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'दालें सूखी हैं, पर भीतर अनंत मायावी स्वाद रस छिपाए हैं'

दालें हमारी भोजन की थाली की राहुल द्रविड़ हैं. टिककर खड़ी होती हैं, सीधे बल्ले से खेलती हैं, कभी धोखा नहीं देतीं.

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लल्लनटॉप
22 मई 2020 (Updated: 22 मई 2020, 09:35 AM IST) कॉमेंट्स
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Mihir Pandyaमिहिर पंड्या. डीयू के मास्टर साब. एमफिल, पीएचडी सिनेमा पर. एक किताब भी भी है इनके नाम. शहर और सिनेमा वाया दिल्ली. 'दी लल्लनटॉप' के साथी मिहिर ने लॉकडाउन और दाल को लेकर कुछ लिखा है. उनकी इज़ाज़त से हम आपको पढ़वा रहे हैं. मिहिर से miyaamihir@gmail.com पर संपर्क किया सकता है.
इन दिनों मेरा जीवन पूरा दालमय हो गया है. सपने में सीटियां बजती हैं, जैसे पायल की झंकार. भिन्न प्रकार की सब्ज़ियां बनाते हुए भी मैं उसमें से कभी दो छोटे बैंगन, कभी टुकड़ा भर घीया बचा लेता हूं जिससे अगली बार दाल को कुछ और मनोरंजक बनाया जा सके. सांभर मसाला या छोले मसाला इसमें अविस्मरणीय सहयोगी कलाकारों की तरह आते रहे हैं. घर में टमाटर खतम होते देख मेरा दिल धड़कता है. वैसे शुद्ध सात्विक हल्दी-नमक के साथ घी में हींग-ज़ीरे के छौंक वाली धुली उड़द या काले मसूर की बात ही और है. कूकर में दाल बनाना सुबह-सुबह कुमार गंधर्व को गाते हुए सुनने या ऑस्ट्रेलिया में शुरू हुआ टेस्ट मैच तड़के पांच बजे उठकर देखने सरीखा अनुभव है. शास्त्रीय. इस कोरोना काल में जब ताज़ा सब्ज़ियां लाना भी जीवन-मरण का संघर्ष बन गया हो, दाल ने इस रेगिस्तानी प्रदेश के बाशिंदे को बचाया. वो घर की याद दिलाती है. इस पथरीले समय में दाल मुझे सुरक्षा देती है. विश्वास करेंगे, लॉकडाउन के बाद मैं पहली बार घर से बाहर चने की दाल खरीदने ही निकला था. सुबह सवेरे बनाई इन्हीं सुनहरी दालों ने कभी दोपहर में परांठे के लिए आटे में गुंथकर, कभी शामों को चमकीले चावल के साथ घुल-मिलकर हमारे दिनों को गुलज़ार किया है. कहते हैं भारतीय उपमहाद्वीप पर इंसानी सभ्यता की शुरुआत कोई आठ-नौ हज़ार साल पहले सिंधु से आगे कहीं किसी दाल के बीज को कोठार में संजोकर ही हुई थी. पता नहीं कितना सच है, पर मैं विश्वास करता हूं. मैं उनके प्रेम में हूं. दालें हमारी भोजन की थाली की राहुल द्रविड़ हैं. टिककर खड़ी होती हैं, सीधे बल्ले से खेलती हैं, कभी धोखा नहीं देतीं. सचिन से सहवाग तक, चमकदार और भड़काऊ पोशाकों के पीछे की मज़बूत पर अदृश्य रीढ़ की हड्डी. पारदर्शी. उन्हें किसी लम्बे अकेले सफ़र पर साथ पोटली में बांधा जा सकता है. वे बचे रहने के लिए फ्रिज़ की कृत्रिम सुरक्षा की मांग नहीं करतीं. उनसे नमकीन बनती है. वे रायते में तड़के सी लग जाती हैं. कभी चावल, कभी गेंहू-बाजरे के साथ एकाकार हो सबसे क्लासिक खिचड़ी और दलिया बनाती हैं. दालें सूखी हैं, पर भीतर अनंत मायावी स्वाद रस छिपाए हैं. सुबह उठते ही मुझे दातुन से पहले दाल भिगो देने का ख्याल आता है और मन ऐसा मचलता है कि नहाने से पहले मैं कूकर चढ़ा देने से खुद को रोक नहीं पाता. और शामों को तो कई बार मैं चाय बनाने रसोई में घुसता हूँ और कुछ देर बाद अपने को कटोरी में मूंग नापकर उसे पानी में भिगोता हुआ पाता हूं. आज तो ट्विटर पर किसी ने पूछा तो मैंने रुई जैसे दिख रहे चार बिल्ली के बच्चों के नाम भी रख दिए... मूंग, उड़द, अरहर और मसूर.
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