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इज़रायल के रक्षामंत्री ने प्रधानमंत्री नेतन्याहू को क्यों लताड़ा?

इज़रायल में रक्षामंत्री ने प्रधानमंत्री के ख़िलाफ़ विद्रोह क्यों किया?

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इज़रायल के पीएम बेंजामिन नेतन्याहू
इज़रायल के पीएम बेंजामिन नेतन्याहू
16 मई 2024
Updated: 16 मई 2024 21:06 IST
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जैसे-जैसे गाज़ा पट्टी में जंग खिंच रही है, इज़रायल में अंसतोष बढ़ता जा रहा है. आम जनता दो धड़ों में बंट गई है. एक धड़ा जंग जारी रखने की बात कर रहा है. दूसरे की मांग है कि हमास के साथ डील करके जंग खत्म की जाए. 15 मई को ये दरार वॉर कैबिनेट तक पहुंच गई. डिफ़ेंस मिनिस्टर योआव गलांत ने प्रधानमंत्री बेंजामिन नेतन्याहू का खुलकर विद्रोह कर दिया. बोले, मैं जंग के बाद गाज़ा में मिलिटरी शासन बिठाने के प्लान का समर्थन नहीं करूंगा.

गलांत के भाषण की मुख्य बातें जान लीजिए,

- जंग के बाद गाज़ा पट्टी पर इज़रायल का सिविलियन या मिलिटरी कंट्रोल नहीं होना चाहिए.

- हमास के खात्मे के बाद गाज़ा का कंट्रोल किसी फ़िलिस्तीनी गुट को ही मिले.

- गाज़ा में अपनी सैन्य और सिविलियन सरकार कुछ समय बाद इज़रायल के लिए बोझ बन जाएगी.

- गाज़ा पर शासन से इज़रायल का बेमतलब का ख़ून बहेगा. आर्थिक नुकसान भी झेलना होगा.

गलांत को वॉर कैबिनेट के एक और मेंबर बेनी गेंत्ज़ का समर्थन मिला. बेनी ने कहा, गलांत ठीक कह रहे हैं. मुल्क के लिए सही फ़ैसला लेना लीडरशिप की ज़िम्मेदारी है. हालांकि, कई मंत्रियों ने गलांत को आड़े हाथों भी लिया. उनको हटाने की मांग करने लगे. नेशनल सिक्योरिटी मिनिस्टर इतमार बेन-ग्विर ने एक्स पर लिखा, गलांत की बात मानें तो गाज़ा में हमास के हत्यारों के शासन और इज़रायली सैनिकों के शासन में कोई अंतर नहीं है. ये उस डिफ़ेंस मिनिस्टर की सोच है, जो 07 अक्टूबर का हमला रोकने में नाकाम रहा और लगातार नाकाम हो रहा है. जंग का लक्ष्य हासिल करना है तो ऐसे डिफ़ेंस मिनिस्टर को तत्काल कुर्सी से हटाना होगा.

बवाल के बीच प्रधानमंत्री नेतन्याहू ने एक वीडियो पोस्ट किया. उन्होंने गलांत का नाम लिए बिना उनकी बात खारिज कर दी. बोले, मैं हमास्तान को फ़तहस्तान में नहीं बदलने दूंगा. उनका इशारा फ़िलिस्तीन अथॉरिटी (PA) की तरफ़ था. फ़िलिस्तीन अथॉरिटी में फतह पार्टी का दबदबा है. उनका शासन वेस्ट बैंक में है. वे 2006 तक गाज़ा पट्टी में भी रूल कर रहे थे. मगर 2006 के चुनाव में वे हमास से हार गए. फिर हिंसक लड़ाई हुई. उसमें हमास ने PA को गाज़ा से पूरी तरह खदेड़ दिया. तब से उनका गाज़ा पर कोई नियंत्रण नहीं है.

अमेरिका समेत कई देशों ने कहा है कि हमास के खात्मे के बाद गाज़ा का कंट्रोल फ़िलिस्तीन अथॉरिटी यानी फ़तह को दे दिया जाए. मगर नेतन्याहू इसके लिए राज़ी नहीं हैं. उनका मन है कि गाज़ा पर इज़रायल का मिलिटरी कंट्रोल होना चाहिए. जैसा कि 2005 से पहले था.

नेतन्याहू के बयान के बाद इज़रायल की कैबिनेट में तनातनी बढ़ने की आशंका है. गलांत के साथ काम करना उनके लिए मुश्किल होगा. मगर उनको कैबिनेट से निकालना और भी ज़्यादा मुश्किल है. दरअसल, एक बार पहले भी नेतन्याहू उनको हटाने की कोशिश कर चुके हैं. मार्च 2023 में गलांत ने न्यायापालिका में सुधार से जुड़े बिलों को वापस लेने की मांग रखी थी. इसके बाद नेतन्याहू ने उनको हटाने का एलान कर दिया था. मगर इसका ज़बरदस्त विरोध होने लगा. हज़ारों लोग गलांत के समर्थन में सड़क पर उतर गए. जिसके चलते नेतन्याहू को फ़ैसला वापस लेना पड़ा. गलांत पद पर बने रहे. अबकी बार क्या होगा?

गलांत इकलौते नहीं हैं, जिनके नेतन्याहू के साथ मतभेद चल रहे हैं. इज़रायली मीडिया में छपी रिपोर्ट्स के मुताबिक़, फ़ौज के मुखिया हर्ज़ी हलेवी और इंटेलिजेंस एजेंसी शिन बेत के चीफ़ रॉनेन ब्रार भी नाराज़गी जता चुके हैं. चैनल 13 की रिपोर्ट के मुताबिक़, हलेवी ने कहा था कि जब तक गाज़ा में वैकल्पिक शासन के लिए डिप्लोमेटिक स्तर पर बातचीत शुरू नहीं होती, तब तक हम इधर-उधर हमला करते रह जाएंगे.

चैनल 12 की एक रिपोर्ट में रॉनेन ब्रार और नेतन्याहू के बीच बहस का ज़िक्र कहा. बकौल रिपोर्ट, ब्रार ने जंग से जुड़े किसी रणनीतिक विषय पर गलांत के साथ एक मीटिंग की. जब ये जानकारी नेतन्याहू को मिली, वो बुरी तरह भड़क गए. बोले, जंग से जुड़ी सारी बातचीत मेरे साथ होगी. मोसाद और शिन बेत मेरे अंडर काम करते हैं, गलांत के लिए नहीं. बाद में नेतन्याहू की गलांत से भी बहस हुई. नेतन्याहू ने कहा कि सारी रणनीतिक चर्चाएं मेरी मौजूदगी में होनी चाहिए. इसपर गलांत बोले, आप डिफ़ेंस मिनिस्टर को काम करने से रोक रहे हैं. जब आप हमें रणनीतिक चर्चाओं के लिए बुलाते हैं, हमें उसकी तैयारी करनी होती है. और, तैयारी के लिए मीटिंग ज़रूरी है.

नेतन्याहू का इतना विरोध क्यों हो रहा है? दो बड़ी वजहें है. एक-एक कर समझते हैं.

- नंबर एक. संघर्षविराम समझौते से परहेज.

नेतन्याहू हमास के साथ संघर्षविराम समझौते से लगातार बच रहे हैं. समझौते के बिना बंधकों की वापसी मुश्किल है. हमास के क़ब्ज़े में अभी भी 130 से ज़्यादा बंधक मौजूद हैं. उनमें से कइयों की मौत हो चुकी है. 14 मई को हमास ने कहा था कि चार बंधक खो गए हैं. उनसे संपर्क नहीं हो पा रहा है. जैसे-जैसे समय बीत रहा है, बाकियों की सुरक्षित वापसी की उम्मीद कम हो रही है. बंधकों के परिवारवालों का आरोप है कि नेतन्याहू अपनी ज़िद के लिए समझौता नहीं कर रहे हैं. बंधकों पर उनका कोई ध्यान नहीं है.

- नंबर दो. पोस्ट-वॉर प्लान.

प्रधानमंत्री नेतन्याहू ने गाज़ा में जंग के दो मकसद तय किए थे. पहला है, बंधकों की वापसी. और दूसरा, हमास की सैन्य क्षमता का खात्मा. नेतन्याहू की मानें तो वे दूसरा मकसद पूरा करने के क़रीब पहुंच चुके हैं. इसी वजह से रफ़ा ऑपरेशन शुरू किया गया. मगर उन्होंने अभी तक ये नहीं बताया है कि हमास के खात्मे के बाद क्या होगा. हालांकि, उन्होंने हिंट दिया है कि गाज़ा में कोई दोस्ताना प्रशासन बिठाया जाएगा. और, इज़रायली फ़ौज के पास किसी भी टाइम वहां घुसने का अधिकार होगा. यूएई ने इसका विरोध किया है. अमेरिका ने भी कहा है कि वो गाज़ा पर इज़रायल के क़ब्ज़े का समर्थन नहीं करेगा. इसकी वजह से नेतन्याहू पर दबाव बढ़ रहा है. गलांत के विद्रोह के बाद उनके लिए मुसीबतें और बढ़ गईं है.अब इज़रायल-हमास जंग के अपडेट्स जान लेते हैं.

-अमेरिका ने योआव गलांत की अपील का समर्थन किया है.

- 15 मई को अमेरिका के राष्ट्रपति जो बाइडन ने कहा कि पांच अरब देश जंग के बाद गाज़ा को खड़ा करने और वहां शांति और सुरक्षा की ज़िम्मेदारी उठाने के लिए तैयार हैं. बाइडन ने किसी देश का नाम नहीं लिया. बोले, मैं नाम बताकर उनको परेशानी में डालना नहीं चाहता. हालांकि, माना जा रहा है कि उनका इशारा क़तर, ईजिप्ट, जॉर्डन, सऊदी अरब और यूएई की तरफ़ था.

- हमास ने कहा है कि जंग के बाद गाज़ा पर वही शासन करेगा. और, वो किसी भी ऐसी योजना का विरोध करेगा, जिसमें उसको शामिल नहीं किया जाता.

अब बात अमेरिका की.

जहां राष्ट्रपति जो बाइडन और पूर्व राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप लाइव डिबेट के लिए राज़ी हो गए हैं. पहली डिबेट CNN पर 27 जून को, जबकि दूसरी ABC चैनल पर 10 सितंबर को होने वाली है. 15 मई को जो बाइडन ने वीडियो जारी कर ट्रंप को चुनौती दी थी.

ट्रंप ने बाइडन की चुनौती स्वीकार कर ली. उन्होंने सोशल मीडिया प्लेटफ़ॉर्म ट्रूथ सोशल पर पोस्ट लिखकर इसका एलान किया. ट्रंप और बाइडन नवंबर 2024 के राष्ट्रपति चुनाव में अपनी-अपनी पार्टी के फ़ेवरेट कैंडिडेट हैं. नाम पर औपचारिक मुहर बाकी है.

कैसे होती हैं डिबेट्स?

एक प्रेसिडेंशियल डिबेट्स कमिशन है. आमतौर पर वही तारीख़ की घोषणा करता है. उन्हीं के मॉडरेटर्स होते हैं. 2022 में ट्रंप की रिपब्लिकन पार्टी ने डिबेट्स कमिशन को छोड़ दिया था. इसलिए, इस बार की बहस न्यूज़ चैनलों पर होगी. डिबेट में मॉडरेटर्स सवाल पूछेंगे औऱ बाइडन-ट्रंप उसका जवाब देंगे. पिछली बार कैसी बहस हुई थी? 

अमेरिका में प्रेसिडेंशियल डिबेट्स का इतिहास क्या है?

इसकी शुरुआत 1960  से हुई थी. पहली प्रेसिडेंशियल डिबेट जॉन एफ. कैनेडी और रिचर्ड निक्सन के बीच हुई. इसका लाइव टेलीकास्ट किया गया था. उस समय सामने दर्शक नहीं हुआ करते थे.
इसके 16 साल बाद तक कोई डिबेट नहीं हुई. 1976 में ये चलन फिर शुरू हुआ. 1976 में राष्ट्रपति जेराल्ड फ़ोर्ड थे. वो रिचर्ड निक्सन के इस्तीफ़े के बाद राष्ट्रपति बने थे. उन्होंने उस समय अपने प्रतिद्वंदी जिमी कार्टर को बहस के लिए चुनौती दी थी. उसके बाद से अमेरिका के हर राष्ट्रपति चुनाव में ये परंपरा चली आ रही है.

क्या डिबेट का चुनाव पर कोई असर होता है?

हां, बिलकुल होता है. प्रेसिडेंशियल डिबेट्स पर अधिकतर अमेरिकी नागरिकों की नज़र रहती है. अगर इस डिबेट में ग़लती से कोई ग़लत बात निकल जाए तो ये कैंडिडेट के लिए बड़ी समस्या बन सकती है. एक उदाहरण 1976 में हुई डिबेट का है. जब जेराल्ड फोर्ड को 1976 में पूर्वी यूरोप में सोवियत आर्मी की तैनाती पर सवाल पूछा गया था. इस सवाल के जवाब में वो फिसल गए. इसकी वजह से उनकी छवि ख़राब हुई. उन्हें चुनाव में हार झेलनी पड़ी थी.
दूसरा उदाहरण रोनाल्ड रीगन का है. वो राजनीति में आने से पहले एक्टिंग करते थे. उनके पास बोलने की सलाहियत थी. इसी वजह से उन्होंने डेमोक्रेट जिमी कार्टर और वाल्टर मोन्डेल के खिलाफ़ बहस में दमदार प्रदर्शन किया. आख़िर में वो चुनाव जीतने में कामयाब रहे.
जानकार कहते हैं कि बाइडन को इस बार की डिबेट में बहुत सावधानी बरतनी होगी. वो अपनी उम्र की वजह से कई बार बेतुकी बातें बोल जाते हैं. बाद में वो उनके लिए परेशानी का सबब बनता है. इस डिबेट पर आपकी क्या राय है? हमें कमेंट कर बताना ना भूलें.

अब बात चीन-रूस की.

तारीख़, 16 मई 2024. तड़के सुबह बीजिंग के कैपिटल इंटरनैशनल एयरपोर्ट पर रूस का एक सरकारी विमान लैंड हुआ. उसके इंतज़ार में चीन के दिग्गज अधिकारियों का हुज़ूम हाथ बांधे खड़ा था. ज़मीन पर लाल गलीचा बिछा था. और, चीनी सैनिक कतारबद्ध होकर सलामी देने की तैयारी में थे. ये पूरा तामझाम जिस शख़्स के लिए हो रहा था, वो चीन को अपना सबसे अच्छा दोस्त बताते नहीं थकते. उनका नाम है, व्लादिमीर व्लादिमिरोविच पुतिन. द प्रेसिडेंट ऑफ़ रशियन फ़ेडरेशन. पुतिन ने 07 मई को पांचवीं बार रूस के राष्ट्रपति के तौर पर शपथ ली. उन्होंने मार्च में राष्ट्रपति चुनाव जीता था. ये यूक्रेन जंग के बीच रूस में हुआ पहला चुनाव था. इसमें पुतिन को 88 फीसदी से ज़्यादा वोट मिले थे. शपथ लेने के बाद 10 दिनों के अंदर वो चीन की राजकीय यात्रा पर पहुंच गए. बहुत कम लोगों को इससे अचंभा हुआ. दरअसल, मार्च में न्यूज़ एजेंसी रॉयटर्स ने सूत्रों के हवाले से ये ख़बर ब्रेक की थी. तब रूसी सरकार ने पुष्टि करने से मना कर दिया था.

अब पुतिन चीन पहुंच चुके हैं. उनके साथ रूस के रक्षामंत्री आंद्रे बेलुसोव, नेशनल सिक्योरिटी काउंसिल के सेक्रेटरी सर्गेइ शोइगु, विदेश मंत्री सर्गेइ लावरोव भी गए हैं. उनके अलावा, रूसी बैंकों के गवर्नर और दिग्गज कंपनियों के सीईओ भी पुतिन के प्रतिनिधिमंडल का हिस्सा हैं.

चीन के राष्ट्रपति शी जिनपिंग ने ख़ुद उनकी आगवानी की. तियानमेन स्क़्वायर पर भव्य स्वागत समारोह आयोजित किया गया. इसके बाद दोनों नेताओं ने बंद कमरे में मीटिंग की. पुतिन और जिनपिंग अबतक 40 से अधिक बार मिल चुके हैं. पिछले साल मार्च में जिनपिंग रूस गए थे. फिर अक्टूबर में पुतिन ने चीन का दौरा किया.

पुतिन का ये दौरा ख़ास क्यों है? तीन वजहों से. एक-एक कर समझते हैं.

- नंबर एक. रूस-यूक्रेन जंग.

एक तरफ़ पुतिन चीन में हैं, दूसरी तरफ़ यूक्रेन जंग में घटनाक्रम तेज़ी से बदल रहा है. रूसी सेना खारकीव में बढ़त हासिल करने लगी है. जिसके चलते यूक्रेन के राष्ट्रपति वोलोदिमीर ज़ेलेन्स्की ने स्पेन और पुर्तगाल का दौरा रद्द कर दिया. इसी बीच 15 मई को अमेरिका के विदेश मंत्री एंटनी ब्लिंकन सरप्राइज़ विजिट पर यूक्रेन पहुंचे. वहां बोले कि अमेरिका से सैन्य मदद निकल चुकी है. बहुत जल्द पहुंचने वाली है. ब्लिंकन ने ये भी कहा कि अमेरिका में रूस की प्रॉपर्टीज़ को बेचकर यूक्रेन को पैसा दिया जाएगा.

इसके अलावा, रूस के साथ जंग में यूक्रेन का सबसे बड़ा मददगार अमेरिका है. अप्रैल 2024 तक अमेरिका 15 लाख करोड़ रुपये से अधिक की मदद दे चुका है. इसी की बदौलत यूक्रेन ने रूसी सेना को रोककर रखा था. मगर बीच में अमेरिका की डॉमेस्टिक पॉलिटिक्स की वजह से मदद रुक गई थी. जिसके चलते यूक्रेन के हथियारों का स्टॉक खत्म होने लगा. यूक्रेनी सैनिकों को कई मोर्चों से पीछे हटना पड़ा था. फिर 20 अप्रैल को अमेरिका की संसद ने पैकेज पर मुहर लगा दी. इसके तहत यूक्रेन को लगभग 08 लाख करोड़ रुपये के हथियार मिलेंगे. यूक्रेन उसी के इंतज़ार में है. जब वो मदद पहुंचेगी, यूक्रेन पलटवार करेगा. उस स्थिति में रूस को बाहरी सहयोग की ज़रूरत पड़ेगी.

- नंबर दो. पश्चिमी दबाव.

पुतिन के चीन दौरे से पहले दो दिलचस्प ट्रिप्स हुईं है. 25 अप्रैल को अमेरिकी विदेश मंत्री एंटनी ब्लिंकन चीन पहुंचे थे. ब्लिंकन ने चीन पर दबाव बनाने की कोशिश की. उन्होंने आरोप लगाया कि चीन, रूस-यूक्रेन जंग को भड़का रहा है. उसको इससे बचना चाहिए. फिर मई की शुरुआत में जिनपिंग यूरोप के तीन देशों के दौरे पर गए. पहले चरण में फ़्रांस के राष्ट्रपति इमैनुएल मैक्रों और यूरोपियन यूनियन (EU) की प्रेसिडेंट उर्सुला वोन डेर लिएन से मिले. दोनों नेताओं ने चीन से कहा कि वो रूस पर दबाव डालकर युद्ध रुकवाने की कोशिश करें. उसके साथ व्यापार कम करें.

मगर चीन अभी तक पश्चिमी देशों के दबाव में नहीं आया है. वो अपने स्टैंड पर क़ायम है. उसका कहना है कि हम न्यूट्रल हैं. हमारा जो सामान निर्यात करते हैं, उसका जंग में इस्तेमाल नहीं होता. इसलिए, हम कोई नियम नहीं तोड़ रहे. हालांकि, अभी तक चीन ने रूस के हमले की आलोचना नहीं की है.

- नंबर तीन. आपसी निर्भरता.

रूस और चीन, दोनों पश्चिमी देशों के विरोध का सामना कर रहे हैं. रूस पर यूक्रेन जंग के चलते प्रतिबंध लगाए गए हैं. गिनती के देश उसके साथ व्यापार कर रहे हैं. चीन उसका सबसे बड़ा ट्रेड पार्टनर है. इसलिए, पैसे से लेकर बुनियादी ज़रूरतों के लिए वो चीन पर निर्भर है. 2023 में दोनों देशों के बीच लगभग 20 लाख करोड़ रुपये का कोराबार हुआ था. दूसरी तरफ़, अमेरिका और यूरोप के दूसरे देश चीन पर अनफ़ेयर कॉम्पटीशन का आरोप लगा रहे हैं. इसके आधार पर वे चीनी प्रोडक्ट्स पर टैक्स बढ़ा रहे हैं. 14 मई को अमेरिका ने चीन के इलेक्ट्रिक कारों पर बॉर्डर टैक्स बढ़ाकर 100 प्रतिशत कर दिया.
16 मई को पुतिन ने कहा कि चीनी कार कंपनियों का रूस में स्वागत है.

उनके बयान को चीनी कंपनियों के लिए राहत के तौर पर देखा जा रहा है. रूस उनके लिए बड़ा मार्केट बन सकता है. इसके अलावा, चीन को रूस से सस्ता नेचुरल गैस और तेल मिल रहा है. अप्रैल 2024 में चीन के विदेश मंत्री वांग यी ने कहा भी था, रूस के नेचुरल गैस से चीन के घरों में चूल्हे जल रहे हैं, और चीन में बनी कारों से रूस की सड़कों पर हलचल है. अब ये जान लेते हैं कि पुतिन-जिनपिंग की मीटिंग में क्या हुआ?

- रूस और चीन के डिप्लोमेटिक संबंधों के 75 बरस पूरे हुए हैं. इस मौके पर दोनों देशों ने सामरिक रिश्ते बढ़ाने पर ज़ोर दिया.
- दोनों देशों ने साझा हित के विषयों पर सहयोग बढ़ाने पर सहमति जताई.
- पुतिन ने जिनपिंग को वन बेल्ट वन रोड (OBOR) प्रोजेक्ट के लिए बधाई दी.
- दोनों नेताओं की मीटिंग में यूक्रेन का मुद्दा भी उठा. पुतिन ने चीन के पीस प्लान का भी ज़िक्र किया.
दरअसल, चीन ने फ़रवरी 2023 में यूक्रेन युद्ध को रोकने के लिए 12 सूत्रीय दस्तावेज जारी किया था. इसमें क्या-क्या सुझाया गया था?
- सभी देशों की संप्रभुता का सम्मान किया जाए.
- कोल्ड वॉर वाली मानसिकता को खत्म किया जाए.
- हिंसा पर लगाम लगाई लाए जाए.
- शांतिपूर्ण बातचीत दोबारा शुरू हो.
- मानवीय संकट को सुलझाया जाए.
- आम नागरिकों और युद्धबंदियों की सुरक्षा की जाए.
- न्युक्लियर पावर पॉइंट्स को सेफ़ किया जाए.
- रणनीतिक ज़ोखिम कम किए जाएं.
- अनाजों के आयात पर लगी रोक हटाई जाए.
- एकपक्षीय प्रतिबंधों को रोका जाए.
- औद्योगिक और सप्लाई चेन को स्थिर रखा जाए.
- युद्ध के बाद ज़रूरी निर्माण को बढ़ावा दिया जाए.

रूस ने इस प्लान का स्वागत किया था. जबकि यूक्रेन और पश्चिमी देशों ने इसे तुरंत खारिज करने की बात कही थी. पश्चिमी देशों की सबसे बड़ी आपत्ति एकपक्षीय प्रतिबंधों वाले पॉइंट पर थी. उनका कहना था कि चीन का इशारा यूक्रेन को दी जा रही मदद की तरफ़ है. इसके अलावा, चीन ने रूसी सैनिकों की वापसी पर भी कुछ नहीं कहा.

अब रूस-चीन संबंधों का इतिहास जान लेते हैं. ब्रीफ़ में.

- 1917 में रूस में बोल्शेविक क्रांति हुई. फिर पहली कम्युनिस्ट सरकार बनी. उन्होंने अपनी विचारधारा बढ़ाने का फ़ैसला किया. चीन में कम्युनिस्ट पार्टी (CCP) की स्थापना 1921 में शंघाई में हुई थी. इसके लिए सोवियत संघ ने चीन में अपने एजेंट्स भेजे थे. शुरुआती दौर में CCP की दशा और दिशा मॉस्को से तय होती थी.

- अक्टूबर 1949 में चीन में माओ ज़ेदोंग की क्रांति सफ़ल हुई. माओ ने पीपुल्स रिपब्लिक ऑफ़ चाइना (PRC) की स्थापना की. सोवियत संघ उन्हें मान्यता देने वाले पहले देशों में से था.

- क्रांति के तुरंत बाद माओ मॉस्को गए. वहां उन्होंने सोवियत लीडर जोसेफ स्टालिन से मुलाक़ात की. फ़रवरी 1950 में सोवियत संघ और चीन के बीच ‘सिनो-सोवियत ट्रीटी ऑफ़ फ़्रेंडशिप, अलायंस एंड म्युचुअल असिस्टेंस’ हुई. 1950 के दशक में दोनों देशों का रिश्ता इसी के आधार पर चला.

- 1950 से 1953 तक चले कोरियन वॉर के दौरान सोवियत संघ और चीन ने नॉर्थ कोरिया की सैन्य सहायता की. चीन ने अपनी आर्मी भेजी थी, जबकि सोवियत संघ ने हवाई सपोर्ट दिया था.

- 1953 में स्टालिन की मौत हो गई. 1958 में निकिता ख्रुश्चेव कम्युनिस्ट पार्टी के चेयरमैन बन गए. उन्होंने स्टालिन की नीतियों को बदलना शुरू किया. वो चीन को अपना पिछलग्गू बनाकर रखना चाहते थे. इधर, माओ चीन को न्युक्लियर पावर से लैस करना चाहते थे. उन्होंने ख्रुश्चेव से मदद मांगी. ख्रुश्चेव अमेरिका के साथ न्युक्लियर बैन ट्रीटी पर बात करने लगे थे. माओ ने उनकी आलोचना की. नतीजा, सोवियत संघ ने सभी सलाहकारों को वापस बुला लिया. उन्होंने चीन की मदद से भी इनकार कर दिया.

- सोवियत संघ के इनकार के बावजूद चीन ने 1964 में पहला परमाणु परीक्षण किया. उसने अपनी सेना भी मज़बूत कर ली. इससे तनाव बढ़ गया.

- 1966 आते-आते दोनों देशों ने बॉर्डर पर हज़ारों सैनिक तैनात कर दिए. दोनों देशों के बीच झगड़े का तात्कालिक कारण बना, एक द्वीप. सोवियत संघ और चीन के बीच उसुरी नदी में एक टापू था. चीन इसे ज़ेनबाओ कहता था, जबकि सोवियत संघ में इसे दमान्स्की के नाम से जाना जाता था. दोनों देश इस पर अपना दावा ठोकते थे. 1964 में सोवियत संघ ने ज़ेनबाओ समेत लगभग चार सौ द्वीपों को चीन को सौंप दिया. लेकिन माओ से विवाद के बाद उसने पुरानी संधि खारिज कर दी और अपनी सेना उतार दी. मार्च 1969 में ये झगड़ा हिंसक हो गया. 02 मार्च को चीनी सैनिकों ने घात लगाकर सोवियत सैनिकों को मार दिया. इसके बाद युद्ध शुरू हो गया. आने वाले दिनों में तापमान इतना बढ़ा कि दोनों देशों ने बॉर्डर पर न्युक्लियर मिसाइलें तैनात कर दीं थी.

- उन्हें अंदाज़ा हो चुका था कि ये युद्ध बहुत नुकसानदेह हो सकता है. अक्टूबर 1969 में वे युद्धविराम के लिए तैयार हो गए. लेकिन तल्खी का बीज पड़ चुका था.

- जैसे ही सोवियत संघ दूर हुआ, अमेरिका ने चीन की तरफ़ दोस्ती का हाथ बढ़ा दिया. 1971 में हेनरी किसिंजर चीन पहुंचे. उन्होंने राष्ट्रपति निक्सन के चीन दौरे का रास्ता साफ़ कर दिया. 1972 में निक्सन, माओ से मिले. 1978 में अमेरिका और चीन के बीच डिप्लोमैटिक रिश्ते की आधिकारिक नींव रखी गई.

- 1985 में मिखाइल गोर्बाचोव सोवियत संघ के लीडर बने. उन्होंने उदारता बरती. 1989 में गोर्बाचोव बीजिंग गए. दो बरस बाद चीन के तत्कालीन राष्ट्रपति जियांग जेमिन मॉस्को गए.

- सोवियत संघ के विघटन से दो बरस पहले तियानमेन नरसंहार हुआ था. इसके बाद अमेरिका ने चीनी नेताओं की संपत्तियां फ़्रीज़ कर दीं. कई नेताओं पर प्रतिबंध भी लगाए. इससे अमेरिका-चीन में तल्खी पैदा हुई. आगे चलकर ऐसी कई और घटनाएं हुईं, जिसके कारण इस रिश्ते का ग्राफ़ लगातार नीचे जाता रहा. सोवियत संघ टूटकर रूस हो चुका था. अमेरिका के बरक्स चीन के साथ उनका रिश्ता मज़बूत होता गया.

- 2004 में उन्होंने बॉर्डर विवाद सुलझा लिया. जे़नबाओ द्वीप पर चीन का अधिकार बना रहा.

- दोनों देशों के बीच व्यापार कई गुणा बढ़ा. रूस ने चीन के नेतृत्व वाला शंघाई को-ऑपरेशन ऑर्गेनाइज़ेशन (SCO) जॉइन किया. रूस ने अरबों-खरबों के हथियार चीन को बेचे.

- 2014 में रूस ने क्रीमिया को हथिया लिया. उस समय पूरा वेस्ट रूस के ख़िलाफ़ खड़ा हो गया था. लेकिन चीन ने उनकी मुखालफ़त नहीं की. जानकारों का कहना है कि ये दोनों देशों के रिश्ते का एक टर्निंग पॉइंट साबित हुआ.

- 2014 के बाद से पुतिन और जिनपिंग अपने-अपने देश की सत्ता में मज़बूत हुए. दोनों नेताओं ने कई मौकों पर एक-दूसरे के साथ खड़े होने की बात कही है. इसका आधार इस बात से तय हुआ है कि 21वीं सदी में चीन की भूमिका बदल चुकी है. उसने अपने हितों के आधार पर अपनी विदेश नीति तय करना सीख लिया है. इसमें बड़ा रोल शी जिनपिंग का है.

- 2022 में यूक्रेन पर हमले से ठीक पहले पुतिन ने चीन का दौरा किया था.

रूस-चीन का चैप्टर यहीं पर रोकते हैं. अब चलते हैं स्लोवाकिया.

15 मई 2024 की बात है. दोपहर का वक़्त था. स्लोवाकिया के प्रधानमंत्री रॉबर्ट फ़ीको एक मीटिंग खत्म कर बाहर निकले. उनकी कार बाहर उनके इंतज़ार में खड़ी थी. मगर वो कार में बैठने की बजाय सामने खड़ी भीड़ से मिलने चले गए. जब तक वो हाथ मिलाते, इतने में तड़ातड़ गोलियां चलीं. जब तक सिक्योरिटी गार्ड्स हमलावर को पकड़ पाते, चार गोलियां फ़ीको के शरीर में दाखिल हो चुकीं थी.
प्रधानमंत्री फ़ीको को आनन-फानन में अस्पताल ले जाया गया. वहां उनका इलाज चल रहा है. ताज़ा जानकारी के मुताबिक़, उनकी हालत स्थिर है. मगर ख़तरा पूरी तरह टला नहीं है.

हमलावर का क्या हुआ?  

हमलावर 71 बरस का बुजुर्ग है. पेशे से लेखक और पॉलिटिकल एक्टिविस्ट है. उसको अटैक के तुरंत बाद गिरफ़्तार कर लिया गया था. उसपर हत्या की कोशिश का मुकदमा चलेगा. अभी नाम की पुष्टि नहीं हुई है. हमले की वजह भी बाहर नहीं आई है.

स्लोवाकिया कहां है?

ये सेंट्रल यूरोप में पड़ता है. क्षेत्रफल लगभग भारत के पंजाब राज्य के बराबर है. आबादी लगभग 55 लाख. राजधानी ब्रातिस्लावा है. आधिकारिक भाषा स्लोवाक है. स्लोवाकिया की सीमा पांच देशों से मिलती है. कौन-कौन देश हैं? यूक्रेन, पोलैंड, हंगरी, चेक रिपब्लिक और ऑस्ट्रिया. स्लोवाकिया 1992 तक चेकोस्लोवाकिया का हिस्सा था. 1993 में विभाजन हुआ. दो अलग देश बने- चेक रिपब्लिक और स्लोवाकिया. 2004 में स्लोवाकिया यूरोपियन यूनियन (EU) और नेटो का सदस्य बना.

रॉबर्ट फ़ीको की कहानी क्या है?

सितंबर 1964 में पैदा हुए. पिता फ़ैक्ट्री में मज़दूरी करते थे. बचपन में फ़ीको स्पोर्ट्स जर्नलिस्ट बनना चाहते थे. लेकिन किस्मत उन्हें कहीं और ले गई. 1986 में वो कम्युनिस्ट पार्टी में शामिल हुए. मगर बहुत जल्द पार्टी खत्म हो गई. पार्टी के नेताओं ने डेमोक्रेटिक लेफ्ट पार्टी (SDL) बनाई. फ़ीको उसमें शामिल हुए. 1992 में पहली बार सांसद बने. 1998 में उन्हें पार्टी का वाइस प्रेसिडेंट बनाया गया.
कम उम्र की वजह से पार्टी उन्हें आगे करने में हिचकिचा रही थी. वहीं, फ़ीको अपने दम पर लोकप्रिय होते जा रहे थे. इस बीच SDL पर कई आरोप भी लगे. एक वक्त ऐसा आया कि फ़ीको की लोकप्रियता SDL से बढ़ गई. इसी का फ़ायदा उठाकर उन्होंने नई पार्टी बना ली. पार्टी का नाम रखा, डायरेक्शन - सोशल डेमोक्रेसी. 2006 में फ़ीको पहली बार प्रधानमंत्री बने. अभी उनका तीसरा कार्यकाल चल रहा है.
फ़ीको यूक्रेन को सैन्य मदद भेजने के विरोधी हैं. इस वजह से उनकी तुलना हंगरी के प्रधानमंत्री विक्टर ओरबान से भी होती है.

दुनियाभर से क्या प्रतिक्रियाएं आईं?

- अमेरिका के राष्ट्रपति जो बाइडन ने कहा कि हिंसा सही नहीं है.
- रूस के राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन ने कहा कि फ़िको एक बहादुर व्यक्ति हैं. मुझे पूरी उम्मीद है कि वो जल्द से जल्द ठीक हो जाएंगे. ये एक जघन्य हमला है.
- इसके अलावा, फ्रांस, यूक्रेन और हंगरी जैसे देशों ने इस हमले की निंदा की.इज़रायल के रक्षामंत्री ने प्रधानमंत्री नेतन्याहू को क्यों लताड़ा?

वीडियो: मनोज तिवारी और कन्हैया कुमार पर क्या बोली दिल्ली की पब्लिक?

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