इज़रायली आर्मी की रेड के बाद फ़िलिस्तीन में बवाल क्यों मचा हुआ है?
इज़रायली आर्मी वेस्ट बैंक में छापेमारी क्यों करती है?
इज़रायल और फ़िलिस्तीन का विवाद दशकों से चलता आ रहा है और शायद ये सदियों तक चलता रहेगा. इस सफ़र में कुछ-कुछ समय के अंतराल पर उबाल आता रहता है. दिसंबर 2022 में बेंजामिन नेतन्याहू की सत्ता में वापसी के बाद से तनाव का धागा टूटने की कगार तक खिंच गया है. इज़रायली मंत्रियों के बयानों में तल्खी आई है. सेना के ऑपरेशंस में बढ़ोत्तरी हुई है. 25 जनवरी को इज़रायल डिफ़ेंस फ़ोर्सेज (IDF) ने वेस्ट बैंक के एक रेफ़्यूजी कैंप में छापेमारी की. वे इस्लामिक जिहाद नामक संगठन के चरमपंथियों को पकड़ने आए थे. इस दौरान मुठभेड़ हुई, जिसमें 09 लोग मारे गए. फ़िलिस्तीनी अधिकारियों का आरोप है कि मरनेवालों में अधिकतर आम लोग थे. इस घटना के बाद प्रोटेस्ट शुरू हुआ. प्रोटेस्ट के दौरान इज़रायली सेना ने एक और फ़िलिस्तीनी को गोली मार दी. मीडिया रपटों के अनुसार, 26 जनवरी को इज़रायल के ऊपर रॉकेट्स दागे गए. इससे इज़रायल में किसी को कोई नुकसान नहीं पहुंचा. हालांकि, आने वाले दिनों में बड़े झगड़े की आशंका बढ़ गई है. इस घटनाक्रम के बीच अमेरिका ने अपने विदेशमंत्री एंटनी ब्लिंकन को मिडिल-ईस्ट भेजने का फ़ैसला किया है. वो सभी पक्षों से बातचीत कर मामले को शांत कराने की कोशिश करेंगे. उनकी कोशिश सफ़ल होगी या झगड़ा होकर रहेगा, ये दावे से कह पाना मुश्किल है.
आइए जानते हैं,
- इज़रायली आर्मी वेस्ट बैंक में छापेमारी क्यों करती है?
- हाल की घटना का इलाके में चल रहे तनाव पर क्या असर होगा?
- और, क्या ये घटना एक नए और बड़े युद्ध की आहट है?
इस मामले को समझने के लिए थोड़ा पीछे जाना होगा. कितना? 105 साल पहले.
नवंबर 1918 में पहला विश्वयुद्ध खत्म हुआ. इसमें जर्मनी, ऑस्ट्रिया-हंगरी, बुल्गारिया और ऑटोमन साम्राज्य की हार हुई. ऑटोमन साम्राज्य का एशिया और अफ़्रीका के कई इलाकों पर नियंत्रण था. विश्वयुद्ध के बाद इनकी चाबी मित्र देशों के पास आ गई. मित्र देश पहले विश्वयुद्ध के विजेता थे. उनको लगता था कि ये इलाके अपने दम पर शासन चलाने के काबिल नहीं हैं. और, जब तक उनके पास काबिलियत आ नहीं जाती, तब तक वे हमारी निगरानी में रहेंगे. यही हुआ भी. फ़िलिस्तीन ऑटोमन्स के अंडर था. उसका नियंत्रण ब्रिटेन के पास आया.
फ़िलिस्तीन में अरब मुसलमान बहुमत में थे. वहां कुछ संख्या यहूदियों की भी थी. 20वीं सदी की शुरुआत में उनकी आवक बढ़ती गई. यूरोप में हो रहे अत्याचार से परेशान यहूदी फ़िलिस्तीन आने लगे. उनमें से अधिकतर का दावा था कि जिस ज़मीन को फ़िलिस्तीन कहा जा रहा है, वो असल में उनके पुरखों का है. उन्होंने फ़िलिस्तीन में एक नए यहूदी मुल्क़ की स्थापना का संकल्प लिया. इसको लेकर दोनों धड़ों के बीच भरपूर दंगा हुआ. फिर 1930 के दशक में जर्मनी में एडोल्फ़ हिटलर का शासन शुरू हुआ. इसके बाद यहूदियों का दमन कई गुणा बढ़ा. बचे-खुचे यहूदी भी फ़िलिस्तीन पहुंच गए. उनकी संख्या लगातार बढ़ती गई. इसके साथ-साथ यहूदी मुल्क़ बनाने की मांग भी ज़ोर पकड़ती गई. उधऱ, मुसलमान भी अपने लिए आज़ाद मुल्क़ चाह रहे थे. एक समय ऐसा आया जब ब्रिटेन के लिए फ़िलिस्तीन में बने रहना मुश्किल हो चुका था. फिर 1947 में ब्रिटेन ने फ़िलिस्तीन की समस्या को यूनाइटेड नेशंस को सौंप दिया. कहा कि, अब आप देखिए. हम निकलते हैं. यूएन की स्थापना अक्टूबर 1945 में लीग ऑफ़ नेशंस की लीक पर ही हुई थी. इसमें दूसरे विश्वयुद्ध के विजेता देशों का दबदबा था.
यूएन ने फ़िलिस्तीन के मसले पर कई महीने तक चर्चा की. यूएन ने फ़िलिस्तीन की सीमा के अंदर दो आज़ाद मुल्क़ों की स्थापना का प्रस्ताव दिया. एक हिस्सा यहूदियों के लिए और दूसरा अरब मुसलमानों के लिए. जेरूसलम को इंटरनैशनल कंट्रोल में रखने की बात की गई. इस प्लान को अरब नेताओं ने खारिज कर दिया. जबकि यहूदी नेता इसके लिए तैयार हो गए. मई 1948 में उन्होंने स्टेट ऑफ़ इज़रायल की स्थापना की. इसके अगले ही दिन अरब देशों ने इज़रायल पर हमला कर दिया. इसे फ़र्स्ट इज़रायल-अरब वॉर के नाम से जाना जाता है. इस लड़ाई में इज़रायल जीता. उसने अपनी सीमाओं की रक्षा तो की ही, साथ में फ़िलिस्तीन को मिली ज़मीन का 77 फीसदी हिस्सा भी अपने क़ब्ज़े में ले लिया. इन इलाकों में रहने वाले आधे से अधिक मुसलमानों को अपना घर-बार छोड़कर भागना पड़ा.
युद्ध खत्म होने के बाद फ़िलिस्तीन के नाम पर दो छोटे-छोटे पट्टे रह गए थे. इज़रायल के पूरब की तरफ़ वेस्ट बैंक और दक्षिण में गाज़ा स्ट्रीप. वेस्ट बैंक जॉर्डन नदी के पश्चिमी किनारे पर बसा है. इसलिए, इसे वेस्ट बैंक कहते हैं. ये जॉर्डन के हाथों में पहुंच गया था. जबकि गाज़ा पट्टी पर ईजिप्ट ने क़ब्ज़ा कर लिया था. 1967 में दूसरे इज़रायल-अरब वॉर ने स्थिति को और बिगाड़ दिया. इस लड़ाई में इज़रायल ने वेस्ट बैंक और गाज़ा स्ट्रीप को भी हथिया लिया.
दूसरी तरफ़, फ़िलिस्तीनियों के पास अपनी कोई सरकार नहीं थी. उन्होंने अलग-अलग गुट बनाकर आज़ादी की लड़ाई शुरू की. इसमें सबसे ताक़तवर गुट की स्थापना 1964 में हुई. इसका नाम था, फ़िलिस्तीन लिबरेशन ऑर्गेनाइज़ेशन यानी PLO. जिसके सबसे बड़े नेता हुए, यासिर अराफ़ात. उन्होंने 1990 के दशक में इज़रायली सरकार के साथ ओस्लो अकॉर्ड्स किया.
इसमें एक बड़ी चीज़ हुई. PLO ने इज़रायल के अस्तित्व को स्वीकार लिया और हिंसा का रास्ता छोड़ने का फ़ैसला कर लिया. उनकी शर्त ये थी कि इज़रायल 1967 से पहले वाली स्थिति में लौट जाएगा. मतलब ये कि वो वेस्ट बैंक और गाज़ा पर से अपना दावा छोड़ देगा. इसके बाद फ़िलिस्तीन में सरकार चलाने के लिए फ़िलिस्तीनी अथॉरिटी (PA) की नींव रखी गई. ये अथॉरिटी फ़िलिस्तीन में सरकार चलाने वाली थी. इस दिशा में काम तेज़ी से बढ़ रहा था, लेकिन दोनों ही तरफ़ कुछ ऐसे लोग थे, जो इस समझौते से कतई खुश नहीं थे. उन्होंने ओस्लो अकॉर्ड्स को धता बताने की कोशिश शुरू कर दी.
नवंबर 1995 में एक कट्टर यहूदी ने इज़रायल के प्रधानमंत्री यित्हाक राबिन की हत्या कर दी. फिर हमास ने इज़रायल में आत्मघाती हमले बढ़ा दिए. इज़रायल और फ़िलिस्तीन, दोनों तरफ़ ओस्लो अकॉर्ड्स का विरोध होने लगा. इसलिए, ये समझौता कभी भी अपने मुकाम तक नहीं पहुंच पाया.
वेस्ट बैंक और गाज़ा में इज़रायल ने अपनी कॉलोनियां बसानी जारी रखीं. इसमें कट्टर यहूदी नागरिकों को बसाया गया. उन्हें इज़रायली आर्मी सुरक्षा देती है. उनके लिए अलग से सड़कें बनी हुईं है. वेस्ट बैंक में मिलने वाली सुविधाओं पर उन्हें पहला हक़ मिलता है. फ़िलिस्तीनियों को अपने ही इलाके में अलग-थलग कर दिया जाता है. इन कॉलोनियों को सेटलमेंट्स कहा जाता है. इन सेटलमेंट्स को बसाने के लिए हज़ारों फ़िलिस्तीनियों को हटाया गया. फिलहाल, वेस्ट बैंक के 40 प्रतिशत से अधिक हिस्से पर इज़रायल का क़ब्ज़ा है. इज़रायल का दावा है कि पूरा वेस्ट बैंक उनका है और वे फ़िलिस्तीनियों को हटाकर कोई गुनाह नहीं कर रहे हैं. जबकि यूएन जनरल असेंबली, सिक्योरिटी काउंसिल और इंटरनैशनल कोर्ट ऑफ़ जस्टिस का कहना है कि, वेस्ट बैंक में इज़रायल का क़ब्ज़ा अवैध है. और, ये अंतरराष्ट्रीय कानूनों के भी ख़िलाफ़ है. इसके बावजूद इज़रायल पीछे नहीं हट रहा है. दिसंबर 2022 में बेंजामिन नेतन्याहू की सत्ता में वापसी हुई. शपथ लेने से एक दिन पहले उन्होंने कहा कि, वेस्ट बैंक में सेटलमेंट्स बढ़ाना उनकी प्राथमिकता है.
इन सेटलमेंट्स का विरोध लंबे समय से हो रहा है. इज़रायल पीछे हटने के लिए तैयार नहीं है. जबकि फ़िलिस्तीनी गुट इसे अपनी आज़ादी के लिए ख़तरा मानते हैं. उनका मानना है कि अगर ऐसा ही चलता रहा तो फ़िलिस्तीन का नामोनिशान हमेशा के लिए मिट जाएगा.
हालांकि, इन गुटों का गुस्सा यहीं तक सीमित नहीं है. वे सेटलर्स के हमलों का विरोध करते हैं. वे अल-अक्सा मस्जिद में इज़रायली हस्तक्षेप के ख़िलाफ़ हैं. कुछ गुट तो ऐसे भी हैं, जिनका मानना है कि इज़रायल नाम का कोई देश होना ही नहीं चाहिए. ये गुट वेस्ट बैंक और गाज़ा में लंबे समय से ऑपरेट कर रहे हैं. दरअसल, नवंबर 2004 में अराफ़ात की मौत हो गई थी. PLO में कोई उनके कद का नेता नहीं था. एक बड़ी खाली जगह थी. जिसे भरने के लिए चरमपंथी संगठन कतार लगाए खड़े थे. हमास, फ़िलिस्तीन इस्लामिक जिहाद (PIJ), फ़ताह, अबू निदाल गुट आदि. ये PLO से अधिक कट्टर और हिंसक थे. इसलिए, उनसे जुड़ने वालों की संख्या बढ़ती चली गई. 2005 में फ़िलिस्तीन अथॉरिटी और इज़रायल ने मिलकर वेस्ट बैंक में काम करने वाले सशस्त्र गुटों के ख़िलाफ़ बड़ा ऑपरेशन चलाया था. इसके बावजूद वे उन्हें पूरी तरह खत्म नहीं कर पाए. ये गुट अपनी ताक़त जुटाते रहे.
फिर आया 2021 का साल. मई के महीने में इज़रायल-फ़िलिस्तीन के बीच लड़ाई हुई. इसमें लगभग 300 लोग मारे गए. इस लड़ाई की शुरुआत ईस्ट जेरूसलम से कुछ फ़िलिस्तीनी परिवारों को हटाने के फ़ैसले से शुरू हुई थी. इसके ख़िलाफ़ पहले पूरे फ़िलिस्तीन में प्रोटेस्ट हुआ. और, उसके बाद हमास और PIJ ने मिलकर मिसाइलों से हमला शुरू कर दिया. इसी प्रोटेस्ट के दौरान जेनिन शहर और वहां का रेफ़्यूजी कैंप उभर कर सामने आया. जेनिन वेस्ट बैंक में पड़ता है. इस कैंप की स्थापना 1953 में हुई थी. इसमें अलग-अलग युद्ध में इज़रायल के क़ब्ज़े से भगाए गए अरब रहते हैं. इज़रायल का आरोप है कि इन कैंप्स में चरमपंथी गुटों का नियंत्रण है. और, वे वहां से इज़रायली नागरिकों को निशाना बनाते हैं. 2022 में अलग-अलग हमलों में कम से कम 30 इज़रायली नागरिकों की मौत हुई. इज़रायल का कहना है कि वो इन हमलों के दोषियों को उनके घर में घुसकर मारेगा. इसी वजह से इज़रायली आर्मी इन कैंप्स में ऑपरेशन चलाती रहती है. इन ऑपरेशंस में 2022 में 170 फ़िलिस्तीनियों की मौत हुई. फ़िलिस्तीनी अधिकारियों का कहना है कि इनमें से अधिकतर आम नागरिक थे. उनका आतंक या हिंसा से कोई लेना-देना नहीं था. इस साल जनवरी में इज़रायली आर्मी की रेड में 29 फ़िलिस्तीनी मारे जा चुके हैं. इज़रायल का कहना है कि ये सभी उसके नागरिकों पर हमले के लिए ज़िम्मेदार थे.
आज हम ये कहानी क्यों सुना रहे हैं?जैसा कि हमने पहले बताया, 25 जनवरी को इज़रायल की रेड में 09 लोग मारे गए. एक व्यक्ति बाद में हुई झड़प का शिकार हुआ. इज़रायल का कहना है कि ये लोग हमले की साज़िश रच रहे थे. उनकी साज़िश को नाकाम करने के लिए ऑपरेशन चलाना ज़रूरी था. फ़िलिस्तीन अथॉरिटी ने इस घटना को नरसंहार का नाम दिया है. उन्होंने कहा है कि मारे गए लोग आम नागरिक थे. अथॉरिटी ने इज़रायल के साथ सिक्योरिटी को-ऑपरेशन बरकरार रखने से भी मना कर दिया. फ़िलिस्तीन से काम करने वाले सभी संगठनों ने बड़ी कार्रवाई की चेतावनी दी है. बढ़ते तनाव के बीच 26 जनवरी को इज़रायल के प्रधानमंत्री नेतन्याहू ने हाई-लेवल मीटिंग बुलाई. इसमें सेना और खुफिया एजेंसियों के टॉप अधिकारी भी शामिल हुए.
इस मामले में ताज़ा अपडेट क्या हैं?
- 27 जनवरी की सुबह इज़रायल की वायुसेना ने गाज़ा स्ट्रीप में कई हवाई हमले किए. इससे पहले हमास ने इज़रायल पर रॉकेट्स दागे थे. उन्हें एयर डिफ़ेंस सिस्टम ने हवा में ही निपटा दिया.
- जेरूसलम पोस्ट की रिपोर्ट के अनुसार, इज़रायल आर्मी ने वेस्ट बैंक में अपनी एक और बटालियन तैनात कर दी है.
- यूएन ने बढ़ते तनाव पर चिंता जताई है. उसने दोनों पक्षों से शांति बरतने की अपील की है.
- अमेरिका के विदेशमंत्री एंटनी ब्लिंकन इस वीकेंड में मिडिल-ईस्ट के दौरे पर जा रहे हैं. वो इज़रायल और फ़िलिस्तीन के अधिकारियों से मुलाक़ात करेंगे. कहा जा रहा है कि उनके दौरे में हालिया तनाव पर फ़ोकस रहेगा.
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