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उस्ताद सईदुद्दीन डागर, जो अपने ही मुल्क में एक घर पाने की आरज़ू लिए मर गए

जिन्हें कई यूरोपियन देशों की नागरिकता मिली लेकिन जिनका दिल भारत में बसता था.

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17 अक्तूबर 2018 (Updated: 17 अक्तूबर 2018, 08:53 AM IST) कॉमेंट्स
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डॉ. अजीत प्रधान
डॉ. अजीत प्रधान

 डॉ. अजीत प्रधान. लल्लनटॉप के दोस्त. ये जनाब मेलबर्न में रहते थे. 1998 में स्वदेश आ गए. बिहार-झारखंड में हॉस्पिटल्स की हालत देखी नहीं गई, तो बिहार का पहला हार्ट हॉस्पिटल शुरू किया. नाम है जीवक हॉस्पिटल, जिसके 20 साल पूरे होते-होते डॉक साब के हाथों 8000 ओपन हार्ट सर्जरी हो चुकी हैं. दूसरों के दिलों के साथ-साथ ये अपने दिल का भी ख्याल रखते हैं. उनके औजार हैं म्यूज़िक और आर्ट. 2009 में नवरस स्कूल ऑफ परफॉर्मिंग आर्ट्स शुरू किया और लंबे वक्त से बिहार में क्लासिकल म्यूज़िक और आर्ट से जुड़े इवेंट्स आयोजित करा रहे हैं. पटना लिट्रेचर फेस्टिवल भी इन्हीं की देन है. आइए, देखिए इन्होंने उस्ताद सईदुद्दीन डागर पर क्या लिखा है...



"ऊँ अनन्त तम तरण तारिणी त्वम हरि ऊँ नारायणा अनन्त हरि ऊँ नारायणा"

"मद आदि, मद अंत शिव आदि, मद अंत"

उस्ताद सईदुद्दीन डागर ने जब अपनी दमदार और सधी हुई आवाज़ में इस मंत्र को आलाप के विस्तार में बांध कर गाया तो एक अद्भुत समां बंध गया. वातावरण में अलौकिक पवित्रता की लहर थी और चन्दन सी भीनी खुशबू, जिसमें हम सभी ओत-प्रोत हो रहे थे. यह बात 10-12 साल पहले के उस दिन की है जब मैं पुणे में था. उनका गायन सुनने के बाद मैंने अपना हवाई-टिकट रद्द कराया और एक दिन ज्यादा रूक गया. अगले दिन उनकी एक कार्यशाला थी जिसमें उन्होंने रागों का अलंकृत वर्णन, राग मारवा, और पुर्वी और श्री के ऋषभ के सूक्ष्म अंतर, राग मालकौंस में "शंकर गिरजापति पार्वती पतिशवर, गले रूण्ड माला महामाया महेश्वर" गाया और जब उन्होंने राग भैरव मे शिव स्तुति की:- तब महसूस हुआ कि शिव साक्षात् सामने आ गए हैं. वह दो दिन मेरी जिन्दगी के सबसे खूबसूरत दिनों में शामिल रहेंगे.
Navras

31 जुलाई 2017 को जब अख़बारों से पता चला कि एक लम्बी बीमारी से जूझते हुए उस्ताद सईदुद्दीन डागर ने अपनी अंतिम सांसें लीं, तो ऐसा लगा जैसे एक आलाप अधूरा रह गया. उनके सान्निध्य में बिताए पुणे के वह दो दिन रह-रह कर याद आते हैं. उस्ताद भले ही आज हमारे बीच नहीं हैं पर उनकी आवाज़ हमेशा गूंजती रहेगी और उनकी गायकी अविस्मरणीय बनी रहेगी.
डागर घराना की 19 वीं पीढी के प्रतिनिधि सईदुद्दीन डागर ध्रुपद परम्परा को जीवित रखने के लिए पारिवारिक परम्परा का कड़ाई से पालन करते थे. वह सारा जीवन भारत एवं विदेशों में ध्रुपद को लोकप्रिय बनाने में लगे रहे. निस्सन्देह वह ध्रुपद गायकी के सबसे जानेमाने और उत्कृष्ट कलाकार थे.
उनका जन्म 20 अप्रैल 1939 को अलवर (राजस्थान) मे हुआ था. उनके पिता उस्ताद हुसैनउद्दीन खान डागर ध्रुपद के जाने माने गायक थे, जिनके बारे में कहा जाता है कि उन्होंने एक कार्यक्रम मे करीब 3 घंटे सिर्फ मन्द्र सप्तक के स्वरों में राग को पेश किया. हुसैनउद्दीन साहब ने अपने पुत्र सईदुद्दीन डागर को 6 साल की उम्र से ध्रुपद गायकी सिखाना शुरू किया. उस्ताद हुसैनउद्दीन खान की अचानक मृत्यु के बाद सईदुद्दीन डागर ने अपने चाचा पद्म भूषण उस्ताद रहीमउद्दीन खान और बडे भाईयों से ध्रापद गायकी सीखी.
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उनके पिता को महाराजा अलवर ने ‘तानसेन पांडेय‘ का नाम दिया था तो सईदुद्दीन डागर को लोग ‘सत्यदेव पांडेय’ कहने लगे, क्योंकि डागर के पूर्वज पांडेय ब्राह्मण थे. गिरिधर नाथ पांडे, बाबर के समकालीन थे, और उनके पौत्र गदाधर और ज्ञानधर पांडेय अकबर के दरबारी गायक थे. इन्हीं के वंशज थे बाबा गोपाल दास, जो मुहम्मद शाह रंगीले के दरबारी गायक भी थे.
आज की ध्रुपद के गायकी के, डागरवाणी के, असल सूत्रधार हैं बाबा गोपाल दास के बेटे उस्ताद बहरम खान. डागर बंधु इन्हीं के वंशज हैं .
उस्ताद सईदुद्दीन डागर (जिन्हें प्यार से लोग सईद भाई भी कहते थे) सन 1984 में जयपुर छोड़कर पुणे में आ बसे. उनकी दिली-ख्वाहिश थी कि उनका पुणे में एक घर हो. मुख्यमंत्री कोटा में घर के आंवटन के लिए उन्होंने आवेदन दिया और कागज़ी तौर पर उन्हें एक घर मुहैया भी हुआ, पर लाख कोशिशों के बावजूद उन्हें वह घर वास्तविक तौर पर नहीं मिल सका. मिली तो एक सरकारी चिट्ठी, जिसमें उनसे उनके संगीतकार होने का प्रमाण पत्र मांगा गया था.
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ऐसे मूध्रन्य कलाकार, जिन्हें ध्रुपद गायकी को ज़िंदा रखने का श्रेय दिया जाता है, जिनकी भारत ही नहीं विदेशों में भी बेहद क़द्र थी, जिनके शिष्य और प्रशंसक पूरे विश्व में छाए हुए हैं, उनसे संगीतकार होने का प्रमाण मांगना अपमानजनक ही नहीं, शर्मनाक भी था. वह भी उस देश में, जो उनका अपना था. अपने घर का ख्वाब देखते देखते उस्ताद चल बसे. अपने घर के इंतजार में उन्होंने पुणे में दस-बारह घर बदले. अंतिम समय में उन्हें दो ग़ज़ ज़मीन तो मिली, पर अपनी छत नसीब नहीं हुई. एक घर भी न मिला कू-ए-यार में. ऐसे में शहरयार का वह शेर याद आता है :
"जुस्तजू जिसकी थी उसको तो न पाया हमने इस बहाने से मगर देख ली दुनिया हमने"
सईदुद्दीन डागर सात सप्तक प्रसिद्ध डागर बंधुओं में सबसे छोटे थे. मीड़युक्त, आसयुक्त, अलापी, श्रुतिप्रधान उनकी गायकी की खासियत थी. वह ऋषभ में गाकर 6 श्रुतियों को दिखा देते थे, जबकि शास्त्र में सिर्फ 3 श्रुतियों का वर्णन है. जब गमक की मर्दानी गायकी वो गाते थे तो पूरा घर काँप उठता मालूम होता था. जब वो खड़ज सप्तक में गाते थे तो खिडकियों के शीशे हिलने लगते थे. संगीत की बारीकियों को वो जितना बखूबी समझते थे और समझाते थे वो हर किसी के बस की बात नहीं थी. ऐसे विद्वान और विलक्षण गायक को जो पहचान मिलनी चाहिए थी वह उन्हें नहीं मिली, लेकिन इसका उन्हें कोई गम नहीं था. मैं जब पुणे मे उनसे मिला, और इसपर बात छिड़ी तो उन्होंने कहा "डॉक्टर साहब, वक्त से पहले और नसीब से ज्यादा नहीं मिलेगा" और निदा फाजली का एक शेर कह डाला,
"कभी किसी को मुकम्मल जहां नहीं मिलता, कहीँ जमीन तो कहीं आसमा नही मिलता."
सईदुद्दीन डागर वैसे तो ध्रुपद गायक थे, लेकिन बहुत खयालिया गायक भी उनसे तालीम लेने जाते थे - खास कर स्वर संस्कृति (voice culture) और स्वर साधना के लिए.
ustaddagar

सानिया पटानकर, विदुषी अश्विनी भिंडे की शिष्या, जो ख्याल गायकी गाती हैं, सईदुद्दीन डागर से रागों के बारे मे खास बातें, श्रुतियों की जानकारी और स्वर संस्कृति (voice culture) तथा स्वर साधना के लिए चार साल उनसे तालीम ली. पंडित भीमसेन जोशी और पंडित जितेन्द्र अभिशेकी जैसे महान कलाकारों ने अपने पुत्र और शिष्यों को स्वर संस्कृति (voice culture ) तथा स्वर साधना के लिए उस्ताद सईदुद्दीन डागर के पास भेजा था.
सानिया पटानकर ने मुझे बताया कि बहुत से गुणी कलाकार सईदुद्दीन डागर के पास अपने गले और आवाज का इलाज कराने के लिए आते थे. एक ऐसे ही गायक थे दिल्ली के, जिनके स्वर रज्जु (vocal cords ) ही टूट गए थे और ई.एन.टी. सर्जन कुछ भी करने मे असमर्थ थे. डागर साहब जिन्हें "गले का डॉक्टर" भी कहते थे, ने घी मे पका हुआ शीरा (मराठी मिठाई) बाँधकर और दमसास का ईलाज, जिसमें नियमित तरीके से हवा अन्दर लेना, दोनों स्वर रज्जु (vocal cords ) का अलग अलग रियाज, खड़ज साधना ईत्यादि करा कर उनके गले को केवल ठीक ही नहीं किया, पर कुछ दिन बाद मंच पर तार सप्तक के पंचम तक उनसे गाना गवाया. स्वर संस्कृति (voice culture) पर उनका विषेष ध्यान रहता था. एक-एक सुर पर, एक-एक श्रुति पर घंटों रियाज करते थे. वह अपने संगीत रियाज के लिए 1100 मनकों की माला रखते थे और एक सांस मे चार-पांच तो कभी सात माला के सरगम गाते थे स्वर साधने के लिए. उनका कहना था - आवाज तैयार करो, फिर खयाल गाओ या गज़ल. "मेरे गले पे, सीने पे हाथ रखो, माथे पे हाथ रखो - सब जगह कंपन महसूस करोगे, क्योंकि सिर्फ गले से नहीं गाया जाता - जिसका जितना ईमान सच्चा, उसका उतना स्वर सच्चा".
उनका मानना था कि शास्त्रीय गायकों को राग भैरव और कल्याण (यमन) को सबसे पहले समझना और उसका रियाज करना चाहिए, तब फिर मुलतानी और उसके बाद तोडी. सईदुद्दीन डागर की भावात्मक और कलात्मक अलंकरणों से सुसज्जित प्रस्तुतियों का कोई जबाब नहीं था. राग श्री की प (पंचम), रे (कोमल ऋषभ) मीड़ की वह ऐसी कल्पना करते थे जैसे कि ‘प’ में चन्द्रंमा का उगम और ‘रे’ पर सूर्यास्त हो रहा हो -- और इसीलिए वह संधि प्रकाश राग है. उनका कहना था,
"जब शाम के वक्त अर्घ्य देने पानी में जाते है, तो पानी का स्तर ऊंचा हो जाता है, इसी प्रकार कोमल ऋषभ भी थोड़ा ऊंचा चढ़ता है और अर्घ्य का जल प (पंचम) से गिरकर चढ़े हुए रे (कोमल ऋषभ) पर मीड़ द्वारा आता है. इसलिए राग श्री का कोमल रिषभ थोडा चढ़ा हुआ रहता है".
उस्ताद सईदुद्दीन डागर की ऐसी काव्यात्मक कल्पना सुनकर उनकी एक फ़्रांसिसी शिष्या का कहना है - "सईदुद्दीन डागर सब डागर बन्धुओं मे सबसे ज्यादा कवि हृदय थे. उनके जैसा तानपुरा तो पुरी दुनिया में मैंने नहीं सुना - जो उनके मन में रहता था - उनके तानपुरा गाते थे".
सानिया पटानकर का कहना है, "उनके तानपुरा से राग के सरगम सुनाई देते थे, तोड़ी हो या यमन, उनके तानपुरा से साफ झलक जाता था जो उनकी अद्वितीय प्रतिभा थी. वह कभी फैसला नहीं करते थे कि उन्हें कौन सा राग गाना है- यह काम तो उनका 400 साल पुराना तानपुरा ही करता था--माहौल को देख समझकर. वह अपने कार्यक्रम गणेश स्तुति से प्रारंभ करते थे और शिव ताण्डव से समाप्त".
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उनका पसंदीदा राग था राग तोडी, और उनके घराने का अप्रचलित राग, राग अदभुत कल्याण, जिसमें मध्यम और पंचम दोनो हीं नही लगते. मैं पुणे उनसे राग अद्भुत कल्याण सुनने गया था और ‘बोनस’ मे उनसे शिव स्तुति सुनने को और उनके तानपुरा के बारे मे बात करने का भी मौका पा गया.
तानपुरा के बारे में बात करते करते उस्ताद सईदुद्दीन डागर ने पंचम लगाया और राग मारवा गाने लगे. मारवा में पंचम नही लगता बल्कि निषाद लगाकर तानपुरा को साधते हैं.
"कुछ अजीब सा लग रहा है न, पंचम की वजह से मारवा" उन्होंने पूछा.
मैने आश्चर्यचकित हो कहा - "आपने पंचम तो लगाया लेकिन मुझे पंचम सुनाई नहीं दे रहा है".
उस्ताद सईदुद्दीन डागर मुस्कुराते हुए बोले - "मैं ‘रे’ और ‘ध’ की ऐसी श्रुतियां लगा रहा हूँ कि वो तानपुरा के पंचम को मार रही है."
ये था उनका तानपुरा.
उस्ताद सईदुद्दीन डागर को देश के सभी प्रमुख कार्यक्रमों मे गाने का मौका मिला. विदेश में, खासकर यूरोप में, उनके बहुत प्रशंसक थे. साल मे दो बार वह हॉलैंड, फ्रांस, जर्मनी, बेल्जियम में ध्रुपद की कार्यशाला आयोजित करते थे. उन्हें कई यूरोपियन देशों की मानद नागरिकता प्रदान की गई, लेकिन उनका कहना था - "जहां मेरा दिल वहीं मुझे रहना, मेरा दिल तो भारत में बसता है."
और 30 जुलाई 2017 को चल पड़े अपने दिल की पुकार सुन कर, लाखों का दिल तोड़कर. पर छोड़ गए अपने दो उत्कृष्ट शिष्य, अपने दो बेटों को, जो ध्रुपद डागर घराने की 20वीं पीढ़ी के प्रतिनिधि हैं. उस्ताद नफीसउद्दीन डागर और उस्ताद अनीसउद्दीन डागर, जो उनके दिल की बात को, उनकी गायकी को और डागरवाणी को ज़िंदा रखेंगे.


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