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भारत के आर्मी चीफ ने गलत जानकारी न दी होती, तो उस साल भारत लाहौर जीत जाता!

कहानी 1965 के युद्ध की, जिसे भारत जीतकर भी नहीं जीत पाया.

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1965 की जंग ड्रॉ रही. न कोई जीता, न कोई हारा. ये अलग बात है कि भारत का जीतना लगभग तय था. ताशकंद समझौते में भी हम खुद को मिली बढ़त कैश नहीं कर पाए. ये सब हुआ ही, साथ ही प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री की भी अचानक मौत हो गई. बाईं तरफ शास्त्री हैं. दाहिनी तरफ हाजी पीर पास जीतने के बाद वहां तिरंगा फहराती भारतीय सेना (फोटो: Getty+ सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय)
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22 जुलाई 2018 (Updated: 30 जुलाई 2018, 09:14 IST)
Updated: 30 जुलाई 2018 09:14 IST
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25 जुलाई, 2018 को पाकिस्तान में चुनाव होना है. पाकिस्तान में लोकतंत्र का पस्त रेकॉर्ड रहा है. ऐसे में यहां कोई सरकार अपना कार्यकाल पूरा कर ले, तो बड़ी बात है. ये पहली बार हो रहा है कि पाकिस्तान में बैक-टू-बैक दो सरकारों ने अपना कार्यकाल पूरा किया है. ये जो हुआ है, वो ऐतिहासिक है. इस खास मौके पर द लल्लनटॉप पाकिस्तान की राजनीति पर एक सीरीज़ लाया है. शुरुआत से लेकर अब तक. पढ़िए, इस सीरीज़ की आठवीं किस्त.


पाकिस्तानी हुक्मरानों ने 'ऑपरेशन जिब्राल्टर' की प्लानिंग मुल्क के फायदे के लिए नहीं की. वो खुद को महान बनाना चाहते थे. ये जंग ही गलत थी. हमारी हुकूमत ने मुल्क से झूठ कहा. झूठ कहा कि पाकिस्तान ने नहीं, बल्कि भारत ने जंग की शुरुआत की थी. झूठ कहा कि पाकिस्तान पीड़ित है. अगर राष्ट्रपति अयूब खान ने अपने सीनियर जनरल्स को जिम्मेदार बताकर इस्तीफा दे दिया होता, तो मुल्क का भला होता. अयूब के बाद आने वाले जनरलों के लिए ये एक सबक होता. 1965 की जंग एक बड़े झूठ पर टिकी थी. पाकिस्तानी आवाम से झूठ कहा गया कि हमारा मुल्क जीता है. सेना को सच मालूम था, लेकिन झूठ कहते-कहते वो अपने ही गढ़े झूठ को सच मानने लगी. इसके बाद से ही पाकिस्तानी सेना ने अयूब को अपना नायक बना लिया है. इसीलिए हमारी सेना गैरजरूरी युद्ध लड़ती है. 1965 की जंग, 1971 का पतन, 1999 का कारगिल वॉर...सब के सब गैरजरूरी थे. हर जंग में हमने 1965 की गलतियों को ही दोहराया है.

                                               एयर मार्शल नूर खान, कमांडर-इन-चीफ, पाकिस्तान एयर फोर्स (1965-1969)

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एक कहावत है- आदत से लाचार होना. 1965 की जंग इस मुहावरे का क्लासिक केस है. यहां भारत और पाकिस्तान, दोनों अपनी आदतों के आगे हारे. पाकिस्तान की ओवरकॉन्फिडेंस की आदत. भारत की समझौते की टेबल पर कमजोर पड़ने की आदत. इस जंग में भारत को जीतकर भी जीत नहीं मिली, संघर्षविराम हो गया. मैदान पर सेना लड़ रही थी. उसने भारत को जिताया. खूब कुर्बानी दी. जीत बस एक हाथ दूर थी. मगर फिर गेंद आई राजनैतिक नेतृत्व के पाले में. समझौते की टेबल पर बैठकर हमारी लीडरशिप ने सेना के किए-कराये पर पानी फेर दिया. यही वो आदत है, जिसकी वजह से कश्मीर मुद्दा आज तक नहीं सुलझा. भारत के पास कई मौके थे इसे सुलझाने के. सारे मौके उसे पाकिस्तान ने दिए. लेकिन हमारी पॉलिटिकल लीडरशिप ने सेना की मेहनत पर पानी फेर दिया. पिछली किस्त में हमने आपको बताया कि 1965 की जंग में भारत और पाकिस्तान कैसे लड़े. भारत जीतने की स्थिति में था. फिर सीजफायर हो गया. क्यों हुआ? संघर्षविराम के बाद क्या हुआ? इस किस्त में आपको इन सवालों के जवाब मिलेंगे.
जब भारत-पाकिस्तान के बीच ये जंग शुरू हुई,तब अमेरिका खुद वियतनाम में लड़ रहा था. पैसा, संसाधन और जान-माल, हर लिहाज से अमेरिका झेल ही रहा था. अमेरिका नहीं चाहता था कि भारत-पाकिस्तान की ये जंग आगे बढ़े. क्योंकि जंग के बढ़ने पर इसमें विश्व शक्तियों के शामिल होने का खतरा था (फोटो: Getty)
जब 1965 की ये जंग शुरू हुई, तब अमेरिका खुद वियतनाम में लड़ रहा था. पैसा, संसाधन और जान-माल, हर लिहाज से अमेरिका झेल ही रहा था. अमेरिका नहीं चाहता था कि भारत-पाकिस्तान की ये जंग आगे बढ़े. क्योंकि जंग के बढ़ने पर इसमें विश्व शक्तियों के शामिल होने का खतरा था. इसीलिए अमेरिका ने जंग के दौरान पाकिस्तान को गोला-बारूद देना भी बंद कर दिया था.  ये वियतनाम युद्ध की तस्वीर है (फोटो: Getty)

अमेरिका-ब्रिटेन का दोहरापन ये वो समय था, जब अमेरिका की अपनी लड़ाई चल रही थी वियतनाम में. उसके हाथ बुरी तरह से फंसे हुए थे. पाकिस्तान उसका सहयोगी था. सो अमेरिका ये भी चाहता था कि पाकिस्तान बिना तार-तार हुए इस लड़ाई से बाहर निकल जाए. वो नहीं चाहता था कि ये मामला बढ़े और वो इस पचड़े में नहीं घुसना चाहता था. ब्रिटेन का स्टैंड वैसे भी प्रो-पाकिस्तान था. जब भारत ने लाहौर पर हमला किया, तो ब्रिटिश PM हेरोल्ड विल्सन ने लाल बहादुर शास्त्री को संदेश भेजा. इसमें लिखा था-
इतनी तेजी से बढ़े तनाव के लिए दोनों देशों की सरकारें जिम्मेदार हैं. अब लाहौर पर हुए हमले ने हमारे सामने बिल्कुल ही अलग स्थिति पेश कर दी है.
दोनों देशों की सरकारें जिम्मेदार हैं? सच्ची? मगर भारत ने तो पहले हमला किया नहीं था. यहीं पर आपको ब्रिटेन की मक्कारी दिखेगी. वो पाकिस्तान की हरकतों से अच्छी तरह वाकिफ था. बावजूद इसके वो भारत को भी जिम्मेदार ठहरा रहा था. हमें तब ब्रिटेन से पूछना चाहिए था. कि अगर कोई तुम पर हमला करे, तब भी क्या तुम जवाब नहीं दोगे? बात रही अमेरिका की, तो दोहरेपन में वैसे भी उसका कोई जोड़ नहीं. खुद वियतनाम पर हमला करके वहां जुल्म कर रहा है. लेकिन भारत से उम्मीद कर रहा है कि वो चुप बैठे. खैर. तो हुआ ये कि भारत सरकार को ब्रिटेन का ये पक्षपात बिल्कुल नहीं भाया. कहते हैं कि शास्त्री ने विल्सन के भेजे संदेश को इसी वजह से कोई तवज्जो नहीं दी. भारत ने तय कर लिया था. कि वो पक्षपाती ब्रिटेन या अमेरिका के दबाव में आकर कुछ नहीं करने वाला है.
माओ के साथ बैठे हैं जुल्फिकार अली भुट्टो.
माओ के साथ बैठे हैं जुल्फिकार अली भुट्टो. ये जंग के बाद के दिनों की तस्वीर है. चीन और भारत के रिश्ते बहुत खराब थे. 1962 की लड़ाई में जब चीन जीत गया, तब अमेरिका को एहसास हुआ. कि चीन को इस तरह भारत पर हावी नहीं होने दिया जा सकता. क्योंकि इससे पूरे साउथ-ईस्ट एशिया में पावर बैलेंस बिगड़ जाएगा (फोटो: Getty)

एक और बात का डर था पाकिस्तान की पीठ पर चीन था. चीन को भारत से चिढ़ थी. तब से ही, जब से नेहरू ने दलाई लामा को भारत में शरण दी थी. माओ ने खुद ये बात कही थी. जब जंग हुई, तो शुरुआत में चीन इस जंग को खत्म करवाने की जगह इसे लंबा खिंचवाने की जुगत भिड़ा रहा था. उसने पाकिस्तान को हर मुमकिन मदद देने का भी वादा किया था. अमेरिका और सोवियत, दोनों ये समझ रहे थे. उन्हें लग रहा था कि चीन जंग में दखल देगा. शायद खुद भी कूद जाए. सोवियत और भारत के करीबी रिश्ते थे. जबकि चीन के साथ उसके रिश्ते खराब थे. उधर कोरियन युद्ध के बाद अमेरिका और चीन के रिश्ते भी काफी खराब हो चुके थे. पाकिस्तान और चीन की नजदीकी से भी अमेरिका सशंकित था. उसे लग रहा था कि अगर चीन को अपर हैंड मिला, तो वो और मजबूत हो जाएगा. पावर बैलेंस रखने के लिए जरूरी था कि चीन इस जंग से दूर रहे. 1965 की ये जंग कोल्ड वॉर के उन दुर्लभ मौकों में से थी, जब सोवियत और अमेरिका दोनों एक पेट थे. दोनों चाहते थे कि भारत-पाकिस्तान की ये जंग खत्म हो जाए. इसीलिए उन्होंने सुरक्षा परिषद में अपने प्रभाव का इस्तेमाल किया. UN की देख-रेख में दोनों देशों के बीच संघर्षविराम करवाने की कोशिश की.
उस समय UN के सेक्रटरी जनरल थे यू थांट. उन्होंने सीजफायर करवाने के लिए शास्त्री को कई संदेश भेजे. फिर खुद भी दिल्ली आए. शास्त्री नए थे. मगर ठोस बात कहते थे. शास्त्री ने UN से कहा. कि शुरुआत पाकिस्तान ने की है. शांति अकेले भारत की जिम्मेदारी तो है नहीं.
ये न्यू यॉर्क टाइम्स
ये न्यू यॉर्क टाइम्स का फ्रंट पेज है. इसमें UN के प्रमुख यू थांट के भारत के लिए रवाना होने की बात लिखी गई है. अमेरिका ने युद्ध खत्म करने की जितनी कोशिश की, UN के ही माध्यम से की. जबकि सोवियत डायरेक्ट भारत से बात कर रहा था.

सोवियत का स्टैंड सोवियत का मतलब यहां रूस से है. जिसके साथ भारत के करीबी रिश्ते थे. रूस पूरे घटनाक्रम को गौर से देख रहा था. जहां तक कश्मीर की बात है, तो सोवियत ने हमेशा से ही कहा था. कि कश्मीर भारत का हिस्सा है. जंग शुरू होने पर उसका कहना था कि ये सब पाकिस्तान की तरफ से की गई घुसपैठ से शुरू हुआ है. भारत चाहता था कि सुरक्षा परिषद को बस सशस्त्र संघर्ष सुलझाने पर ध्यान देना चाहिए. कश्मीर को इस सब में नहीं घसीटना चाहिए. सोवियत ने UN में भारत के इस पक्ष का समर्थन किया.
तब के रक्षा मंत्री यशवंत राव चव्हाण ने अपनी वॉर डायरी में लिखा है. कि जब ब्रिटिश प्रधानमंत्री विल्सन का संदेश आया, तो उसमें भारत को भी जंग के लिए जिम्मेदार बताया गया था. उसी समय PM शास्त्री ने फैसला कर लिया था. कि ब्रिटेन जैसे पक्षपाती देश के दबाव में आकर कोई फैसला नहीं लेंगे (फोटो: Getty)
तब के रक्षा मंत्री यशवंत राव चव्हाण ने अपनी वॉर डायरी में लिखा है. कि जब ब्रिटिश प्रधानमंत्री विल्सन का संदेश आया, तो उसमें भारत को भी जंग के लिए जिम्मेदार बताया गया था. उसी समय PM शास्त्री ने फैसला कर लिया था. कि ब्रिटेन जैसे पक्षपाती देश के दबाव में आकर कोई फैसला नहीं लेंगे (फोटो: Getty)

कमजोर नहीं, मजबूत भारत की जरूरत थी सोवियत को ऐसा नहीं कि रूस को चीन के साथ भिड़ने का शौक रहा हो. अलबत्ता तो वह चीन के साथ खुलकर कोई तनाव बढ़ाना ही नहीं चाहता था. लेकिन पूरी आशंका थी कि चीन दूसरे मोर्चे पर जंग छेड़कर भारत की स्थिति कमजोर करने की कोशिश करेगा. रूस ने मन बना लिया था. कि अगर ऐसी स्थिति आती है, तो वह चुपचाप नहीं बैठेगा. कहते हैं कि सोवियत के प्रमुख ऐलेक्सी कोसगिन ने भारत को आश्वासन दिया था. कि अगर चीन हमला करता है, तो वह भारत को सपोर्ट देंगे. JNU में डिप्लोमैटिक स्टडीज के प्रफेसर रहे सिसिर गुप्ता की एक किताब है- इंडिया ऐंड द इंटरनैशनल सिस्टम. इस सिचुएशन के बारे में वो लिखते हैं कि दक्षिण एशिया में भारत को एक मजबूत स्थिति में देखना सोवियत के हित में था. सोवियत नहीं चाहता था कि संघर्ष की स्थिति में भारत की बेइज्जती हो. या वो कमजोर नजर आए.
सोवियत के रुख को देखकर ही बाद के दिनों में चीन ने थोड़ा सब्र दिखाया. 1975 में एक किताब आई थी- इंडिया, पाकिस्तान, बांग्लादेश ऐंड द मेजर पावर्स: पॉलिटिक्स ऑफ अ डिवाइडेड सबकॉन्टिनेंट. लेखक जी डब्ल्यू चौधरी लिखते हैं कि सोवियत का भारत के लिए सपोर्ट देखकर ही चीन ने बाद में खुद पर कंट्रोल किया. माओ ने अयूब से कहा. कि अगर भारत और पाकिस्तान की इस जंग के बहाने न्यूक्लियर वॉर शुरू होता है, तो सबसे ज्यादा नुकसान चीन का होगा. क्योंकि तब निशाने पर चीन होगा, पाकिस्तान नहीं. बात तो सही थी.
सोवियत संघ के प्रीमियर थे एलेक्सी. एक तो भारत सोवियत का करीबी था. दूसरी बात ये कि एक मजबूत भारत सोवियत के हित में था. इसके लिए जरूरी था कि इस मुसीबत की घड़ी में सोवियत भारत के हितों की परवाह करे.
एक तो भारत सोवियत का करीबी था. दूसरी बात ये कि चीन के पड़ोस में बसा मजबूत भारत सोवियत के हित में था. ये सोवियत की विदेश नीति का हिस्सा थी. सोवियत संघ के प्रीमियर थे एलेक्सी. उन्होंने ही दोनों देशों के बीच मध्यस्थता का प्रस्ताव रखा था. भारत और पाकिस्तान, दोनों इसके लिए राजी हो गए (फोटो: Getty)

ताशकंद कहां से आया पिक्चर में? इन स्थितियों में भारत को सिर्फ सोवियत पर ही भरोसा था. सोवियत को भी पता था. कि इस विवाद को बिना पक्षपात सुलझाने के लिए उसे ही आगे आना होगा. यही सोचकर सोवियत ने मध्यस्थता की. शुरुआती ना-नुकुर के बाद दोनों देश राजी हो गए. जहां तक पाकिस्तान की बात थी, तो लाहौर के ठीक बाहर भारतीय सेना का मौजूद होना उसके लिए बहुत बड़ा अपमान था. उसके पास संघर्षविराम के अलावा कोई और राह थी ही नहीं. समझौते की शर्तों पर बात करने के लिए सोवियत ने भारत और पाकिस्तान को ताशकंद बुलाया. ताशकंद उज्बेकिस्तान में आता है. उस समय ये सोवियत संघ का हिस्सा था. ताशकंद जाने से ठीक पहले दिसंबर 1965 में अयूब अमेरिका पहुंचे. वो अमेरिका से मदद मांगने गए थे. ताकि अमेरिका भारत पर दबाव बनाए, ताकि समझौते की शर्तें पाकिस्तान के लिए शर्मिंदगी न बनें. उस समय अमेरिका के राष्ट्रपति थे लिंडन जॉनसन. उन्होंने अयूब की मदद करने से इनकार कर दिया. लिंडन ने दो-टूक कहा. कि अमेरिका कश्मीर मुद्दे पर भारत के ऊपर किसी भी तरह का दबाव नहीं बना सकता.
अमेरिका से खाली हाथ लौटे अयूब जनवरी 1966 के पहले हफ्ते में ताशकंद पहुंचे. यहां उनकी मुलाकात हुई लाल बहादुर शास्त्री से. वही शास्त्री, जिन्हें 'बौना' कहकर अयूब उनका मजाक उड़ाया करते थे. वही शास्त्री, जिनके बारे में अयूब ने कहा था-
मैं तो उसके ऊपर थूकना तक पसंद नहीं करूंगा.
प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री ने जैसी हिम्मत दिखाई, उसकी वजह से वो सेना में काफी लोकप्रिय हो गए थे. नायक की छवि हो गई थी उनकी. शास्त्री का ही तो नारा था- जय जवान, जय किसान. ये तस्वीर भी जंग के समय की ही है. 1 स्ट्राइक कॉर्प्स के अधिकारियों के साथ खड़े हैं PM शास्त्री (फोटो: सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय)
प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री ने जैसी हिम्मत दिखाई, उसकी वजह से वो सेना में काफी लोकप्रिय हो गए थे. नायक की छवि हो गई थी उनकी. शास्त्री का ही तो नारा था- जय जवान, जय किसान. ये तस्वीर भी जंग के समय की ही है. 1 स्ट्राइक कॉर्प्स के अधिकारियों के साथ खड़े हैं PM शास्त्री (फोटो: सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय)

शास्त्री क्या कहकर ताशकंद गए थे? भारतीय सेना बहुत खुश थी शास्त्री से. 1962 की शर्मनाक हार की वजह से भारतीय सेना का आत्मविश्वास रसातल में चला गया था. लेकिन इस लड़ाई ने उनका जज्बा बढ़ाया था. शास्त्री सरकार ने भी काफी हिम्मत दिखाई थी. दृढ़ रहे थे. जब शास्त्री ताशकंद जाने लगे, तब न केवल कांग्रेस और विपक्षी दलों को, बल्कि सेना को भी काफी घबराहट थी. कि जाने वहां क्या समझौता होता है. मगर शास्त्री ने सबको भरोसा दिलाया था. कि वो भारत के हितों के साथ कोई समझौता नहीं करेंगे. सब चाहते थे कि भारत ने पाकिस्तान के जो हिस्से जीते हैं, वो उसे वापस न लौटाए जाएं. शास्त्री ने भी कहा था. कि भारतीय सेना ने इतना सारा बलिदान देकर जो हासिल किया है, उसे वो समझौते की टेबल पर गंवाएंगे नहीं.
शास्त्री छोटे कद के दुबले-पतले इंसान थे. उन्हें देखकर उनके कमजोर होने का भ्रम हो सकता था. लेकिन 1965 की लड़ाई में उन्होंने जिस तरह की दृढ़ता दिखाई, वो तारीफ के काबिल है. बस वो समझौते की टेबल पर उतने दृढ़ नहीं रह पाए. ज्यादा पसीज गए.
शास्त्री छोटे कद के दुबले-पतले इंसान थे. उन्हें देखकर उनके कमजोर होने का भ्रम हो सकता था. लेकिन 1965 की लड़ाई में उन्होंने जिस तरह की दृढ़ता दिखाई, वो तारीफ के काबिल है. बस वो समझौते की टेबल पर उतने दृढ़ नहीं रह पाए. ज्यादा पसीज गए (फोटो: Getty)

ताशकंद: अयूब और शास्त्री का आमना-सामना हम आपको बता चुके हैं. कि शास्त्री को लेकर अयूब के खयाल बड़े खराब थे. वो उनको नीची नजर से देखते थे. मगर ताशकंद में जब वो शास्त्री से मिले, तो उनका बर्ताव बदला हुआ था. वो अकेले ही शास्त्री के साथ बात किया करते थे. स्टैनले वोल्पर्ट ने अपनी किताब 'जुल्फी भुट्टो ऑफ पाकिस्तान: हिज लाइफ ऐंड टाइम्स' में लिखा है. कि भुट्टो ने जब इस मीटिंग में शामिल होने की कोशिश की, तब अयूब ने उन्हें बाहर ही रहने का इशारा किया. कहते हैं कि अयूब ने भुट्टो की तरफ अंगुली तानकर उन्हें बेहद सख्त इशारा किया था. एक कमरे में अयूब और शास्त्री अकेले मीटिंग किया करते. दूसरे कमरे में भारत के तत्कालीन विदेश मंत्री स्वर्ण सिंह के साथ भुट्टो बैठे रहते. शास्त्री कहते कि वो कश्मीर के बारे में कोई समझौता नहीं कर सकते हैं. क्योंकि उन्हें हिंदुस्तान वापस लौटकर अपने लोगों को जवाब देना है.
शास्त्री ये भी चाहते थे कि समझौते की शर्तों में 'नो वॉर क्लॉज' भी शामिल हो. यानी पाकिस्तान की तरफ से ये आश्वासन दिया जाए कि आगे कभी वो भारत से लड़ाई नहीं करेगा. अयूब इसके लिए राजी भी हो गए थे. उन्होंने मान लिया था कि भारत के साथ अपने विवाद सुलझाने के लिए पाकिस्तान कभी भी सेना का सहारा नहीं लेगा. मगर भुट्टो ने उन्हें धमकाया. कहा कि वो पाकिस्तान में लोगों को बता देंगे. कि अयूब ने मुल्क के साथ गद्दारी की है. हारकर अयूब ने इस नो-वॉर क्लॉज को समझौते में शामिल करने से इनकार कर दिया.
ये समझौते के समय की तस्वीर है. शास्त्री और अयूब
ये समझौते के समय की तस्वीर है. शास्त्री और अयूब, दोनों साथ खड़े हैं. इस तस्वीर के लिए जाने के कुछ ही घंटों बाद शास्त्री की मौत हो गई.

क्या समझौता हुआ? ऐसे ही हां-ना के बीच आई 10 जनवरी, 1966 की तारीख. शास्त्री और अयूब ने ताशकंद समझौते पर दस्तखत किए. तय हुआ कि जंग से पहले दोनों देशों की जो स्थिति थी, वही बनी रहेगी. भारत ने पाकिस्तान के सारे जीते हुए इलाके लौटा दिए. क्यों? शास्त्री, जिन्होंने अब तक इतनी दृढ़ता दिखाई थी, वो क्यों राजी हुए इस सबके लिए? कोई ठोस जवाब तो नहीं इसका. ठोस जवाब तो शिमला समझौते का भी नहीं है. जब इंदिरा गांधी जैसी सधी हुई नेता ने इतनी मजबूत स्थिति में होते हुए भी पाकिस्तान को इतनी आसानी से जाने दिया. हम बस कयास लगा सकते हैं. कि शायद समझौते की मेज पर बैठकर भारतीय नेताओं को लगता हो. कि अगर वो पाकिस्तान के साथ रहमदिली दिखाएंगे, तो पाकिस्तान सुधर जाएगा. अगली बार से कोई बेहूदगी नहीं करेगा.
समझौते का वो दिन शास्त्री की जिंदगी का आखिरी दिन था
रात तकरीबन साढ़े नौ बजे का वक्त था. समझौता हो गया था. पूरा प्रोग्राम निपट गया. अयूब और शास्त्री ने आखिरी बार हाथ मिलाकर विदा ली. उनके बीच आखिरी बात हुई-
अयूब: खुदा हाफिज शास्त्री: खुदा हाफिज. अच्छा ही हो गया. अयूब: खुदा अच्छा ही करेगा.
इसके बाद वो दोनों अपने-अपने कमरों में चले गए. कहते हैं कि करीब चार घंटे बाद, रात तकरीबन डेढ़ बजे लाल बहादुर शास्त्री को दिल का दौरा आया. उनकी वहीं मौत हो गई. अरशद शामी खान की एक किताब है- थ्री प्रेजिडेंट्स ऐंड ऐन एड: लाइफ, पावर ऐंड पॉलिटिक्स. अरशद ने इस किताब में शास्त्री की मौत के समय का एक वाकया लिखा है-
अजीज अहमद को शास्त्री की खबर मिली. वो खुशी से झूमते हुए भुट्टो के कमरे में पहुंचे. उन्होंने कहा- वो 'हरा*' मर गया. भुट्टो ने पूछा- दोनों में से कौन? हमारा वाला या उनका वाला?
शास्त्री की मौत पर आज तक शक है. कई तरह के कयास लगाए जाते हैं. अमेरिका का हाथ, पाकिस्तान का हाथ, कई तरह की कॉन्सपिरेसी थिअरीज हैं इसके पीछे (फोटो: Getty)
शास्त्री की मौत को लेकर कई तरह के कयास लगाए जाते हैं. समझौते पर दस्तखत किए जाने के कुछ ही घंटों के भीतर उनकी मौत हो गई. अमेरिका का हाथ, पाकिस्तान का हाथ, कई तरह की कॉन्सपिरेसी थिअरीज हैं इसके पीछे. कोई कहता है उन्हें जहर दिया गया था. वैसे 1996 में रॉबर्ट ट्रमबुल नाम के एक पूर्व CIA अधिकारी ने कहा था. कि शास्त्री की मौत के पीछे CIA का ही हाथ था. (फोटो: Getty)

शास्त्री मरे था या मारे गए थे? शास्त्री की मौत से जुड़ी कई कहानियां तैरती हैं हमारे यहां. कोई कहता है, उन्हें जहर दिया गया था. कोई कहता है, पाकिस्तान वालों ने मार डाला. कोई कहता है, CIA ने मरवाया. कोई कहता है, उन्हें जहर खिलाया गया. सोवियत ने कहा कि शास्त्री को दिल का दौरा आया था. हो सकता है वो बहुत दबाव में हों. उन्हें ताशकंद से वापस भारत लौटना था. वो जानते थे. कि इस समझौते से भारत में सब बहुत नाराज होंगे. सबसे ज्यादा मायूस होगी भारतीय सेना. शायद यही तनाव रहा हो कि उन्हें कार्डियक अरेस्ट आया.
उस रात जब लोगों ने उन्हें बेजान देखा, तब उनके कमरे का हाल कुछ ऐसा था-
शास्त्री को जहां ठहराया गया था, वो काफी बड़ा कमरा था. उसमें लगा था एक बड़ा सा बिस्तर. उसके ऊपर शास्त्री पड़े थे. फर्श पर कालीन बिछा था. उसके ऊपर शास्त्री की चप्पल रखी हुई थी. देखकर लगता था, मानो इस्तेमाल ही न हुई हों. कमरे के एक ओर एक ड्रेसिंग टेबल था. उसके ऊपर एक थर्मस रखा था, औंधे मुंह पलटा हुआ. शायद शास्त्री ने उसे खोलने की कोशिश की थी. आमतौर पर ऐसे कमरों में घंटी लगी होती है. ताकि कमरे में ठहरे इंसान को कोई जरूरत हो, तो वो घंटी बजाकर किसी को बुला सके. मगर शास्त्री के कमरे में कोई घंटी भी नहीं थी.
शास्त्री की मौत से जुड़ी स्थितियां भी रहस्यमय हैं वैसे. जैसे ये कि उनका पोस्टमॉर्टम नहीं कराया गया था. फिर ये बात कि उस दिन उनके निजी मातहत राम नाथ ने खाना नहीं पकाया था. उस समय रूस में भारत के राजदूत थे टी एन कौल. उनके ही शेफ जान मुहम्मद ने खाना पकाया था. शास्त्री के परिवार ने इस पर भी सवाल उठाया. 1977 में शास्त्री के डॉक्टर को संसदीय समिति के सामने बयान देने के लिए उपस्थित होना था. लेकिन एक ट्रक ने उन्हें, उनकी पत्नी और दो बेटों को कुचल दिया. राम नाथ को एक कार ने धक्का मार दिया और उनकी याद्दाश्त चली गई. यानी, बड़े अजीब से संयोग जुड़े थे उनकी मौत के साथ.
शास्त्री की मौत का एक किस्सा है. जो बताता है कि शायद उन्हें बचाया जा सकता था. 1991 में सोवियत के विघटन के बाद की बात है. वहां की एक मैगजीन ने एक पूर्व केजीबी (सोवियत की खुफिया एजेंसी) अधिकारी के हवाले से बताया था. इसके मुताबिक-
केजीबी ताशकंद पहुंचे भारतीय और पाकिस्तान प्रतिनिधिमंडल, दोनों पर नजर रख रहा था. ये देखने के लिए समझौते के लिए कौन कितना गंभीर है. कौन कितना आगे बढ़ने को राजी है. जब शास्त्री को अपने कमरे में दिल का दौरा आया, तब केजीबी एजेंट्स ये देख रहे थे. वो चाहते, तो वक्त रहते शास्त्री को इलाज मिल सकता था. मगर उन्होंने किसी को अलर्ट नहीं किया. उन्हें लगा कि अगर वो ये बात बताएंगे, तो सबको पता चल जाएगा. कि वो शास्त्री की जासूसी कर रहे थे.
और इस तरह एक जीती हुई जंग भारत के हाथ से निकल गई. युद्ध ड्रॉ हो गया. हम जीतकर भी नहीं जीते, वो हारकर भी नहीं हारे. ऊपर से, हमने अपना एक प्रधानमंत्री भी खो दिया.
ये भी जंग के दौरान ली गई तस्वीर है. अयूब खान सियालकोट में पहुंचे हुए हैं. आर्मी चीफ जनरल मूसा, जनरल याहया खान और एयर मार्शल असगर खान भी हैं उनके साथ. पाकिस्तान के हाथ से लाहौर के साथ-साथ सियालकोट भी निकलने वाला था (फोटो: डिफेंस पीके)
ये भी जंग के दौरान ली गई तस्वीर है. अयूब खान सियालकोट में पहुंचे हुए हैं. आर्मी चीफ जनरल मूसा, जनरल याहया खान और एयर मार्शल असगर खान भी हैं उनके साथ. पाकिस्तान के हाथ से लाहौर के साथ-साथ सियालकोट भी निकलने वाला था. वरिष्ठ पत्रकार कुलदीप नैयर ने एक बार अयूब खान से कहा. कि वो इस जंग के बारे में उनसे कुछ सवाल पूछना चाहते हैं. अयूब ने उन्हें भुट्टो के पास जाने को कहा. ये कहकर कि ये लड़ाई भुट्टो की ही थी (फोटो: डिफेंस पीके)

अयूब की किस्मत नहीं, उनकी बुद्धि खराब थी अयूब खान ने क्या सोचा था और क्या हुआ. उन्होंने सोचा था कि कश्मीर को भारत से छीनकर वो पाकिस्तान के हीरो बन जाएंगे. पाकिस्तानी इतिहास में मुल्क के सबसे काबिल नेता के तौर पर उनकी जगह पक्की हो जाएगी. लेकिन ऐसा कुछ नहीं हुआ. उल्टा वो मुल्क के गद्दार कहलाए. ताशकंद समझौते के बाद अयूब के विरोधी उनके ऊपर इल्जाम लगाने लगे. कि अयूब ने एक गुप्त समझौते के तहत कश्मीर को 'बेच दिया' है. इस इल्जाम के पीछे भी भुट्टो का ही दिमाग था. चूंकि भुट्टो ताशकंद में मौजूद थे, तो लोगों ने उनकी बात पर यकीन भी कर लिया. पाकिस्तान के किसी राष्ट्राध्यक्ष के लिए भारत के हाथों पाकिस्तान की बेइज्जती से बुरा कलंक और कुछ नहीं हो सकता. पाकिस्तान ने अयूब को इस कलंक से कभी बरी नहीं किया. चीजें उनके कंट्रोल से बाहर होती गईं. बिखरती गईं. पहले सेहत ने साथ छोड़ा. फिर छात्रों ने उनके खिलाफ प्रदर्शन शुरू किए. विरोध फैलता गया. कहने वाले ये भी कहते हैं कि किसी विदेशी खुफिया एजेंसी ने भुट्टो को फंडिंग दी थी. ताकि अयूब को हटाया जा सके.
छात्रों का प्रदर्शन जब रोके नहीं रुका, तो मार्च 1969 में अयूब ने एक कैबिनेट मीटिंग बुलाई. इसमें अयूब ने कहा कि अब देश बचाने का एक ही रास्ता है- मार्शल लॉ. सेना प्रमुख याहया खान ने अयूब के सामने शर्त रखी. कि संविधान बर्खास्त करो. इस शर्त का मतलब था कि देश में मार्शल लॉ चलेगा और ताकत जाएगी चीफ मार्शल लॉ अडमिनिस्ट्रेटर के पास. जो कि याहया ही होते. ऐसा ही तो अयूब ने इस्कंदर मिर्जा के साथ किया था. अक्टूबर 1958 में. इतिहास एक बार फिर से रिपीट हो रहा था. अयूब समझ चुके थे कि अब उनका वक्त खत्म हो गया है. 25 मार्च, 1969 को अयूब ने याहया के हाथों में पाकिस्तान सौंप दिया. तब शायद कोई नहीं जानता था. कि आने वाले दिनों में पाकिस्तान अपना सबसे बुरा वक्त देखने वाला है.
ये पाकिस्तान के अखबार 'द डॉन' का फ्रंट है. उसी दिन का, जब अयूब को याहया खान के हाथ में सत्ता सौंपनी पड़ी.
ये पाकिस्तान के अखबार 'द डॉन' का फ्रंट है. 26 मार्च, 1969 का अडिशन. इसके एक रोज पहले, यानी 25 मार्च के दिन अयूब को याहया खान के हाथ में सत्ता सौंपनी पड़ी थी.

26 मार्च, 1969. याहया को सत्ता सौंपने के एक दिन बाद की तारीख. अयूब ने अपने मंत्रियों को अलविदा कहने के लिए बुलाया. अलविदा कहते हुए वो बोले-
हमने दुनिया को बेवकूफ बनाया. मगर हमारे अपने ही लोगों ने हमारे झूठ का भांडा फोड़ दिया. हम पाकिस्तानी आजादी की कीमत नहीं जानते. अगर हमारी चली, तो हम वापस गुलामी के दौर में चले जाएंगे. मैंने कभी नहीं सोचा था कि हमारे अपने ही लोग इस तरह पागल हो जाएंगे. मुझे शक है कि अपने राजनैतिक जीवन में हमें कोई अच्छा इंसान मिलेगा! अल्लाह का शुक्र है कि हमारे पास एक सेना है. और कुछ नहीं, तो कम से कम मैंने इतना तो किया है कि 10 साल तक इस देश को जोड़कर रखा है. ये काम मुश्किल था. यहां से आगे चलकर कैसा पाकिस्तान बनेगा, किस तरह का मुल्क का तैयार होगा, ये कोई नहीं बता सकता. या तो जोर-जबर्दस्ती होगी या फिर भीड़तंत्र होगा. मैं उम्मीद करता हूं कि हम इन दोनों के बीच का कोई विकल्प खोज पाएं अपने लिए.
अयूब बड़े रुसवा होकर गए. एकदम अकेले. ना कोई सम्मान मिला, न कोई विदाई मिली. उनकी गुमनाम मौत का किस्सा तो हम आपको पहले की किस्त में सुना ही चुके हैं.
1962 की लड़ाई के बाद जयंतो भारत के आर्मी चीफ बने. बंगाल के रहने वाले थे. परिवार जमींदार था. काफी रुतबा था उन लोगों का. ब्रिटेन के सैंडरहर्स्ट अकादमी से मिलिटरी ट्रेनिंग हुई थी उनकी (फोटो: विकिपीडिया)
1962 की लड़ाई के बाद जयंतो भारत के आर्मी चीफ बने. बंगाल के रहने वाले थे. परिवार जमींदार था. काफी रुतबा था उन लोगों का.
ब्रिटेन के सैंडरहर्स्ट अकादमी से मिलिटरी ट्रेनिंग हुई थी उनकी (फोटो: विकिपीडिया)

जाते-जाते
1965 की जंग के समय भारत के आर्मी चीफ थे जयंतो नाथ चौधरी. बंगाली थे. परिवार की तरफ से बहुत मजबूत थे. उनसे पहले आर्मी चीफ थे प्रेम नाथ थापर. 1962 के युद्ध में हुई हार के बाद उन्होंने इस्तीफा दे दिया था. तत्कालीन रक्षा मंत्री यशवंत राव चव्हाण ने अपनी वॉर डायरी में कई जगह लिखा है. एक किताब है- 1965 वॉर, द इनसाइड स्टोरी: डिफेंस मिनिस्टर वाई बी चव्हाण्स डायरी ऑफ इंडिया-पाकिस्तान वॉर. आप इसमें पढ़ सकते हैं डिफेंस मिनिस्टर चव्हाण का लिखा. चव्हाण ने लिखा है कि चौधरी बहुत जल्द डर जाते थे. चव्हाण उनको कहते थे कि फ्रंट पर जाओ. मगर चौधरी उससे भी डरते थे. प्रधान का लिखा एक वाकया पढ़िए-
20 सितंबर को प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री ने आर्मी चीफ से पूछा. कि अगर जंग कुछ दिन और चले, तो भारत को क्या फायदा होगा. सेना प्रमुख ने कहा कि आर्मी के पास गोला-बारूद खत्म हो रहा है. इसीलिए अब और जंग लड़ पाना भारत के लिए मुमकिन नहीं हो पाएगा. उन्होंने प्रधानमंत्री को सलाह दी. कि भारत को संघर्षविराम का प्रस्ताव मंजूर कर लेना चाहिए. बाद में मालूम चला कि भारतीय सेना के गोला-बारूद का केवल 14 से 20 फीसद रिजर्व ही खर्च हुआ था. हमारे पास पाकिस्तान के खिलाफ इतनी बड़ी बढ़त थी. ऐसे नाजुक मौके पर सेनाध्यक्ष की दी इस गलत जानकारी के कारण भारत जीतने से चूक गया.
ये हैं तत्कालीन रक्षा मंत्री वाई बी चव्हाण. भारतीय सेना लाहौर के बाहर तक पहुंच गई थी. ये जो बंकर दिख रहा है, वो पाकिस्तानी सेना का ही था. जिसके ऊपर इंडियन आर्मी ने कब्जा कर लिया था.
ये हैं तत्कालीन रक्षा मंत्री वाई बी चव्हाण. भारतीय सेना लाहौर के बाहर तक पहुंच गई थी. ये जो बंकर दिख रहा है, वो पाकिस्तानी सेना का ही था. जिसके ऊपर इंडियन आर्मी ने कब्जा कर लिया था.

आर्मी चीफ की गलतियां इतने पर खत्म नहीं होती हैं. इंडियन आर्मी आराम से लाहौर और सियालकोट पर कब्जा कर सकती थी. लेकिन आर्मी चीफ ने शास्त्री को ऐसा करने से रोका. जब पाकिस्तानी सेना ने पंजाब के खेमकरन पर हमला किया, तो उस वक्त वहां भारतीय सेना के कमांडर हरबख्श सिंह पॉजिशन पर थे. आर्मी चीफ ने हरबख्श सिंह से कहा कि वो किसी सुरक्षित जगह पर चले जाएं. इतिहास ये है कि कमांडर हरबख्श सिंह ने अपने आर्मी चीफ की सलाह को मानने से इनकार कर दिया. इसके बाद ही हुई थी 'असल उत्तर' की भयंकर लड़ाई. जहां भारतीय सेना के हवलदार अब्दुल हमीद ने जबर्दस्त बहादुरी दिखाई. पाकिस्तान के कई पैटन टैंक बर्बाद कर दिए उन्होंने. 10 सितंबर की रात को भारत ने जवाबी हमला किया था. पाकिस्तानी सेना को खदेड़ दिया उन्होंने. इसी 'असल उत्तर' की लड़ाई के बाद का वो मंजर है. जब पाकिस्तानी सेना अपनी 25 तोपों को छोड़कर भाग गई थी. टैंक का इंजन चल रहा था. उसमें लगे वायरलेस सेट चालू थे. आप समझिए कि पाकिस्तानी फौज की कितनी भयंकर हार हुई थी. जबकि भारत की फौज ने अपनी बहादुरी से देश का माथा उठा दिया था.


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