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इज़रायल-फ़िलिस्तीन विवाद पर मंडेला, गांधी और आंइस्टाइन ने क्या कहा था?

महात्मा गांधी ने कहा था कि अरब लोगों की क़ीमत पर यहूदियों को फ़िलिस्तीन में बसाना, उसे उनका राष्ट्र बनाना -- ये मानवता के ख़िलाफ़ एक अपराध होगा.

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Mandela, Gandhi and Einstein.
मंडेला, गांधी और आइंस्टीन (फ़ोटो - विकीमीडिया/ब्रिटैनिका)
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सोम शेखर
22 अक्तूबर 2023 (Updated: 22 अक्तूबर 2023, 08:33 PM IST)
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इज़रायली सेना और हमास के लड़ाकों के बीच चल रही जंग (Israel-Gaza War) पर पूरी दुनिया बंट गई है. एक तरफ़ इज़रायल है, अमेरिका है, कुछ यूरोपीय देश हैं. दूसरी तरफ़ फ़िलिस्तीन है, ईरान है और अरब देश हैं. कूटनीति बराबर चल रही है, लेकिन ये तो आज का हाल है. इतिहास क्या कहता है? इतिहास के नेता क्या कहते हैं? देश-दुनिया में जिन नेताओं को ‘ग्रेट्स’ की श्रेणी में रखकर पढ़ाया जाता है, उनका इज़रायल-फ़िलिस्तीन विवाद पर क्या मत था?

हो ची मिन्ह और नेल्सन मंडेला

जिन देशों में भी औपनिवेशिक ताक़तों के ख़िलाफ़ आज़ादी संघर्ष हुए, वहां के नेताओं ने ‘फ़िलिस्तीनी कॉज़’ का खुल कर समर्थन किया है. वियतनाम जंग की ऐतिहासिक जीत के नायक हो ची मिन्ह ने कहा था,

"अमेरिकी साम्राज्यवाद के बूते इज़रायल जो आक्रमण कर रहा है, इससे मध्य पूर्व में तनाव तारी हो गया है. ये आक्रमण अरब राज्यों की संप्रभुता का उल्लंघन हैं और दुनिया में शांति और सुरक्षा के लिए एक गंभीर ख़तरा हैं."

वैसे ही, 1999 में दक्षिण अफ़्रीका में रंगभेद-विरोधी संघर्ष के नायक नेल्सन मंडेला ने तो यहां तक कहा था - "..फ़िलिस्तीनियों की आज़ादी के बिना हमारी आज़ादी अधूरी है."

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जब देश-विदेश के नेता फ़िलिस्तीन मुक्ति संगठन (PLO) को एक आतंकवादी संगठन कहते थे, तब एक बार अमेरिका के दौरे पर मंडेला से भी PLO के बारे में पूछा गया था. बिना किसी हिचकिचाहट के उन्होंने कहा कि वे PLO के प्रयासों से प्रभावित हैं क्योंकि वो भी ‘आत्मनिर्णय के हक़ के लिए लड़ता है'.

मार्टिन लूथर किंग

आमफ़हमी है कि मार्टिन लूथर किंग इज़रायल के प्रबल समर्थक थे. कुछ इसके लिए उनके एक पत्र का हवाला देते हैं, जो उन्होंने कथित तौर पर एक ‘यहूदी-विरोधी मित्र’ को लिखा था. क्या लिखा था? मित्र ने यहूदी चरमपंथ की आलोचना की, तो किंग ने लिखा,

"जब लोग यहूदीवाद की आलोचना करते हैं, तो वो असल में यहूदियों की आलोचना कर रहे होते हैं. यहूदियों के प्रति घृणा, मानव जाति की आत्मा पर एक धब्बा रहा है और रहेगा."

हालांकि, इस पत्र की प्रमाणिकता संदिग्ध है, क्योंकि कोई भी आधिकारिक रिकॉर्ड इसकी पुष्टि नहीं करता. स्टैनफ़ोर्ड यूनिवर्सिटी के प्रोफ़ेसर डेविड पालुम्बो-लियू ने जैकोबिन पत्रिका में लिखा कि मध्य-पूर्व पर किंग के रुख को उनके 1967 में दिए गए भाषण से समझा जा सकता है. मार्टिन लूथर किंग ने इज़रायल राज्य के अधिकार को स्वीकार किया था. उन्होंने क्षेत्र में आर्थिक और सामाजिक विकास पर ज़ोर दिया था.

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फ़िलिस्तीन और उनके अधिकार पर किंग की क्या राय थी – इसका साफ़ विवरण नहीं मिलता. स्टैनफ़ोर्ड यूनिवर्सिटी के 'किंग इंस्टीट्यूट' के मुताबिक़, किंग ने हमेशा ही दक्षिण अफ्रीका में रंगभेद के ख़िलाफ़ संघर्ष और अन्य जगहों पर सरकारों के ख़िलाफ़ संघर्ष के बीच समानताएं बताई थीं. कहते थे,

"उपनिवेशवाद और अलगाव लगभग पर्यायवाची हैं क्योंकि उनका लक्ष्य एक है. आर्थिक शोषण, राजनीतिक प्रभुत्व और मानव व्यक्तित्व का ह्रास."

अल्बर्ट आइंस्टाइन

विश्व-विख्यात साइंटिस्ट अल्बर्ट आइंस्टीन यहूदी थे. जर्मन भी थे. हिटलर के उदय के साथ उन्होंने जर्मनी छोड़ दिया. उस वक़्त के बहुत सारे सम्पन्न यहूदियों के जैसे ही पलायन कर लिया. 1940 में अमेरिका की नागरिकता ले ली. तब यहूदी आंदोलन अपने चरम पर था. शुरू में तो आइंस्टाइन को यहूदीवाद जमता नहीं था, फिर बाद में वो इस विवादास्पद विचारधारा से जुड़ गए. आज उन्हें यहूदी राष्ट्रवाद और यहूदी मातृभूमि के एक मुखर वकील के तौर पर देखा जाता है. उन्होंने यहूदियों के उत्पीड़न और ज़मीन की ज़रूरत पर ढेरों लेख भी लिखे थे. जवाहरलाल नेहरू को भेजे एक पत्र (13 जून, 1947) में उन्होंने ज़मीन पर दावे के बारे में लिखा,

"हिटलर से बहुत पहले ही मैं यहूदीवाद से जुड़ गया था, क्योंकि इसके ज़रिए एक ऐतिहासिक ग़लती को सुधारा जा सकता है. सदियों से यहूदियों का दमन होता आया है. सदियों से पीड़ित रहे हैं. यहूदीवाद ने इस भेदभाव को ख़त्म करने का तरीक़ा बताया है -- उस ज़मीन की तरफ़ लौटना, जहां हमारे मज़बूत ऐतिहासिक संबंध रहे हैं. लाखों यहूदी मारे गए... क्योंकि दुनिया में ऐसी कोई जगह नहीं थी, जहां उन्हें शरण मिल सके... बचे हुए यहूदियों का हक़ है कि वो अपने पुरखों की ज़मीन पर अपनों के बीच रह सकें."

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हालांकि, यहूदी मातृभूमि के समर्थन के साथ-साथ वो यहूदियों और अरब लोगों के बीच एक समझौते के पक्षकार भी थे. कहते थे कि 'यहूदी राज्य' बनने के बजाय वो शांति से अरबों के साथ रहना पसंद करेंगे. जब मई 1948 में अमेरिकी राष्ट्रपति हैरी ट्रूमैन ने इज़रायल को मान्यता दी, तो आइंस्टीन ने इसे यहूदियों का ख़्वाब बताया. लेकिन इज़रायल की आज़ादी के बाद 1948 में अरब-इज़रायल युद्ध छिड़ गया. तब आइंस्टीन, इज़रायल की कार्रवाई की आलोचना करने वाले पहले लोगों में से एक थे और उन्होंने नेतृत्व की तुलना नाज़ी और फासीवादी पार्टियों से की थी.

गांधी और नेहरू का क्या रुख था?

हमारे अपने देश में आज़ादी के सभी बड़े नेताओं ने फ़िलिस्तीनियों के स्वतंत्रता संघर्ष का समर्थन किया है. अपने अख़बार 'हरिजन' में महात्मा गांधी ने बाहरा यहूदियों के ख़िलाफ़ हुई हिंसा का विरोध किया था. लेकिन साथ में इस बात का भी विरोध किया था कि यहूदी फ़िलिस्तीन की ज़मीन पर क़ब्ज़ा कर रहे हैं. 26 नवंबर 1938 को अख़बार में उन्होंने लिखा था,

"फ़िलिस्तीन अरबों का है. वैसे ही, जैसे इंग्लैंड अंग्रेजों का या फ्रांस फ्रांसीसियों का है. यहूदियों को अरबों पर थोपना ग़लत और अमानवीय है.. अरब लोगों की क़ीमत पर यहूदियों को फ़िलिस्तीन में बसाना, उसे उनका राष्ट्र बनाना – ये मानवता के ख़िलाफ़ एक अपराध होगा."

इसके साथ ही यहूदियों के दमन पर उन्होंने लिखा था,

"यहूदी ईसाई धर्म के अछूत रहे हैं. ईसाइयों ने उनके साथ जैसा बर्ताव किया, वो हिंदुओं द्वारा अछूतों के साथ किए जाने वाले बर्ताव जैसा ही है. दोनों ही जगहों पर अमानवीय व्यवहार को सही ठहराने के लिए धर्म का हवाला दिया गया."

हालांकि, यहूदियों के लिए सहानुभूति के बावजूद, उन्होंने फ़िलिस्तीन में यहूदी राज्य का समर्थन नहीं किया. 

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देश के पहले प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू का भी यही मत था. 1936 में जारी एक प्रेस वक्तव्य में उनकी इस मौज़ू पर समझ की बारीकी दिखती है. उन्होंने लिखा था,

"..इतिहास पढ़ने से पता चलता है कि ब्रिटिश साम्राज्यवाद ने अरबों के साथ घोर विश्वासघात किया है... सीरिया, इराक़, ट्रांस-जॉर्डन और फ़िलिस्तीन के सभी अरब इस विश्वासघात के शिकार हुए, लेकिन फ़िलिस्तीनियों की स्थिति सबसे बदतर है.

तेरह सौ साल या शायद उससे भी ज़्यादा समय से वो [फ़िलिस्तीनी अरब] वहां रह रहे थे. फ़िलिस्तीन कोई ऐसी ज़मीन नहीं है कि उपनिवेशी वहां अपने पैर पसार लें."

नेहरू ने ये भी कहा था कि फ़िलिस्तीन की समस्या एक राष्ट्रवादी मुद्दा है, नस्लीय या धार्मिक नहीं. साम्राज्यवादी नियंत्रण और शोषण के ख़िलाफ़ आज़ादी के लिए संघर्ष कर रहे लोगों का मुद्दा है. नेहरू ने संयुक्त राष्ट्र संघ में इज़रायल के गठन के ख़िलाफ़ वोट भी किया था. हालांकि, 1950 में उन्होंने इज़रायल के अस्तित्व को माना. कहा कि इस सच्चाई से इनकार नहीं किया जा सकता है कि इज़रायल अब एक देश है.

केवल कांग्रेस नहीं, भाजपा भी फ़िलिस्तीन के साथ थी

केवल गांधी और नेहरू ही नहीं, संघ परिवार के दो प्रमुख नेताओं - पंडित दीन दयाल उपाध्याय और अटल बिहारी वाजपेयी - ने भी अरब ज़मीन पर इज़रायल के अवैध क़ब्ज़े की निंदा की थी. फ़िलिस्तीन की आज़ादी का समर्थन किया था.

दीन दयाल उपाध्याय भारतीय जनसंघ के प्रतिष्ठित नेता थे. उन्होंने 'एकात्म मानववाद' का सिद्धांत दिया था. (बहुत सारे कॉन्सेप्टस का समुच्चय है. स्वदेशी आर्थिक मॉडल, सार्वभौमिक भाईचारा, विकेंद्रीकरण, स्थानीय उत्पादन और निजी स्वामित्व की वकालत करता है.) इस सिद्धांत को भाजपा ने बाद में अपने संविधान में भी जगह दी. वरिष्ठ भाजपा नेता लालकृष्ण आडवाणी ने कई सालों तक दीन दयाल के साथ मिलकर काम किया था. अपनी आत्मकथा 'माई कंट्री माई लाइफ़' में वो लिखते हैं कि जब अरब-इज़रायल युद्ध छिड़ा, तो जनसंघ में लगभग हर कोई इज़रायल का समर्थक था. तब दीनदयाल ने उन्हें चेताया था,

"सिर्फ़ इसलिए कि कांग्रेस अरब-समर्थक है, हमें आंख मूंदकर इज़रायल का समर्थन नहीं करना चाहिए. हमें हर मुद्दे को मेरिट के आधार पर आंकना चाहिए."

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मार्च 1977 में जब इंदिरा गांधी हारीं और जनता पार्टी की सरकार चुन कर आई, तब ज़्यादातर लोगों को लगा था कि अब फ़िलिस्तीन विवाद पर भारत अपना रुख बदल देगा. लेकिन ऐसा हुआ नहीं. जीत के बाद जनता पार्टी की विजय रैली में ही अटल बिहारी वाजपेयी ने वो भाषण दिया था, जिसका एक हिस्सा इन दिनों अच्छे-से वायरल है. भाषण में वाजपेयी कह रहे हैं कि अरबों की जिस ज़मीन पर इज़रायल क़ब्ज़ा करके बैठा है, वो ज़मीन उसको ख़ाली करनी होगी.

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