जब पाकिस्तान का झंडा बनाने के लिए एक भारतीय ने अपनी पगड़ी दे दी
India-Pakistan के विभाजन का समय. जब भी इसे याद किया जाता है, कड़वाहट की ही बात होती है. लेकिन इस कड़वाहट के बीच भी कुछ किस्से ऐसे हैं, जिन्हें पढ़कर लगता है कि कुछ स्वर थे जो सौहार्द का राग गा रहे थे. ऐसी ही एक कहानी, जिसमें Pakistan का झंडा बनाने के लिए एक Indian की मदद लेनी पड़ी. जानिए तब क्या हुआ था?
हिन्दुस्तान-पाकिस्तान विवाद के क़िस्से हम आए दिन सुनते रहते हैं. दोनों देशों में बटवारे का इतिहास बेहद हैवानियत भरा रहा है. लेकिन इन दर्द भरी चीखों के बीच, कुछ मधुर सुर भी थे, जो सौहार्द की बात करते थे. ऐसी ही एक कहानी है फ़्रांस की. जहां आज़ादी के ऐलान के बाद एक भारतीय ने अपनी पगड़ी उतार कर दे दी. ताकि पाकिस्तान का झंडा सिला जा सके. क्या थी ये कहानी? कैसे ऐसे हालात बने? ये लोग फ्रांस में क्या कर रहे थे?
क्योंकि कहानी पार्टिशन से जुड़ी हुई है, तो ज़ाहिर है कि 1947 की ही होगी. लेकिन पहले बात करते हैं उससे करीब 40 साल पहले की. ब्रिटिश लेफ्टिनेंट जनरल रॉबर्ट बैडन पौवल ने एक किताब लिखी- “Scouting for Boys: A handbook for instruction in good citizenship”. इस किताब से एक आंदोलन सा चला- ‘स्काउटिंग मूवमेंट’. आप शायद स्काउटिंग के बारे में पहले से जानते हों. नहीं जानते, तो संक्षिप्त में बता दें. स्काउटिंग एक ऐसा शैक्षणिक कार्यक्रम है जो युवाओं के किरदार को बेहतर करने, उन्हें अच्छा नागरिक बनाने, और उनकी स्किल्स डेवलप करने पर केंद्रित होता है. इसमें व्यक्ति चीज़ों को खुद कर-कर के सीखता है. इंडिया में स्काउटिंग की शुरुआत लगभग 1910 में हो चुकी थी.
स्काउटिंग में एक 'वर्ल्ड स्काउट जंबोरी' नाम का कार्यक्रम होता है. इस कार्यक्रम में देश-विदेश के स्काउटिंग से जुड़े लोग एक जगह इकट्ठे होते हैं. भारतीय स्काउट्स भी इसमें हिस्सा लेते हैं. हमारा किस्सा शुरू होता है छठे वर्ल्ड स्काउट जंबोरी से. जो साल 1947 में फ्रांस में आयोजित हुआ. इस कार्यक्रम के लिए सब लोग राजधानी पेरिस से सटे ‘मोइसन’ गांव में इकठ्ठा हुए. जंबोरी में प्रतिनिधित्व के लिए भारत से भी एक टीम का चयन हुआ. इस टीम में कुल 165 युवा स्काउट्स थे. इनमें हर क्षेत्र, हर जाति, हर धर्म के लोग शामिल थे. धनमल माथुर नाम के व्यक्ति स्काउट मास्टर की भूमिका में थे. वहीं, जीजेजे थैडस टीम का नेतृत्व कर रहे थे. खुर्शीद अब्बास गरदेज़ी, इक़बाल कुरेशी, मदन मोहन, स्वरण सिंह, आफ़ताब, रणबीर सिंह, जसदेव सिंह, सरफ़राज़ अहमद रफ़ीक़, नरेंद्र कुमार - ये कुछ नाम हैं जो इस टीम में थे. इनमें से कुछ लोगों ने आगे चलकर अपने पेशों में इतिहास भी रचा. उसका ज़िक्र फिर कभी. अभी जानते हैं फ़्रांस में क्या हुआ?
फ्रांस जाने के लिए ये लोग तत्कालीन बॉम्बे से पानी के जहाज में चढ़े थे. फिर इन लोगों ने साथ मिलकर पेरिस तक यात्रा की थी. स्वेज़ कैनाल से यात्रा कर ये लोग 18 दिन में पहले इंग्लैंड पहुंचे. इस दौरान उन्हें भयानक सी सिकनेस का सामना करना पड़ा. क्योंकि अधिकतर लोग पहली बार जहाज की यात्रा कर रहे थे. इस दौरान एक बड़ी दिक्कत ये भी हुई कि ग्रुप में शामिल हिन्दू लड़के ठीक से खाना भी नहीं खा पाए. क्योंकि खाने की अधिकतर चीजों में बीफ था. दूसरे भोजन की मांग की. वो भी नहीं मिला. इसलिए मुस्लिम लड़कों ने भी खाने से मना कर दिया. ये सब सहने के बाद जब हिन्दुस्तानी टीम मोइसन पहुंची, तो वहां उन्हें 24 देशों से आए 40 हज़ार स्काउट्स दिखाई दिए. इससे आप अंदाज़ा लगा सकते हैं कि ये कार्यक्रम किस स्तर का था.
कार्यक्रम शुरू हुआ 9 अगस्त को. लेकिन अभी केवल 6 दिन ही बीते थे कि इतने में भारत स्काउट्स एंड गाइड्स की टीम तक एक ख़बर पहुंचती है. ख़बर बेहद खुशी की थी. लेकिन इसमें एक ग़म भी जुड़ा हुआ था. टीम को बताया गया कि भारत देश अब आज़ाद हो चुका है. जश्न का माहौल था. लेकिन दुःख की बात ये थी कि हिंदुस्तान अब सिर्फ हिंदुस्तान नहीं रह गया था. अब दो देश बन चुके थे. एक का नाम भारत और दूसरे का नाम पाकिस्तान. स्काउटिंग टीम के सदस्य आए तो एक देश से थे. लेकिन इस ख़बर के बाद वो अलग-अलग दो देशों के नागरिक बन चुके थे.
चूंकि स्काउटिंग का असल मकसद ही लोगों के व्यक्तित्व को निखारना और भाईचारा बनाने का था. इसलिए स्काउटिंग टीम पर इसका कोई बुरा असर नहीं दिखा. सबने मिल-जुल कर खुशियां मनाई और एक दूसरे को आज़ादी की बधाई दी. आज़ादी का जश्न मनाने के लिए फ़्रांस में लंदन के भारतीय उच्च आयोग से एक बक्सा आया. बक्से में मिठाइयां थीं. साथ में एक तिरंगा झंडा था. ये झंडा, स्काउटिंग ईवेंट में फहराने के लिए भेजा गया था. पर जो लोग पाकिस्तान के नागरिक बन चुके थे, उनके पास कोई झंडा नहीं था. दरअसल, पाकिस्तान की संविधान सभा ने अपने झंडे का डिजाइन 11 अगस्त को फाइनल किया था. इसलिए इतने कम दिन में पाकिस्तान का झंडा फ्रांस नहीं पहुंच पाया.
स्काउट टीम में मौजूद पाकिस्तानी लोगों ने अपने झंडे की तस्वीर एक स्थानीय अखबार में देखी हुई थी. फिर मुल्तान के खुर्शीद अब्बास गरदेज़ी, इक़बाल कुरेशी और शिमला के मदन मोहन को पाकिस्तानी झंडा बनाने का काम सौंपा गया. झंडा बनाने के लिए सफ़ेद और हरे रंग के कपड़े की जरूरत थी. इतनी जल्दी कपड़ा मिल नहीं सकता था. दोनों झंडे अगले दिन फहराए जाने थे. इसलिए टीम ने एक रास्ता निकाला. पाकिस्तानी पत्रकार और लेखक अक़ील अब्बास जाफ़री 'पाकिस्तान क्रॉनिकल’ में लिखते हैं-
पाकिस्तान का झंडा बनाने के लिए गरदेज़ी ने अपनी सफेद कमीज़ फाड़ी और मदन मोहन ने अपनी हरी पगड़ी का कपड़ा दिया. इसके बाद दो लड़कियों ने पाकिस्तानी झंडे की सिलाई की. ये लड़कियां फ़्रांस की गाइड्स थीं. इस तरह टीम ने अपने हाथों से ‘परचम-ए-सितारा-ओ-हिलाल’ तैयार किया.
भारत में इसी वक्त लाखों लोग बंटवारे का दंश झेल रहे थे. नफरत उबाल मार रही थी. उसी समय एक भारतीय लड़के की पगड़ी से पाकिस्तान का झंडा बनाया जाना, अपने आप में बड़ी बात थी. इतना ही नहीं, इसके बाद एक और दिलचस्प घटना हुई. झंडा रोहण के दौरान, भारतीयों ने राष्ट्रगान, ‘जन मन गण’ गाया. लेकिन पाकिस्तान का राष्ट्रगान तैयार नहीं हुआ था. इसलिए सभी स्काउट्स ने मिलकर सारे जहां से अच्छा गाने का फैसला किया. ये मौका इस मामले में भी खास था कि पहली बार किसी इंटरनेशनल इवेंट में भारत और पाकिस्तान के झंडे एक साथ फहराए गए थे.
ये कहानी और भी आगे बढ़ती है. क्योंकि चूंकि भारतीय दल साथ गया, इसलिए इसे वापस भी साथ लौटना था. लेकिन दो अलग-अलग मुल्कों में. पाकिस्तानी बन गए लड़के चाहते थे कि वो सीधे मुल्तान और कराची जाएं. टीम के लीडर जी थैडस ने जब ये सुना, वो बहुत गुस्सा हुए. और सबसे दो टूक कहा, ‘तुम भारतीय की तरह आए हो. इसलिए लौटोगे भी भारतीय की ही तरह.’ वापसी के लिए स्काउट टीम ने जिस जहाज का इस्तेमाल किया. उसका नाम था RMS स्ट्रैथमोर. ये वही जहाज था, जिसमें बैठकर मेजर ध्यानचंद, साल 1936 में ओलिम्पिक खेलों में हिस्सा लेने के लिए जर्मनी गए थे.
क्रिक्रेट के शौकीनों के लिए एक और ट्रिविया है. इसी जहाज से 1936 में डॉन ब्रैडमैन वाली ऑस्ट्रेलियाई क्रिकेट टीम एशेज़ खेलने इंग्लैंड गई थी. बहरहाल वापस अपनी कहानी पर लौटते हैं. इंग्लैंड से भारत लौटने वाली स्काउट टीम को पता चला कि बंटवारे में दंगे भड़क उठे हैं. टीम में हिन्दू भी थे, मुसलमान भी. हिन्दुस्तानी और पाकिस्तानी भी. इस डर से कि कहीं शिप पर कोई झगड़ा न हो जाए. हर वक्त डेक पर किसी न किसी को तैनात रखा गया. किस्मत से सब कुछ ठीक रहा. जहाज बॉम्बे में लैंड हुआ. जिसके बाद पाकिस्तानी लड़कों को लाहौर और कराची के लिए रवाना कर दिया गया.
जसदेव सिंह का नाम आपने सुना होगा. पद्मश्री, पद्मभूषण से सम्मानित, भारत के दिग्गज कॉमेंटेटर, जो एक समय में दूरदर्शन की आवाज हुआ करते थे. वो भी इस दल का हिस्सा थे. इसके अलावा प्रसिद्द लेखक रणबीर सिंह भी इसी स्काउट टीम में थे. रणबीर बंटवारे के बाद आफताब नाम के लड़के की कहानी बताते हैं, जो स्काउट टीम का हिस्सा था. आफताब को पाकिस्तान जाना था, लेकिन उसके माता पिता अजमेर में थे. इसलिए पहले उसने उन्हें ढूढ़ने के लिए अजमेर जाने का फैसला किया. हालात खराब थे. ट्रेन में लोगों को चुन-चुन कर रोका जा रहा था. रणबीर लिखते हैं, एक हिन्दू लड़के ने आफताब को हिंदू नाम देकर अपने साथ फर्स्ट क्लास केबिन में छिपाया और उसके मां-बाप के पास पहुंचाया.
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इनके अलावा और भी कुछ चर्चित नाम हैं, जो 1947 की स्काउट गाइड टीम का हिस्सा थे. एक, कर्नल नरेंद्र कुमार का. बुल के नाम से बुलाए जाने वाले कर्नल नरेंद्र ने हिमालय और काराकोरम रेंज पर चढ़ाई की और 1984 में जब इंडियन आर्मी ने सियाचिन पर फतह पाने के लिए ऑपरेशन मेघदूत चलाया. तो उसमें अहम भूमिका निभाई. कर्नल नरेंद्र के ही एक दोस्त थे- सरफ़राज़ अहमद रफ़ीकी. वो भी स्काउट टीम का हिस्सा थे. दोनों ने साथ मिलकर फ़्रांस में झंडा फहराया था. लेकिन 1965 में ये दोनों युद्ध की जमीन पर आमने-सामने थे. कैप्टन सरफ़राज़ ने पाकिस्तानी एयर फ़ोर्स ज्वाइन की और 1965 के युद्द में वीरगति को प्राप्त हुए.
भारत-पाकिस्तान के बीच आगे भी अदावत के कई मौके आए. जिनकी कहानी हम सुनते आए हैं. लेकिन उनके बीच स्काउट गाइड टीम की ये कहानी भी है. जो दो मुल्कों के आम लोगों की बीच रिश्तों का एक नया पहलू दिखाती है.
वीडियो: तारीख : पाकिस्तानी झंडा बनाने के लिए एक भारतीय की मदद क्यों लेनी पड़ी?