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हाईकोर्ट ने हिंदी को 'राष्ट्रभाषा' कहा तो याचिकाकर्ता सुप्रीम कोर्ट क्यों पहुंच गया?

हिंदी राष्ट्रभाषा है या नहीं? इसे लेकर गुजरात हाईकोर्ट की मानें या बॉम्बे हाईकोर्ट की, या फिर संविधान की

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बॉम्बे हाईकोर्ट ने एक याचिका खारिज करते हुआ कहा कि हिंदी भारत की राष्ट्रभाषा है, जिसके बाद याचिकाकर्ता सुप्रीम कोर्ट पहुंच गया है ([फोटो सोर्स- आजतक)
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शिवेंद्र गौरव
22 फ़रवरी 2022 (Updated: 22 फ़रवरी 2022, 12:04 PM IST) कॉमेंट्स
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भाषा क्या है? बात समझ में आ जाए वही भाषा. कन्वर्सेशन पूरा कर दे वो भाषा. कहने वाला कहे या न कहे सामने वाला समझ ले, तो भी भाषा. साइन लैंग्वेज भी तो आखिर भाषा है. प्रेम की भाषा भी है, घृणा की भी है. कहते हैं एहसास जरूरी है, भावपक्ष की प्रधानता है, भाव समझ लिया तो फिर भाषा कोई भी हो. क्या फर्क पड़ता है. मुझे याद है मेरे नाना जी की चिट्ठी आती थी, मेरी मां के लिए. चिट्ठी में नाना जी लिखते, प्रिय पुत्री! यहां सब कुशल है, आपकी कुशलता की ईश्वर से प्रार्थना करता हूं. इसके बाद चिट्ठी का पूरा प्रसंग शुद्ध हिन्दी में सधा होता था. उतनी क्लिष्ट और विशुद्ध हिंदी उस उम्र में समझना मेरे बस की बात नहीं थी. लेकिन उस चिट्ठी में लिपटे स्नेह का भाव मन में रह जाता था. उनकी अगली चिट्ठी तक. और आज भी महत्व तो भाव का ही है न, व्हाट्सऐप पर Hmm अंग्रेजी में लिखें या हिंदी में. काम तो मैसेज भेजने वाले की बात पर हामी भरने का है, जो दोनों से हो जाता है. हां, कभी मैसेज भेजने वाले ने लंबे जवाब की उम्मीद की हो तो ‘हम्म’ भर से काम नहीं चलता, इससे आपकी हल्की असहमति भांप ली जाती है. भाव क्या है, पकड़ लिया जाता है. प्रधानता भाव की ही रहती है. लेकिन तब क्या हो? जब कहने वाले और सुनने वाले की भाषाएं पूरी तरह अलग हों? मिसाल के लिए अंग्रेज़ी भाषा में नीला रंग अगर हल्का हो तो उसे ‘लाइट ब्लू’ और गहरा हो तो डार्क ब्लू कहा जाता है. लेकिन रशियन भाषा में लाइट ब्लू और डार्क ब्लू के लिए अलग शब्द हैं. असल में नीला, डार्क नीला और हल्का नीला. ये तीनों रशियन भाषा में अलग-अलग रंग हैं. रशियन में लाइट ब्लू ‘गोलुबॉय’ है. और डार्क ब्लू ‘सीनी’ कहा जाता है. लुडविग विट्गेंस्टाइन. जिन्हें भाषा के दर्शन का पितामह माना जाता है. उन्होंने कहा था, ‘The limits of my language mean the limits of my world.’ यानी “मेरी भाषा की सीमा ही तय करती है कि मेरी दुनिया की सीमा क्या होगी.” लेकिन बहुभाषाविद होना कोई आसान काम नहीं है. और इशारे, संकेत या भाव, साइन, सिग्नल या सिंबल भी कई बार मैसेज कन्वे करने के लिए काफ़ी नहीं होते. उस वक़्त हमारी दुनिया सिर्फ हम तक सीमित होने लगती है, और इसी पॉइंट पर किसी एक भाषा की यूनिवर्सैलिटी यानी सार्वभौमिकता पर बहस शुरू होती है. फिर हमारे देश में तो सैकड़ों भाषाएं और बोलियां हैं. इसीलिए हमारे यहां हिंदी के इतिहास में सार्वभौमिकता की बहस और विवादों का लंबा पुलिंदा भी नत्थी है. विवाद राष्ट्रभाषा और राजभाषा के बीच का. विवाद भाषाई आधार पर मानचित्र के बंटवारे का, इस पर आएंगे. लेकिन पहले बात एक खबर की. जो हिंदी पर सालों से जारी इस संघर्ष को आगे बढ़ाती हुई सी लगती है. बॉम्बे हाईकोर्ट का फैसला- तेलंगाना के हैदराबाद के रहने वाले गंगम सुधीर कुमार रेड्डी का टूर एंड ट्रैवेल का कारोबार है. सुधीर को मुंबई पुलिस के एंटी-नार्कोटिक्स सेल ने जुलाई 2019 में गिरफ्तार किया. सुधीर रेड्डी और उनके साथ एक और शख्स सुधीर की पत्नी की जिस गाड़ी से ट्रैवेल कर रहे थे. उसमें काफ़ी मात्रा में गांजा मिला था. NDPS एक्ट की धारा 8(C), 20(C) और 29 के तहत सुधीर पर कार्रवाई हुई. इसके बाद सुधीर की तरफ़ से बॉम्बे हाईकोर्ट में जमानत याचिका दायर की गई. याचिका में कहा गया कि मामले में पुलिस ने NDPS एक्ट की धारा 50 का पालन नहीं किया. उसे सिर्फ तेलुगु आती है जबकि उसे संवैधानिक अधिकारों के बारे में एंटी नार्कोटिक्स सेल ने हिन्दी में बताया. इस पर बॉम्बे हाईकोर्ट के जज जस्टिस नितिन सांबरे ने कहा कि हिन्दी राष्ट्रभाषा है, और सुधीर की जमानत याचिका खारिज कर दी. हाईकोर्ट के फैसले में कहा गया,
‘दलीलें ये दर्शाती हैं कि आवेदक को धारा 50 के तहत हिन्दी में उसके वैधानिक अधिकारों के बारे में बताया गया था. लेकिन इस बारे में उसने तर्क दिया है कि वह हिन्दी नहीं समझता है, जब आवेदक का दावा है कि वह टूर एंड ट्रैवेल का बिज़नेस कर रहा है तो ऐसे बिज़नेस करने वाले को भाषा और संचार के बेसिक स्किल्स आने चाहिए, आवेदक को हिन्दी में उसके अधिकारों के बारे में बताया गया था, जो कि राष्ट्रीय भाषा है.’
सुधीर ने बॉम्बे हाईकोर्ट के इस फैसले के खिलाफ़ सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा खटखटाया. दाखिल की गई एसएलपी में सुधीर के वकील लेविश एडवर्ड की तरफ़ से तीन तर्क दिए गए, एक कि संविधान के आर्टिकल 22 के मुताबिक़ आरोपी को उसकी गिरफ्तारी के कारण उसकी ही भाषा यानी तेलुगु में समझाए जाने चाहिए थे, दूसरा कि भाषा की गूगल मैप्स जैसी तकनीक की मदद से उसे ट्रैवेल करने में साइनबोर्ड वगैरह तेलुगु में ही उपलब्ध हो जाते हैं इसलिए दूसरी किसी भाषा पर पकड़ होना उसके बिज़नेस की बुनियादी जरूरत नहीं है. ये दोनों तर्क वाजिब लगते हैं, दिल्ली हाईकोर्ट ने भी एक हालिया मामले में कहा था कि आर्टिकल 22 के सेक्शन 5 के तहत जरूरी है कि किसी शख्स को उसके मौलिक अधिकारों के बारे में उसी भाषा में बताया जाए, जो भाषा वो अच्छी तरह समझता हो. दूसरा तर्क इसलिए वाजिब है क्योंकि गूगल मैप पर इंग्लिश और हिन्दी के अलावा भारत की क्षेत्रीय भाषाएं भी उपलब्ध हैं. और तीसरा तर्क बॉम्बे हाईकोर्ट की तरफ़ से हिन्दी को राष्ट्रीय भाषा बताने के खिलाफ़ दिया गया. एसएलपी में कहा गया,
‘संविधान सभा में सबसे गहरा विवाद अधिकारिक/राजभाषा का था, संवैधानिक सलाहकार के तैयार किए प्रारूप और प्रारूप समिति के तय किए गए संस्करण में आधिकारिक भाषा/राजभाषा से संबंधित कोई प्रावधान नहीं था. लेकिन उनमें केंद्रीय संसद और राज्य विधानमंडल में इस्तेमाल की जाने वाली भाषाओं और सुप्रीम कोर्ट एवं तमाम हाईकोर्ट द्वारा इस्तेमाल की जाने वाली भाषाओं के सम्बन्ध में प्रावधान थे. संविधान निर्माताओं ने संविधान के द्वारा हिन्दी या किसी अन्य भाषा को राष्ट्रीय भाषा के रूप में स्वीकार नहीं किया है.’
गुजरात हाईकोर्ट का फैसला- ये तर्क कितना ठीक है, इसके लिए सबसे पहले साल 2010 में गुजरात हाईकोर्ट का एक फैसला सुनिए, चीफ जस्टिस एसजे मुखोपाध्याय की बेंच ने कहा था,
'भारत में ज्यादातर लोगों ने हिन्दी को राष्ट्र भाषा के तौर पर स्वीकार कर लिया है. बड़ी संख्या में लोग हिन्दी बोलते हैं और हिन्दी की देवनागरी लिपि में लिखते भी हैं. लेकिन यह भी एक तथ्य है कि हिन्दी इस देश की राष्ट्रभाषा नहीं है.’
दरअसल, गुजरात हाईकोर्ट में साल 2009 में एक पीआईएल दाखिल की गई थी, कहा गया था कि किसी प्रोडक्ट या डिब्बाबंद सामान की पैकेजिंग पर प्रोडक्ट की सारी डिटेल हिन्दी में लिखी होनी चाहिए. और ये नियम केंद्र और राज्य सरकारों को लागू करवाना चाहिए. तर्क था कि हिन्दी इस देश की राष्ट्रभाषा है और ज्यादातर लोग इसे समझते और उपयोग में लाते हैं. कोर्ट ने इस पीआईएल को खारिज करते हुए कहा था कि क्या इस तरह का कोई नोटिफिकेशन है जिसमें कहा गया हो कि हिन्दी भारत की राष्ट्रभाषा है, क्योंकि हिन्दी तो अभी तक राज-काज की भाषा यानी राजभाषा है, ऑफिशियल भर है न कि राष्ट्रभाषा. इसलिए निर्माताओं को यह हक है कि अपने प्रोडक्ट्स पर इंग्लिश में डिटेल दें. और हिन्दी में न दें. कोर्ट सरकार या मैन्यूफैक्चरर्स को ऐसा कोई आदेश जारी नहीं कर सकती है. अक्टूबर 2021 में फ़ूड डिलीवरी कंपनी Zomato भी हिन्दी को राष्ट्रभाषा बताने के चक्कर में बड़े विवाद में फंसी थी. चेन्नई के रहने वाले वनक्कम विकास नाम के एक तमिल भाषी व्यक्ति ने Zomato से खाना ऑर्डर किया, ऑर्डर किए सामान में कुछ छूट गया तो कस्टमर केयर से बात की, जवाब आया कि हम रेस्टोरेंट से बात नहीं कर पा रहे, भाषा की दिक्कत है, इसपर विकास ने अपने पैसे वापस करने को कहा, इस पर कह दिया गया कि हिंदी हमारी राष्ट्रभाषा है, और थोड़ी बहुत तो सबको आनी चाहिए, इसलिए पैसे रिफंड नहीं किए जा सकते. विकास ने अपने ट्वीट में लिखा, 'ये भी मेरे लिए एक सबक है कि भारतीय होने के लिए मुझे हिन्दी आनी चाहिए.' इस मुद्दे पर जमकर राजनीति हुई, डीएमके सांसद सेंथिल कुमार ने विकास का ट्वीट शेयर कर जोमैटो से जवाबदेही तय करने की मांग की. उन्होंने कहा,
हिंदी कब से राष्ट्रभाषा बन गई. तमिलनाडु में ग्राहक को हिंदी क्यों जाननी चाहिए और आपने अपने ग्राहक को किस आधार पर सलाह दी कि उसे कम से कम हिंदी का ज्ञान होना चाहिए. कृपया ग्राहक की समस्या का समाधान करें और क्षमा मांगें.
दबाव बढ़ा तो उस कस्टमर केयर एग्जीक्यूटिव को Zomato से निकाला गया, हालांकि कुछ दिन बाद उसे बहाल कर दिया गया.इसके अलावा Zomato को विकास से माफी भी मांगनी पड़ी. गैर हिंदी भाषी प्रदेशों में हिन्दी को लेकर विवाद, बहस और तर्कों का सिलसिला बरसों का है, और दक्षिण राज्यों की तरफ़ से भाषाई संघर्ष उतना ही पुराना है जितना पुराना आजाद भारत है. शुरू में हमने जिन सुधीर रेड्डी की बात की, उनकी सुप्रीम कोर्ट में दाखिल याचिका में भारतीय संविधान का जिक्र करते हुए जिस गहरे विवाद की बात की गई है, वो सच है. सच है कि हिंदी राष्ट्रभाषा नहीं सिर्फ राजभाषा है, यानी आधिकारिक और प्रशासनिक इस्तेमाल की भाषा. और राजभाषा बनाए जाने के लिए भी उस दौर के हिन्दी प्रेमियों को खासी मशक्कत करनी पड़ी थी. हिन्दी के अलावा अंग्रेजों को भी बतौर राजभाषा शामिल करना पड़ा था. मशक्कत कैसी? ज़रा इसे भी समझ लेते हैं. भाषा पर विवाद- भारत आज़ाद हुआ तो संविधान सभा को तय करना था कि भारत की आधिकारिक भाषा क्या होगी. हिंदी पट्टी के नेताओं ने कहा कि हिंदी सबसे ज़्यादा बोली जाने वाली भाषा है. इसलिए इसे ही राष्ट्रीय भाषा का दर्जा दिया जाए. भारत में भाषा की बहस क्षेत्रीय अस्मिता और भाषाई आधार पर राज्यों के बंटवारे के तर्क से उपजती है. लेकिन जहां तक भाषा की बात है, अगर किसी दक्षिणी राज्य में कोई और भाषा बोली जाए तो इससे दिल्ली में रहने वाले किसी व्यक्ति को क्या दिक़्क़त हो सकती है. इसलिए ये समझना ज़रूरी है कि सवाल इसको लेकर नहीं था कि आम लोग कौन सी भाषा बोलते हैं बल्कि ये कि राजकाज की भाषा कौन सी होगी. भारत में, जहां कोस-कोस पर पानी और चार कोस पर बोली बदल जाती है. वहां किसी एक भाषा को सार्वभौमिक कह देना कुतर्क सा होता. लेकिन राजकाज के लिए तो कोई एक ही भाषा हो सकती थी. संविधान के तहत आज़ादी के बाद केंद्र और राज्यों में शक्ति का बँटवारा होना था. और दक्षिण के अधिकतर राज्यों में ये सम्भव नहीं था कि सरकारी कामकाज के लिए हिंदी को अपनाया जाए. वजह ये कि इस तरह सरकारी पदों पर एक भाषा के लोगों का कब्ज़ा हो जाता और बाक़ी लोग पीछे रह जाते. इसीलिए दक्षिण के ज्यादातर नेताओं ने इसका विरोध किया. हंगामा तब खड़ा हुआ जब इस मुद्दे पर बहस के दौरान संविधान सभा के एक मेम्बर, आरवी धुलेकर ने कह दिया,
‘जो लोग हिंदुस्तानी नहीं बोल सकते, उन्हें भारत में रहने का कोई अधिकार नहीं.’
यह बहस आगे बढ़ी तो संविधान सभा की एक सब कमिटी ने रेकेमेंड किया कि हिंदुस्तानी, जो देवनागरी या पर्शियन लिपि में लिखी हो, भारत की राष्ट्रभाषा होनी चाहिए. और जब तक ज़रूरत हो अंग्रेज़ी को दूसरी आधिकारिक भाषा के रूप में बनाए रखा जाए. हिंदी राष्ट्रभाषा नहीं, राजभाषा- आखिरकार साल 1949 में मुंशी-अय्यंगर फ़ॉर्म्युले के तहत तय हुआ कि हिंदी को राष्ट्रभाषा नहीं बल्कि राजभाषा का दर्जा दिया जाएगा. इसी फ़ॉर्मूले से ये भी तय हुआ कि अगले 15 सालों तक सरकारी काम के लिए अंग्रेज़ी का उपयोग किया जाएगा. लेकिन इसमें ये भी शामिल था कि धीरे-धीरे अंग्रेज़ी को फ़ेज़आउट कर हिंदी को अकेली आधिकारिक भाषा के रूप में उपयोग किया जाएगा. हालांकि, 1959 में जब इस बात पर बहस चल रही थी, तब जवाहरलाल नेहरू ने कहा था,
'मैं दो चीज़ों में यकीन रखता हूं. एक कि कोई भी भाषा थोपी नहीं जाएगी. दूसरा, चाहे कितने भी समय के लिए, मुझे नहीं पता वो समय कितना लंबा होगा, लेकिन मैं अंग्रेजी भाषा को सहयोगी भाषा के रूप में रखना चाहूंगा. इसलिए नहीं कि इसमें कोई सुविधा है, बल्कि इसलिये कि गैर हिंदी भाषी लोगों को ये न लगे कि विकास के कुछ दरवाज़े उनके लिए बंद हो गए हैं. क्यों? क्योंकि उन्हें सरकार से बातचीत के लिए भी हिंदी का इस्तेमाल करना पड़ रहा है. उनको ये ऑप्शन अंग्रेजी में भी होना चाहिए.’
लेकिन जब 15 सालों का तय वक्त पूरा होने को आया तो 1963 में अंग्रेज़ी को हटाने की मांग दोबारा ज़ोर पकड़ने लगी. दक्षिण भारत में छात्रों ने हिंसक प्रदर्शन शुरू कर दिए. नतीजतन सरकार ने ऑफिशियल लैंग्विज एक्ट 1963 पास किया. जिसके मुताबिक, अंग्रेज़ी को राजकीय भाषा के रूप में बरकरार रखने का प्रावधान किया गया. इसमें भी हिंदी को बढ़ावा देने पर ज़ोर दिया गया, लेकिन कोर्ट विधायी दस्तावेजों और राज्य-केंद्र के बीच संचार की भाषा अनिवार्य रूप से अंग्रेज़ी ही बनी रही. और तब से लेकर अब तक शासकीय काम के लिए हिंदी का मुद्दा ज्यों का त्यों बना हुआ है. हालांकि वन-नेशन-वन लैंग्वेज की मांग या सीधे शब्दों में कहें तो हिन्दी को राष्ट्रभाषा बनाने की मांग लगातार उठती रही है, 2019 में 14 सितम्बर यानी हिन्दी दिवस के मौके पर केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह ने एक ट्वीट करके कहा,
‘भारत विभिन्न भाषाओं का देश है और हर भाषा का अपना महत्व है लेकिन पूरे देश की एक भाषा होना जरूरी है जो विश्व में भारत की पहचान बने. देश को एकता की डोर में बांधने का काम हिंदी कर सकती है. मैं देश के सभी नागरिकों से अपील करता हूं कि हिंदी भाषा का प्रयोग कर देश की एक भाषा के बापू और सरदार पटेल के स्वप्न को साकार करने में योगदान दें.’
इसके बाद गैर हिन्दी भाषी राज्यों से भी तीखी प्रतिक्रियाएं आईं, किसी ने कहा कि हिंदी थोपने से भारत की सांस्कृतिक पहचान पर चोट पहुंचेगी. तो किसी ने कहा एक देश, एक टैक्स, एक चुनाव भले हो लेकिन एक देश-एक भाषा नहीं हो सकती. अभिनेता कमल हासन ने तो वीडियो पोस्ट करके आंदोलन की धमकी तक दे डाली. कुल-मिलाकर दुविधा और किंकर्तव्यविमूढ़ता यानी क्या करें क्या न करें की स्थिति किसी मामले में अच्छी नहीं कही जाती. और कई बार ऐसी स्थितियों का नाजायज फायदा भी उठा लिया जाता है. पुलिस थानों के सीमा-विवाद के मामले सुने होंगें. लावारिस लाशें सड़ती रहती हैं, और तय नहीं हो पाता कि जहां मर्डर हुआ वो इलाका किस थाने में आता है. आंकड़ों की बात करें तो 2011 की जनगणना के हिसाब से देश के करीब 43% लोग हिन्दी बोलते हैं जबकि 8 फ़ीसद लोग बांग्ला, 7 फ़ीसद मराठी, 7 फ़ीसद लोग तेलुगु, 6 फीसदी तमिल और 4 फ़ीसदी लोग उर्दू बोलते हैं. लेकिन राज्यवार बात करें सिर्फ़ 12 राज्यों में बड़े पैमाने पर हिन्दी बोली जाती है. हिन्दी भाषी बेशक ज्यादा हैं, लेकिन हमारी टिप्पणी ये बिल्कुल नहीं है कि गैर हिन्दी भाषियों द्वारा भाषाई अनभिज्ञता का फायदा उठाया जाता है, या अदालतों में और सरकारी कार्रवाई में भाषा के चलते उन्हें असुविधा नहीं होती, लेकिन इतना कहा जा सकता है कि एक देश-एक भाषा के कॉन्सेप्ट और देश में भाषाई विविधता के संरक्षण के तर्क के बीच जारी इस जंग को खत्म किए जाने की दरकार है.

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