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भवानी स्वयं मेरा शिकार मेरे हाथों में दे देती है, इसमें मेरा क्या कसूर: आमिर अली

700 से अधिक हत्याएं करने वाले ठग की आत्मकथा, 'एक ठग की दास्तान' का एक अंश

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3 अप्रैल 2018 (Updated: 2 अप्रैल 2018, 04:12 AM IST) कॉमेंट्स
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एक ठग की दास्तान 700 से अधिक हत्याएं करके अपराध के महासिन्धु में डूबा हुआ अमीर अली जेल में सामान्य बन्दियों से पृथक् बड़े ठाट-बाट से रहता था. वह साफ कपड़े पहनता, अपनी दाढ़ी संवारता और पांचों वक्त की नमाज अदा करता था. उसकी दैनिक क्रियाएं नियमपूर्वक चलती थीं. अपराधबोध अथवा पश्चात्ताप का कोई चिद्द उसके मुख पर कभी नहीं देखा गया. उसे भवानी की अनुकंपा और शकुनों पर अटूट विश्वास था. एक प्रश्न के उत्तर में उसने कहा था कि भवानी स्वयं उसका शिकार उसके हाथों में दे देती है, इसमें उसका क्या कसूर? और अल्लाह की मर्जी के बिना एक पत्ता भी नहीं हिल सकता. उसका यह भी कहना था कि यदि वह जेल में न होता तो उसके द्वारा शिकार हुए यात्रियों की संख्या हजार से अधिक हो सकती थी. पुस्तक ‘एक ठग की दास्तान’ 19वीं शताब्दी के आरम्भकाल में मध्य भारत, महाराष्ट्र तथा निजाम के समस्त इलाकों में सड़क-मार्ग से यात्रा करनेवाले यात्रियों के लिए आतंक का पर्याय बने ठगों में सर्वाधिक प्रसिद्ध अमीर अली के विभिन्न रोमांचकारी अभियानों की तथ्यपरक आत्मकथा है. इसे लेखक ने स्वयं जेल में अमीर अली के मुख से सुनकर लिपिबद्ध किया है. औपन्यासिक शैली में प्रस्तुत अत्यधिक मनोरंजक आत्मकथात्मक पुस्तक.

पुस्तक अंश - एक ठग की दास्तान

नागपुर के हमारे शेष मार्ग में कोई उल्लेखनीय घटना नहीं हुई. केवल कुछ मुसाफिरों की मौत अवश्य हुई होगी, वह भी हमारे गिरोह की एक टुकड़ी द्वारा जो हमारे ही मार्ग के समानान्तर जानेवाले दूसरे मार्ग में भेजे गए थे.
साहब, आप सोच सकते हैं कि इतनी बड़ी लूट का माल निश्चय ही मिल जाने की प्रत्याशा में हमारे दल के लोग कितने प्रसन्न हुए होंगे?
अमरावती तक की यात्रा तक हम लोगों ने उसकी ओर विशेष ध्यान नहीं दिया. कभी-कभी शाम को विश्राम के समय हुसेन और पिताजी उसके कैम्प में बैठ जाया करते थे. मेरा भी परिचय उससे कराया गया.
उन्होंने कहा, ”मैं तुम्हीं को उसका भुट्टोरे नियुक्त करना चाहता था. वह स्थूलकाय होने के कारण प्रतिरोध न कर सकेगा. तुम्हारे लिए यह एक सरल काम होगा. तुमने अभी तक अपने सामर्थ्य की परीक्षा कहाँ की है?“
हमारी यात्रा यथावत् सम्पन्न हुई क्योंकि मार्ग में कोई विशेष बात नहीं हुई. हम नगर में आकर बाजार में ठहर गए. यहाँ का ऐश्वर्य तथा सम्पन्नता देखकर मैं ठगा सा रह गया लेकिन यहाँ आश्चर्य करने का कोई कारण न था क्योंकि वही ऐसा स्थान था, जहाँ हिन्दुस्तान का समस्त तिजारती तथा निर्मित माल दक्खिन के विभिन्न प्रान्तों में वितरण के लिए लाया जाता था. और दक्खिन में उत्पन्न होनेवाले मसाले-औषधियाँ तथा अन्य वस्तुएँ हिन्दुस्तान की ओर भेजने के लिए लाई जाती थीं.

साहब, उस समय देश में अराजकता का वातावरण था, चारों ओर लड़ाइयों की अफवाहें उड़ रही थीं. ऐसे समय में कोई भी सम्मानित व्यक्ति अपने नेतृत्व में कुछ और लोगों को एकत्र करके यदि हिन्दुस्तान अथवा दक्खिन के किसी दरबार में उपस्थित होता तो उसे सैनिक की नौकरी अवश्य प्राप्त हो जाती. वास्तव में पेशवा, होल्कर या सिन्धिया, प्रत्येक शासक के पास विशाल फौजें थीं, जिन्हें काफी अच्छा वेतन मिलता था. अतः कोई अन्य व्यवसाय करने की अपेक्षा, उनके अधीन काम करना अधिक अच्छा था. नागपुर आते समय मार्ग में हमें ऐसे लोगों के कई दल मिले थे. इसी कारण हमारा समुदाय असाधारण अथवा सन्देहात्मक दिखाई देनेवाला नहीं प्रतीत होता था, विशेष रूप से मेरे पिता किसी सैनिक की भाँति सदा सशस्त्र सज्जित और उत्तम घोड़े पर सवारी करते थे. इसके अतिरिक्त कहीं ठहरते समय अथवा किसी नगर से गुजरते हुए अपने सुरक्षा बल के रूप में बहुत से ठगों के साथ होते थे. वैसे वे स्वयं को एक साहूकार ही दर्शाते थे. उस साहूकार की शर्तों को मानकर मेरे पिता हैदराबाद तक उसकी सुरक्षा के लिए तैयार हो गए और एक दो दिन बाद वहाँ से चलना निश्चित हो गया. उसी दिन गुप्त मन्त्रणा करते समय साहूकार ने बता दिया कि वह अपने साथ काफी रुपया-पैसा, कीमती आभूषण तथा कुछ तिजारती सामान लिए जा रहा है जिसे हैदराबाद में बेचने पर उसे अच्छा लाभ मिलने की आशा है. यही नहीं उसने वह सारा माल मेरे पिता को दिखा भी दिया. पूरे दल को सैनिक के रूप में दिखाई देने के अभिप्राय से पिताजी ने जिनके पास शस्त्र नहीं थे, उन्हें बन्दूकें, तलवारें और ढालें बाजार से खरीदकर दे दीं. वास्तव में जिस समय सभी को जाँचने के लिए एक-साथ खड़ा किया गया, तो वे सब अत्यन्त दर्शनीय प्रतीत हो रहे थे. चूँकि इस अभियान को एक अत्यन्त साहसी कृत्य के लिए माना गया था, अतः उसके लिए युवा और हृष्ट-पुष्ट व्यक्ति ही चुने गए थे. साहूकार के साथ किए गए समझौते की जानकारी दल के सभी लोगों को दे दी गई. सबको आगाह कर दिया गया था कि वे सदा सैनिक वेश में रहें तथा उसी प्रकार का व्यवहार करते रहें. इससे यह स्पष्ट रहे कि यह उसका रक्षक-दल था. शाम व्यतीत हो गई और लूट के माल का ध्यान करते हुए रात को समस्त डेरा आनन्दमग्न था. सबने मान लिया था कि माल तो अपनी मुट्ठी में था, तो फिर हर्ष क्यों न हो. नगर से नृत्यांगनाएँ बुलवाई गईं और उनका नृत्य-गान सुनते हुए काफी रात व्यतीत हो गई. बड़ी उत्सुकता के साथ हम लोग सारे दिन साहूकार की प्रतीक्षा करते रहे. रात होते ही वह एक छोटी गाड़ी में बैठकर हमारे डेरे में पहुँच गया. उसके साथ दो-एक नौकर थे, दो-तीन टट्टू थे जिन पर टेंट तथा अन्य सामान लदा था तथा चालकों के साथ 10 बैल थे. सब मिलाकर 8 लोग आए थे. वह लम्बा-तगड़ा शीघ्र कब्जे में न आनेवाला व्यक्ति प्रतीत होता था. मैं सोचने लगा कि क्या वह मेरे प्रथम प्रयास के लिए उपयुक्त पात्र हो सकेगा? मैंने पिताजी से अपना विचार व्यक्त किया, जिसे सुनकर वे अत्यन्त प्रसन्न हो गए. अतः उसी समय से मैं उसे अपना प्रथम शिकार मानने लगा. अपने अभ्यास में और अधिक निखार लाने की दृष्टि से मैं अपने शिक्षक के पास नित्य जाने लगा. जिस प्रकार रूमाल का प्रयोग करने की विधि बताया करते, मैं हर तरह से उसका अभ्यास कर लेता. एक दिन उन्होंने यह प्रस्ताव रखा कि किसी एकाकी मुसाफिर को कैम्प में बहकाकर लाया जाए, जिससे मैं उस पर सर्वप्रथम अपना हाथ चलाकर देखूँ. किन्तु मैंने उसे स्वीकार नहीं किया क्योंकि मुझे अपनी शक्ति पर विश्वास था. मैंने पक्का इरादा कर लिया था कि जब मैंने साहूकार को ही चुन लिया है तो वही मेरा प्रथम शिकार होगा.
ETKD - Featuredपुस्तक का नाम: एक ठग की दास्तान (जुलाई, 2017)लेखक: फ़िलिप मिडोज टेलरप्रकाशक: राधाकृष्ण प्रकाशनऑनलाइन उपलब्धता: अमेज़नमूल्य: चार सौ रुपए मात्र (पेपरबैक), पांच सौ पचास रुपए मात्र (हार्डकवर)
लल्लनटॉप कहानियों को खरीदने का लिंक: अमेज़न Lallantop Kahaniyan(साल 2016 का नवम्बर. इस गुनगुने महीने में 'आज तक' ने एक दो दिवसीय साहित्य उत्सव के बहाने कुछ सरगर्मियाँ पैदा कीं. इन सरगर्मियों को बढ़ाने में एक बड़ा किरदार 'लल्लनटॉप कहानी कॉम्पिटिशन' का भी रहा. यह हिन्दी के इतिहास में पहला मौक़ा था जब साहित्य के किसी समारोह में इस तरह की कोई प्रतियोगिता आयोजित की गयी. कहानी मौके़ पर ही लिखनी थी-हिन्दी में और देवनागरी लिपि में-आयोजकों द्वारा दी गयी कलम और कॉपी पर. कहानी अपने मनचाहे विषय पर लिखने की छूट थी. सुबह से शाम तक का वक़्त था-एक मौलिक और सर्वथा अप्रकाशित-अप्रसारित कहानी गढ़ने-रचने के लिए. इस प्रक्रिया में देश के अलग-अलग स्थानों से आये क़रीब 500 कहानीकारों ने हिस्सा लिया और कहानी लिखी. इन कहानियों में से 16 कहानियाँ चुनकर यह किताब बनी है. इस चयन के बारे में बेशक यह कहा जा सकता है कि इसमें कहानीकार नहीं कहानियाँ पढ़ने को मिलेंगी. इस सन्दर्भ में और स्पष्टीकरण आत्मप्रशंसा में ले जायेगा. इसलिए इससे बचते हुए ये कहानियाँ अब आपके सामने हैं...)
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