ये साली ट्रैफिक मीरा, मेरे खून के अन्दर घुस गई है ये ट्रैफिक की चैं चैं...
हमारे हिस्से की प्रेम कहानियां रचनेवाले फिल्मकार इम्तियाज़ अली की सालगिरह पर खास

"ये साली ट्रैफिक मीरा. मेरे खून के अन्दर घुस गई है इस ट्रैफिक की चैं चैं, अौर पार्किंग.. कहां पार्क करें यार कहां.. गाड़ी को जेब में लेकर घूमें क्या?"
"जय, शटअप!"
ये जय है. जयवर्धन सिंह. जय मीरा से लंदन के एक रेस्त्रां में मिल रहा है, उसे कहने के लिए कि प्रेम का यह धागा अब छोड़ना होगा. मीरा जा रही है. हिन्दुस्तान. जय को भी जाना है. अमेरिका. दोनों की दिशाएं विपरीत हैं. प्रेम का सबसे निर्णायक क्षण है ये. सबसे भावुक. तीन साल पुराना रिश्ता आज खत्म होना है. अौर क्या बोलता है आखिर जय?
बोलता है कि इस शहर में कमबख्त इंसान गाड़ी पार्क करे तो कहां? प्रेम के सबसे निजी पलों में रोज़मर्रा के जीवन के नक्कछू से दीखते सवालों ने घुसपैठ कर ली है. इम्तियाज़ यहां हिन्दी सिनेमा के grand love story idea के साथ वही करते हैं जो अनुराग कश्यप ने 'गैंग्स अॉफ वासेपुर' में grand action squence के साथ किया. वो 'कटहल चर्चा' वाला सीन याद कीजिएगा, या लूटकर भागते सरदार खान को चप्पलें उठाने के लिए वापस आते देखिए.
https://youtu.be/PSlKgGWDd4U?t=11m55sये इम्तियाज़ की सबसे प्यारी फिल्मों में से एक 'लव आजकल' का अोपनिंग सीन है. इम्तियाज़ अली ने बॉलीवुड की प्रेम कहानियों की इस भावुक दुनिया में आकर क्या बदला है, यह बताने के लिए मैं यह नितांत असंगत सा प्रसंग हमेशा उद्धृत करता हूं. हिन्दी सिनेमा का प्यार larger then life वाला प्यार है. इम्तियाज़ उसमें रोजमर्रा मिलाते हैं. हिन्दी सिनेमा का प्यार भावुक मैलोड्रामा वाला प्यार है. इम्तियाज़ उसमें साधारणता मिलाते हैं. हिन्दी सिनेमा का प्यार love at first sight वाला प्यार है. इम्तियाज़ उसमें साहचर्य मिलाते हैं.
उनकी फिल्मों में प्यार कभी निर्णायक नहीं होता, हमेशा उसमें एक संशय का भाव बना रहता है. क्लाईमैक्स में जहां संशय दूर होते हैं, वो भी अन्त का दबाव भर है. मेरा बहुत साफ़ मानना है कि अगर उनकी फिल्मों पर से एक निश्चित समयसीमा में खत्म होने का दबाव हटा लिया जाए तो उनकी कहानियों में यह संशय सदा लौटता रहेगा. क्योंकि यही संशय ज़िन्दगी का स्थायीभाव है. क्योंकि सिनेमा अौर ज़िन्दगी में यही बस एक अंतर है, कि ज़िन्दगी एक अनवरत चलती फिल्म है जिसमें the end नहीं होता. इम्तियाज़ की फिल्मों का प्रेम 'या कि' वाला प्रेम है, जिसे समझने के लिए आपको मनोहर श्याम जोशी की 'कसप' पढ़नी चाहिए.
लेकिन एक अौर बात इस संवाद में खास है, जो इम्तियाज़ की फिल्मों को समझने का सूत्र है मेरे लिए. यह प्रेम को दिक-काल से परे नहीं बनाता. उसे किसी खास फिज़िकल स्पेस में स्थापित करता है. जय के जीवन की सबसे बड़ी चिंता है इस वक्त, कि वो मीरा को कैसे बताए कि वो उसे 'छोड़ रहा' है. लेकिन वो अपने दिमाग़ से एक नितांत असंगत तथ्य, भीड़ भरे शहर की 'चैं चैं' नहीं निकाल पा रहा है. जय का प्रेम निर्वात में नहीं है. अौर ना उसके पास यह परमसिद्धि है कि वो 'प्रेम' जैसा अद्वितीय कार्य करते हुए खुद को जीवन की तुच्छ परेशानियों से ऊपर उठा ले. जैसा वो कहता है, "हम लोग रैगुलर लोग हैं यार. आम जनता. मैंगो पीपल". प्रेम की यह लौकिकता बहुत खास है.
यही लौकिकता इम्तियाज़ की प्रेम कहानियों को मेरे जैसे शहरी जीवन के अध्येता के लिए बहुत ख़ास बना देती है. यहां उनकी फिल्मों में देखी गई, सबसे चाही गई नायिका 'गीत' का जब वी मेट में एंट्री सीन याद कीजिए, जिसे मैंने अपने डाक्टरेट के शोध में उद्धृत किया है. नायिका प्लेटफॉर्म पर दौड़ते हुए छूटती ट्रेन पकड़ती है अौर दनादन बोलना शुरु करती है,
https://youtu.be/i7VGyugYCIk?t=53s"मुझे ना नॉन-एसी में चलना बैटर लगता है. मगर मेरी फैमिली है ना, कहते हैं ‘तुम लड़की हो’. जैसे मुझे ही नहीं पता कि मैं लड़की हूँ. भाई साहब, ये ए-वन है ना? अब एसी से लड़की का क्या कनेक्शन है, ये मेरे पल्ले नहीं पड़ता. अाई मीन कोई पहली बारी थोड़े अकेले ट्रैवल कर रही हूँ मैं, अौर वो भी इस ट्रेन में. ये तो समझ लो मेरा सेकेन्ड होम है जी. ये पैसेज वाली सीट्स है ना, कोई नहीं लेना चाहता. मगर मैं इनसिस्ट करती हूँ कि भइया मुझे पैसेज वाली सीट ही दो. रिसर्वेशन वाले अंकल बड़े हैरान-परेशान से हो जाते हैं. सब कहते हैं मुम्बई बड़ा क्राउडेड है. अरे, क्राउडेड है मतलब क्या, क्राउड हम जैसे लोगों से ही तो बनता है. खुद भीड़ का हिस्सा हैं अौर तक़लीफ़ भी खुद ही को है."
फिल्म की कहानी के नज़रिए से देखें तो यह एक प्रेम कहानी की शुरुआत है. आदित्य अौर गीत की प्रेम कहानी का पहला सीन, फिल्म की आधारकथा. लेकिन इस सीन की सामाजिकता कमाल की है. भारतीय रेल का सेकंड क्लास का ये डिब्बा यहां भारतीय मिडिल क्लास का प्रतीक बन जाता है, अौर उसमें नई शामिल हुई साइड बर्थ उस उत्साही युवा पीढ़ी का जो इस मध्यवर्ग की यथास्थितिवादी जकड़बन्दी तोड़कर निकल जाना चाहती है.
युवा पीढ़ी जो भेद नहीं करती.युवा पीढ़ी जो गाढ़ा प्रेम करती है. इम्तियाज़ अली की चुहलभरी गीत हमें बताती है कि प्रेम कितना भी निर्लिप्त भाव लगता हो इस सिनेमाई दुनिया में, प्रेम अन्तत: एक सामाजिक कार्यवाही है. यहीं से 'हाइवे' जैसी फिल्म जन्म लेती है.
यही लौकिकता इम्तियाज़ की फिल्मों में हमारी आधुनिक शहरी सभ्यता की सबसे आमफ़हम, लेकिन तीखी आलोचनाएं रचती है. क्योंकि जो भीतर गहरे डूबता है वही पार की सच्चाई अौर उसका छल समझता है. उनकी सबसे कोसी गई, अौर सबसे चाही गई फिल्म 'रॉकस्टार' में जनार्दन जाखड़ 'साड्डा हक' गीत के मध्य में बोलता है,
https://youtu.be/p9DQINKZxWE?t=3m53s"पता है, बहुत साल पहले यहां एक जंगल होता था. घना, भयानक जंगल. फिर यहां एक शहर बन गया. साफ़-सुधरे मकान, सीधे रास्ते. सबकुछ तरीके से होने लगा. पर जिस दिन जंगल कटा, उस दिन परिन्दों का एक झुंड यहां से हमेशा के लिए उड़ गया. कभी नहीं लौटा. मैं उन परिन्दों को ढूंढ रहा हूँ. किसी ने देखा है उन्हें? देखा है?"
इम्तियाज़ यह सीन देश की राजधानी के हृदयस्थल पर फिल्माते हैं. कनॉट प्लेस. सेंट्रल पार्क. ठीक उसी जगह जहां एक सदी पहले सच में कीकर के पेड़ों का जंगल था. फिर सात समन्दर पार से एक बादशाह आया. उसने आदेश लिखा की एक नई राजधानी रची जाएगी. गुलामों के माथे पर लाल पत्थर का ताबीज़. 'नई दिल्ली'. 'लुटियंस दिल्ली'. लेकिन जब आका आयेंगे तो सिर्फ़ शासन थोड़े ना करेंगे. आदेश हुआ कि उनके लिए ऐशगाहें तैयार हों.
तीस के दशक में 'नई दिल्ली योजना समिति' के सदस्य जॉन निकोल्स के प्रस्ताव पर सर्पिलाकार शॉपिंग प्लाज़ा रचा गया. नाम तय हुआ कनॉट प्लेस. परिंदे हमेशा के लिए उड़ गए. जंगल हमेशा के लिए उजड़ गया.
हमारे घर के बैठकखाने में ठीक उसी जगह की एक तस्वीर लगी है. ठीक सौ साल पुरानी तस्वीर. जंगल उजड़ जाने के बाद की. शहर के आकार लेने से पहले की. बस, बियाबान. मैं उसे इसीलिए सजाकर रखता हूं कि इस स्थायी दिखते जीवन की साधारणता मुझे हमेशा याद रहे. कि इस साधारणता के पीछे की अद्वितीयता मुझे हमेशा याद रहे.
इम्तियाज़ की फिल्में भी उसी तस्वीर की तरह हैं. रोज़मर्रा के प्रेम की अद्वितीयता बतानेवाली. क्षणभंगुर के भीतर की खूबसूरती को चिह्नित करनेवाली.