The Lallantop
Advertisement
  • Home
  • Lallankhas
  • excerpts from the book Dojakhnama written by Rabishankar Bal based on the lives of Mirza Ghalib and Manto

ग़ालिब ने सुनाया मंटो को पैसे के लिए हमबिस्तर होने वाली डोमनी से मुहब्बत का किस्सा

जब दुनिया ग़ालिब को बेइज्ज़त कर रही थी, इस डोमनी ने अपनी आवाज़ में ग़ालिब की ग़ज़लों को ज़िंदा रखा.

Advertisement
Img The Lallantop
फोटो - thelallantop
pic
मुबारक
27 दिसंबर 2020 (Updated: 26 दिसंबर 2020, 05:25 AM IST) कॉमेंट्स
font-size
Small
Medium
Large
font-size
Small
Medium
Large
whatsapp share

रबिशंकर बल बांग्ला भाषा के प्रसिद्ध उपन्यासकार हैं. उन्होंने मिर्ज़ा ग़ालिब और सआदत हसन मंटो को केंद्र में रख कर एक उपन्यास लिखा. ‘दोज़ख़नामा’. अपनी-अपनी कब्रों में लेटे मंटो और ग़ालिब एक दूसरे से बातें कर रहे हैं. इस बातचीत में ही दोनों की ज़िंदगी परत दर परत खुलती जाती है. किस्सागोई की शक्ल में. इतना अद्भुत लेखन हाल के दिनों में साहित्य में कम ही देखने को मिला है. इस किताब के लिए रबिशंकर बल को पश्चिम बंगाल सरकार ने ‘बंकिम चंद्र स्मृति पुरूस्कार’ से सम्मानित किया. इसका हिंदी और अंग्रेज़ी दोनों में अनुवाद हुआ. हिंदी अनुवाद अमृता बेरा ने किया है. और इस नफासत से किया है कि अनुवाद अपने आप में मौलिक कृति जान पड़ती है. अगर किसी को बताया न जाए कि ये अनुवाद है, तो उसको ज़रा शक़ न हो. लफ़्ज़ों की ऐसी रवानगी से रश्क होता है. ग़ालिब और मंटो की किस्सागोई से इश्क होने लगता है. आज इसी किताब से एक किस्सा आपकी नज़र. ग़ालिब अपनी कब्र से मंटो को सुना रहे हैं अपनी मुहब्बत की दास्तान. भाषा की सुंदरता पर ख़ास ध्यान दीजिएगा.

9789351772385-us


मैंने उस दिन बहुत शराब पी रखी थी. कोठे से निकल कर हवेली तक नहीं पहुंच पाया. कोठे के बरामदे में ही सो गया. पता नहीं किसने मुझे नींद के अंधेरे से खींच कर उठाया. मैंने सिर्फ दो आंखें देखी, जिनमें सूरमे की रेखा खिंची हुई थी.

“मिर्ज़ा साहब...”

सर्दी की रात की हवा के जैसी वह आवाज़ मुझसे लिपट गई. मैं सिर्फ उन दो आंखों को देख रहा था, जिनके भीतर न जाने कितने पंछी उड़ रहे थे. जैसे चित्रकार ने हवा के बदन पर दो आंखें बना दी हो. जैसे सुबह हो गई हो. उन दो आंखों के अंदर मेरी ज़िंदगी की पहली सुबह हुई थी.

“मिर्ज़ा साहब...”“कौन हो तुम?”“घर क्यों नहीं लौटी?”“घर?” – मैं हंस दिया – “कहां है घर?”वह बहुत देर तक चुप रही. फिर बोली, “चलिए आपको हवेली तक पहुंचा आती हूं.”“क्यों?”“आप इस तरह सड़क पर पड़े नहीं रह सकते. आप बेनज़ीर शायर हैं.”“बेनज़ीर?”“सच!”“बेनज़ीर?”“जी मिर्ज़ा साहब.”“फिर से बोलो.”“आप बेनज़ीर हैं.”

मैंने उसका हाथ कस के पकड़ लिया. कितनी तपिश, कितनी उत्तेजना, कितनी खुशबू!

मंटोभाई, मैं उस खुशबू का दीवाना हो गया. वह किसी कोठे की मशहूर तवायफ नहीं थी. एक मामूली डोमनी थी. डोमनियां लोगों के घरों में शादी-ब्याह-त्यौहारों में नाच-गाकर पैसे कमाती हैं. इसके अलावा मर्दों के साथ हमबिस्तर भी होती हैं. वैसे कोई रईस मिर्ज़ा डोमनी को छूता तक नहीं. मैं मुनीरा के घर रहने लगा. वह सिर्फ मेरी ही ग़ज़लें गाया करती थी.

मंटोभाई, हर तरफ बात फैलने लगी. ठीक है तुम मिर्ज़ा ग़ालिब हो, तुम कोठे पर जा सकते हो, तवायफ के साथ रात भी बिता सकते हो, लेकिन एक डोमनी के घर जाकर रहना? तुम अपनी ज़मीन भूल रहे हो. मंटोभाई, अपनी ज़मीन किसे कहते हैं? एक के बाद एक मुशायरों में बेइज्ज़त हो कर, मैं बस उसी के सामने जाकर खड़ा हो सकता था. वह कुछ नहीं कहती थी, बस मेरी ग़ज़लें गाती थी.

दिल-ए-नादां तुझे हुआ क्या हैआख़िर इस दर्द की दवा क्या है

मेरे बारे में कितनी भी गंदी बातें फैलाई गईं हो, मैंने उनपर तवज्जो नहीं दी. आम आदमी मुझपर पत्थर फेंकेंगे इसलिए दुम दबाकर भाग जाऊं? मैं ऐसा बंदा नहीं था. हालांकि अपने पुरखों की तरह मैं कभी लड़ाई के मैदान में नहीं गया था, लेकिन मेरी ज़िंदगी तो खुद एक युद्ध का मैदान बन गई थी. गोली मारों लोगों की बातों को. बिस्तर पर मुनीरा को पाकर मैं सारे अपमान भूल जाता था. ऐसा मुनीरा ही करवा सकती थी. उसकी आवाज़ में एक के बाद एक अपनी ग़ज़लें सुन कर लगता था, मुशायरों में मुझे जितना भी ज़लील किया गया हो, एक इंसान ने तो अपनी आवाज़ में मेरी ग़ज़लों को बचा कर रखा हुआ है. मुनीरा को लेकर कितनी ही ग़ज़लें तैयार हुईं.

जान तुम पर निसार करता हूंमैं नहीं जानता दुआ क्या है

एक दिन मुनीरा के घर पर कुछ लोगों ने हमला किया. उसे मारा-पीटा गया. चीज़ें तोड़-फोड़ डाली गईं. जिससे वह मुझे अपने घर न आने दे. फिर भी मैं गया. मैं ज़िद पे आ गया था. मुनीरा ने मेरे दोनों हाथों को पकड़ कर रोते-रोते कहा,

“मिर्ज़ा साहब, आप चले जाइए.” “क्या करेंगे? मुझे मारेंगे?”“आपकी बदनामी होगी. मैं ये नहीं चाहती.”“तुम भी चाहती हो, मैं और न आउं?”उसने मेरा चेहरा अपने सीने पर खींचते हुए कहा, “आपके बिना मैं ज़िंदा नहीं रह सकती. आप मेरी जान हैं, मिर्ज़ा साहब. फिर भी.....”

पहले पहल मैंने गुरुर में मुनीरा के पास जाना छोड़ दिया. धीरे-धीरे वह गुमान मिट गया. और उसके साथ-साथ वह भी मिटती चली गई.

मंटोभाई, मुग़लिया ख़ून बड़ा क्रूर होता है. मेरे बदन में भी वही ख़ून बहता था. जानते हैं, यह ख़ून क्या करता है? जिसे प्यार करता है, उसी की हत्या कर देता है. मैंने ही मुनीरा की हत्या की थी. उसे भुला कर मैं फिर से ज़िंदगी की नई राह पर मशगूल हो गया था. लेकिन मुनीरा ने अपने आपको मेरे भीतर क़ैद कर रखा था. उसके लिए कोई नई राह नहीं खुली. औरत ऐसी ही होती है. एक बार जिसे प्यार करती है, फिर उसके प्यार के पिंजरे से बाहर नहीं निकल पाती. सूख कर मर जाने पर भी खुद को उसी पिंजरे में अटकाए रखती है. अल्लाह ने मर्दों को ये रियाज़त नहीं दी है.

एक दिन ख़बर मिली कि मुनीरा नहीं रही. उसकी मौत के साथ-साथ बेखुद मुहब्बत भी मुझे छोड़ कर चली गई. लेकिन उसकी दोनों आंखें मुझे छोड़ कर नहीं गईं. मोर पंख से बनाई उसकी वह आंखें बार-बार मेरे पास लौट आती थीं. मृत्युशैया पर लेटे हुए मैंने उन्हें मेरी तरफ देखते हुए देखा था. जब मौत ने मेरा हाथ आकर पकड़ा, उस पल मैंने समझा था, मुनीरा को मैं मजनू की तरह ही प्यार करना चाहता था.

नहीं तो इंतेकाल के वक़्त वो मुझे नहीं दिखती मंटोभाई!


ये भी पढ़ें:

क़ाज़ी की पत्नी हिंदू, लोग बोले, मुसलमान बनाओ, क़ाज़ी बोले दफा हो जाओ

नाम से नहीं किरदार से जाने जाते हैं ये कलाकार

“ज़िंदगी एक महाभयंकर चीज़ है, इसे फांसी दे देनी चाहिए”

इन्हीं आंखों से जहन्नुम देखा है, खुदा वो वक़्त फिर कभी न दिखाएं”

सत्ता किसी की भी हो इस शख्स़ ने किसी के आगे सरेंडर नहीं किया

उसने ग़ज़ल लिखी तो ग़ालिब को, नज़्म लिखी तो फैज़ को और दोहा लिखा तो कबीर को भुलवा दिया

Advertisement