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कैसे पता करते हैं, कौन-सा नागा साधु असली है?

हर नंगा साधु नागा नहीं होता.

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2001 के इलाहाबाद संगम में नागा साधु
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आयुष
5 सितंबर 2019 (Updated: 6 सितंबर 2019, 06:00 AM IST) कॉमेंट्स
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नागा साधु. भारत की संन्यास परंपरा का एक ऐसा नाम, जिसका जिक्र करते ही उत्सुकता आसमान पर पहुंच जाती है. आपकी भी. और हमारी भी. हाल में मैंने एक किताब पढ़ी. पत्रकार धीरेंद्र के झा की. इसका टाइटिल है- ऐसेटिक गेम्स. धीरेंद्र झा ने इसमें 2013 के इलाहाबाद कुंभ के कई वाकये लिखे हैं. उसमें से एक है असली नागा साधुओं से जुड़ा. आप कहेंगे, नागा साधु में असली नकली कैसा. क्योंकि इसका एक विधान है. महज निर्वस्त्र होने से कोई नागा साधु नहीं हो जाता. और ये विधान झा ने जाना एक नागा साधु से बात के जरिए. नागा साधु बनने की तीन स्टेज होती हैं.

पहली स्टेज – स्कूल में एडमिशन

इसमें कारबारी यानी लेखा-जोखा रखने वाला मठ का आदमी ब्यौरे लिखता है. साधु बनने के इच्छुक व्यक्ति के. व्यक्ति का नाम, गुरु का नाम, जॉइनिंग डेट इत्यादि. उसके बाद कैंडिडेट का सर मुंडवा दिया जाता है. फिर वह अपने मंत्र गुरु के पास पहुंचता है. अब गुरु और चेला, पवित्र अग्नि के साथ त्रिकोण बनाकर बैठते हैं. ईश्वर को पुष्प और जल अर्पित करने के लिए. इस अवसर पर चार गुरु और मौजूद होते हैं. ये चेले को चार चीजें देते हैं. 1 विभूति (भस्म) 2 लंगोटी 3 जनेऊ 4 रुद्राक्ष इसके बाद नागा साधु बनने के इच्छुक व्यक्ति के सर पर जो चोटी है, वह भी हटा दी जाती है. अब मंत्र गुरु उसके कान में तीन बार मंत्र फुसफुसाते हैं. इसके बाद भावी नागा साधु को नया नाम दिया जाता है. इस नए नाम के साथ पहली स्टेज पूरी होती है. कैंडिडेट को अब महापुरुष कहा जाता है.

दूसरी स्टेज – चिंता ता चिता चिता

इस स्टेज में महापुरुष से संन्यासी बनने का प्रोसेस शुरू होता है. इसमें मुख्य होता है यज्ञ. विराज हवन नाम का ये यज्ञ हमेशा कुंभ मेले के टाइम शेड्यूल होता है. यज्ञ और सारी प्रक्रियाएं नदी किनारे होती हैं. सबसे पहले कैंडिडेट को फाइनल वॉर्निंग दे दी जाती है.
‘ये घर परिवार के पास वापस लौटने का आखिरी मौका है. किसी को निकलना है तो अभी निकल ल्यो’
इसके बाद महापुरुष को कपड़े उतार कर कुछ कदम उत्तर दिशा की ओर चलने को कहा जाता है. फिर गुरु वापस बुला लेते हैं. ये सिंबॉलिक कदम हिमालय की यात्रा को दर्शाते हैं. सूरज ढलने के बाद महापुरुष यानी कैंडिडेट अखाड़े में लौटता है. यहां चार कोनों में चार चिताएं जल रही होती हैं. इन्हीं चिताओं की आग में मुख्य यज्ञ शुरू होता है. इस समय ऋग्वेद के पुरुष-सूक्त का उच्चारण किया जाता है. संत के मुताबिक इस सूक्त को हिंदुओं के अंतिम संस्कार के समय गाया जाता है. मगर इसे क्यों गाया जाता है. क्योंकि माना जाता है कि महापुरुष ने खुद का अंतिम संस्कार कर लिया है. अब वो दुनिया के लिए मर चुका है. यानी अब वो सन्यासी बनने के लिए तैयार है. सुबह-सवेरे आधे पानी में कुछ और संस्कार होते हैं और फिर सन्यासी बनने की ये प्रक्रिया पूरी हो जाती है.

तीसरी स्टेज – टांग तोड़

फाइनल स्टेज. सन्यासी से नागा बनने की घड़ी. कठिन परीक्षा की घड़ी. और ये आती है रात के घने अंधेरे में. कीर्ति-स्तंभ के सामने. कीर्ति-स्तंभ अखाड़े के बीचों बीच एक लंबा खंबा होता है. संन्यासी चार श्रीमहंतों के साथ कीर्ति-स्तंभ के सामने पहुंचता है. यहां एक आचार्य जल का लोटा लिए खड़े रहते हैं. आचार्य सन्यासी के ऊपर जल डाल चढ़ाते हैं. और फिर पूरी ताकत से उसका लिंग खींचते हैं. ऐसा तीन बार किया जाता है. इस संस्कार को कहते हैं टांग तोड़. ऐसा माना जाता है कि टांग तोड़ में सन्यासी के लिंग के नीचे का मेम्ब्रेन तोड़ दिया जाता है. इसके बाद लिंग कभी उत्तेजित अवस्था में नहीं आता. वह काम के पार चला जाता है. वासना से, किसी भी किस्म की मुक्त हो जाता है. झा से बात कर रहे साधु ने कहा –
‘जब वे लिंग पकड़ते हैं तो दिमाग काम करना बंद कर देता है. मुझे इतना दर्द हुआ था कि मैं लगभग बेहोश हो गया था. मुझे अपने पैरों पर खड़े होने में दो घंटे लगे. उसके बाद ही मैं बाकी के संस्कार पूरे कर पाया. मुझे पहले से पता होता तो मैं ये कभी न करता’
इस साधु को नहीं पता था. आपको पता है. क्योंकि आपके पास दी लल्लनटॉप है.
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