई मामले ऐसे रहे जहां ज़मीन देने के बाद भी उसे पुराने मालिक ही जोतते रहे. कुछ जगह ज़मीन छोड़ी भी गई, तो वो बंजर थी, जो किसी के काम की नहीं थी. ज़मीन बांटने में भी बड़ा ढुलमुल रवैया रहा. जिस 22.90 लाख एकड़ का ऊपर ज़िक्र किया गया है, उसमें से 6.27 लाख एकड़ ज़मीन आज तक ज़रूरतमंदों को बांटी नहीं जा सकी है. अकेले महाराष्ट्र (जिसे विनोबा की कर्मभूमि कहा जा सकता है) में 2017 तक 77 हज़ार एकड़ 'बैलेंस' के तौर पर आज भी पड़ी हुई है. इस में से कुछ तो वर्धा के पास के इलाकों में तक है.
भूदान के बाद विनोबा की लोकप्रियता चरम पर थी. विनोबा के नाम पर जारी हुआ डाक टिकट
भूदान के बाद विनोबा की लोकप्रियता चरम पर थी. विनोबा के नाम पर जारी हुआ डाक टिकट


यहां ये समझा जाना चाहिए कि भूदान की विफलता एक तरफ है और विनोबा की मंशा एक तरफ. विनोबा ने विचार दिया, यही उनका भूदान में योगदान था. आंदोलन की पूरी ज़िम्मेदारी उनपर मढ़ना ज़्यादती है.
इमरजेंसी और विनोबा
कहा जाता है कि विनोबा भावे इमरजेंसी की आलोचना करने में पीछे रहे. ऐसा भी कहा जाता है कि उन्होंने 'अनुशासन पर्व' कहकर इमरजेंसी का स्वागत किया था. जबकि सच ये है कि इस बात को लेकर बहस है. बात कुछ यूं है कि विनोबा ने 25 दिसंबर, 1974 को एक साल का मौन धर लिया था. इमरजेंसी लगी 25 जून, 1975 को. भूदान के चलते विनोबा की हस्ती ऐसी बन गई थी कि छात्र आंदोलन और सरकार दोनों उन्हें अपने पाले में दिखाना चाहते थे. नेहरू के अलावा किसी नेता की सभा में लाव-लश्कर के बिना लाखों की भीड़ अगर कभी जुटी थी, तो वो विनोबा ही थे.
ऐसे में वसंत साठे (जो बाद में देश के सूचना और प्रसारण मंत्री रहे) विनोबा से मिलने उनके पवनार वाले ब्रह्म विद्या मंदिर गए. साठे और विनोबा की मुलाकात में विनोबा कुछ नहीं बोले. बस अपने पास रखी एक किताब साठे की ओर कर दी. ये किताब थी 'अनुशासन पर्व'. अनुशासन पर्व महाभारत का एक अध्याय है.
ये कोई नहीं जानता कि विनोबा किताब दिखा कर क्या कहना चाह रहे थे. लेकिन साठे ने आकाशवाणी, दूरदर्शन और अखबारों में ये बात चला दी कि विनोबा ने इमरजेंसी को 'अनुशासनपर्व' कहा है, माने 'अनुशासन सीखने का समय'. यूथ कांग्रेस ने विनोबा के नाम से देश भर की दीवारें रंग दी, लिखा -

आपातकाल 'अनुशासन पर्व' है.

आपतकाल के पक्षधर और विरोधी दोनों ने इस बयान को इमरजेंसी को विनोबा के दिए सर्टिफिकेट की तरह देखा. पक्षधरों ने जश्न मनया और विरोधियों ने इसके लिए विनोबा की आलोचना शुरू कर दी.
वसंत साठे और विनोबा भावे की मुलाकात के बाद ही इमरजेंसी को लेकर विनोबा ने 'नर्म रुख' की बातें चली थीं
वसंत साठे. साठे और विनोबा भावे की मुलाकात के बाद ही इमरजेंसी को लेकर विनोबा ने 'नर्म रुख' की बातें चली थीं.


25 दिसंबर, 1975 को विनोबा ने मौन व्रत तोड़ा. अनुशासन पर्व का मतलब साफ करते हुए उन्होंने कहा, अनुशासन का अर्थ है - आचार्यों का अनुशासन. आचार्य जो मार्गदर्शन देंगे, जो अनुशासन की सीख देंगे, उसका विरोध अगर शासन करेगा तो उनके खिलाफ सत्याग्रह खड़ा होगा.
इसे विनोबा की ओर से डैमेज कंट्रोल की कोशिश माना गया. उन्होंने जयप्रकाश नारायण और इंदिरा गांधी के बीच सुलह की कोशिश की, तब भी उन्हें इंदिरा के पाले का बताया गया. जो जयप्रकाश नारायण कभी विनोबा के भूदान में खुशी-खुशी शामिल हुए थे, अब उनसे कतराने लगे. हालांकि विनोबा ने खुद कभी किसी पाले को न पूरी तरह सही बताया, न खारिज किया. बावजूद इसके विनोबा और इमरजेंसी को लेकर लोगों में आज भी एक राय नहीं है.
इज़रायल के प्रधानमंत्री के साथ जयप्रकाश नारायण
इज़रायल के प्रधानमंत्री के साथ जयप्रकाश नारायण (बाएं). इमरजेंसी के दौरान जयप्रकाश नारायण और विनोबा के बीच कुछ खटास पैदा हुई थी.


आपातकाल शायद विनोबा की ज़िंदगी का अकेला ऐसा समय रहा, जिसे विवादित कहा जा सकता है. इसके इतर 15 नवंबर, 1985 को उनकी मौत तक की उनकी पूरी ज़िंदगी ने आने वाली पीढ़ियों के लिए आदर्श ही स्थापित किए. एक चितपावन ब्राह्मण विनोबा ने आजीवन हरिजनों को उनका हक दिलाने की बात की, जिसमें मंदिर प्रवेश का बड़ा प्रतीक महत्व होता था. और विनोबा ने बातें ही नहीं कीं. उन्होंने मैला ढोने की प्रथा का विरोध किया तो पहले खुद अपने सिर पर मैले से भरी टोकरी रखी. ताकी समझ सकें कि वो कोफ्त होती कैसी है. अपने गुरु की ही तरह वो भी गोहत्या के खिलाफ थे. 1979 में उन्होंने इसके लिए उपवास भी रखा था.
आने वाली पुश्तें एक बेहतर ज़िंदगी जी सकें, इसलिए उन्होंने किताबें लिखीं, आश्रम खोले, मूल्य गढ़े. विनोबा वो इंसान थे जिनमें गांधी के मरने के 37 साल बाद तक लोग उनका अक्स देखते रहे.



 

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