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मास्टर तारा सिंह, महात्मा गांधी जिनकी इज्ज़त करते थे और जिन्ना जिनसे डरते थे

आज उनकी बरसी है.

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22 नवंबर 2017 (Updated: 21 नवंबर 2017, 05:29 AM IST) कॉमेंट्स
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लाहौर का भारतीय राजनीति में बड़ा ही जबर्दस्त स्थान रहा है. आजादी की लड़ाई में बात-बात में मुद्दे उछलते वहां से. और पूरे देश में लपक लिये जाते. तभी असगर वजाहत ने लिखा है कि जिन लाहौर नहीं वेख्या ,ओ जनम्याई नई. मास्टर तारा सिंह भी लाहौर से ही थे. 1947 में जब देश टूट रहा था तो सिर्फ दो देश ही नहीं बनने थे. डर था कि कई देश बन जायेंगे. धर्म के नाम पर बंटवारा हो रहा था. कई धर्म थे. सिख धर्म के लोग भी अपने धर्म को लेकर सशंकित थे. पर मास्टर तारा सिंह थे, जिन्होंने हर डर को दूर किया.

पटवारी का लड़का, मास्टर बना और फिर सिखों का सबसे बड़ा नेता बन गया

1885 में एक हिंदू परिवार में जन्मे. बचपन का नाम था नानक चंद. पिताजी पटवारी थे. गांव से प्राइमरी पढ़कर रावलपिंडी चले गये नानक चंद. वहां सिख धर्म ने उन पर जादू कर दिया. 1902 में बाबा अत्तर सिंह के संसर्ग में नानक चंद ने सिख धर्म अपना लिया. नाम हो गया तारा सिंह. स्कूल-कॉलेज के दिन से ही हड़ताल-आंदोलन में सक्रिय रहने लगे थे तारा सिंह. हर मौके पर अपनी बात कहने निकल पड़ते. पर शुरूआत में तारा सिंह ब्रिटिश सरकार के खिलाफ नहीं जाना चाहते थे. ये तो गजब हुआ कि बाद में इन्हीं तारा सिंह ने सब कुछ बदल दिया. जब ये टीचर बने और किसानों को समझने लगे. फिर अपने गांव में ही हेडमास्टर बनकर लौटे. और मास्टर तारा सिंह कहलाने लगे. जब गुरुद्वारा रिफॉर्म मूवमेंट शुरू हुआ तब तारा सिंह की असली राजनीति शुरू हो गई.
1921 में जब ननकाना साहिब में अधिकारों को लेकर महंतों से जंग हुई तब बहुत सारे निहत्थे सिख मारे गये. तब तारा सिंह ने प्रण लिया कि अब सारी जिंदगी सिख समुदाय के लिये समर्पित रहेगी. गोल्डेन टेंपल पर सिख अधिकार के मुद्दे को लेकर तारा सिंह ब्रिटिश सरकार के खिलाफ अड़ गये. अकालियों ने महंतों के अधिकारों को मानने से इंकार कर दिया. ब्रिटिश सरकार को झुकना पड़ा. तारा सिंह की जीत हुई. महात्मा गांधी ने इसी के बारे में तारा सिंह को टेलीग्राम किया कि भारतीय स्वतंत्रता संग्राम की पहली जीत हुई.
1922 में तारा सिंह को गिरफ्तार भी किया गया. आरोप था कि जरूरत से ज्यादा बड़ी तलवार लेकर घूम रहे हैं. पर इस तलवार की धार देखी गई 1923 में. जब अकालियों के सपोर्टर नाभा के महाराजा को ब्रिटिश शासन ने सिंहासन से हटाया, तब तारा सिंह ही शहीदी जत्था लेकर गये भिड़ने. 40 लोग मारे गये. पर तारा सिंह गांव के पटवारी के लड़के से देश में सिखों के नेता बन चुके थे. 1925 में तारा सिंह की मांगें मान ली गईं. पर देश में माहौल कुछ और ही बन गया था. धर्म के आधार पर चीजें बंटने लगी थीं. मुस्लिम लीग और हिंदू महासभा जोर-शोर से काम कर रहे थे बांटने का. तब तारा सिंह ने भी कहा था कि कांग्रेस मुसलमानों को खुश करने के लिये सिखों को इग्नोर कर रही है. बाद में मुस्लिम लीग ने यही राग अपना लिया था. पर इनके इरादे कुछ और थे. तारा सिंह ने गांधी के दांडी मार्च और सविनय अवज्ञा आंदोलन में पूरा साथ दिया. अपना जत्था लेकर पहुंच जाते थे. फिर इन्होंने वो काम किया जो मुस्लिम लीग ने कभी सोचा भी नहीं. जब 1930 में अंग्रेजों ने धर्म के आधार पर चुनाव करवाने की कोशिश की तब तारा सिंह ने इसका विरोध किया. जबकि इनको इससे फायदा हो सकता था. और यहीं पर तारा सिंह के लोगों ने ही इन पर आरोप लगाने शुरू किये कि आप सिखों के बारे में सोच ही नहीं रहे हैं. तारा सिंह नाराज होकर बर्मा चले गये. पर लाहौर का बंदा कितने दिन नाराज रह सकता था. 1935 में अपने एक साथी नेता की मौत की खबर सुनकर वापस आ गये. नेतागिरी अभी छूटी नहीं थी. बस ब्रेक लिया था. लाहौर ने भी तारा सिंह को भुलाया नहीं था.

आजादी के वक्त मास्टर तारा सिंह भांप गये थे जिन्ना की बातें

द्वितीय विश्व-युद्ध के बाद शिमला में हो रहे कांफ्रेंस में मास्टर तारा सिंह भी मौजूद थे. लॉर्ड वेवेल देश पर विचार कर रहे थे. इतना कचरा फैल गया था कि कुछ भी होने का डर था. लिहाजा हर धर्म के नेताओं को बुलाकर बात की जा रही थी. 21 लोग पहुंचे थे. मास्टर तारा सिंह ने बहुत ही साफ शब्दों में कहा कि पंजाब में सिख फैले हुये हैं. कोई क्लियर कट गांव नहीं है सिखों का. कोई अलगाव वाली बात नहीं है. अगर पाकिस्तान बना तो देश के लिये अच्छा नहीं होगा. अपने बाकी सिख नेताओं के साथ मिलकर तारा सिंह मुहम्मद अली जिन्ना से भी मिलने गये थे. माना जाता था कि जिन्ना को सिख समुदाय पसंद नहीं था. पर जिन्ना को ये भी पता था कि सिख अगर पाकिस्तान के विरोध में होंगे तो देश बांटना मुश्किल हो जायेगा. तो उन्होंने तारा सिंह को समझाने की कोशिश की. कहने लगे कि आप लोग कांग्रेस की तलबदारी कर रहे हो. कब तक उनके अंडर में रहोगे. पाकिस्तान बनेगा और आप लोगों को एक ऑटोनोमस एरिया दिया जायेगा. सिर्फ सिख रहेंगे वहां. ये भी कहा गया कि ये मौका है दुनिया की राजनीति में अपना नाम बनाने का. क्योंकि पाकिस्तान में जो पॉलिटिकल पोजीशन होगी, उसके आधार पर लोग नोटिस करेंगे सिखों को.
इस बाबत 1946 में एक और मीटिंग हुई तारा सिंह और जिन्ना के बीच. इसमें कई राजा-रजवाड़े भी शामिल थे. जिन्ना का सीधा यही मतलब था कि किसी तरह से सिख तैयार हो जायें तो पाकिस्तान बन जाये. इतने ज्यादा वादे कर दिये सिखों के साथ कि बस आंसू गिरना ही बाकी था. लग रहा था कि जिन्ना सिर्फ प्रधानमंत्री बनेंगे और सब कुछ सिखों को दे दिया जायेगा. मतलब ड्रामे का भी लिमिट होता है.
पर जिन्ना ये नहीं बता रहे थे कि पार्लियामेंट होगी, कैबिनेट होगी, उसमें सिखों की क्या स्थिति होगी. बस कह रहे थे कि सब हो जायेगा. राइटिंग में कुछ नहीं दे रहे थे. कह रहे थे कि दोस्त, पाकिस्तान में मेरे शब्द अल्लाह के शब्द होंगे. कोई भी इसको काट नहीं सकता. आप निश्चिंत रहिये. पर कोई भी अगर थोड़ा-बहुत भी इतिहास पढ़ा होगा तो शब्दों की कीमत जानता होगा. पूरी राजनीति ही मूर्ख बनाने पर टिकी हुई है. हुआ वही. तब तक बंगाल में दंगे हो चुके थे. जिन्ना ने कह दिया कि मुसलमान अहिंसा को नहीं मानते. हजारों लोग रोज मरने लगे. लाहौर में भी दंगे हुये. सिखों को छोड़ कर भागना पड़ा. सारी जमीन-जायदाद, यादें सब छोड़कर. तारा सिंह ने कभी भी जिन्ना की बात का समर्थन नहीं किया था. और ये दूरदर्शिता ही थी कि किसी झांसे में नहीं आये. आजादी के बाद मास्टर तारा सिंह ने पंजाब को एक अलग राज्य बनाने की मांग कर दी. भारत की विविधता में ये चीज अनोखी है. लोग डर रहे थे कि भाषा के आधार पर बनने वाला राज्य कैसे टिकेगा. देश कैसे टिकेगा. पर जब बात आइडेंटिटी और पुराने वादों की होती है तो सत्ता शेयर करनी ही पड़ती है. नहीं तो हमेशा डर बना रहता है कि कुछ ऐसा हो जाएगा कि दूसरे के भरोसे जीना पड़ेगा. बहुत पहले से ये वादा किया गया था कि पंजाब एक राज्य बनेगा. 1966 में पंजाब एक अलग राज्य बन गया. तारा सिंह की इच्छा भी पूरी हो गई. अकाली दल की राजनीति में तारा सिंह 22 नवंबर 1967 को अपनी मौत तक रहे. इनके मरने के अगले दिन ही अकाली दल ने पंजाब में अपनी पहली सरकार बनाई.

ये स्टोरी 'दी लल्लनटॉप' के लिए ऋषभ ने की थी.


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