कबीर को कबीर बनाने में थोड़ा हाथ शायद उस करघे का भी है
बुनकरों की बस्ती में जाने पर ऐसा ही लगता है.
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पोथी पढ़ि पढ़ि जग मुआ, पंडित भया न कोय,
ढाई आखर प्रेम का, पढ़े सो पंडित होय
कला बहुत बहरूपिया नाम है. कई चेहरे, कई नाम. कोई तस्वीरें बनाता है. कोई तस्वीरें खींचता है. कोई मिट्टी को शक्ल देता है. कोई लकड़ी के साथ कलाकारी दिखाता है. किसी के लिए दूर आसमान में पतंग उड़ाना आर्ट है. किसी के लिए खूबसूरत पतंग बनाना आर्ट है. मेकअप करना भी एक आर्ट है. सुंदर अक्षर लिखना भी आर्ट है. कपड़े की थान से तरह-तरह की चीजें बना देना भी कला है. खाना पकाना भी कला है. अच्छा, खाना परोसना भी एक अलग कला है. चम्मच-कांटे से खाना खाना भी एक किस्म की कला है. हाथ से, अपनी उंगलियों का इस्तेमाल कर खाना भी एक तरह की कला है. कला के सैकड़ों नाम हैं. सैकड़ों चेहरे हैं. उनमें सैकड़ों की फेहरिस्त में एक नाम बुनकरी का भी है. धागों की कला. धागों को रंगों में भिगोकर उनसे एक से एक कपड़े बना देना. कपड़ों के ऊपर एक से एक डिजाइन उकेर देना. बहुत महीन, बहुत बारीक काम है बुनकरी. एकदम तसल्ली से किया जाता है. इतनी तसल्ली से कि बुनने वाले की सांस की रफ्तार भी एक सी रहती है. ऊपर-नीचे नहीं होती. शायद इसीलिए बुनकरी एक किस्म का मेडिटेशन है. जो बुनता है, उसे फोकस और सुकून दोनों मिलता है. जो कर रहा है, उस पर फोकस है. जो कर रहा है, उससे राहत है.
बुनकर ने हिदायत दी थी. करघे की फोटो भले ले लो, मेरी फोटो मत लेना. फोटो भी बिना फ्लैश चमकाए. उन्हें कुछ भी ऐसा नहीं चाहिए होता, जिससे ध्यान बंटे.
कबीर: भारत के सबसे मशहूर बुनकर कबीर. भारत का सबसे मशहूर बुनकर. सबसे नामी जुलाहा. पैदाइश की कई कहानियां हैं उनकी. यहां पैदा हुए, वहां पैदा हुए. इस साल पैदा हुए, उस साल पैदा हुए. फलां के पेट से पैदा हुए, फलां के यहां पले. ये जाति थी, वो धर्म था. बड़े किस्से हैं इन सब बातों के. अलग-अलग. मगर एक बात पक्की है. वो है, कबीर का पेशा. कबीर जुलाहे थे, इस पर कोई लफड़ा नहीं है. आपने कभी किसी जुलाहे को बुनकरी करते देखा है? अच्छा, कभी किसी बगुले को पानी में एक पैर पर खड़े होकर मछली का इंतजार करते देखा है? दोनों एक जैसे लगते हैं. फोकस्ड. जैसे महाभारत की कहानी में द्रोणाचार्य सिखाते हैं. पूरा ध्यान निशाने पर. वैसे ही.

हर डिजाइन का एक गणित होता है. कितनी बार करघा आगे-पीछे जाएगा. हाथ कहां होंगे. जैसे सुबह के बाद शाम आती है और रात के बाद सुबह, वैसे ही करघे की हर गति तय होती है. और देखिए, मैंने बुनने वाले का चेहरा कैद नहीं किया. उनके अनुरोध पर.
क्या करघे पर कुछ बुनते हुए पहली बार कबीर ने ध्यान लगाया होगा! जुलाहा कई सारे डिजाइन जानता है. उसका हाथ करघे पर कब कितने पीछे तक जाएगा, कितना आगे जाएगा, कितनी तेजी से आएगा, ये सब तय होता है. सांसों की लय भी तय होती है. कितनी जोर से सांस लेना है, कितने अंतराल पर लेना है, ये सब फिक्स होता है. देखो तो करघे पर बैठा बुनकर ध्यान पर बैठा होता है. कबीर जाने किस उम्र से बुनकरी करने लगे होंगे. वो दौर स्कूल-कॉलेज जाने का तो था नहीं. गरीब तो वैसे भी नहीं जाता होगा. सीधे धंधे पर लग जाता होगा. अनपढ़ कबीर भी शायद बहुत छुटपन से ही बुनकरी करने लगे होंगे. शायद गर्म घी जैसे खौलते और गुलाबजल की तरह ठंडे दोहे-भजन कहने से कहीं पहले से. तो क्या कबीर ने पहली बार उसी करघे पर ध्यान लगाया होगा? कुछ बुनते हुए? खुली आंखों से?

माहौल के बिखरेपन पर मत जाइए. यहां बस इन सब चीजों में ही बिखराव है. बाकी जो काम होता है यहां, वो बहुत अनुशासित है.
कबीर का बनारस अभी बनारस से लौटी हूं. वहां कबीर पर एक प्रोग्राम था. महिंद्रा ने करवाया था. कबीर महोत्सव. मैराथननुमा प्रोग्राम. एक के बाद एक कई सारे सेशन थे. किसी में हंसी थी, किसी में भक्ति थी. कहीं इतिहास था. कहीं संगीत था. कहीं घुमक्कड़ी थी. सब के सब कबीर से जुड़े थे. हो सकता है कि आप सैकड़ों बार बनारस की उन गलियों से गुजरे हों. कई बार उन जगहों को देखा हो. मगर जब कोई कह दे कि अरे, इसी घाट पर कभी कबीर नहाते थे, तो अजीब सी झुरझुरी होती है. लगता है, हां. गंगा तो तब भी बहती थीं यहां. अब भी बहती हैं. ये घाट भी न जाने कब से हैं. शहर का रूप-रंग और नक्शा थोड़ा बदल गया है. मगर कई सारी चीजें तो अब भी पहले जैसी हैं. तो क्या अभी जिस जगह पर मैंने पांव रखा, वहां पर कभी कबीर भी चले होंगे?

कबीर का बनारस. बनारस के जुलाहे. जुलाहों की गलियां.
वो दोहे और भजन भी तो शायद कबीर ने करघे पर ही बुने होंगे तो ऐसा ही हुआ इस सफर में. दरभंगा घाट के पीछे से निकलकर मदनपुरा में टहल रहे थे. दुपहरिया थी. आसमान में सूरज एकदम सिर की सीध में था. नवंबर का पहला पखवाड़ा भले बीतने वाला हो, मगर सिर से पसीना बराबर निकल रहा था. घाट पर गर्मी लग रही थी. धूप नश्तर की तरह चुभ रही थी. तय हुआ कि जुलाहों की बस्ती में चला जाए. उन्हें देखे बिना कबीर को क्या खाक महसूस करेंगे? तो घुस गए गलियों में. एकाएक जैसे ठंड पड़ गई. उन गलियों में गए हों, तो जानते होंगे. इतनी संकरी हैं कि जेठ की दोपहरी में भी ठंडी रहती हैं. धूप और लू के कतरे उन गलियों में नहीं बरस पाते. ये गलियां इधर-उधर से घुमाकर आपको बुनकरों के घरों तक ले जाती हैं. वैसे ही बुनकर, जैसे कबीर थे. कबीर का बनाया कोई कपड़ा नहीं है हमारे पास. मगर करघे पर बैठकर काम करते वक्त जो दोहे और भजन कहे उन्होंने, वो अब भी मौजूद हैं. ये भी तो उनकी बुनकरी का ही नमूना हुआ फिर.

करघा. कच्चे-पक्के से इन छोटे-छोटे कमरों में धागों से बहुत गजब की कलाकारी होती है. एक से एक खूबसूरत डिजाइन तैयार किए जाते हैं. बुनकरी की विलुप्त हो चुकी पुरानी तकनीकों को फिर से जिंदा करने की भी कोशिश हो रही है इन कमरों में.
कबीर को कबीर बनाने में थोड़ा हाथ शायद उस करघे का भी है मैंने करघे को पहले भी देखा है. मैं जानती हूं उसका विस्तार. मुझे पता था कि करघा कैसे चलता है. कैसे बुनता है. मगर ये पहली बार था, जब मैंने करघे को चलाने वाले उन हाथों के अनुशासन पर गौर किया. ये पहली बार था जब मेरे दिमाग में ये ख्याल आया कि शांत कमरे में एकांत खोजकर ध्यान लगाने वाले भी शायद इसी तसल्ली की आस करते होंगे. ऐसा ही फोकस चाहते होंगे. दिमाग भटके न. इधर-उधर चहलकदमी न करे. जो कर रहा है, उस पर ही ध्यान हो. और तब मुझे ख्याल आया. कि कबीर के दर्शन की शुरुआत में थोड़ा हाथ इस करघे का भी रहा होगा. लगा कि कबीर जो कर पाए, उसमें उनकी बुनकरी भी काम आई होगी. ये बुनकरी ही थी शायद, जो कबीर को इतना सोचने-विचारने का मौका देती होगी. उंगलियां अपना काम करती होंगी और मन अपना. जो सोचता होगा, उसमें रम जाता होगा. शायद ये करघे की सहूलियत ही थी कि कबीर अपने मन का काम करते हुए अपने मन का सोच और कर पाए. शायद इस करघे की ही सहूलियत थी कि कबीर इतने क्रांतिकारी हो पाए.

महिंद्रा कबीर महोत्सव का एक वेन्यू. दशाश्वमेध घाट के बिल्कुल पास में, करीब एक-दो घाट की दूरी पर है दरभंगा घाट. ये महल भी दरभंगा महाराज ने बनवाया था. अब ये बिक चुका है और इसका नया नाम है बृज रमा पैलेस. नया मालिक, नया नाम.
बुनकरों के मुहल्ले में अब भी कबीर की झलक बची है फिर मैं इंटरनेट पर गई. जो तलाश किया, वो हाथ भी आया. पता है, दुनिया में बहुतेरे लोग ध्यान लगाने के लिए आसनी बिछाकर, धूप-बत्ती जलाकर नहीं किसी अकेले कोने में नहीं बैठते. न ही हिमालय की गोद तलाशते हैं. ध्यान लगाने का उनकी तरीका वो ही होता है. जैसा शायद कबीर का था. करघा. बुनकरी. कई लोगों ने महसूस किया है. कि वैसे ध्यान लगाओ, तो कई बार बड़ी मुश्किल से मन रमता है. उसे पकड़ने और एकाग्र करने में मुश्किल होती है. मगर जब करघे पर बैठो, बुनकरी करो, तो मन पालथी मारकर जम जाता है जैसे. ध्यान कर पाना बड़ा आसान हो जाता है. ऐसा नहीं कि हर जुलाहा कबीर हो गया हो. ऐसा होता, तो हमारे बीते हुए कल और आज में कई कबीर होते. हर जुलाहा कबीर भले न बन पाया हो, मगर ध्यानी तो वो है ही. आप इसको मेरी अति-भावुकता कहिए या कुछ और, मगर सच ये ही है कि बुनकरों के उस मुहल्ले ने मुझे कबीर की एक झलक दिखाई. कुछ जाहिर, कुछ निहार. उतनी सटीक नहीं, मगर बहुत आस-पास. ये मेरे हिस्सा का अनुभव है. कि कबीर को कबीर बनाने में थोड़ा हाथ उनके पेशे का भी था.
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