युद्ध के बोझ उठाने के लिए इजरायल की कमर कितनी मजबूत है?
Israel-Iran Conflict: बड़ी सेना होने के बावजूद ईरान को इजराइल से कम बताया जा रहा है. एक्सपर्ट इजरायल का पलड़ा भारी बता रहे हैं. अपने बनने के इतने कम समय में इजरायल ने ऐसा क्या क्रांतिकारी काम किया और मौजूदा युद्ध संकट उसकी इकॉनमी का क्या हाल करेगा?
इजरायल और ईरान के बीच दुश्मनी का एक नया दौर शुरू हो चुका है. ईरान - दुनिया की सबसे प्राचीन सभ्यताओं में से एक. जबकि इजरायल को बने 80 साल भी नहीं हुए हैं. तराजू के पलड़े में रखें तो ईरान एक बड़ा देश है. आर्मी भी ज्यादा है. लेकिन फिर भी दोनों देशों की इस लड़ाई में अगर आप विशेषज्ञों को सुनेंगे तो वो इजरायल का पलड़ा भारी बताएंगे. इजरायल की असली ताकत है - अमेरिका. जिसकी ईरान से अदावत है और इजरायल का पक्का दोस्त है. अमेरिका से मिलने वाली सैन्य मदद के चलते इजरायल काफी ताकतवर है. इसमें कोई दो राय नहीं. लेकिन क्या इजरायल की ताकत के पीछे सिर्फ अमेरिका है?
आर्थिक पक्ष के आंकड़ों से देखेंगे तो ऐसा हरगिज़ नहीं दिखाई देता. प्रति व्यक्ति आय के हिसाब से इजरायल कनाडा, जर्मनी, फ्रांस से भी आगे है. भूमध्य सागर के किनारे बसा, महज 94 लाख की आबादी वाला ये देश दुनिया की टॉप 30 इकॉनमीज़ में आता है. ऐसा हालांकि हमेशा से नहीं था. सैन्य शक्ति के मामले में इजरायल हमेशा ताकतवर रहा. 1967 में सिक्स डे वॉर के दौरान इजरायल ने अरब देशों की संयुक्त सेना को हराया. वो भी तब जब अमेरिका ने युद्ध में हाथ नहीं डाले थे. लेकिन इकॉनमी के मामले में महज तीन दशक पहले तक इजरायल की स्थिति बहुत अच्छी नहीं थी. साल 1984 में इन्फ्लेशन 450% छू रहा था. ऐसा समझिए कि महंगाई प्रति वर्ष साढ़े चार गुना की रफ़्तार से बढ़ रही थी. फिर इजरायल ने ऐसा क्या किया कि आर्थिक रूप से इतना ताकतवर हो गया?
आर्थिक संकटइजरायल आज एक तेल उत्पादक देश है. लेकिन 1980 के दशक तक यहां तेल की खोज नहीं हुई थी. इजरायल के पास और कोई नेचुरल रिसोर्स भी नहीं था. इसके अलावा पड़ोसी देशों के साथ दुश्मनी के चलते बजट का बड़ा हिस्सा डिफेन्स पर खर्च करना पड़ता था. GDP का लगभग 5% हिस्सा एनर्जी इम्पोर्ट में खर्च होता था. लिहाजा अमेरिका से मिलने वाली आर्थिक मदद के बावजूद इजरायल की हालस खस्ता थी. जैसा पहले बताया, इन्फ्लेशन 450% पहुंच गया था. लोग शेकेल (इजरायल की करेंसी) की बजाय अमेरिकी डॉलर का इस्तेमाल कर रहे थे.
इजरायल की नई करेंसीसाल 1984 में इजरायली सरकार ने एक बोल्ड स्टेप लिया. उसने नई करेंसी जारी की. इसे नाम दिया गया- न्यू शेकेल. नई करेंसी में लोगों का विश्वास मजबूत करने के लिए सरकार ने एक पांच-सूत्री योजना लागू की.
1. सबसे पहले सरकारी खर्च में कटौती की गई. सरकारी नौकरियां, वेलफेयर पेमेंट्स और बड़े इंफ्रास्ट्रक्चर प्रोजेक्ट्स पर खर्च कम किया गया. इससे लोगों के पास पैसा कम हुआ, जिससे कंज्यूमर डिमांड कम हुई.
2. सरकार ने टैक्स सिस्टम में सुधार किए, इससे सरकार की आमदनी बढ़ी और फाइनेंशियल मैनेजमेंट बेहतर हुआ.
3. शेकेल की कीमत लगातार गिर रही थी. ऐसे में नई करेंसी (न्यू शेकेल) जारी कर उसे एक वैल्यू पर फिक्स कर दिया. इससे इन्फ्लेशन बढ़ने का खतरा था, लेकिन ये कदम फिर भी उठाया गया ताकि लोगों का नई करेंसी में भरोसा बने.
4. इसके अलावा एक चौथा बड़ा कदम ये उठाया गया कि बैंक ऑफ इजरायल (जैसे भारत में RBI) को सरकार से पूरी तरह स्वतंत्र कर दिया गया. इससे बैंक को इंटरेस्ट रेट्स बढ़ाने और करेंसी जारी करने की आजादी मिली, भले ही सरकार इसके खिलाफ हो.
ये कदम आसान नहीं थे. लोगों को तकलीफ हुई, लेकिन नतीजे जल्द ही दिखने लगे. धीरे-धीरे, लोग फिर से अपने देश की करेंसी का इस्तेमाल करने लगे. 1980 के दशक के अंत तक, मुद्रास्फीति काबू में आ गई थी. इजरायल की प्रति व्यक्ति GDP 9,000 डॉलर हो गई थी. ये अमेरिका के मुकाबले आधी थी, लेकिन फिर भी एक बड़ी उपलब्धि थी. इसके बाद 1980 के दशक के अंत में इजरायल के लिए एक गेम-चेंजर मोमेंट आया.
तेल का फायदा1989 के आसपास इजरायल ने समुद्र के अंदर प्राकृतिक गैस की खोज कर ली. जिसके चलते वो एनर्जी के मामले में आत्मनिर्भर बना गया. सऊदी अरब , क़तर जैसे देशों के उदाहरण से हमने देखा है कि तेल से इकॉनमी को काफी बूस्ट मिल सकता है. लेकिन ये तमाम देश अब तेल पर डिपेंडेंसी छोड़ टूरिज्म जैसे सेक्टर्स में निवेश कर रहे हैं. इजरायल ने ये काम पहले ही कर लिया था. इजरायल में कई धार्मिक स्थल थे, जो अलग-अलग धर्मों के लोगों के लिए महत्वपूर्ण थे.
लिहाजा 1990 से ही इजरायल ने टूरिज्म का महत्त्व समझते हुए इस सेक्टर में निवेश करना शुरू कर दिया था. टूरिज्म से भी इकॉनमी को बूस्ट मिला. इससे बड़ी मात्रा में देश में फॉरेन करेंसी आई. और फॉरेन रिजर्व को मजबूती मिली. पर्यटन से इजरायल की इकॉनमी को काफी मदद मिली, लेकिन इजरायल की तरक्की के पीछे असली वजह कुछ और थी.
रिसर्च और डेवलपमेंट (R&D)आज भी इजरायल अपनी GDP का 4.5% R&D पर खर्च करता है, जो कि अमेरिका जैसे देशों के मुकाबले दोगुना है. इस इन्वेस्टमेंट ने इजरायल को हाई-टेक इंडस्ट्रीज का ग्लोबल हब बना दिया. सेमीकंडक्टर्स, वेपन सिस्टम्स और डायमंड प्रोसेसिंग, ये सब इजरायल की विशेषता बन गए. इजरायल दुनिया के सबसे बड़े एडवांस्ड सेमीकंडक्टर प्रोड्यूसर्स में से एक है. इसकी मिलिट्री जरूरतों ने इसे वर्ल्ड-लीडिंग वेपन सिस्टम मैन्युफैक्चरर बना दिया.
इजरायल की राजधानी तेल अवीव के आसपास का इलाका "सिलिकॉन वैली" के नाम से मशहूर हो गया. ये नाम अमेरिका के सिलिकॉन वैली से प्रेरित था. यहां न सिर्फ लोकल कंपनियां पनपीं, बल्कि यूरोप और नॉर्थ अमेरिका की कई इंटरनेशनल कंपनियों ने भी अपने हाई-टेक मैन्युफैक्चरिंग फैसिलिटीज और रिसर्च सेंटर्स खोले.
ये सब कैसे हुआ?इसका जवाब है, एक यूनीक गवर्नमेंट प्रोग्राम. 1980 के दशक के अंत में, जब इकॉनमी स्टेबल हो गई थी, सरकार ने एक नया प्रोग्राम शुरू किया जो इनोवेशन को प्रोत्साहित करता था. सरकार ने प्राइवेट इन्वेस्टर्स को बढ़ावा दिया ताकि वे इजरायली बिजनेस में पैसा लगाएं. बदले में उन्हें टैक्स में छूट और जीरो-इंटरेस्ट लोन दिए गए. ये प्रोग्राम ताइवान की स्ट्रैटेजी से प्रेरित था, जहां सरकार ने सीधे TSMC जैसी कंपनियों में इन्वेस्ट किया था. लेकिन इजरायल ने इसे और बेहतर बनाया. क्यों?
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क्योंकि सरकारी पैसे का निजी कंपनियों में इन्वेस्टमेंट कई बार भ्रष्टाचार को बढ़ावा दे सकता है. इजरायल में भ्रष्टाचार की समस्या थी और लोगों का सरकार पर भरोसा पहले से ही कम था. इसलिए, उन्होंने एक हाइब्रिड मॉडल अपनाया. इस मॉडल में, प्राइवेट इन्वेस्टर्स को अपना पैसा इजरायली स्टार्टअप्स में लगाने के लिए प्रोत्साहित किया गया. बदले में, सरकार ने उन्हें जीरो-इंटरेस्ट लोन दिए और टैक्स में छूट दी. सबसे अच्छी बात ये थी कि चूंकि ये लोन चुकाए जाते थे, इसलिए इजरायल सरकार ने बिना कोई पैसा खर्च किए अपनी एडवांस्ड इंडस्ट्रीज को विकसित कर लिया.
सोवियत साइंटिस्ट का योगदानइस स्ट्रैटेजी का एक और बड़ा फायदा 1990 के दशक में मिला. सोवियत यूनियन के टूटने के बाद, करीब 10 लाख सोवियत साइंटिस्ट, इंजीनियर्स और डॉक्टर्स इजरायल आ गए. ये लोग अपने साथ बहुमूल्य स्किल्स और नॉलेज लेकर आए थे. इजरायल ने इस मौके का पूरा फायदा उठाया. इन हाई-स्किल्ड इमिग्रेंट्स ने इजरायल के टेक सेक्टर को नई ऊंचाइयों पर पहुंचा दिया. उनकी एक्सपर्टीज ने देश की इनोवेशन क्षमता को कई गुना बढ़ा दिया.
इजरायल की पॉपुलेशन चार्ट में इस समय एक बड़ा उछाल देखा जा सकता है, जिससे पता चलता है कि 1990 से 2000 के दशक में इजरायल की आर्थिक तरक्की का असर उनकी पॉपुलेशन ग्रोथ पर भी पड़ा.
आज, इजरायल की कंपनियां भले ही सैमसंग या एप्पल जितनी मशहूर नहीं हैं, लेकिन वे अपने-अपने क्षेत्रों में अग्रणी हैं. वे छोटी कंज्यूमर-फोकस्ड इंडस्ट्रीज में काम करती हैं, जैसे मिसाइल डिफेंस सिस्टम्स. इजरायल की कंपनियां छोटी हैं लेकिन ज्यादा संख्या में हैं, जो वास्तव में एक अच्छी बात है. इसके बरअक्स साउथ कोरिया जैसे देश हैं, जिन्होंने खूब तरक्की की है. लेकिन साउथ कोरिया की सिर्फ एक कंपनी, सैमसंग का रेवेन्यू देश की GDP का 20% है, जो इकॉनमी को एक कंपनी के प्रदर्शन पर बहुत ज्यादा निर्भर बना देता है.
युद्ध का असरआज, इजरायल की इकॉनमी दुनिया के टॉप परफॉर्मर्स में शुमार है. इजरायल की कुल GDP 488 बिलियन डॉलर (40987 अरब रुपये) है, जो उसे दुनिया की 29वीं सबसे बड़ी इकॉनमी बनाती है. ये आयरलैंड और नॉर्वे जैसे देशों के बराबर है. लेकिन असली कमाल तो प्रति व्यक्ति GDP में है. लगभग 52,000 डॉलर की प्रति व्यक्ति GDP के साथ इजरायल कनाडा, जर्मनी, जापान, यहां तक कि हांग कांग से भी आगे है. ये दुनिया का 15वां सबसे प्रोडक्टिव देश है.
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पिछले तीन दशकों में, इजरायल की इकॉनमी ने औसतन 7% की दर से ग्रोथ की है. ये दुनिया की सबसे तेज़ी से बढ़ती इकॉनमीज़ के बराबर है. सिर्फ पिछले दशक में, देश ने अपनी आउटपुट को लगभग दोगुना कर दिया है. लेकिन, हर सफलता की कहानी में चुनौतियां होती हैं. इजरायल भी इससे अछूता नहीं है.
सबसे बड़ी चुनौती है…
असमानता: जैसे-जैसे इजरायल की इकॉनमी बढ़ी है, वैसे-वैसे अमीर और गरीब के बीच की खाई भी बढ़ी है. ये लंबे समय में सोशल और इकनॉमिक स्टेबिलिटी के लिए खतरा बन सकता है.
तकनीक पर अति-निर्भरता: हालांकि टेक इंडस्ट्री ने इजरायल को समृद्धि दी है, लेकिन इस पर ज्यादा निर्भरता खतरनाक हो सकती है. अगर ग्लोबल टेक मार्केट में कोई बड़ा उतार-चढ़ाव आता है, तो इजरायल की इकॉनमी बुरी तरह प्रभावित हो सकती है.
जियोपॉलिटिकल टेंशन: ये इजरायल की इकॉनमी के लिए तीसरा और सबसे बड़ा चैलेंज है. शुरुआत में हमने आपको बताया था कि 1980 के दशक में इजरायल की इकॉनमी ढलान पर थी. तब इजरायल आर्थिक संकट के कुछ कारण थे. 1973 में योम किप्पुर युद्ध के बाद के वर्षों में इजरायल की इकॉनमी पर काफी नेगेटिव असर पड़ा.
दूसरा बड़ा कारण था 1982 में शुरू हुआ लेबनान युद्ध. इसके चलते इजरायल की इकॉनमी पर बड़ा असर पड़ा था. तो क्या वर्तमान गाजा युद्ध और इजरायल ईरान युद्ध से इजरायल की इकॉनमी एक और बार संकट में आ सकती है?
ताजा आंकड़ों के अनुसार 7 अक्टूबर, 2023 को हमास के हमले के बाद के हफ्तों में देश की जीडीपी (कुल आय) 4.1% कम हो गई. 2024 की पहली दो तिमाहियों में भी यह और गिरी. युद्ध से पहले इजरायल की अर्थव्यवस्था तेजी से बढ़ रही थी. 2021 में इसकी सालाना आय 6.8% और 2022 में 4.8% बढ़ी थी. लेकिन अब स्थिति बदल गई है. इजरायल के बैंक ने 2024 के लिए विकास का अनुमान 2.8% से घटा कर 1.5% कर दिया है.
युद्ध की वजह से इजरायल को 2025 तक करीब 67 अरब डॉलर का खर्च उठाना पड़ेगा. अमेरिका से इजरायल को 14.5 अरब डॉलर मिले हैं. इस मदद के बावजूद इतना पैसा जुटाना मुश्किल होगा. इसका मतलब है कि इजरायल को अपने खर्चों में कटौती करनी पड़ सकती है या और कर्ज लेना पड़ सकता है. युद्ध का असर इजरायल के कई क्षेत्रों पर पड़ा है. टाइम्स ऑफ़ इजरायल की एक रिपोर्ट के अनुसार अनुमान है कि 2024 में 60,000 तक इजरायली कंपनियां बंद हो सकती हैं. कई कंपनियां नए प्रोजेक्ट्स को टाल रही हैं. पर्यटन भी बुरी तरह प्रभावित हुआ है. हर दस में से एक होटल बंद होने की कगार पर है.
लड़ाई और आगे बढ़ी या ताजा संघर्ष ने व्यापक रूप लिया तो ये संकट और बढ़ सकता है. विशुद्ध इकनॉमिक नजरिए से देखें तो केवल एक स्थायी युद्धविराम ही इजरायल की इकॉनमी को दोबारा पटरी पर ला सकता है.
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