क्या बीजेपी शाही ईदगाह मस्ज़िद में कृष्ण मंदिर बनाने की तैयारी कर रही है?
प्रशांत किशोर ने कांग्रेस को लपेटे में क्यों ले लिया?
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केशव प्रसाद मौर्य ने ट्वीट कर कहा अब मथुरा की तैयारी है
हिंदू परंपराओं में इन तीनों को ईष्ट माना गया है. इनके मंदिर बनें और अनुयायी यहां पूजा-अर्चना करें, इसमें किसी को कोई समस्या न है, न हो सकती है. लेकिन अगर बात इतनी सीधी होती, तो केशव प्रसाद मौर्य इस ट्वीट को अपनी प्रोफाइल पर पिन नहीं करते. संघ परिवार और भाजपा को राम मंदिर आंदोलन ने कितना राजनैतिक फायदा पहुंचाया, इसके बारे में अलग से बात करने की कोई ज़रूरत नहीं है. लेकिन एक बात है. मंदिर आंदोलन और भव्य राम मंदिर के राजनैतिक दोहन की कोई न कोई सीमा तो ज़रूर है. और उस सीमा तक के दो पड़ाव पार हो चुके हैं. दिसंबर 1992 में अयोध्या में बाबरी मस्जिद को गिरा दिया गया. फिर नवंबर 2019 में सुप्रीम कोर्ट ने फैसला दे दिया कि इस जगह राम मंदिर बने. 5 अगस्त 2020 को प्रधानमंत्री मोदी ने मंदिर का भूमिपूजन किया और अब मंदिर का काम चौबीसों घंटे चलता है. अब एक ही बड़ा कार्यक्रम बाकी है, जो कि है प्राण प्रतिष्ठा और विधिवत उद्घाटन. राजनीति पर राम मंदिर का असर भले लंबे समय तक रहे. लेकिन एक मुद्दे के रूप में राम मंदिर की राजनीति अपनी परिणति की ओर बढ़ रही है. और इसीलिए हिंदुत्ववादी राजनीति अपनी गोलबंदी के लिए एक बड़े मुद्दे की तलाश में है. और इसके लिए वो भविष्य की जगह अतीत की तरफ देख रही है. याद कीजिए मंदिर आंदोलन के वक्त आए उस नारे को - 'अयोध्या तो बस झांकी है.. काशी-मथुरा बाकी है. हिंदुत्ववादी संगठनों ने मंदिर आंदोलन के समय से ही अयोध्या के साथ साथ दो और जगहों पर हुए कथित ''अन्याय'' को रेखांकित करना शुरू कर दिया था. काशी, जहां बाबा विश्वनाथ के मंदिर के ठीक बदल में ज्ञानव्यापी मस्जिद है. और मथुरा, जहां श्रीकृष्ण जन्मस्थान के ठीक बगल में शाही ईदगाह है. ये तीनों जगहें उत्तर प्रदेश में हैं. और इसीलिए जब जब इन्हें मुद्दा बनाया जाता है, उसका असर पूरे उत्तर प्रदेश और हिंदी पट्टी में पड़ता है. जब तक बाबरी मस्जिद - राम जन्मभूमि विवाद पर फैसला नहीं आ गया, तब तक काशी और मथुरा का ज़िक्र हिंदुत्ववादी संगठन यदा-कदा ही करते रहे. लेकिन जैसा कि हमने आपको कुछ देर पहले बताया, अयोध्या में मंदिर तो बन ही रहा है. इसीलिए धर्म के नाम पर होने वाली गोलबंदी के लिए कच्चा माल अब काशी और मथुरा में खोजा जा रहा है. बाबरी मस्जिद - राम जन्मभूमि विवाद पर सुप्रीम कोर्ट का फैसला आने के बाद से ही काशी और मथुरा चर्चा में हैं. दोनों जगहों को लेकर बयानबाज़ी से लेकर मुकदमेबाज़ी में तेज़ी आई है. लेकिन मथुरा को कुछ प्रधानता मिली है. और उसके कुछ कारण समझे जा सकते हैं. भगवान राम को कुछ लोगों ने ठाकुर पहचान में बांधने की कोशिश ज़रूर की, लेकिन जनमानस ने कभी उन्हें इस पहचान में सीमित नहीं माना. उलटा, राम के नाम में भाजपा और संघ ने जातिगत राजनीति को कुछ हद तक पटखनी भी दे डाली. इसी तरह श्रीकृष्ण भी सभी को समान रूप से प्यारे हैं. लेकिन यादव समाज के बीच उनकी मान्यता एक अलग स्तर पर है. यादव समाज श्रीकृष्ण से अपना सीधा नाता समझता है और इसीलिए ये एक विचार है कि कृष्ण के नाम पर हरियाणा से लेकर बिहार तक यादव समाज को लामबंद किया जा सकता है. इसीलिए मथुरा को लेकर गतिविधियों में उछाल आया और बना हुआ है. योगी आदित्यनाथ सरकार ने भी मथुरा के विकास को लेकर नई स्कीम्स की घोषणा की है और साथ ही उनके क्रियान्वयन के लिए उत्तर प्रदेश ब्रज तीर्थ विकास परिषद का गठन भी कर दिया है. 25 सितंबर 2020 को मथुरा में भूमि विवाद को लेकर एक मामला अदालत में दर्ज करवाया गया. इस वाद को जिस भाषा में दर्ज किया गया और जिस भाषा में उसकी बात हुई, उसने सभी को राम मंदिर आंदोलन की याद दिलाई. यूपी और यूपी से बाहर भी श्रीकृष्ण के दर्शनाभिलाषि यही कहते थे, कि ''मथुरा जी'' जा रहे हैं. या वृंदावन जा रहे हैं. ये तय ही होता था कि वहां जाकर आप श्रीकृष्ण जन्मस्थान के दर्शन करेंगे ही. लेकिन इस केस की रिपोर्टिंग के वक्त एक शब्द पर बहुत ज़ोर दिया गया - श्रीकृष्ण जन्मभूमि. बाबरी मस्जिद - राम जन्मभूमि विवाद में फैसला राम लला विराजमान के पक्ष में आया था. इसी तर्ज पर, मथुरा में दर्ज हुआ मामला भी श्री कृष्ण विराजमान की तरफ से दर्ज कराया गया. विराजमान शब्द पर गौर कीजिएगा. इस मामले में दावा किया गया कि 1618 में राजा वीर सिंह देव बुंदेला ने 33 लाख रुपए खर्च करके श्रीकृष्ण जन्मस्थान पर प्रथम मन्दिर बनवाया था. वाद में यह भी कहा गया है कि औरंगजेब द्वारा मन्दिर को तोड़कर शाही ईदगाह को बनवाया. मथुरा की दीवानी अदालत में ये मामला खारिज हो गया था. इसके बाद ये मामला ज़िला न्यायालय में गया. एक तरफ ये अदालती कार्यवाही चलती रही. दूसरी तरफ प्रेशर पॉलिटिक्स को भी नए फोकस के साथ शुरू किया गया. जो अब मुखर होती जा रही है. विधानसभा चुनाव सिर पर हैं. और हिंदुत्ववादी संगठनों ने ऐलान कर दिया कि ईदगाह पर बालकृष्ण का जलाभिषेक किया जाएगा. तारीख रखी गई 6 दिसंबर. इस तारीख पर गौर करेंगे तो समझ जाएंगे कि ये आयोजन कितना धार्मिक है और कितना राजनैतिक. 6 दिसंबर के दिन ही बाबरी मस्जिद को ढहा दिया गया था. जलाभिषेक तो जलाभिषेक, अखिल भारत हिंदू महासभा ने तो इसी साल नवंबर में धमकी दे दी कि वो श्रीकृष्ण की असल जन्मस्थान पर उनकी मूर्ति स्थापित करेंगे. और महासभा का मानना है कि ये असल जन्मस्थान शाही ईदगाह के अंदर है. महासभा के मुताबिक ये काम 6 दिसंबर को जलाभिषेक के बाद होना था. मथुरा ज़िला प्रशासन ने ऐसी किसी भी कवायद की अनुमति देने से मना कर दिया है. दो महीने के लिए निषेधाज्ञा लगा दी गई है. अतिरिक्त बल मथुरा पहुंच गया है और संवेदनशील इलाकों में फ्लैगमार्च किया जा रहा है. जन्मस्थान और शाही ईदगाह को रेड ज़ोन बना दिया गया है. अब हिंदुत्ववादी संगठन लोगों से अपने घरों में ही जलाभिषेक करने की अपील कर रहे हैं. तो एक तरफ सरकार मथुरा में विकास करके उसे भविष्य में धार्मिक पर्यटन के लिहाज़ से रीब्रैंड करना चाहती है. वहां धार्मिक उन्माद से निपटने के लिए सख्त तैयारी कर रही है. लेकिन उसी सरकार के डिप्टी सीएम मथुरा की तैयारी का ट्वीट कर रहे हैं. इतना ही नहीं, यूपी के श्रम एवं सेवायोजन मंत्री ठाकुर रघुराज सिंह का बयान आया है. कह रहे हैं- 'मथुरा के मंदिर के लिए अगर बलि चढ़ानी हुई, तो वो भी करेंगे'. एक सरकार के दो दो मंत्री मथुरा का राग अलाप रहे हैं. इसका मतलब ये अचानक नहीं हुआ है. इसके पीछे एक विचार है. अब तक भाजपा के केंद्रीय या राज्य स्तर के नेतृत्व ने इन बयानों पर कोई आपत्ति दर्ज नहीं कराई है. इस मौन का मतलब हम क्या निकालें? क्या भाजपा, उसकी सरकार और उस सरकार के मंत्री सितंबर 1991 में आए प्लेसेस ऑफ वर्शिप एक्ट नाम की चिड़िया को जानते हैं? इसमें कहा गया है कि 15 अगस्त 1947 के बाद जो धार्मिक स्थल जहां पर है, उसे दूसरे धर्म के स्थल में तब्दील नहीं किया जा सकता. राम जन्मभूमि- बाबरी मस्जिद विवाद को इस एक्ट के दायरे से बाहर रखा गया था. इसके पीछे कारण यह था कि ये विवाद उस वक्त कोर्ट पहुंच चुका था, जब यह एक्ट बना. places of worship act का जिक्र सुप्रीम कोर्ट ने रामजन्मभूमि विवाद का फैसला सुनाते वक्त भी किया था. पांच जजों की बेंच ने 1045 पेजों के फैसले में इसके बारे में कहा था कि यह भारत के सेक्यूलर चरित्र को मजबूत करता है. 30 सितंबर को मथुरा में श्रीकृष्ण जन्मस्थान से सटे ईदगाह को हटाने के केस को खारिज करते हुए सिविल जज सीनियर डिविजन कोर्ट ने भी इस कानून का जिक्र किया. कोर्ट का कहना था कि 1991 के प्लेसेस ऑफ वर्शिप एक्ट के तहत सभी धर्मस्थलों की स्थिति 15 अगस्त 1947 वाली रखी जानी है. प्लेसेज ऑफ वर्शिप एक्ट 1991 में आईपीसी की धारा भी जोड़ी गई है. एक्ट के उल्लंघन को अपराध की श्रेणी में रखा गया है. अगर कोई भी इस कानून का उल्लघंन करता है तो उसे तीन साल की सजा निर्धारित की गई है. इन बातों के आलोक में क्या ये कहा जाए कि केशव प्रसाद मौर्य और योगी मंत्रिमंडल में उनके साथी कानून तोड़ने की वकालत कर रहे हैं? अगर वो इस कानून में नहीं मानते, तो केंद्र में बैठी उनकी पार्टी इस कानून को कब बदलने जा रही है? क्या उसने ऐसी कोई बात कभी की भी है? दी लल्लनटॉप ने विश्व हिंदू परिषद के राष्ट्रीय प्रवक्ता विनोद बंसल से विस्तृत बातचीत की. विनोद बंसल ने हमें बताया -अयोध्या काशी भव्य मंदिर निर्माण जारी है मथुरा की तैयारी है #जय_श्रीराम #जय_शिव_शम्भू #जय_श्री_राधे_कृष्ण
— Keshav Prasad Maurya (@kpmaurya1) December 1, 2021
परिषद का कहना है कि श्रीराम की जन्म भूमि हो या श्री कृष्ण की. दोनों ही सवा सौ करोड़ हिंदुओं के अराध्या के जन्म स्थान हैं. इस बारे में कोई दो राय किसी को नहीं होना चाहिए कि इनकी मुक्ति का समय अब आ गया है.उन्होंने यह भी कहा कि
हाल ही में बाहर के जिहादी तत्व मथुरा के हालातों को ख़राब करने की कोशिश कर रहे हैं.परिषद और परिषद जैसे तमाम संगठनों की बातों में जो साफगोई है, वो आपको अचंभित करती है. बात विवादित हो, या गैर कानूनी, एक तय विचार है, जिसपर अमल किया जा रहा है. अब देखना ये है कि चुनावी मौसम में भाजपा अपने विचार में कितनी सफाई ला पाती है. वो बने हुए कानून पर अमल करेगी, कानून बदलेगी या फिर इन दोनों के बीच में झूलते हुए, हिंदुत्व की राजनीति के लिए नए मुद्दे तलाशती रहेगी. रही बात समाजवादी पार्टी जैसी विपक्षी पार्टियों की, तो वो हिंदुत्व की लहर के सामने छिटपुट बयान से कितना आगे जा पाए हैं, ये इतिहास में दर्ज है. कल भी केशवप्रसाद मौर्य के ट्वीट पर अखिलेश इतना ही कह पाए कि अब कोई नया मंत्र नहीं चलेगा. इस खेल में विपक्ष के पास लहर के विपरीत तैरने का ऑप्शन नहीं था. और संभवतः आने वाले समय में रहेगा भी नहीं. अब शुरू करते हैं कहानी का दूसरा अंक. दूसरा ट्वीट और दूसरा आदमी. चुनावी रणनीतिकार प्रशांत किशोर ने अपने एक ट्वीट में कई काम किए हैं. भारत में विपक्ष की राजनीति का बदलता चरित्र भी बताया है. और विपक्ष की राजनीति को लेकर स्थापित समझ को चुनौती भी दी है. आपको याद होगा, पहले पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी जब भी दिल्ली आती थीं, उनकी सोनिया गांधी से मुलाकात होती थीं. राहुल और सोनिया के साथ ममता की तस्वीरें आती थीं. अब नहीं आती. और ममता से जब पूछा जाता है कि क्या वो सोनिया से मिलेंगी तो उनका जवाब होता है, हर बार दिल्ली आऊं तो सोनिया से मिलूं, ये ज़रूरी नहीं है. ये इतना सीधा जवाब नहीं है, इसके मायने गहरे हैं. देश में अब तक विपक्ष का मतलब कांग्रेस और उसकी सहयोगी पार्टियां समझा जाता रहा है. और इसमें किसी को शक भी नहीं है कि वोट फीसद और सीटों के लिहाज से कांग्रेस बीजेपी के बाद देश की दूसरी सबसे बड़ी पार्टी है. इसलिए जब सरकार के खिलाफ मोर्चाबंदी की बात होती है, या राष्ट्रीय स्तर पर बीजेपी के खिलाफ विपक्षी मोर्चे की बात आती है, तो मुख्य भूमिका में कांग्रेस दिखती है. लेकिन पिछले कुछ दिनों से हमें ये दिख रहा है कि तृणमूल, कांग्रेस को साइडलाइन कर प्रिसिंपल अपोजिशन पार्टी दिखने की कोशिश कर रही है. बंगाल के बाहर टीएमसी अपना फुटप्रिंट बढ़ा रही है. कांग्रेस वाला स्पेस कैप्चर करने की कोशिश कर रही है. और देश की बाकी पार्टियों को भी ये भरोसा दिलाने में लगी है कि आप कांग्रेस से आगे सोचिए, बिना कांग्रेस भी मजबूत विपक्ष बनाया जा सकता है. और टीएमसी की तरफ से ये भरोसा दिलाने की कड़ी में ही प्रशांत किशोर का ट्वीट आता है. पहले ट्वीट देखिए, फिर इसके मायने समझते हैं. प्रशांत किशोर ने लिखा -
कांग्रेस जिस विचार और विस्तार का प्रतिनिधित्व करती है, वो एक मजबूत विपक्ष के लिए अहम है. लेकिन कांग्रेस की लीडरशिप किसी एक आदमी का दैवीय अधिकार नहीं है. खासकर तब, जब ये पार्टी 10 साल में 90 फीसदी चुनाव हारी है.
The IDEA and SPACE that #Congress represents is vital for a strong opposition. But Congress’ leadership is not the DIVINE RIGHT of an individual especially, when the party has lost more than 90% elections in last 10 years. Let opposition leadership be decided Democratically. — Prashant Kishor (@PrashantKishor) December 2, 2021विपक्ष की लीडरशिप कौन करेगा, ये लोकतांत्रिक तरीके से तय होने दें." तो इस ट्वीट में पहली बार प्रशांत किशोर ने कांग्रेस और इसके नेतृत्व यानी गांधी परिवार पर सीधा निशाना साधा है. आप जानते होंगे कि प्रशांत किशोर कभी राहुल गांधी के बेहद करीबी माने जाते थे. सूत्रों से खबरें आती थी कि कांग्रेस में हर बड़े फैसले पर प्रशांत किशोर की राय ली जाती थी. और इसकी शुरुआत हुई 2016 में. तब पंजाब चुनाव के लिए कांग्रेस ने प्रशांत किशोर को रणनीतिकार रखा. फिर 2017 में यूपी चुनाव के लिए भी राहुल गांधी के लिए चुनावी रणनीति की जिम्मेदारी प्रशांत किशोर के हाथ में रही. उस चुनाव में कांग्रेस और समाजवादी पार्टी का गठबंधन था. और कहा जाता है कि राहुल और अखिलेश के लिए 'यूपी के लड़के' वाली लाइन भी प्रशांत किशोर ने ही दी थी. हालांकि यूपी चुनाव में कांग्रेस को प्रशांत किशोर का ज्यादा फायदा नहीं मिला. कांग्रेस और समाजवादी पार्टी गठबंधन की बुरी हार हुई. लेकिन पंजाब में कांग्रेस जीत गई थी, और उसका कुछ श्रेय प्रशांत किशोर को भी मिला. फिर प्रशांत किशोर मुख्यमंत्री कैप्टन अमरिंदर सिंह के एडवाइज़र के तौर पर कांग्रेस से जुड़े रहे. लेकिन 2017 के चुनाव के बाद प्रशांत डायरेक्टली कभी कांग्रेस के रणनीतिकार नहीं रहे. इस साल बंगाल चुनाव के बाद प्रशांत किशोर की राहुल गांधी और प्रियंका गांधी से मुलाकातें हुई. तब सूत्रों के हवाले से ये खबरें भी आईं कि उनको कांग्रेस में कोई बड़ा पद दिया जा सकता है. हालांकि प्रशांत किशोर की गांधी परिवार से क्या बात हुई, क्या ऑफर था और क्या प्रशांत की डील थी, इसके बारे में हमें ज्यादा नहीं पता. बाहर खबर ये आई कि दोनों में बात नहीं बन पाई. उसके बाद से प्रशांत किशोर की तरफ से कुछ ऐसे बयान आए, जो कांग्रेस को बिल्कुल पसंद नहीं आए. प्रशांत किशोर कांग्रेस और राहुल गांधी की समझ पर सवाल उठाने लगे. अक्टूबर में उनका एक बयान पर खूब वायरल हुआ था. इसमें उन्होंने कहा था कि सरकार या विपक्ष में बीजेपी कई दशकों तक रहने है, ये बात राहुल गांधी नहीं समझ रहे. इस बयान पर कांग्रेस खूब नाराज़ भी हुई थी. प्रशांत किशोर के अगर पिछले 2 ट्वीट्स देखेंगे, तो दोनों कांग्रेस पर ही हैं. आज वाला तो हमने बताया ही. इससे पहले अक्टूबर में ट्वीट किया था. इसमें लिखा था - "जो लोग लखीमपुर की घटना के आधार पर ग्रैंड ओल्ड पार्टी यानी कांग्रेस की अगुवाई में विपक्ष को तुरंत रिवाइव होते देखने की उम्मीद लगाए हैं, उन्हें बड़ी निराशा हाथ लगेगी. दुर्भाग्यवश, इस गहरी समस्या और ग्रैंड ओल्ड पार्टी की ढांचागत दिक्कत को तुरंत ठीक करने वाला कोई तरीका नहीं है." तो एक तरफ प्रशांत किशोर सीधे कांग्रेस और गांधी परिवार की काबिलियत पर सवाल उठा रहे हैं. दूसरी तरफ कांग्रेस के नेताओं की सेंधमारी भी हो रही है. असम की कांग्रेस नेता सुष्मिता देव, फिर कीर्ति आज़ाद, गोवा के पूर्व सीएम लुइज़िनो फलेइरो. ये सब टीएमसी के हो चुके हैं. पिछले महीने मिज़ोरम में तो पूरी कांग्रेस ही तोड़ ली. पूर्व सीएम मुकुल संगमा समेत 12 कांग्रेस विधायक टीएमसी में शामिल हो गए. मतलब, प्रशांत किशोर कांग्रेस का नुकसान तो कर रहे हैं. अब ये कर क्यों रहे हैं, ये समझते हैं. कई लोग कह रहे हैं कि कांग्रेस में उनकी बात नहीं बनी, इसलिए बदले की राजनीति कर रहे हैं. कई लोग ये भी कह रहे हैं कि वो ट्रोज़न होर्स की तरह काम कर रहे हैं, विपक्ष पार्टियों को कमज़ोर करके बीजेपी फायदा कर रहे हैं. और फिर एक तर्क ये है कि वो अभी आधिकारिक रूप से ममता बनर्जी और टीएमसी के लिए काम कर रहे हैं. इसलिए ममता का कद और पार्टी का विस्तार करने के लिए जो ज़रूरी है, प्रशांत वो कर रहे हैं.