कनाडा के क्रिश्चन मिशनरी स्कूलों में बच्चों के साथ जो हुआ, वो किसी के साथ न हो
ईसाई मिशनरी स्कूलों की ये सच्चाई रूह कंपाने वाली है!
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केमलूप्स इंडियन रेसिडेंशियल स्कूल. (तस्वीर: एपी)
‘उस रात सिस्टर हमारे कमरे में आई. उन्होंने हमें घुटनों पर बैठकर प्रार्थना करना सिखाया. हमें शैतानों की कहानी सुनाई. उन्होंने बताया कि वे बेड के नीचे बेड़ियां लेकर बैठे हैं. अगर हम रात में जगे या बिस्तर से उठे तो शैतान हमें खींचकर नरक़ में ले जाएंगे. मैं दम साधे सोई रही. मेरी एक दोस्त रो रही थी. मैंने उसे अनसुना कर दिया. डर के कारण मैं बाथरूम भी नहीं गई. सुबह मेरा बिस्तर भीगा हुआ था. इसके लिए सिस्टर ने मुझे रस्सियों से बांधकर बहुत देर तक पीटा.’अब दूसरे बच्चे की बात.
‘वो हमें खाने में रोज लपसी या घोल देते थे. दोनों टाइम. कभी-कभार उबली बीन्स और चर्बी के साथ सड़े-गले ब्रेड्स. अगर खाना मुंह से बाहर आ जाता, तो वे हमें उलटी खाने के लिए मज़बूर करते थे. अच्छे भोजन के लिए हमें महीनों का इंतज़ार करना होता था. मैंने अपने स्कूल के सात साल भूख से बिलखते हुए गुजार दिए.’दोनों घटनाओं में कई चीज़ें समान हैं. जैसे, बचपन, रेसिडेंशियन स्कूल यानी आवासीय विद्यालय, प्रताड़ना आदि. आदि का मतलब, न तो ये घटनाएं यहां तक सीमित हैं और न ही इनका दायरा. ऐसी हज़ारों-हज़ार कहानियां इतिहास के किसी धूमिल कोने में बंद हैं. जो बाहर आईं, उसने कथित विकसित देशों की कलई खोल दी.
ये कहानियां जुड़ीं है, कनाडा के ईसाई मिशनरी स्कूलों से. जिनकी जांच के लिए बने कमीशन ने अपनी रिपोर्ट में लिखा, ये ‘सांस्कृतिक जनसंहार’ है. आज बताएंगे, कैसे सरकार और चर्च ने मिलकर कनाडा के मूल निवासियों को मिटाने की साज़िश रची? हज़ारों बच्चों को उनके मां-बाप से क्यों छीना गया? इस ‘सांस्कृतिक जनंसहार’ में ईसाई मिशनरी स्कूलों की क्या भूमिका थी? और, ये दशकों पुराना क़िस्सा हम आज क्यों सुना रहे हैं?
कनाडा नॉर्थ अमेरिका में पड़ता है. क्षेत्रफ़ल के लिहाज से दुनिया का दूसरा सबसे बड़ा देश. अंतरराष्ट्रीय मानकों की बात करें तो विकसित भी है. आज से पांच सौ बरस पहले तक न तो कथित ‘विकास’ पहुंचा था और न ही यूरोप के लालची देश. वहां सदियों से आदिवासियों का बसेरा था. वे वहां के मूलनिवासी थे. बाहरी दुनिया के ताम-झाम से अपरिचित.

केमलूप्स रेसिडेंशियल स्कूल ग्राउंड में 215 बच्चों के कंकाल बरामद हुए हैं. (तस्वीर: एपी)
फिर आया 1497 का साल
जियोवानी कबोटो उर्फ़ जॉन कैबेट नाम का एक नाविक कनाडा के तट पर उतरने में कामयाब हुआ. कैबेट इटली में पैदा हुआ था. वेनिस में काम करने के दौरान उसने पश्चिम की तरफ जाने का प्लान बनाया था. बाद में वो इंग्लैंड आ गया. यहां से उसकी ख्याति राजदरबार में पहुंची. और, राजा ने पैसे लगाकर उसे रवाना कर दिया.
15वीं सदी को ‘ऐज़ ऑफ़ डिस्कवरी’ के नाम से जाना जाता है. यूरोप के देश नई ज़मीन और क़ीमती संसाधनों की खोज के लिए बहुतायत समु्द्री ट्रिप्स स्पॉन्सर कर रहे थे. इसकी कड़ी में कैबट को भी भेजा गया था. उसे कामयाबी भी हाथ लगी. लेकिन कॉलोनी स्थापित करने के लिए संसाधन की कमी थी. वो वापस लौटा. ताकि अपनी सफ़लता की कहानी बता पाए. और, पूरे दम-खम के साथ और भी नई ज़मीनें तलाशने के लिए निकले. 1498 में कैबेट दूसरी यात्रा पर निकला. लेकिन समुद्री तूफ़ान ने उसे हमेशा के लिए गायब कर दिया.
चूंकि उस ज़मीन की तलाश के लिए पैसा ब्रिटेन ने दिया था, इसलिए वहां उसका हक़ बनता था. इंग्लैंड ने कब्ज़ा करने में देरी की तो वहां फ़्रांस पहुंच गया. 1534 ईस्वी में फ़्रेंच नाविक जाक कार्टिए की एंट्री हुई. उसने उस ज़मीन का नाम रखा, कनाटा. कुछ सालों बाद ये बदलकर कनाडा हो गया. इसका मतलब होता है, बस्ती या गांव.
फ़्रांस ने बड़ी संख्या में कॉलोनियां बसाई. उसके पीछे-पीछे ब्रिटेन भी आया. इसके साथ शुरू हुई, कनाडा पर कब्ज़े की लड़ाई. अंतत: 1763 में फ़्रांस की हार हुई और कनाडा, ब्रिटिश उपनिवेश का हिस्सा बन गया.
ब्रिटेन की जीत से कनाडा में सब ठीक हो गया?
बिल्कुल नहीं. बाहरी लोगों की इस लड़ाई में सबसे ज़्यादा पिस रहे थे, वहां के मूलनिवासी. जो ज़मीन उनके पुरखों की थी, वहां से उनको बेदखल किया जा रहा था. उनके होने या न होने का कोई फ़र्क़ ही नहीं पड़ रहा था. यूरोपियन्स के लिए वे निर्जीव वस्तु भर थे, जिसे जब मन तब नेस्तनाबूद किया जा सकता था. इस कुकर्म में क्या फ़्रांस और क्या ब्रिटेन, कोई भी यूरोपीय देश पीछे नहीं रहा है. इतिहास उठाकर देखेंगे तो उनकी करतूत जानकर मन घिना जाएगा.
जब कनाडा पर ब्रिटेन का एकछत्र राज कायम हो गया, तब उसने अपनी बाकी प्राथमिकताओं पर गौर फ़रमाना शुरू किया. इसमें से एक था, आदिवासियों को कथित तौर पर ‘सभ्य’ बनाना. हमने ‘कथित’ शब्द का इस्तेमाल इसलिए किया है क्योंकि इस सभ्यता का चोला ब्रिटेन के रंग में रंगा था. जिन लोगों को सभ्य बनाने का दावा किया जा रहा था, उनसे राय तक नहीं पूछी गई.
ऐसा क्यों?
इसकी एक बड़ी वजह है, यूरोपीय देशों की ख़ुशफहमी. उन्हें ये लगता था कि उनकी सभ्यता-संस्कृति दुनिया में सबसे बेहतर है. उनसे बेहतर कोई और हो ही नहीं सकता. अगर बात सिर्फ़ गर्व करने तक सीमित हो तो इसमें कुछ भी ग़लत नहीं है. लेकिन उनकी नीति थी, अपनी संस्कृति को थोपने की. उन्हें ये भ्रम था (कुछ जगहों पर आज भी है) कि जो उनके जैसा नहीं है, वो जंगली, असभ्य और बर्बर है. उसे बहुत कुछ सीखने की ज़रूरत है.
इसके लिए सबसे बड़ा हथियार बनी, शिक्षा. इसी कड़ी में 17वीं सदी में मिशन स्कूल सिस्टम की शुरुआत की गई. इसे ईसाई मिशनरी यानी धर्म प्रचारक चलाते थे. फंडिंग सरकार की तरफ से मिलती थी. इन स्कूलों का मकसद था, स्थानीय लोगों का पश्चिमीकरण करना. उन्हें यूरोप की संस्कृति में ढालना. ताकि वे अपनी असली पहचान भूल जाएं.
ऐसा ही कनाडा में भी हुआ. साल 1876 में सरकार ने ‘द इंडियन ऐक्ट’ पर मुहर लगा दी. इंडियन मतलब यूरोपियन कॉलोनी में रहने वाले मूल निवासी. इस कानून ने सरकार और मूलनिवासियों का रिश्ता मालिक और ग़ुलाम वाला बना दिया. सरकार का पूरा नियंत्रण हो गया. लेकिन अभी भी ब्रिटेन का मन भरा नहीं था.
उस वक़्त कनाडा के प्रधानमंत्री थे, जॉन अलेक्जेंडर मैक्डोनॉल्ड. उन्होंने अपने दोस्त और पत्रकार निकोलस फ़्लड डेविन को अमेरिका के स्कूल सिस्टम पर रिसर्च करने के लिए कहा. अमेरिका में ज़मीन पर कब्ज़े के लिए बड़ी संख्या में मूलनिवासियों की हत्या की गई थी. एक समय वे देशभर में फैले हुए थे. 19वीं सदी की शुरुआत तक 90 फीसदी मूलनिवासी मारे जा चुके थे. इस संकट के बावजूद उन्होंने अपना अस्तित्व बचाए रखा.

जॉन अलेक्जेंडर मैक्डोनॉल्ड. (तस्वीर: एएफपी)
अपने परिवेश में रहने के काबिल कैसे बनाएं?
अमेरिका ने सोचा, ऐसे खत्म करना मुश्किल है. नया रास्ता अपनाते हैं. क्यों न उनलोगों को अपने जैसा बना लिया जाए! 1870 के दशक में अमेरिकी आर्मी जनरल हुआ, रिचर्ड हेनरी प्रैट. उसने एक एक्सपेरिमेंट किया. उसकी जेल में कुछ मूलनिवासी बंद थे. प्रैट ने उन्हें अंग्रेज़ी भाषा और अपनी संस्कृति सिखाई. उसने दावा किया कि इस तरह से मूलनिवासियों को एसिमिलेट यानी कि अपने परिवेश में रहने के काबिल बनाया जा सकता है. इस तरह से अमेरिका में इंडियन इंडस्ट्रियल स्कूल की शुरुआत हुई. वहां क्या होता था, उसकी अलग दास्तान है. फिर कभी बताएंगे. अभी कनाडा में लौटते हैं.
उस उदाहरण पर गौर फरमाने के बाद डेविन ने अपनी रिपोर्ट पेश की. उसने लिखा,
‘अगर मूलनिवासियों वाली समस्या का कुछ करना है तो हमें उन्हें बचपन में ही पकड़ना होगा. बच्चों को सभ्य परिवेश में बंद करके रखना होगा.’इस रिपोर्ट के बाद सरकार ने पूरे देश में आवासीय विद्यालय बनाने के आदेश दिए. 1880 के दशक में ये काम शुरू हुआ. इन स्कूलों को चलाने की जिम्मेदारी दी गई, रोमन कैथोलिक चर्च को. सरकार ने मूलनिवासियों की संस्कृति खत्म करने को अपना मिशन बना लिया था. बच्चों को उनके परिवार से छीनकर स्कूलों में भर्ती किया गया. जो माता-पिता मना करते, उन्हें कड़ी सज़ा दी जाती थी.

रिचर्ड हेनरी प्रैट 1870 के दशक में अमेरिकी आर्मी जनरल हुआ करते थे.
1920 में इंडियन ऐक्ट में एक बदलाव किया गया. इसके तहत, वैसे बच्चे जो मूलनिवासियों की केटेगरी में आते हैं, उन्हें अनिवार्य रूप से सरकार के बनाए रेसिडेंशियल स्कूल में पढ़ना होगा. किसी दूसरे स्कूल में दाखिले की कोशिश को अवैध बना दिया गया.
इन स्कूलों से लोग इतना डरते क्यों थे?
शुरुआत में हमने जो आपबीती सुनाई, वो इन्हीं स्कूलों के बच्चों के साथ घटी थीं. यहां और क्या-क्या होता था?
#1 बच्चों को ईसाई धर्म के अनुसार ढलने के लिए विवश किया जाता था. #2 सिर्फ़ अंग्रेज़ी और फ़्रेंच बोलने की इजाज़त थी. स्थानीय भाषा बोलने पर बुरी तरह टॉर्चर किया जाता था. #3 किसी को स्कूल से बाहर जाने की इजाज़त नहीं थी. बरसों तक मां-बाप से मिलने नहीं दिया जाता था. #4 बच्चों का यौन और मानसिक शोषण आम बात थी. #5 टॉर्चर की वजह से जो बच्चे मर जाते थे, उन्हें अनजान जगहों पर दफ़न कर दिया जाता था.
ये सब कच्ची उम्र के बच्चों के साथ होता था. पादरी और नन उन्हें अपना खिलौना समझते थे. इसकी जानकारी चर्च और सरकार को भी थी. लेकिन उन्होंने इसे जान-बूझकर नज़रअंदाज किया. आंकड़ों के मुताबिक, कुल डेढ़ लाख बच्चों को इन रेसिडेंशियल स्कूलों में लाया गया. इनमें से कई हज़ार बच्चे कभी अपने घर वापस नहीं लौट पाए.
ये सब 1980 के दशक तक चला. 1982 में कनाडा संप्रभु देश बना. इसके बाद ही मूलनिवासी ने अपने हिस्से की आवाज़ बुलंद कर पाए. तब तक रेसिडेंशियल स्कूलों का चलन मंद पड़ गया था. सरकार ने चर्च से नियंत्रण पहले ही छीन लिया था. मूलनिवासियों ने इन स्कूलों में हुए शोषण की जांच की गुज़ारिश की. वे सरकार से माफ़ी और मुआवज़े की मांग भी कर रहे थे.
आख़िरकार, साल 2008 में कनाडा के प्रधानमंत्री स्टीफ़न हार्पर ने संसद में माफ़ी मांगी. उन्होंने कहा था,
‘उन स्कूलों में जो कुछ बच्चों के साथ हुआ, वो हमारे देश के इतिहास का एक दुखद अध्याय है. हम ये मानते हैं उनकी संस्कृति को मिटाने की कोशिश ने अपूरणीय क्षति पहुंचाई है. कनाडा में ऐसी नीतियों के लिए कोई जगह नहीं है.’

कनाडा के पूर्व प्रधानमंत्री स्टीफ़न हार्पर. (तस्वीर: एएफपी)
सरकार ने 12 हज़ार करोड़ के मुआवज़े का ऐलान किया. साथ ही, ट्रूथ एंड रि-कॉन्सोलिएशन कमीशन की स्थापना भी की. इसका मकसद था, उस दर्द से गुज़रे बच्चों के अनुभव को रेकॉर्ड करना. कमीशन ने सात साल तक देशभर में घूम-घूमकर पड़ताल की. अनगिनत क़िस्से और असीमित दर्द, इस रिपोर्ट का अभिन्न हिस्सा बन गए. 2015 में कमीशन ने अपनी रिपोर्ट पेश की. उसने लिखा,
‘ये एक सांस्कृतिक जनसंहार है’.रिपोर्ट के मुताबिक, कम-से-कम चार हज़ार बच्चों की स्कूलों में मौत हुई थी. कमीशन ने सरकार को 94 सुझाव भी दिए थे. उनमें से अभी तक दस ही पूरे हो पाए हैं.
आज हम ये कहानी क्यों सुना रहे हैं?
कनाडा का एक प्रांत है, ब्रिटिश कोलंबिया. वहां केमलूप्स इलाके के एक स्कूल ग्राउंड में सामूहिक कब्र मिली है. मीडिया रिपोर्ट्स के मुताबिक, इसमें 215 बच्चों के कंकाल बरामद हुए हैं. इनमें से सबसे छोटे बच्चे की उम्र तीन साल की बताई जा रही है.

केमलूप्स इलाके के एक स्कूल ग्राउंड में 215 बच्चों के कंकाल बरामद हुए हैं. (तस्वीर: एपी)
इसी कब्र के पास केमलूप्स रेसिडेंशियल स्कूल हुआ करता था. जिसमें मूलनिवासियों के बच्चों को अंग्रेज़ी और ईसाईयत सिखाने के लिए अत्याचार किए जाते थे. ये स्कूल 1890 से 1970 तक चला था.

पोप फ़्रांसिस. (तस्वीर: एपी)
प्रधानमंत्री जस्टिन ट्रूडो ने इस घटना पर शोक जताया. उन्होंने सभी सरकारी इमारतों पर लगे राष्ट्रीय झंडे को झुकाने का आदेश भी दिया. 2018 में ट्रूडो ने पोप से आधिकारिक माफ़ी मांगने के लिए कहा था. लेकिन पोप फ़्रांसिस ने ऐसा करने से मना कर दिया.

कनाडा के पीएम प्रधानमंत्री जस्टिन ट्रूडो. (तस्वीर: एपी)
क्या माफ़ी उन यातनाओं की भरपाई कर पाएंगी?
जाते-जाते मशहूर रॉक बैंड ‘पिंक फ़्लॉयड’ के एक गीत की कुछ पंक्तियां सुनते जाइए. इसे लिखा था, महान रोजर वॉटर्स ने. हमारे शो के राइटर ने हिंदी में इसका टूटा-फूटा अनुवाद किया है. मर्म समझने की कोशिश करिए. भूल-चूक के लिए माफ़ी.

रोजर वॉटर्स. (तस्वीर: एएफपी)
हमें नहीं चाहिए आपका किताबी ज्ञान नहीं भाता ज़ंज़ीरों वाला अनुशासन चुभते हैं दिल दहलाने वाले ताने इसलिए, अध्यापकों, हम बच्चों को कुछ वक़्त रहने दो अकेला हमें भर लेने दो खुली पंखों से उड़ान जी लेने दो बेड़ियों से मुक़्त बचपन हे टीचर्स, लीव द किड्स अलोन.