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पाकिस्तान के उस तानाशाह की कहानी, जो खुद को कुत्ता कहता था

उसके पास भारत पर हमला करने का मौका था. मगर अमेरिका ने उसे रोक लिया. बदले में उस तानाशाह ने अमेरिका से कहा कि हमें कश्मीर दिलवा दो.

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अयूब खान तानाशाह थे. न तो उनका लोकतंत्र पर यकीन था और न ही उन्हें पॉलिटिकल सिस्टम पर ही भरोसा था. उनको लगता था कि पाकिस्तान की जनता इतनी समझदार नहीं कि लोकतंत्र की जिम्मेदारी निभा पाए. वो भूल गए थे कि जिनको वो अनपढ़ कह रहे हैं, उन्हीं लोगों ने संघर्ष करके अपने लिए अलग देश बनवाया था. अयूब में घमंड था, जो खुद को औरों से बेहतर मानता था. इसी घमंड में उन्होंने ऐसे फैसले लिए, जो उन्हें लोगों से दूर ले गए. उनका कोई कनेक्शन ही नहीं रहा जनता के साथ. जब उनके हाथ से सत्ता निकल गई, तब जाकर अयूब को अपनी गलती समझ आई (फोटो: Getty)
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स्वाति
18 जुलाई 2018 (Updated: 30 जुलाई 2018, 09:12 IST)
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25 जुलाई, 2018 को पाकिस्तान में चुनाव होना है. पाकिस्तान में लोकतंत्र का पस्त रेकॉर्ड रहा है. ऐसे में यहां कोई सरकार अपना कार्यकाल पूरा कर ले, तो बड़ी बात है. ये पहली बार हो रहा है कि पाकिस्तान में बैक-टू-बैक दो सरकारों ने अपना कार्यकाल पूरा किया है. ये जो हुआ है, वो ऐतिहासिक है. इस खास मौके पर द लल्लनटॉप पाकिस्तान की राजनीति पर एक सीरीज़ लाया है. शुरुआत से लेकर अब तक. पढ़िए, इस सीरीज़ की पांचवीं किस्त.


सीन 1
1965 का साल था. पाकिस्तान में मुस्लिम लीग की एक कमिटी मीटिंग चल रही थी. मीटिंग के मुखिया थे अयूब खान. यूं ही कुछ बात चल रही थी. अयूब के चेहरे पर बड़ी इतराने वाली चमक थी. एकाएक बोले-
पिछले 50 सालों में मुसलमानों को मुझ से काबिल कोई नेता नहीं मिला.
सीन 2
कई बरस बाद, जब 1969 बीत चुका था. वो साल, जब अयूब जबरन रिटायर कर दिए गए थे. अयूब अब बस अयूब थे. शाम का वक्त था. अयूब खान अपनी पत्नी के साथ टहलने निकले. सड़क पर कुछ लोगों ने उन्हें पहचान लिया. अयूब को घेरकर वो नारे लगाने लगे- राष्ट्रपति अयूब जिंदाबाद. अयूब एकदम भौंचक. आंखें डबाडब. भरे गले से बोले-
अयूब कुत्ता है.
सीन-3
इस्लामाबाद की एक किताबों की दुकान. वही इस्लामाबाद, जिसे अयूब ने बसाया था. बुकशॉप में कुछ छात्रों ने अयूब को देखा. बोले, आप फिर से राष्ट्रपति क्यों नहीं बन जाते. अयूब ने बड़ी शर्मिंदगी से कहा-
नहीं, मेरे बच्चे. अयूब कुत्ता अब बहुत बूढ़ा हो गया है.
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ऊपर लिखी तीनों ही बातें अयूब ने खुद से खुद के बारे में कही थीं. कहने का क्रम भी वही था, जिस क्रम में तीनों घटनाएं लिखी गई हैं. 27 अक्टूबर, 1958 से 25 मार्च, 1969 तक पाकिस्तान का भाग्य-विधाता रहा इंसान बाद में खुद से ही इतनी नफरत करने लगा. वो खुद को गालियां दे रहा था. जब उसका ये हाल था, तो बाकी पाकिस्तानी उसके बारे में क्या सोचते होंगे? ऐसा क्या किया था उसने? अच्छा किया था? बुरा किया था? और वो भाग्य-विधाता वाली बात. क्या सच में उसने पाकिस्तान की तकदीर लिखी थी?
जिसकी हम बात कर रहे हैं, वो कहां का था? अब जिसे खैबर पख्तूनख्वा कहते हैं, पहले उसी का नाम था नॉर्थ-वेस्ट फ्रंटियर प्रॉविन्स. यहां हज़ारा नाम का जिला है. एक गांव है यहां- रेहाना. 14 मई, 1907. इसी दिन यहां पैदा हुए थे अयूब. अब्बू का नाम मीर दाद. ब्रिटिश आर्मी में रिसालदार मेजर. जेब से नापो, तो बड़ा मामूली सा परिवार था. मगर मीर दाद ने बेटे को पढ़ाने की हिम्मत की. छोटी सी पेंशन के बूते ही मीर दाद ने अयूब को अलीगढ़ भेजा. साल था 1922. यहीं की बात है. ब्रिटिश इंडियन आर्मी के जनरल ऐंड्रयू स्कीन की नजर पड़ी अयूब पर. लंबा कद. चौड़ा-गठा बदन. गोरा रंग. ऐंड्रयू को लगा, ये तो मिलिटरी के लिए ही पैदा हुआ है जैसे. चुन लिया. ट्रेनिंग के लिए सैंडहर्स्ट मिलिटरी अकैडमी भेजा.
ये 1948 की तस्वीर है. अयूब जिन्ना के साथ खड़े नजर आ रहे हैं. जिन्ना ने ही अयूब का कोर्टमार्शल करने को कहा था (विकिमीडिया कॉमन्स)
ये 1948 की तस्वीर है. अयूब जिन्ना के साथ खड़े नजर आ रहे हैं. जिन्ना ने ही अयूब का कोर्टमार्शल करने को कहा था (विकिमीडिया कॉमन्स)

1928 में अयूब ने बतौर सेकेंड लेफ्टिनेंट पंजाब रेजिमेंट जॉइन कर ली. दूसरा विश्व युद्ध आते-आते मेजर बन गए. 1942 में लेफ्टिनेंट कर्नल बन गए. अंग्रेजों ने बर्मा भेजा. असम रेजिमेंट के साथ. कमांड में दूसरे नंबर पर थे अयूब. 1942 से 1945 तक यहां भयंकर जंग चली. बड़ी भारी लड़ाई हुई. जब लड़ाई खत्म हुई, तो लड़ने वालों का रेकॉर्ड निकाला गया. मालूम चला कि अयूब तो डरपोक निकले. उन्हें सस्पेंड कर दिया गया. कमांड से भी हटा दिया गया. मगर किस्मत अच्छी हो, तो खेत जोतते हुए भी खजाना मिल जाता है. इतने शर्मनाक सर्विस रेकॉर्ड के बावजूद अयूब को प्रमोशन मिल गया. पंजाब रेजिमेंट में कर्नल बन गए.
अयूब की किस्मत बहुत सालों तक माकूल रही. हमने पहले की किस्त में बताया था. कि जिन्ना ने अयूब का कोर्ट मार्शल करने का आदेश दिया था. मगर अयूब बच गए. अयूब के सेना प्रमुख बनने की दूर-दूर तक भी संभावना नहीं थी. मगर जिन इफ्तिखार अली खान को इस पद के लिए चुना गया, वो प्लेन क्रैश में मारे गए. इफ्तिखार के बाद जो ब्रिगेडियर शेर मुहम्मद खान आर्मी चीफ बनते, वो भी उसी प्लेन क्रैश में मारे गए. और इस तरह अयूब बन गए पाकिस्तानी सेना के मुखिया.
1951 में सेना प्रमुख का पद संभालने जाते अयूब खान. इस पल की पाकिस्तान के इतिहास में बहुत अहमियत है (फोटो: विकिमीडिया कॉमन्स)
1951 में सेना प्रमुख का पद संभालने जाते अयूब खान. इस पल की पाकिस्तान के इतिहास में बहुत अहमियत है (फोटो: विकिमीडिया कॉमन्स)

सेना में टॉप पर पहुंचने के बाद वो पाकिस्तान की सरकार में ऊपर उठे. 25 अक्टूबर, 1954 को प्रधानमंत्री गुलाम मुहम्मद ने उनको रक्षा मंत्री भी बना दिया. 10 महीने बाद ही अयूब की जगह चौधरी मुहम्मद अली रक्षा मंत्री बन गए. लेकिन अयूब की पांचों अंगुलियां घी में ही रहीं. क्योंकि पाकिस्तान में सबसे ताकतवर संस्था थी सेना और सेना में सबसे ताकतवर पद पर थे अयूब खान. फिर राष्ट्रपति इस्कंदर मिर्जा ने मार्शल लॉ लगाया. बिल्ली के भाग्य से छींका टूट गया था. मिर्जा के फैसले ने अयूब खान को 'चीफ मार्शल लॉ एडमिनिस्ट्रेटर' बना दिया था, माने मिर्जा से ज़्यादा ताकतवर. बस फिर क्या था, मिर्जा को आउट करके अयूब बन गए सर्वेसर्वा - पाकिस्तान के राष्ट्रपति. ये तारीख थी 27 अक्टूबर, 1958.
अयूब ने जिन्हें आर्मी चीफ बनाया, वो हॉकी बेजोड़ खेलते थे
राष्ट्रपति बनने के अगले दिन, यानी 28 अक्टूबर को अयूब खान ने आर्मी चीफ का पद छोड़ दिया. अपने भरोसेमंद जनरल मुहम्मद मूसा खान को सेनाओं का कमांडर इन चीफ (सेनाध्यक्ष) बना दिया. मूसा खान के बारे में जो एक बात सबसे ज्यादा मशहूर है, वो जंग के मैदान से बाहर की है. मूसा हॉकी के बेहतरीन खिलाड़ी थे. डिफेंडर खेलते थे. पाकिस्तानी सेना तो बाद में बनी. उससे पहले वो ब्रिटिश इंडियन आर्मी में थे. फ्रंटियर फोर्स में. इसी ब्रितानिया फौज की पंजाब रेजिमेंट में ध्यान चंद भी थे. ध्यान चंद का नाम था फॉरवर्ड खेलने में. लोग कहते थे-
ध्यानचंद के बेजोड़ फॉरवर्ड खेल को बस एक मूसा खान ही रोक सकता है.
(बाएं से दाएं) पाकिस्तान के पांचवें प्रधानमंत्री एस एस सुहरावर्दी, अयूब खान और एसएन बकर (सफेद कपड़ों में). बकर पाकिस्तान के सबसे वरिष्ठ नौकरशाहों में से एक थे (फोटो: विकिमीडिया कॉमन्स)
(बाएं से दाएं) पाकिस्तान के पांचवें प्रधानमंत्री एस एस सुहरावर्दी, अयूब खान और एसएन बकर (सफेद कपड़ों में). बकर पाकिस्तान के सबसे वरिष्ठ नौकरशाहों में से एक थे (फोटो: विकिमीडिया कॉमन्स)

'नालायक' अयूब फील्ड-मार्शल बन गए
अयूब ने मूसा को कमांडर-इन-चीफ तो बना दिया, मगर उनको धुकधुकी लगी रहती थी. उन्हें अपने हाथों हुई इस्कंदर मिर्जा की दुर्गति याद आती होगी. शायद इसीलिए उन्होंने रक्षामंत्रालय अपने पास रख लिया (जो उनके कार्यकाल के आखिरी 3 साल छोड़कर हमेशा उन्हीं के पास रहा). लेकिन अयूब को समझ नहीं आ रहा था. कि ऐसा क्या करें कि बाकियों को अपनी मुट्ठी में रख सकें. जुल्फिकार अली भुट्टो अयूब के मंत्री थे. उन्होंने सलाह दी. कहा, फील्ड मार्शल बन जाइए. सबसे ऊपर हो जाएंगे. तो अयूब बन गए फील्ड मार्शल. फील्ड मार्शल की पदवी ऐसे ही नहीं मिलती. बहुत चुनिंदा लोगों को मिलती है ये पांच-स्टार पोस्ट. जंग के मैदान में बहुत बड़ा नाम करने वाले सूरमाओं को ही ये तमगा मिलता है. मगर अयूब का क्या. उनके तो जैसे घर में ही टकसाल थी. मन किया फील्ड मार्शल बन जाओ, तो बन गए. ये असुरक्षा थी या सारी ताकत अपने हाथों में समेट लेने की सनक, या फिर दोनों का मिक्स. इसका तो बस अंदाजा लगाया जा सकता है.
ये सितंबर 1958 की तस्वीर है. नई दिल्ली एयरपोर्ट पर नेहरू पाकिस्तानी PM फिरोज खान नून का स्वागत कर रहे हैं. फिरोज पूर्वी पाकिस्तान (मौजूदा बांग्लादेश) के नेता थे. उनकी पार्टी का नाम था- पाकिस्तान रिपब्लिकन पार्टी. अगले ही महीने राष्ट्रपति इस्कंदर मिर्जा ने उन्हें हटाकर पाकिस्तान में पहली बार मार्शल लॉ लगाया (फोटो: Getty)
ये अगस्त 1954 की तस्वीर है. दाहिनी तरफ से दूसरे नंबर पर हैं अयूब खान. उनके साथ खड़े हैं दुनिया के कुछ और देशों के आर्मी चीफ. एक बार ब्रिटिश अखबार गार्डियन ने अयूब के बारे में लिखा था. कि राजनेता कहना उन्हें कम करके आंकना होगा. और सैनिक कहना, ओवरस्टेटमेंट हो जाएगा. यानी बढ़ा-चढ़ाकर कहना (फोटो: Getty)

पहले अयूब के दिमाग में झांक लेते हैं अयूब को लगता था कि उनकी तानाशाही पाकिस्तान का मुकद्दर संवारने के लिए है. कि अगर वो नहीं होते, तो पाकिस्तान बर्बाद हो गया होता. उनके चमचे-चपाटे और आगे. वो कहते- मुगलों के बाद भारतीय उपमहाद्वीप के इतने बड़े हिस्से पर कभी किसी मुसलमान ने इतने लंबे वक्त तक और इतने अच्छे तरीके से शासन किया था. अयूब को चमचों से घिरे रहने की आदत थी. अयूब को अपनी जी-हुजूरी अच्छी लगती थी. एक बार किसी ने कहा. कि अयूब को चाहिए कि वो पाकिस्तान में राजशाही शुरू करें. बादशाह बन जाएं. और आगे की बादशाहत उनकी आने वाली पीढ़ियां संभालें. अयूब को ये सलाह बड़ी पसंद आई थी. वो इसे लेकर गंभीर भी थे. ऐसे कई वाकये थे उनके चमचों के साथ. ऐसे लोगों से घिरे होने का एक बड़ा नुकसान हुआ अयूब को. वो लोगों से कट गए. जनता के साथ सीधे-सीधे उनका कोई संपर्क नहीं रहा. इस चीज ने आगे चलकर उन्हें बड़ा नुकसान पहुंचाया. अयूब कहते थे. कि वो पाकिस्तान को संवारना चाहते हैं. उसे बनाना चाहते हैं. पाकिस्तान का भविष्य सुधारना चाहते हैं. ये बहुत हद तक सही भी साबित हुआ. आज हम पाकिस्तान को जैसा देखते हैं, उसकी जो नीतियां हैं, उसके जो दोस्त और दुश्मन हैं, ये सब तय करने में अयूब और उनके फैसलों का बहुत बड़ा हाथ है.
ऐसा क्या किया था अयूब ने? क्या कुछ हुआ था उनके दौर में? इसके लिए आपको अयूब का सारा किया-धरा जानना होगा. पॉइंट टू पॉइंट.
ये मार्च 1962 की फोटो है. जैकलिन कैनेडी पाकिस्तान आई थीं. काले और सुनहरे रंग की इस खास बग्घी में उनके साथ बैठे हैं अयूब खान. दाहिनी तरफ हैं कमांडर-इन-चीफ जनरल मूसा खान. उनके बगल में हैं पश्चिमी पाकिस्तान के गर्वनर मलिक आमिर (फोटो: Getty)
ये मार्च 1962 की फोटो है. जैकलिन कैनेडी पाकिस्तान आई थीं. काले और सुनहरे रंग की इस खास बग्घी में उनके साथ बैठे हैं अयूब खान. दाहिनी तरफ हैं कमांडर-इन-चीफ जनरल मूसा खान. उनके बगल में हैं पश्चिमी पाकिस्तान के गर्वनर मलिक आमिर (फोटो: Getty)

अमेरिका - परस्ती
अयूब को अमेरिका पंसद था. इस मामले में वो बिल्कुल जिन्ना जैसे थे. उन्हें अमेरिका पर यकीन था. सोचते थे कि अगर नए बने इस मुल्क को आगे बढ़ना है, तो उसे किसी न किसी महाशक्ति की जरूरत होगी. अकेले आगे बढ़ पाना इसके लिए मुमकिन नहीं. अब ब्रिटेन सुपरपावर नहीं रहा था. कोल्ड वॉर में दुनिया दो पालों में बंटी थी- अमेरिका और सोवियत. ज्यादातर देश या तो इस पार लगते, या उस पार लगते. सबने अपना कोना पकड़ लिया था. अयूब से पहले आए पाकिस्तानी हुक्मरानों ने भी अमेरिका से नजदीकियां बढ़ाईं. लेकिन अयूब इसे अलग ही लेवल पर ले गए. वो बिछ गए पूरी तरह से. अपनी पहली कैबिनेट मीटिंग में उन्होंने कहा था-
'पूरे पाकिस्तान में बस एक दूतावास है, जो सही मायनों में अहमियत रखता है हमारे लिए- अमेरिकी दूतावास.'
अमेरिकी नेताओं से बड़ी छनती थी उनकी. 1961 में अयूब को अमेरिका ने राजकीय दौरे पर अपने यहां बुलाया. वहां अमेरिकी कांग्रेस के संयुक्त सत्र को संबोधित करते हुए अयूब बोले-
बस एक पाकिस्तानी ही आपके साथ खड़े रहेंगे.
दिसंबर 1953 में रिचर्ड निक्सन पहली बार पाकिस्तान आए. खूब गाढ़ी दोस्ती हो गई उनकी अयूब के साथ. दोनों एक-दूसरे की तारीफें करते थकते नहीं थे. शायद इसी दोस्ती का नतीजा था. निक्सन ने अपने देश की राष्ट्रीय सुरक्षा परिषद से कहा. कि पाकिस्तान के लिए तो मैं कुछ भी कर गुजरने को तैयार हूं. अयूब की अमेरिका परस्ती का हाल समझिए. 1953 में एक बार उन्होंने अमेरिका को भरोसा दिलाते हुए कहा था-
'अगर आप चाहें, तो हमारी सेना आपकी सेना हो सकती है.'
अमेरिका के राष्ट्रपति जॉन एफ कैनेडी की पत्नी जैकलिन के साथ हैं अयूब खान. ऐसी ही एक तस्वीर पर अयूब ने जैकी का ऑटोग्राफ लिया था. उसे अपने बेडरूम में लगवाया था (फोटो: Getty)
अमेरिका के राष्ट्रपति जॉन एफ कैनेडी की पत्नी जैकलिन के साथ हैं अयूब खान. ऐसी ही एक तस्वीर पर अयूब ने जैकी का ऑटोग्राफ लिया था. उसे अपने बेडरूम में लगवाया था (फोटो: Getty)

कई लोग अयूब के कार्यकाल को पाकिस्तान का 'डिवेलपमेंट डिकेड' कहते हैं. इस 'डिवेलपमेंट' की फंडिंग अमेरिका पर ही निर्भर थी. पाकिस्तान की एक महिला पॉलिटिशन हैं- सईदा आबिदा हुसैन. बेनजीर के साथ रहीं. फिर नवाज की पार्टी में आ गईं. उनकी लिखी एक किताब है- 'पावर फेलियर: द पॉलिटिकल ओडिसी ऑफ अ पाकिस्तानी वुमन.' पॉलिटिकल बायोग्रफी है. खुद सईदा की. इस किताब में एक मजेदार किस्सा है. सईदा 1950 के दशक की बात करते हुए बताती हैं कि उस जमाने में पाकिस्तानी नेताओं की तो अमेरिका में पूछ थी, लेकिन पाकिस्तानी राजनयिकों को वहां कोई पूछता नहीं था. अपने ऊपर ध्यान खींचने के लिए पाकिस्तानी राजनयिकों को बड़ा जोर लगाना पड़ता था. कैसा जोर, इसकी यूं मिसाल दी है सईदा ने-
1950 के दौर की बात है. अमजद अली अमेरिका में पाकिस्तान के राजदूत थे. उनकी दोस्ती थी बहावलपुर के पूर्व नवाब से. नवाब के पास अपना एक निजी चिड़ियाखाना था. अमजद ने नवाब से कहा, एक जोड़ी चीते के बच्चे भेज दो. उनका इरादा ये था कि वो चीते के बच्चे लेकर टहलने निकलेंगे. लोग उन्हें देखेंगे, नोटिस करेंगे और उनके बारे में बातें होंगी. मीडिया में भी उनकी खबर आएगी. बदकिस्मती से हुआ ये कि नवाब ने चीते के बच्चे भेजने की जगह जवान चीता ही भेज दिया. उसके साथ तो टहलना मुश्किल था. मतलब खतरनाक था.
अमजद की खूब हंसी उड़ी. बातें हुईं, लेकिन ऐसी बातें हों ये कौन चाहता है. नाम सुधारने के लिए अमजद ने वॉशिंगटन के चिड़ियाखाने को वो चीता तोहफे में दे दिया. उनके नाम की एक तख्ती भी लगी वहां. कि फलां जगह के फलां ने ये चीता दिया है चिड़ियाघर को. मगर मीडिया ने फिर भी उनको भाव नहीं दिया. अमजद इस नतीजे पर पहुंचे कि उस दौर में ज्यादातर अमेरिकियों को ये तक नहीं मालूम था कि दुनिया में पाकिस्तान नाम की भी कोई जगह है.
कैनेडी, निक्सन, सबसे बहुत छनती थी अयूब की. ये 1961 की तस्वीर है. अयूब अमेरिका गए थे. तस्वीर में कैनेडी हैं, जैकी हैं, अयूब हैं और साथ में हैं अयूब की बेटी, बेगम नसीर अख्तर औरंगजेब. पीछे नजर आ रहा है जॉर्ज वॉशिंगटन का घर. राष्ट्रपति कैनेडी हाथ से इशारा करके अयूब और उनकी बेटी को आस-पास की चीजें दिखा और बता रहे हैं (फोटो: Getty)
कैनेडी, निक्सन, सबसे बहुत छनती थी अयूब की. ये 1961 की तस्वीर है. अयूब अमेरिका गए थे. तस्वीर में कैनेडी हैं, जैकी हैं, अयूब हैं और साथ में हैं अयूब की बेटी, बेगम नसीर अख्तर औरंगजेब. पीछे नजर आ रहा है जॉर्ज वॉशिंगटन का घर. राष्ट्रपति कैनेडी हाथ से इशारा करके अयूब और उनकी बेटी को आस-पास की चीजें दिखा और बता रहे हैं (फोटो: Getty)

चीन से गलबहियां
आग और पानी. जैसे अमेरिका और चीन. पाकिस्तान की खासियत ये रही कि उसने दोनों को एक साथ साधा. हालांकि अमेरिका को इससे बड़ी शिकायत थी. उसने कई बार विरोध भी किया. लेकिन पाकिस्तान ने साफ कहा. कि वो चीन को नहीं छोड़ सकता. एक बार खुद अयूब ने अमेरिका से कहा-
अगर मैं अमेरिका से रिश्ते तोड़ लूं, तो मेरी अर्थव्यवस्था खत्म हो जाएगी. लेकिन अगर मैं चीन से रिश्ते तोड़ लूं, तो मैं शायद अपना देश ही खो दूंगा.
अयूब को और उनके बाद आने वाले तमाम पाकिस्तानी हुक्मरानों को लगता था कि चीन साथ रहा, तो भारत से निपट लेंगे. अमेरिका से नजदीकी थी पाकिस्तान की. लेकिन अमेरिका दूर था. जबकि चीन पड़ोस में था. 1962 में जब भारत-चीन की लड़ाई हुई और चीन ने भारत को बुरी तरह से हराया, तब पाकिस्तान को बहुत मजा आया. उसे लगा कि अगर पाकिस्तान चीन के साथ रहा, तो भारत की तरफ से खतरा कम हो जाएगा. क्योंकि चीन उसकी पीठ पर रहेगा. पाकिस्तान और चीन की दोस्ती में भारत एक बड़ी वजह है. तब भी और आज भी. जब भी भारत और चीन के बीच हालात बिगड़ते हैं, या फिर पाकिस्तान के साथ भारत का ज्यादा छिटकता है, तब भारत के अंदर यही बात होती है. कि क्या भारत एक साथ दो मोर्चों (चीन और पाकिस्तान) पर जंग लड़ने के लिए तैयार है.
ये नवंबर, 1961 की तस्वीर है. जवाहर लाल नेहरू और जॉन एफ कैनेडी साथ बैठे हैं. नेहरू अपनी बेटी इंदिरा को साथ लेकर अमेरिका के दौरे पर गए थे. जब चीन ने भारत पर हमला किया, तो नेहरू ने फटाफट कैनेडी को एक चिट्ठी भिजवाई. नेहरू ने उनसे 12 स्क्वॉर्डन लड़ाकू विमान और एक आधुनिक रडार सिस्टम मांगा था. कहते हैं कि कैनेडी और नेहरू के बीच अच्छे रिश्ते थे (फोटो:Getty)
ये नवंबर, 1961 की तस्वीर है. जवाहर लाल नेहरू और जॉन एफ कैनेडी साथ बैठे हैं. नेहरू अपनी बेटी इंदिरा को साथ लेकर अमेरिका के दौरे पर गए थे. जब चीन ने भारत पर हमला किया, तो नेहरू ने फटाफट कैनेडी को एक चिट्ठी भिजवाई. नेहरू ने उनसे 12 स्क्वॉर्डन लड़ाकू विमान और एक आधुनिक रडार सिस्टम मांगा था. कहते हैं कि कैनेडी और नेहरू के बीच अच्छे रिश्ते थे (फोटो:Getty)

चीन ने पाकिस्तान से भारत पर हमला करने को कहा, अमेरिका ने रोका!
चीन और पाकिस्तान की दोस्ती में भारत का कितना रोल है, इसका एक नमूना आपको बताते हैं. 1962 के भारत-चीन युद्ध के दौरान पेइचिंग ने अयूब से कहा था. कि पाकिस्तान भी दूसरी तरफ से भारत पर हमला बोल दे. ब्रूस रेडल CIA में अधिकारी रहे थे. उनकी एक किताब है- 'जेएफकेज़ फॉरगॉटन क्राइसिस: तिब्बत, द सीआईए ऐंड द सिनो-इंडियन वॉर.' इसमें ब्रूस ने लिखा है कि चीन ने पाकिस्तान से कहा था कि वो भी मौके का फायदा उठाकर भारत पर अटैक कर दे. अगर ऐसा होता, तो भारत की ऐसी कमर टूटती कि पूछो मत.
अयूब ने अमेरिका से इस बारे में बात की. बताया कि चीन उनसे क्या करने को कह रहा है. तब कैनेडी राष्ट्रपति थे वहां. उन्होंने अयूब को हमला करने से रोका. बदले में अयूब ने अमेरिका से कहा. कि भारत पर हमला न करने के बदले में अमेरिका उसे (यानी पाकिस्तान को) कश्मीर दिलवा दे. कैनेडी की नेहरू से अच्छी पहचान थी. नेहरू ने कैनेडी को चिट्ठी लिखकर चीन के खिलाफ लड़ाई में अमेरिका की मदद भी मांगी थी. शायद इसीलिए कैनेडी ने पाकिस्तान को भारत पर हमला करने से रोका था. बल्कि कैनेडी ने तो भारत को करीब साढ़े 34 अरब रुपये की मदद देने की भी पेशकश की थी. सैन्य सहायता के तौर पर. लेकिन ऐसा हो नहीं पाया. क्योंकि ऐसा होने से पहले ही कैनेडी की हत्या हो गई.
एक और किस्सा सुन लीजिए-
ये किस्सा है अमेरिका, चीन और उनके कॉमन कनेक्शन पाकिस्तान का. 1964 में चीन ने अपना पहला न्यूक्लियर टेस्ट किया था. तिलक देवाशेर ने अपनी किताब 'पाकिस्तान: ऐट द हेल्म' में इस मौके की एक मजेदार कहानी बताई है-
अमेरिकियों को बड़ी बैचेनी थी. उन्हें चीन के न्यूक्लियर टेस्ट का ब्योरा जानना था. उन्होंने पाकिस्तान इंटरनैशनल एयरलाइन्स के मैनेजिंग डायरेक्टर को फुसलाया. अपने साथ मिलाया. उसकी मदद से अमेरिका ने अयूब खान के बोइंग प्लेन में लगे पंखों के नीचे गोंद जैसी एक चिपचिपी चीज चिपका दी. अमेरिका को यकीन था. कि न्यूक्लियर टेस्ट की वजह से वहां की मिट्टी प्रदूषित हो गई होगी. वो ही धूल हवा में मिलकर आएगी और प्लेन की विंग्स से चिपक जाएगी. फिर जब वो प्लेन पाकिस्तान लौटकर आएगा, तो वो धूल निकालकर उसकी जांच करेंगे.
ये है 1968 की फोटो. राष्ट्रपति अयूब खान लंदन के हीथ्रो एयरपोर्ट पर हैं. ब्रिटेन को पाकिस्तान और चीन की दोस्ती से शिकायत थी. मगर अयूब खान पर भरोसा था उनको. ब्रिटेन और अमेरिका को लगता था कि अयूब कट्टर कम्युनिस्ट विरोधी हैं (फोटो: Getty)
ये है 1968 की फोटो. राष्ट्रपति अयूब खान लंदन के हीथ्रो एयरपोर्ट पर हैं. ब्रिटेन को पाकिस्तान और चीन की दोस्ती से शिकायत थी. मगर अयूब खान पर भरोसा था उनको. ब्रिटेन और अमेरिका को लगता था कि अयूब कट्टर कम्युनिस्ट विरोधी हैं (फोटो: Getty)

आर्थिक तरक्की
18 जनवरी, 1965. न्यू यॉर्क टाइम्स ने लिखा-
पाकिस्तान शायद अर्थव्यवस्था में मील का पत्थर बनने की राह में है. वो उस तरक्की की ओर बढ़ता दिख रहा है, जिसे आज तक बस एक ही बड़ी आबादी वाला देश हासिल कर सका है- अमेरिका.
करीब एक साल बाद की बात है. मतलब 1966 की. द टाइम्स ने लिखा-
पाकिस्तान का विकास और उसकी तरक्की विश्व युद्ध के बाद के दौर में एक देश के तौर पर विकसित होने की सबसे प्रभावी मिसालों में से एक है.
ये सही बात थी. पाकिस्तान सच में तरक्की कर रहा था. कारखाने खुल रहे थे. उद्योग-धंधे शुरू हो रहे थे. विकास दर मस्त थी. ये सब था, फिर भी परेशानी थी. कुछ खास इलाकों में बहुत अच्छा-अच्छा हो रहा था. बाकी जगहों पर कुछ नहीं हो रहा था. सबसे ज्यादा तरक्की हो रही थी पंजाब की. और कराची की. सिंध पूरा नहीं, बस कराची. पूर्वी पाकिस्तान (अभी का बांग्लादेश) को तो जैसे कुछ मिल ही नहीं रहा था. ऐसा ही हश्र अयूब के भूमि सुधार नियमों का हुआ. पंजाब और सिंध का इलाका बड़े-बड़े किसानों और जमींदारों का था. अब भी है. अयूब ने नियम बनाया कि किसानों के पास ज्यादा से ज्यादा कितनी जमीन हो सकती है. खेती लायक जमीन है, तो 500 एकड़. सूखी जमीन है, तो हजार एकड़. बाग हैं, तो 150 एकड़. नियम को ठेंगा दिखाने के लिए जमींदारों और बड़े किसानों ने अपनी जमीन अपने करीबियों और रिश्तेदारों के नाम कर दी. हां, ये अच्छा हुआ कि लैंड-रिफॉर्म्स की वजह से खेती में उत्पादन बढ़ गया.
लेकिन परेशान करने वाली बात थी इस तरक्की की जड़. ये सारी तरक्की विदेशी मदद पर निर्भर थी. 1961 तक की बात करें, तो पाकिस्तान को मिली विदेशी मदद उसके माथे पर पड़े विदेशी कर्ज से दोगुना ज्यादा थी. 1964 में पाकिस्तान की दूसरी पंचवर्षीय योजना आई. देश में जितना निवेश हुआ था, उसका 40 फीसद विदेशी मदद की वजह से मुमकिन हुआ था. पाकिस्तान जितना आयात कर रहा था, उसका करीब 66 फीसद पैसा इसी विदेशी मदद से आता था. यानी पाकिस्तान की तरक्की विदेशी मदद की मोहताज थी. कई लोग कहते हैं. कि अयूब अपने शासन के दिन आगे बढ़ाने के लिए इतनी सारी विदेशी मदद ला रहे थे. उनको लगता था कि इस पैसे की बदौलत पाकिस्तान में जो तरक्की आएगी, उसका मुंह देखकर कोई उनका विरोध नहीं कर सकेगा.
ये सितंबर 1960 की तस्वीर है. जवाहरलाल नेहरू के साथ कार में बैठे हैं अयूब खान. नेहरू भारत और पाकिस्तान के बीच हुए जल समझौते पर दस्तखत करने गए थे. पाकिस्तान में आज भी अयूब को कोसा जाता है. उनका मानना है कि अयूब की वजह से सिंधु जल समझौते में पाकिस्तान को नुकसान हुआ (फोटो: Getty)
ये सितंबर 1960 की तस्वीर है. जवाहरलाल नेहरू के साथ कार में बैठे हैं अयूब खान. नेहरू भारत और पाकिस्तान के बीच हुए जल समझौते पर दस्तखत करने गए थे. पाकिस्तान में आज भी अयूब को कोसा जाता है. उनका मानना है कि अयूब की वजह से सिंधु जल समझौते में पाकिस्तान को नुकसान हुआ (फोटो: Getty)

पूर्वी पाकिस्तान की अनदेखी
अयूब को पूर्वी पाकिस्तान से नफरत थी. हद चिढ़ते थे वो उनसे. अयूब कहते कि ईस्ट पाकिस्तान के लोग अभी लोकतंत्र जैसी जिम्मेदारी के लिए तैयार नहीं हैं. कि वो मानसिक तौर पर बहुत पिछड़े हुए लोग हैं. उन्होंने हर कदम पर ईस्ट पाकिस्तान की अनदेखी की. अयूब के आने से पहले ज्यादातर ये होता था. कि राष्ट्रपति वेस्ट पाकिस्तान का. और प्रधानमंत्री पूर्वी पाकिस्तान का. ये अलग बात है कि असली ताकत राष्ट्रपति के हाथ में थी. मगर अयूब के करीबियों में पूर्वी पाकिस्तान का कोई नहीं था. उनके आस-पास के लोगों में भी कोई नहीं था वहां का. कारखाना लगेगा, तो पंजाब-कराची में. पनबिजली परियोजना (जैसे- मांगला, तारबेला) शुरू होगी, तो वेस्ट पाकिस्तान में. नई राजधानी इस्लामाबाद को भी वेस्ट पाकिस्तान में ही बसाया अयूब ने. पूर्वी पाकिस्तान के लोग चिढ़ गए थे बुरी तरह. उन्हें पाकिस्तान से कोई उम्मीद नहीं रह गई थी. अयूब के 10 सालों के कार्यकाल ने ईस्ट पाकिस्तान को वेस्ट पाकिस्तान से काफी दूर धकेल दिया. बांग्लादेश के बनने के पीछे सबसे बड़ा हाथ अगर किसी का था, तो वो अयूब ही थे. पूर्वी पाकिस्तान से नफरत करने की एक और वजह थी अयूब के पास. उनके मुताबिक, वहां के लोग बहुत ज्यादा 'हिंदू' टाइप के हैं. उनका ऐसा होना 'नज़रिया-ए-पाकिस्तान' के साथ मेल नहीं खाता. अयूब अकेले नहीं थे, जो ऐसी सोच रखते थे. सेना का हाई कमांड भी इसी लाइन पर सोचता था.
अयूब खान सेकुलर माने जाते थे. उन्होंने पाकिस्तान को भी काफी हद तक एक सेकुलर स्टेट बनाने की कोशिश की. लेकिन फिर कट्टरपंथियों के आगे हथियार भी डाल दिए (फोटो: Getty)
अयूब खान सेकुलर माने जाते थे. उन्होंने पाकिस्तान को भी काफी हद तक एक सेकुलर स्टेट बनाने की कोशिश की. लेकिन फिर कट्टरपंथियों के आगे हथियार भी डाल दिए (फोटो: Getty)

क्या अयूब सच में सेकुलर थे? कुछ लोग अयूब को सेकुलर बताते हैं. कहते हैं कि पाकिस्तान को आधुनिक बनाने के साथ-साथ अयूब इसे सेकुलर रखने की भी कोशिश कर रहे थे. पाकिस्तान के लिहाज से देखिए, तो ये बड़ी हिम्मत का काम था. उनके एक भाषण का अंश पढ़िए-
मैं इसे इस्लाम के लिए बड़ा नुकसान समझता हूं. कि इतना पवित्र मजहब तरक्की के रास्ते का रोड़ा समझा जाए. न केवल लोगों के लिए, बल्कि धर्म के लिए भी ये बड़ी नाइंसाफी है. 20वीं सदी में जी रहे इंसान के ऊपर ऐसी स्थितियां लाद दी जाएं कि वो खुद को सच्चा मुसलमान साबित करने के लिए कई सदी पीछे चला जाए.
अयूब को सेकुलर ठहराने के लिए कुछ तर्क हैं. जैसे- 1961 में वो मुस्लिम फैमिली लॉज़ ऑर्डिनेंस लेकर आए. इस कानून ने औरतों का बड़ा भला किया. शादी और तलाक से जुड़े मसलों में औरतों की बड़ी मदद की. इसके पहले शादी और तलाक का रजिस्ट्रेशन नहीं होता था. शादी की तो फिर भी तस्वीरें होती थीं. जो लोग शादी में आए होते थे, वो गवाह होते थे. मगर तलाक हुआ है, इसे साबित करने का कोई तरीका नहीं था. कई बार ऐसा होता कि तलाक के बाद औरत दूसरी शादी करती. तब पुराना पति उसके ऊपर व्यभिचार का इल्जाम लगा देता. फिर ये दिक्कत भी थी कि आदमी का जब मन चाहे बीवी को तलाक दे दे. नई शादी कर ले. इसके पीछे इस्लाम की वो छूट थी, जो मर्दों को एक ही वक्त में एक से ज्यादा पत्नियां रखने की सहूलियत देता है. नए कानून के बाद मर्दों के लिए जरूरी हो गया. कि वो दूसरी शादी करते वक्त अपनी पहली पत्नी की रजामंदी लें. मगर क्या एक-आध चीजों के दम पर किसी नेता को, किसी राष्ट्राध्यक्ष को सेकुलर कहा जा सकता है?
अयूब पहले ब्रिटिश आर्मी में थे. उनको जानने वाले कहते थे कि उन्हें मिलिटरी प्लानिंग की कतई समझ नहीं थी. उन्होंने नामी-गिरामी मिलिटरी लीडर्स की किताबें नहीं पढ़ी थीं. न ही उन्होंने आर्ट ऑफ वॉर के बारे में ही कुछ पढ़ा था. कहते हैं कि जब भी कोई अयूब के सामने इन बातों का जिक्र छेड़ता, वो बात बदल देते थे (फोटो: Getty)
अयूब पहले ब्रिटिश आर्मी में थे. उनको जानने वाले कहते थे कि उन्हें मिलिटरी प्लानिंग की कतई समझ नहीं थी. उन्होंने नामी-गिरामी मिलिटरी लीडर्स की किताबें नहीं पढ़ी थीं. न ही उन्होंने आर्ट ऑफ वॉर के बारे में ही कुछ पढ़ा था. कहते हैं कि जब भी कोई अयूब के सामने इन बातों का जिक्र छेड़ता, वो बात बदल देते थे (फोटो: Getty)

एक मुहावरा है- गुड़-गोबर कर दिया! अयूब ने यकीनन कुछ अच्छे फैसले लिए. लेकिन ये उनका पैटर्न नहीं था. खराब घड़ी में दिन में दो बार सही वक्त दिखा देती है. ऐसा है अयूब के साथ भी था. कई सारे बुरे फैसले लेने वाले इंसान ने 11 साल के शासन में गिनती के ठीक-ठाक फैसले भी ले लिए. मगर इससे वो सेकुलर नहीं कहे जा सकते. हमारे पास इस्लामाबाद बसाने का उदाहरण है. अयूब ने पाकिस्तान के लिए नई राजधानी तैयार करवाई. फिर जब नाम रखने का वक्त आया, तो नाम रखा- इस्लामाबाद. नवंबर 1960 में उन्होंने कहा-
इस्लामिक विचारधारा हमारे वजूद का आधार है. अगर हम इस्लामिक आइडियॉलजी के लिए ईमानदारी न दिखा पाएं, तो हम पाकिस्तान के लिए कतई ईमानदार नहीं रह सकते.
एक और मिसाल है. 1962 में अयूब के लाए गए पाकिस्तान के नए संविधान को ही ले लीजिए. पहले इसमें पाकिस्तान का नाम बस 'पाकिस्तान' रखा गया था. पाकिस्तान का सेकुलर करेक्टर बनाने के लिहाज से ये बड़ी चीज थी. लेकिन बाद में कट्टरपंथियों के दबाव में आकर इसका नाम बदलकर फिर से 'इस्लामिक रिपब्लिक ऑफ पाकिस्तान' कर दिया गया. इतना ही नहीं, बल्कि इस संविधान को कुछ ज्यादा ही इस्लामिक बना दिया गया. ये अयूब की कमजोरी थी. आप ये भी तो देखिए कि अयूब को जब अपने हिसाब का, मनमर्जी का संविधान बनाने का मौका मिला, तब उन्होंने राष्ट्रपति को सबसे ताकतवर बनाया. और ये शर्त रखी कि पाकिस्तान का कोई गैर-मुस्लिम नागरिक कभी राष्ट्रपति नहीं बन सकता है. ऐसे इंसान को सेकुलर कहने में शर्म के मारे जीभ टूट जाएगी.
अयूब के सत्ता में रहते बांग्लादेश नहीं बना. लेकिन इसके बनने की फाइनल स्क्रिप्ट अयूब के वक्त में ही तय हो गई थी. वजह थी अयूब की पूर्वी पाकिस्तान से नफरत. उन्होंने लगातार वेस्ट और ईस्ट पाकिस्तान के बीच भेदभाव किया (फोटो: Getty)
अयूब के सत्ता में रहते बांग्लादेश नहीं बना. लेकिन इसके बनने की फाइनल स्क्रिप्ट अयूब के वक्त में ही तय हो गई थी. वजह थी अयूब की पूर्वी पाकिस्तान से नफरत. उन्होंने लगातार वेस्ट और ईस्ट पाकिस्तान के बीच भेदभाव किया (फोटो: Getty)

नया संविधान
हमने आपको बताया था. कि 1958 में जब मार्शल लॉ लगाया गया, तब पाकिस्तान के तत्कालीन संविधान से भी हाथ धो लिए गए. फिर अयूब के हाथ में सत्ता आई. उन्होंने एक संसदीय समिति बनाई. इस कमीशन का काम था नया संविधान तैयार करना. मई 1961 में कमीशन ने अपनी रिपोर्ट सौंपी अयूब को. इस रिपोर्ट में 1947 से 1958 तक के पाकिस्तान का पोस्टमॉर्टम किया गया था. इसके आधार पर कमीशन ने नए संविधान को तैयार करने से जुड़े अपने सुझाव दिए. फिर काम हुआ और मार्च, 1962 में संविधान का ऐलान कर दिया गया. इसकी खास बातें पॉइंट्स में जान लीजिए-
1. इस्लामिक करेक्टर: ये तय किया गया कि देश का राष्ट्रपति तो मुस्लिम ही होगा. ये भी तय हुआ कि देश में ऐसा कोई कानून लागू नहीं किया जाएगा, तो इस्लाम के मुताबिक न हो. मतलब हर चीज इस्लामिक होनी चाहिए. संविधान में इस्लामिक आदर्शों पर सुझाव देने के लिए एक अडवाइजरी काउंसिल भी बनाई गई. इसमें इस्लाम के जानकार होते थे. इनका काम था ये देखना कि जो कानून बन रहे हैं, वो इस्लाम के मुताबिक हैं कि नहीं. एक इस्लामिक रिसर्च इंस्टिट्यूट भी बनाया गया. इसका काम था इस्लामिक विषयों पर रिसर्च करना. ताकि इस्लामिक तौर-तरीकों के मुताबिक समाज बनाया जा सके.
अयूब खान अल अक्सा मस्जिद में घूमते हुए. ये मस्जिद इस्लाम की सबसे पवित्र मानी जाने वाली जगहों में से एक है (फोटो: फिलिस्तीन दूतावास, इस्लामाबाद)
अयूब खान अल अक्सा मस्जिद में घूमते हुए. ये मस्जिद इस्लाम की सबसे पवित्र मानी जाने वाली जगहों में से एक है (फोटो: फिलिस्तीन दूतावास, इस्लामाबाद)

2. फेडरल सिस्टम: एक संघीय ढांचा तैयार किया गया. जैसा भारत में है, उसी तरह का. एक केंद्र सरकार. और प्रांतीय सरकारें. राष्ट्रपति प्रांतों के गर्वनरों को नियुक्त करता था. ये गर्वनर जवाबदेह भी राष्ट्रपति के प्रति ही होते थे. मतलब, प्रांतों की भूमिका मातहतों जैसी थी. केंद्र हावी था उनके ऊपर. प्रांतों के अधिकार बहुत मामूली थे.
3. राष्ट्रपति सबसे ताकतवर: इस संविधान में सबसे ज्यादा शक्तियां राष्ट्रपति के पास थीं. वो सरकार का मुखिया था. वही सारे मंत्रियों की भी नियुक्ति करता था. सारे मंत्री उसके प्रति जवाबदेह थे. जो टॉप के अधिकारी होते थे, उन्हें भी राष्ट्रपति ही चुनता था. कुल मिलाकर जो था, वो राष्ट्रपति ही था.
4. नैशनल असेंबली: हमारे यहां असेंबली के दो हिस्से होते हैं. केंद्र में देखें, तो लोकसभा और राज्यसभा. राज्य स्तर पर विधानसभा और विधान परिषद. पाकिस्तान में एक सदन वाला सिस्टम था. इसका नाम था नैशनल असेंबली. पहले इसमें 156 सदस्यों की व्यवस्था थी. फिर इनकी संख्या बढ़ाकर 218 कर दी गई. आगे ये संख्या बढ़ाकर 313 कर दी गई. इन्हें चुनते थे बेसिक डेमोक्रैट्स. इन सदस्यों का कार्यकाल पांच साल तय हुआ. कुछ सीटें महिलाओं के लिए भी आरक्षित की गईं. हां, एक और बात भी थी. राष्ट्रपति की कैबिनेट के सदस्य इस असेंबली का हिस्सा नहीं होते थे.
इस्लामाबाद की नींव रखी गई 1960 में. 14 अगस्त, 1967 को इसे पाकिस्तान की राजधानी बना दिया गया. इसके पहले कराची पाकिस्तान की राजधानी हुआ करती थी. ये जगह पंजाब और खैबर पख्तूनख्वा के बीच है. मारगला की पहाड़ियों को काटकर ये शहर बसाया गया. ये शहर अयूब की निशानी है. उन्होंने ही बसाया इसे (फोटो: Getty)
इस्लामाबाद की नींव रखी गई 1960 में. 14 अगस्त, 1967 को इसे पाकिस्तान की राजधानी बना दिया गया. इसके पहले कराची पाकिस्तान की राजधानी हुआ करती थी. ये जगह पंजाब और खैबर पख्तूनख्वा के बीच है. मारगला की पहाड़ियों को काटकर ये शहर बसाया गया. ये शहर अयूब की निशानी है. उन्होंने ही बसाया इसे (फोटो: Getty)

5. परोक्ष लोकतंत्र: लोकतंत्र के बारे में अयूब के खयाल अच्छे नहीं थे. वो लोकतंत्र में भरोसा ही नहीं रखते थे. एक बार अयूब ने कहा था-
गर्म आबोहवा वाली जगहों पर लोकतंत्र किसी काम का नहीं. ये तो ब्रिटेन जैसी ठंडी जगहों के लिए बना है. पाकिस्तान जैसी गर्म जगह के लिए नहीं है डेमोक्रेसी.
अयूब को लगता था कि पाकिस्तान की जनता लोकतंत्र और इसकी जिम्मेदारियों के लिए तैयार नहीं है. उनका कहना था कि पाकिस्तानी आवाम को पहले लोकतंत्र के लिए तैयार करना होगा. उन्हें ट्रेनिंग देनी होगी. राजनैतिक शिक्षा देनी होगी और जागरूक बनाना होगा. इसीलिए जब उन्होंने संविधान तैयार करवाया, तो उसमें जनता की सीधे तौर पर कोई भूमिका नहीं थी. ऐसा सिस्टम बनाया गया कि प्राइमरी वोटर्स बेसिक डेमोक्रैट्स चुनेंगे. ये डेमोक्रैट्स फिर नैशनल असेंबली के सदस्य चुनेंगे. ये सिस्टम कुछ-कुछ हमारे यहां के राष्ट्रपति चुनाव की व्यवस्था जैसा ही था.
6. राजनैतिक दलों पर बैन: अयूब खान को न केवल लोकतंत्र से दिक्कत थी, बल्कि उन्हें पॉलिटिकल पार्टियों पर भी रत्तीभर भरोसा नहीं था. उन्हें लगता था कि राजनैतिक पार्टियां देश को गर्त में ले जाती हैं. वो इतनी नकारा होती हैं कि देश चलाना उनके बस में नहीं होता. अयूब को बस सेना और नौकरशाही की काबिलियत पर यकीन था. इसी वजह से अपने बनाए संविधान में उन्होंने राजनैतिक पार्टियों के लिए कोई जगह ही नहीं छोड़ी. पॉलिटिकल पार्टियों पर प्रतिबंध लगा दिया गया. अप्रैल और मई 1962 में चुनाव हुए. इनमें कोई राजनैतिक पार्टी शामिल नहीं थी. फिर जब नैशनल असेंबली ने काम शुरू कर दिया, तब उसके सदस्य राजनैतिक पार्टियों को जगह देने की मांग करने लगे. इसके बाद 1962 में पॉलिटिकल पार्टी ऐक्ट पास हुआ. इस ऐक्ट के पास होने के बाद राजनैतिक पार्टियों को पाकिस्तान में सांस लेने की इजाजत दी गई.
अयूब खान जैसे खुद तानाशाह थे, वैसा ही तानाशाही उनका बनाया संविधान भी था. बैलेंस ही नहीं था उसमें. सारी ताकत राष्ट्रपति के पास थी. जनता के लिए इसमें कोई जगह नहीं थी. इसीलिए इस संविधान का फेल होना तय था. हुआ भी यही. जब तक अयूब रहे, संविधान रहा. फिर जैसे ही अयूब के हाथ से सत्ता निकली, ये संविधान भी खत्म कर दिया गया.
फातिमा जिन्ना बैठी हैं अयूब खान के साथ. ये 1965 के राष्ट्रपति चुनाव के समय की तस्वीर है. विपक्ष एक तो हो गया था, पर बिखरा हुआ था. किसी एक उम्मीदवार के नाम पर सहमति नहीं बन पा रही थी. ऐसे में ही फिर फातिमा के नाम का जिक्र हुआ. विपक्ष को लगा कि अयूब के सामने किसी को खड़ा किया जा सकता है, तो वो बस फातिमा ही हैं (फोटो: वाइट स्टार)
फातिमा जिन्ना बैठी हैं अयूब खान के साथ. ये 1965 के राष्ट्रपति चुनाव के समय की तस्वीर है. विपक्ष एक तो हो गया था, पर बिखरा हुआ था. किसी एक उम्मीदवार के नाम पर सहमति नहीं बन पा रही थी. ऐसे में ही फिर फातिमा के नाम का जिक्र हुआ. विपक्ष को लगा कि अयूब के सामने किसी को खड़ा किया जा सकता है, तो वो बस फातिमा ही हैं (फोटो: वाइट स्टार)

11 साल में बस एक बार गंभीर चुनौती मिली अयूब को अयूब 1958 से 1969 तक हुकूमत करते रहे. इस दौरान बस एक बार ही ऐसा हुआ कि उन्हें गंभीर चुनौती मिली. ये हुआ था 1965 के राष्ट्रपति चुनाव में. इस चुनाव की बात करना इसलिए जरूरी है कि यहां आपको अयूब की धांधली मिलेगी. पता चलेगा कि तानाशाह जब लोकतांत्रिक होने का तमाशा करता है, तो अपने हितों को साधने के लिए और कैसे-कैसे नाटक करता है. ये चुनाव भी एक किस्म का नाटक था. खानापूर्ति थी. हां, एक बात और दिलचस्प बात हुई इस चुनाव में. वो मुल्क जहां कट्टरपंथी इस्लामिक संगठन औरतों के सार्वजनिक जीवन में दिखने और अहम राजनैतिक पदों की जिम्मेदारियां उठाने के खिलाफ थे, वहां आम लोगों ने एक महिला के लिए बढ़-चढ़कर समर्थन दिखाया. तथाकथित विकसित देशों की महिलाओं को वोट डालने के अधिकार तक के लिए संघर्ष करना पड़ा. दूसरी तरफ यहां पाकिस्तान में एक महिला मुल्क की सबसे ताकतवर पोस्ट पर आते-आते रह गई.
चुनाव से पहले फातिमा ने ट्रेन के रास्ते खूब पाकिस्तान घूमा. वो कहती थीं कि पाकिस्तान को लोकतंत्र की सख्त जरूरत है. अयूब के रहते पाकिस्तान जम्हूरियत हासिल नहीं कर सकता, क्योंकि अयूब तानाशाह हैं (फोटो: AP)
चुनाव से पहले फातिमा ने ट्रेन के रास्ते खूब पाकिस्तान घूमा. वो कहती थीं कि पाकिस्तान को लोकतंत्र की सख्त जरूरत है. अयूब के रहते पाकिस्तान जम्हूरियत हासिल नहीं कर सकता, क्योंकि अयूब तानाशाह हैं (फोटो: AP)

तानाशाह बनाम मादर-ए-मिल्लत चुनाव जनवरी 1965 में हुआ था. मगर अयूब को चैलेंज तो 1964 में ही मिल गया था. जब तय हुआ कि 'मादर-ए-मिल्लत' उनके खिलाफ खड़ी हो रही हैं. जिन्ना की बहन फातिमा इसी संबोधन से पुकारी जाती हैं पाकिस्तान में. 72 साल की थीं तब फातिमा. विपक्षी दलों ने फातिमा को अयूब के खिलाफ चुनाव लड़वाने का फैसला किया. उनकी आखिरी उम्मीद थीं वो. फातिमा का चुनाव चिह्न था लालटेन. अयूब खान का चुनाव चिह्न था गुलाब. कई बरस बाद हमारे भारत में भी एक राजनैतिक पार्टी ने लालटेन को अपनी पार्टी का चुनाव चिह्न बनाया. लालू यादव की राष्ट्रीय जनता दल का अब भी यही सिंबल है. जब ये चुनाव चिह्न चुना गया, तब गरीब ही नहीं, बल्कि मिडिल क्लास लोगों के यहां भी ये लालटेन ही अंधेरा दूर करने के काम आता था. यानी, फातिमा का इलेक्शन सिंबल आम आदमी की जरूरत था. वहीं अयूब का चुनाव चिह्न गुलाब. जो सौंदर्य भी है. विलासिता भी. आप इसको आर्ट भी कह सकते हैं. मगर ये सब के सब खाए-पीए-अघाए लोगों के हिस्से आती हैं.
चुनाव तो बाद में हुआ. जब अयूब सत्ता में आए, तब भी फातिमा पाकिस्तान में थीं. सब देख रही थीं. उस समय फातिमा ने क्या महसूस किया? अयूब लोकतांत्रिक प्रक्रिया से चुनकर तो आए नहीं थे. बल्कि देश में पहली बार मार्शल लॉ भी उसी समय लगा था. फातिमा जानती थीं कि जिन्ना लोकतंत्र बनाना चाहते थे. जिन्ना तो रहे नहीं थे ये सब देखने के लिए. मगर फातिमा थीं. तो उनको बुरा लगा कि भला लगा? इसके जवाब में आपको तिलक देवाशेर की किताब 'पाकिस्तान: ऐट द हेल्म' का एक हिस्सा पढ़ाते हैं-
जनरल अयूब खान के नेतृत्व में एक नए दौर की शुरुआत हुई है. नौकरशाही में जो बुराइयां हैं, उन्हें जड़ से खत्म करने का जिम्मा लिया है सेना ने. हमारी आर्म्ड फोर्सेस ने समाज-विरोधी रवायतों को खत्म करने का भी जिम्मा लिया है. ताकि मुल्क के अंदर आत्मविश्वास, सुरक्षा और स्थिरता का भाव लाया जाए. ताकि देश फिर से सामान्य हो सके. मैं उम्मीद करती हूं कि अल्लाह उन्हें (अयूब और सेना को) बुद्धि दे. उन्हें ताकत बख्शे. ताकि वो अपने मकसद को हासिल कर सकें.
फातिमा को देखने, उन्हें सुनने के लिए खूब भीड़ जमा होती. उनका सपोर्ट बेस सबसे ज्यादा मजबूत था कराची और पूर्वी पाकिस्तान में. जिन्ना की मौत के बाद से ही वो सामाजिक जीवन से कट गई थीं. एक किस्म के अज्ञातवास में चली गई थीं. इस चुनाव ने उन्हें वापस लोगों के बीच पहुंचा दिया (फोटो: AP)
फातिमा को देखने, उन्हें सुनने के लिए खूब भीड़ जमा होती. उनका सपोर्ट बेस सबसे ज्यादा मजबूत था कराची और पूर्वी पाकिस्तान में. जिन्ना की मौत के बाद से ही वो सामाजिक जीवन से कट गई थीं. एक किस्म के अज्ञातवास में चली गई थीं. इस चुनाव ने उन्हें वापस लोगों के बीच पहुंचा दिया (फोटो: AP)

फातिमा ने कहा नशेड़ी, अयूब बोले- हिंदुस्तानी एजेंट आप 1958 की फातिमा को सुनिए. और 1964-65 की फातिमा को सुनिए. आपको बदलाव का सही मतलब समझ आएगा. फातिमा जिन्ना अपनी चुनावी सभाओं में अयूब पर पिल पड़ती थीं. उनकी जमकर आलोचना करती थीं. अयूब और उनके परिवार पर भ्रष्टाचार के आरोप लगाए उन्होंने. जुल्फिकार अली भुट्टो ने जिन्ना की कैबिनेट में तीन पोर्टफोलियो संभाले. जिस चुनाव की हम बात कर रहे हैं, उस समय भुट्टो अयूब के विदेश मंत्री हुआ करते थे. फातिमा उनके खिलाफ भी खूब बोलती थीं. फातिमा ने भुट्टो को 'नशेड़ी' और 'छिछोरा' तक कहा था. जवाब में अयूब ने कहा कि फातिमा बड़ी अजीबोगरीब जिंदगी जीती हैं. उनका इशारा फातिमा के 'कुआंरेपन' पर था. अयूब ने तो फातिमा को भारतीय एजेंट तक कह दिया था. जैसे भारत में 'पाकिस्तानी एजेंट= बेइज्जती' होता है, वैसे ही पाकिस्तान में भी 'भारतीय एजेंट=बेइज्जती' होता है. सोचिए, जिस जिन्ना ने पाकिस्तान बनवाया उनकी बहन को हिंदुस्तानी एजेंट कहा जा रहा था. बहुत कीचड़ उछला था इस चुनाव में. जैसे हमारे यहां चुनाव के समय पाकिस्तान का खूब जिक्र होता है, वैसा ही तब पाकिस्तान में भी हुआ था. विदेश मंत्री भुट्टो ने भारत को धमकी दी थी. कहा था-
भारत कोशिश कर रहा है कि पाकिस्तान के कब्जे वाले कश्मीर को अपने में मिला ले. पाकिस्तानी हुकूमत हिंदुस्तान की इस कोशिश के खिलाफ कड़ी कार्रवाई करेगी. आपको बहुत जल्द हमारी कार्रवाई में बेहतरी दिखेगी. आपको इसका नतीजा दिखेगा.
इस मामले में दोनों मुल्क एक पेट खाते हैं भुट्टो की बातों में एक किस्म की चेतावनी थी. जैसे वो अपने इरादों को शब्द दे रहो हों. या शायद वो मुल्क को डराना चाहते थे. कि भारत का खतरा कितना बड़ा है. हिंदुस्तान और पाकिस्तान की ये साझा फितरत है. अपनी-अपनी आवाम को एक-दूसरे का नाम लेकर डराना. अपने फायदे के लिए पड़ोसी मुल्क का नाम इस्तेमाल करना. महाभारत की कहानी में ब्रह्मास्त्र होता था. जब हार पक्की लग रही हो, तो ब्रह्मास्त्र छोड़ दो. ऐसा विनाशक हथियार था ये कि इसका कोई तोड़ नहीं था. भारतीय नेताओं के लिए पाकिस्तान और पाकिस्तानी पॉलिटिक्स (सेना भी) के लिए भारत ऐसे ही ब्रह्मास्त्र का काम करते हैं.
इस चुनाव में खूब गंदगी मची. अयूब और भुट्टो ने फातिमा पर भद्दी टिप्पणियां कीं. जब अयूब ने फातिमा को हिंदुस्तानी एजेंट कहा, तो पाकिस्तान सन्न रह गया. जिन्ना की बहन को और कुछ भी कहा जा सकता हो, हिंदुस्तानी एजेंट तो कतई नहीं कहा जा सकता था (फोटो: AP)
इस चुनाव में खूब गंदगी मची. अयूब और भुट्टो ने फातिमा पर भद्दी टिप्पणियां कीं. जब अयूब ने फातिमा को हिंदुस्तानी एजेंट कहा, तो पाकिस्तान सन्न रह गया. जिन्ना की बहन को और कुछ भी कहा जा सकता हो, हिंदुस्तानी एजेंट तो कतई नहीं कहा जा सकता था (फोटो: AP)

ये चुनाव भी कोई चुनाव था भला इस चुनाव में दो मुख्य पक्ष थे. एक- कन्वेंशन मुस्लिम लीग. जो कि अयूब की पार्टी थी. उन्होंने बनाई थी. दूसरी तरफ था विपक्ष का गठबंधन. इसमें पांच विपक्षी दल शामिल थे. इनके अजेंडे में शामिल था डायरेक्ट इलेक्शन सिस्टम वापस लाना और 1962 के संविधान को लोकतांत्रिक बनाना. लोकतंत्र को विपक्ष ने अपना सबसे बड़ा मुद्दा बनाया था. विपक्षी गठबंधन पहले आपस में ही झगड़ रहा था. राष्ट्रपति पद का अपना साझा उम्मीदवार तक नहीं चुन पा रहा था. फिर जाकर उनके दिमाग में आई थीं फातिमा और उनके नाम पर सहमति बनी.
चुनाव प्रचार के लिए बस एक महीने का वक्त दिया गया था. उसके ऊपर भी सौ पाबंदियां थीं. ये कहा गया कि बस नौ बैठकें होंगी, जिन्हें चुनाव आयोग आयोजित करेगा. इसमें आम लोगों को शामिल होने की इजाजत नहीं थी. अगर ऐसा होता, तो शायद फातिमा जिन्ना के जीतने की संभावना बढ़ जाती. अयूब के हाथ में सारी ताकत जमा थी. सारा सिस्टम उनका गुलाम था. ऐसे में ये दावा कि चुनाव निष्पक्ष थे, फर्जी लगते हैं. फातिमा के पास एक फायदा था. कि वो जिन्ना की बहन थीं. जमात-ए-इस्लामी जैसे कट्टरपंथी इस्लामिक संगठन, जो कि राष्ट्रपति पद पर किसी औरत के होने का विरोध करते थे, वो भी फातिमा जिन्ना के नाम पर चुप हो गए. 1965 के चुनाव से पहले फातिमा जिन्ना जब पाकिस्तान घूम रही थीं, तब उन्हें कैसा सपोर्ट मिल रहा था ये आपको इस विडियो में दिखेगा.

...तो बेनजीर वाला इतिहास फातिमा के नाम होता चुनाव का नतीजा ये रहा कि अयूब जीत गए. 80,000 में से कुल साढ़े 49 हजार वोट उनके नाम के थे. फातिमा हार गईं. जिन्ना कराची के थे. कराची ने उनकी बहन का साथ दिया. पूर्वी पाकिस्तान में भी फातिमा को अच्छे वोट मिले. लोग कहते हैं कि अयूब ने चुनाव में धांधली न की होती, तो फातिमा जीत जातीं. जो भी हो, एक बात साफ थी. कि आम पाकिस्तानी को औरत और मर्द के बीच कोई दुराभाव नहीं था. आगे चलकर जब बेनजीर भुट्टो पाकिस्तान की प्रधानमंत्री बनीं, तब इसे बेहद क्रांतिकारी बताया गया. कि देखो, इस्लामिक देश ने एक औरत को अपनी मुखिया चुना है. लोग भूल जाते हैं. कि बेनजीर से भी काफी पहले पाकिस्तान ने फातिमा का साथ दिया था. वो हार गईं, ये बात सेकंडरी है.
1965 के चुनावों के बारे में पढ़ते हुए मैं पाकिस्तानी अखबारों और वेबसाइट्स के आर्काइव्स खोद रही थी. मेरी नजर एक ब्लॉग पर पड़ी. पाकिस्तानी अखबार ट्रिब्यून की वेबसाइट पर किन्हीं डॉक्टर मुहम्मद अयूब नाम के महाशय ने ये ब्लॉग लिखा था. इस चुनाव के वक्त ये जनाब पांच साल के रहे होंगे. उन्हें जो याद था, उसकी एक तस्वीर पढ़िए-
मैं अक्सर गांव की एक दुकान पर जाता था. वो दुकान मेरे दादा जी के दोस्त की थी. उन्होंने दुकान की दीवार पर एक अखबार का पन्ना चिपकाया हुआ था. उसमें कई सारे गुलाब (अयूब का इलेक्शन सिंबल) थे और बस एक लालटेन (फातिमा का चुनाव चिह्न) था. मुझे लगता है कि इसका मतलब था अयूब खान का सपोर्ट. मुझे नहीं पता कि ये अखबार चुनाव के पहले का था या नतीजों के ऐलान के बाद छपा था. उस दीवार पर वो पन्ना कई सालों तक चिपका रहा. उसकी तस्वीरें, उसमें लिखे शब्द सब मिट गए थे. धुंधले हो गए थे. फिर भी वो चिपका रहा.
ये तस्वीर 22 सितंबर, 1965 को ली गई थी. भारतीय सेना के जवान पाकिस्तानी सैनिकों से जब्त किए गए हथियारों का मुआयना कर रहे हैं (फोटो: Getty)
ये तस्वीर 22 सितंबर, 1965 को ली गई थी. भारतीय सेना के जवान पाकिस्तानी सैनिकों से जब्त किए गए हथियारों का मुआयना कर रहे हैं (फोटो: Getty)

फातिमा के हिस्से गुमनामी आई, अयूब ने जंग को चुना चुनाव खत्म होने के बाद फातिमा और अयूब अलग-अलग रास्तों पर आगे बढ़ गए. फातिमा का रास्ता उन्हें अकेलेपन और गुमनामी के दौर की ओर ले गया. वो दौर, जिसका अंत हुआ 9 जुलाई 1967 को. फातिमा मोहत्ता पैलेस में रहती थीं. महल की दूसरी मंजिल पर फातिमा का बेड रूम था. 9 जुलाई को न उनके घर के परदे हटे, न दरवाजा खुला. शाम को जब दरवाजा जबरन खोला गया, तो देखा. बिस्तर पर फातिमा मरी पड़ी हैं. एकदम सर्द-ठंडी. कोई नहीं जानता कि उन्होंने अंतिम सांस कब ली. सरकार ने कहा, फातिमा को दिल का दौरा पड़ा था. मगर कई लोग कह रहे थे कि फातिमा मार डाली गई हैं. सच क्या है, मालूम नहीं. खैर. चुनाव जीतकर अयूब किसी बेहतर जगह पहुंचे हों, ऐसा नहीं है. इलेक्शन से निकलकर वो सीधा जंग के मैदान पहुंचे. यहीं से उनकी बर्बादी शुरू हुई. जंग कैसे हुई, बर्बादी कैसे आई. इसकी पूरी कहानी तसल्ली से सुने जाने लायक है. जो हम आपको 'पाक पॉलिटिक्स' की अगली किस्त में सुनाएंगे.
कमांड ऐंड स्टाफ कॉलेज, क्वेटा की गैलरी में अयूब इसी तरह याद किए जाते हैं. तस्वीर देखकर लगता है जैसे अयूब कोई दूरदर्शी सेनापति हों. जबकि ऐसा असल में नहीं था. एक फौजी के तौर पर वो भले कामयाब नहीं रहे, लेकिन पाकिस्तान जैसा राजनैतिक अस्थिरता वाले मुल्क में एक दशक तक कोई उनकी सत्ता नहीं हिला सका.
कमांड ऐंड स्टाफ कॉलेज, क्वेटा की गैलरी में अयूब इसी तरह याद किए जाते हैं. तस्वीर देखकर लगता है जैसे अयूब कोई दूरदर्शी सेनापति हों. जबकि ऐसा असल में नहीं था. एक फौजी के तौर पर वो भले कामयाब नहीं रहे, लेकिन पाकिस्तान जैसा राजनैतिक अस्थिरता वाले मुल्क में एक दशक तक कोई उनकी सत्ता नहीं हिला सका.

जाते-जाते
हमारी कहानी में अयूब अभी जिंदा हैं. राष्ट्रपति हैं. मगर अयूब चले जाएंगे. बड़े रुसवा होकर जाएंगे. उन्होंने इस्कंदर मिर्जा को धोखा दिया था. जिस अंदाज में उन्होंने मिर्जा को धोखा दिया, उसी अंदाज में अयूब भी अपने सेना प्रमुख याहया खान से धोखा खाएंगे. अयूब के जीते-जी फिर उनका जिक्र भी नहीं होगा कहीं. फिर आएगी 19 अप्रैल, 1974 की तारीख. जब ऑल इंडिया रेडियो पर अनाउंसमेंट सुनाई देगी. लोगों को मालूम चलेगा कि अयूब खान नहीं रहे. ये अयूब के मरने का पहला आधिकारिक अनाउंसमेंट होगा. उस देश में, जिसको लेकर अयूब के खयाल बड़े खराब थे. उस भारत में, जहां के लोगों को वो 'डरपोक' समझते थे. उनके अपने मुल्क पाकिस्तान में भी ऐलान होगा उनकी मौत का. पाकिस्तान टेलिविजन (PTV) और रेडियो पाकिस्तान पर एक लाइन की खबर आएगी. बताया जाएगा-
पाकिस्तान के एक पूर्व राष्ट्रपति का इंतकाल हो गया.
बस. मरने वाला का नाम तक नहीं बताया जाएगा. ये सलूक उस इंसान के साथ, जो पाकिस्तान का मुकद्दर संवारने निकला था.


'पाक पॉलिटिक्स' की बाकी किस्तें यहां पढ़िए:
अगर जिन्ना की ऐम्बुलेंस का पेट्रोल खत्म न हुआ होता, तो शायद पाकिस्तान इतना बर्बाद न होता
उस बाग का शाप, जहां पाकिस्तान के दो प्रधानमंत्री कत्ल कर दिए गए
जब पाकिस्तानी हुक्मरान स्तनों पर अफीम लगाकर बच्चे मारने वाली मां की तरह देश खत्म कर रहे थे
मीर जाफर ने हिंदुस्तान से गद्दारी की थी, उसके वंशज के साथ पाकिस्तान में गद्दारी हुई
पाकिस्तान की प्लानिंग: 28 जुलाई को भारत में घुसेंगे, 9 अगस्त को कश्मीर हमारा होगा



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इमरान खान को भगवान शिव की तरह दिखाने पर बवाल हो गया है



ये पाकिस्तानी नेता जैसे प्रचार कर रहा है, वैसे भारत में कभी न हुआ होगा

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