The Lallantop
Advertisement
  • Home
  • Lallankhas
  • Doordarshan Cameraman Achyutanand killed in Naxal attack in Chhattisgarh.

तमाम कैमरामैन के नाम खुला ख़त जो कभी घर नहीं लौटे

छत्तीसगढ़ में हुए नक्सली हमले में कैमरामैन की जान चली गई.

Advertisement
Img The Lallantop
छत्तीसगढ़ में हुए नक्सली हमले में कैमरामैन अच्युतानंद की मौत हो गई.
pic
आशीष मिश्रा
31 अक्तूबर 2018 (Updated: 1 नवंबर 2018, 06:13 AM IST) कॉमेंट्स
font-size
Small
Medium
Large
font-size
Small
Medium
Large
whatsapp share

मीडिया में सिर्फ 3 साल हुए हैं. जो भी दिखता है, लगता है पहली बार देख रहा हूं. यहीं पहली बार कैमरामैन देखे. बस एक साल ही उनकेे साथ काम किया. लेकिन एक भी कैमरा पर्सन ऐसा नहीं मिला, जिसके पास सुनाने के लिए बहुत कुछ न हो.

भारी-भारी कैमरे लिए ये लोग हर वक़्त तैनात रहते हैं. कभी ट्राइपॉड पर, कभी कंधे पर, कभी छुपा हुआ, कभी गो-प्रो, तो कभी जिमी-जिब पर. शो चाहे जितना एवरेज हो. शूट चाहे जितना लंबा, थकाऊ हो, ये लोग टिके रहते हैं. कैमरा पर्सन अपना काम शुरू से अंत तक एक लय में पूरा करते हैं. कहने को ये बात किसी भी प्रोफेशन के लिए कही जा सकती है. लेकिन कैमरामैन की ये बात पर्दे पर नहीं आती.

शूट के पहले वो अपनी जगह चुनते हैं, ट्राइपॉड लगाते या फ्रेम बनाते हैं. कैमरापर्सन कभी खड़े होने के लिए आदर्श जगह नहीं मांगते, वो आदर्श फ्रेम चाहते हैं. हर बार वो एंकर की हाइट तय करते हैं, मूवमेंट की रेंज तय करते हैं. ऑडियो चेक करते हैं. व्हाइट बैलेंस चेक करते हैं. अपर्चर घटाते-बढ़ाते हैं. लाइटिंग का ख़याल रखते हैं और जाने क्या-क्या करते हैं. हमेशा पूछते हैं, SD या HD? कार्ड फ़ॉर्मेट है? कार्ड फ़ॉर्मेट करना है? क्योंकि वो हमेशा कुछ हटाने के पहले बचा लेने का मौक़ा देते हैं, क्योंकि सहेजना उनका काम है. वो जान से ज़्यादा कैमरा संभालते हैं, कार्ड्स के ढक्कन संभालते हैं. क्योंकि जो भी गायब हुआ, उसकी कीमत उन्हें भरनी पड़ती है. चैनल क्रूर होते हैं. आप भी होते हैं, स्टार जब टीवी वालों के कैमरे पर हाथ मारता है आप गुस्सा देख खुश होते हैं. किसी की तीन महीने की सैलरी चली जाती है.

आपको पता है, अच्छी-भली लाइटिंग में भी हैंड मूवमेंट पर आदमी की परछाई उसकी देह पर पड़ने लगती है. आपको पता है, ढेर मेकअप हुआ हो तो भी आंखों की बनावट ऐसी है कि लाइटिंग डार्क सर्कल का भ्रम देने लगती है. उनको पता रहता है. वो चार मील दूर से देखकर बता सकते हैं, कौन सा कपड़ा कैमरे पर जिटर करेगा, कौन सा नहीं. अगर कैमरा पर्सन आपके जोक पर हंस रहा है तो शो अच्छा जाएगा, अगर आपके अच्छे-भले कंटेंट को न सुन वो फोन में खोया है तो आपका शो कोई नहीं बचा सकता. टीआरपी के पहले भी एक बेहतर पैमाना हर मीडिया हाउस के पास होता है. अफ़सोस वो उसे ओवरटाइम में गंवा देते हैं.

कैमरा पर्सन से पूछिए, उसे किससे डर लगता है. वो बताते हैं, लेकिन उन्होंने कभी ये नहीं कहा कि उन्हें प्रोटेस्ट के समय डर लगता है. राम रहीम के भक्तों की लगाई आग देख डर लगता है या तब डर लगा था, जब कश्मीर में उनकी गाड़ियों पर लड़कों ने पत्थर बरसा दिए, उन्हें अपने बैगों को गाड़ियों के शीशे पर अड़ाकर जान बचानी पड़ी. उन्हें खाली बैठने से डर लगता है. डर लगता है,  जब ज़मीनी शूट की बजाय स्टूडियो के शूट में झोंक दिया जाए. जहां कोई टीपी-रीडर, पत्रकार होने के भ्रम में टेलीप्रॉम्पटर पर उभरती इबारत पढ़ रहा हो. लेकिन टीपी-रीडर का भी काम तो आसान नहीं होता न, वो ये भी समझते हैं. उन्हें देर रात तक काम करने से डर नहीं लगता, उन्हें डर लगता है, लंबे खिंचने वाले शूट के, उस वक़्त आ जाने पर, जब वो घर निकलने वाले हों.

सबसे बड़ा स्टार वो है, जिसके साथ कैमरा पर्सन फोटो खिंचाने की ज़िद कर दे. उन लोगों को, जिन्हें देख लोग खुशी से चीख पड़ते हैं, सेल्फियां ले-लेकर फ्रंट कैमरों की क्षमताएं तबाह कर देना चाहते हैं. उन्हें कैमरा पर्सन निरपेक्ष भाव से फ्रेम बताकर मुक्त हो जाते हैं. दुनिया ने दुनिया चलाना मुश्किल माना. सरकारें चलाना मुश्किल माना. मांओं ने घर चलाना मुश्किल माना, बापों ने शासन चलाना मुश्किल माना. जिसे मुश्किलें मुश्किल लगती हैं, उसे किसी कैमरा पर्सन के अंडर जिब चलाने की इंटर्नशिप कर लेनी चाहिए. एक ही समय में एक ही बार में फ्रेम साधे रहने से लेकर परफेक्ट जिब मूवमेंट देना, दुनिया का सबसे मुश्किल काम है. कुछ लोग ये काम दिन भर करते हैं. कभी लाइव शो में तो कभी रिकॉर्डिंग में.

मैंने जिन कैमरा पर्सन को देखा. उन्होंने सब देख रहा है, अन्ना से लेकर अटल से लेकर, संसद पर हुआ हमला तक. कुछ ने और पुरानी चीजें देख रही हैं, जितनी न हमारी आम समझ है न राजनैतिक समझ. इसलिए कैमरा पर्सन कभी राजनीति की बात नहीं करते थे. कभी न्यूज़ डिस्कस करते नहीं मिलते. चुनावों में शूट करता कैमरा पर्सन भी कहीं रुककर चाय पी लेना चाहता था. कैमरा वालों को दिल्ली में सबसे अच्छे चाय के ठिकानों का पता है, जो कभी किसी वेबसाइट्स के टेन पॉइंटर्स में नहीं लिखे जाएंगे. किसी शहर की ट्रेवल डायरी में नहीं आएंगे.

सब कहीं न कहीं लौटना चाहते हैं. कैमरा पर्सन विजय चौक लौट जाना चाहते हैं. वो जगह जहां चैनलों की एक गाड़ी हमेशा खड़ी होती है. कहीं से न जाए तो विजय चौक से फीड भेजी जा सकती है. कैमरा वालों संपर्क का संपर्क स्थान. वो जगह जहां पहुंच उन्हें लगता है, अपनी जगह लौट आए हैं. पता नहीं ऐसा है या मुझे ही लगता है. हर कैमरामैन का अपना विजय चौक होता होगा. मुझे लगता है, विजय चौक को कैमरा वालों को सौंप देना चाहिए. वो उन्हीं का है. कैमरा वाले अपने उन दोस्तों की कहानियां बताते हैं. जो अलग-अलग कारणों से कभी विजय चौक नहीं लौटे. हर कैमरा पर्सन के ऐसे एक-दो दोस्त जरूर होते हैं. कैमरावालों का समाज अलग होता है. वहां की बातें पीछे ही रह जाती हैं.

मैंने न्यूज चैनल में रहते हुए संसद पर हमले की रॉ फुटेज देखी थी. ANI के एक कैमरा पर्सन को गोली लगी थी. शायद विक्रम नाम था उनका. वो अपने साथियों को कहते हैं, 'गोली लगी है, तू फुटेज़ बना रहा है.' वो फुटेज़ शब्द सुनने के बाद शरीर थर्रा गया. कैमरा पर्सन की बातों में अक्सर समझ न आने वाले टेक्निकल शब्द होते हैं, फुटेज़ समझ आने वाला शब्द था. वो आदमी बेचारगी में ये बात कह रहा था. साथ वाला भी बेचारगी में फुटेज़ बना रहा था. दुनिया में कुछ भी हो, कैमरा पर्सन दुनिया का आख़िरी इंसान होना चाहिए, जिस तक कोई मुसीबत आए. उसके हाथ में कैमरा होता है, उसका ध्यान और जान आधी होती है. तमाम कैमरापर्सन्स को सही-सलामत अपने-अपने विजय चौकों तक लौट आना चाहिए. छत्तीसगढ़ में नक्सली हमला हुआ, दूरदर्शन के कैमरामैन की मौत हो गई. वो कभी अपने विजय चौक न लौट पाएंगे.


देखिए: दंतेवाड़ा नक्सली हमले से ठीक पहले का वीडियो

Advertisement