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क्यूं नेशनल पेंशन स्कीम से न सरकारी कर्मचारी ख़ुश हैं, न बाक़ी लोग इससे जुड़ रहे हैं?

NPS, GPF, OPS वग़ैरह के बारे में वो सारी बातें जो इन्हें लेकर आपकी सोच बदल देगी.

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पेंशन मतलब ख़ुशी का इंश्योरेंस. (सांकेतिक तस्वीर: AP)
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3 जून 2020 (Updated: 4 जून 2020, 06:36 IST)
Updated: 4 जून 2020 06:36 IST
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2004 तक केंद्र सरकार के कर्मचारियों को पेंशन मिला करती थी. लेकिन 31 दिसंबर, 2004 के बाद जिन भी सरकारी कर्मचारियों की भर्ती हुई, केंद्र सरकार ने तय किया कि उन्हें उनके रिटायरमेंट पर पेंशन नहीं मिला करेगी.
इसके एवज़ में इन लोगों के लिए एक नई चीज़ लाई गई, बाजे गाजे के साथ. नाम था एनपीएस. बोले तो नेशनल पेंशन स्कीम. लेकिन ऐसा नहीं था कि केवल पुरानी पेंशन का नाम भर बदल दिया गया हो. काफ़ी चीज़ें बदल गईं, और ज़्यादातर चीज़ें 2004 के बाद भर्ती हुए कर्मचारियों को पसंद नहीं आईं. क्यूं? क्यूंकि-
# 1) OPS V/S NPS-
# जहां 2004 से पहले भर्ती हुए कर्मचारियों को पेंशन पाने के लिए एक भी पैसा नहीं देना पड़ता था, वहीं नई वाली पेंशन स्कीम के लिए हर माह कर्मचारियों की बेसिक सैलरी में से 10% काटा जाना था. सरकार ने तय किया कि कर्मचारियों के एनपीएस अकाउंट में वो भी उतनी ही रक़म जमा करेगी जितना कर्मचारी. यानी बेसिक सैलरी का 10%. हालांकि अब मोदी सरकार ने सरकार का अंशदान 10 से बढ़ाकर 14 फीसदी कर दिया है.
# तय हुआ कि एनपीएस में जमा होने वाले पैसों पर कोई निश्चित ब्याज़ नहीं मिलेगा, जैसा आम तौर पर सरकारी स्कीम्स में या एफ़डी वग़ैरह में मिला करता है. बल्कि इसे बाज़ार में लगाया जाएगा, इक्विटी और डेट में. मार्केट में रिटर्न तो पारंपरिक इन्वेस्टमेंट से ज़्यादा हैं, लेकिन रिस्क भी उतने ही हैं.
तो, जहां ओल्ड पेंशन स्कीम (ओपीएस) में आपको मिलने वाली पेंशन रिटायरमेंट से जस्ट पहले मिली सैलरी पर आधारित है, वहीं एनपीएस में ये आपके इकट्ठा हुए पैसों (कोर्पस) पर निर्भर करेगी. कोर्पस में होगा- (आपका कॉन्ट्रिब्यूशन) + (सरकार का कॉन्ट्रिब्यूशन) +/- (मार्केट ने इसपर जो रिटर्न दिया है).
और इसलिए ही कर्मचारियों को दिक्कत सिर्फ़ इतनी भर नहीं है कि उनको पेंशन पाने के लिए हर महीने पैसे कटवाने पड़ रहे हैं. दिक्कत ये भी है कि रिटायरमेंट के बाद मिलने वाला अमाउंट भी बहुत कम होगा. इंफ़्लेशन वग़ैरह सबको ध्यान में रखेंगे तो पाएंगे कि ओपीएस और एनपीएस में मिलने वाली पेंशन में ज़मीन आसमान का फ़र्क़ है.
एनपीएस के लिए डेडिकेटेड वेबसाइट का स्क्रीनशॉट. (https://enps.nsdl.com/eNPS/NationalPensionSystem.html) एनपीएस के लिए डेडिकेटेड वेबसाइट का स्क्रीनशॉट. (https://enps.nsdl.com/eNPS/NationalPensionSystem.html)


# एनपीएस के अंतर्गत, 60 वर्ष की उम्र में जो पैसा या कोर्पस बनेगा उससे आपकी आने वाले वर्षों की या रिटायरमेंट के बाद की मासिक आय निर्धारित होगी. आप इस अमाउंट का 60% तक एकमुश्त ले सकते हैं. लेकिन बाकी को मासिक पेंशन में कन्वर्ट कराना पड़ेगा. दूसरे शब्दों में कहें तो पेंशनर को एनपीएस फंड में इकट्ठा हुए पैसों में से कम से कम 40% प्रतिशत पैसा मासिक पेंशन के रूप में लेना ही लेना होगा. इससे ज़्यादा लेना चाहे तो वो ऐसा कर सकता है. इस 40% हिस्से को, जिसकी पेंशन बननी है, एन्यूटी कहा जाता है.
# जहां ओपीएस में पेंशन सीधे सरकार देती थी, एनपीएस में अलग ही हिसाब किताब है. पांच इंश्योरेंस कंपनीज़ हैं, जिनमें से पेंशनर किसी एक का पेंशन प्लान चुन सकता है. फिर सरकार पेंशनर के कुल कोर्पस का एन्यूटी वाला हिस्सा उसके चुने हुए पेंशन प्लान में जमा करा देगी. और फिर वो इंश्योरेंस कंपनी ही पेंशनर को पेंशन दिया करेगी, जिसका पेंशन प्लान, पेंशनर ने चुना है.
इसमें दिक्कत ये है कि जहां ओपीएस में सरकारी तनख़्वाह की तरह ही पे कमीशन और डीए लागू होता है, वहीं एनपीएस में ये दोनों चीज़ें नदारद हैं. ‘पे कमीशन’ जहां हर 10 साल में पेंशन को गुणात्मक रूप से बढ़ा देता है, वहीं डीए के चलते भी कुछेक प्रतिशत बढ़ौतरी हर छः महीने में हो जाती है. जबकि एनपीएस में पेंशन आपको इन पांच इंश्योरेंस कंपनीज़ में से एक से मिलनी है. वो क्यूं ही हर साल, छः महीने में आपके पैसे बढ़ाए?
एलआईसी एसबीआई लाइफ़ आईसीआईसीआई प्रूडेंशियल एचडीएफ़सी स्टैंडर्ड लाइफ़ स्टार यूनियन डाई-इची
जिन पांच कंपनियों ने नाम ऊपर मेंशन हैं, उनमें भविष्य में बदलाव संभव हैं. ऐसा किसी सरकारी गजट में नहीं लिखा लेकिन ये अंडरस्टुड ही ठहरा.
# GPF V/S NPS-
31 दिसम्बर, 2004 के बाद की जॉइनिंग वाले केंद्रीय कर्मचारियों के लिए जनरल प्रॉविडेंट फंड पूरी तरह से बंद कर दिया गया. यूं ये कहा जा सकता है कि जीपीएफ़ + ओपीएस का नया वर्जन है, एनपीएस. लेकिन कहीं कमतर. मतलब किसी महंगे प्रोडक्ट की सस्ती चाईनीज़ कॉपी. कैसे? जानने के लिए बंद किया जा चुका जीपीएफ़ समझना होगा-
जीपीएफ़ में सरकारी कर्मचारी को सैलरी का कम से कम 6% जमा करवाना होता है. कर्मचारी इससे ज़्यादा भी जमा करवा ले तो कोई दिक्कत नहीं. इसमें उसे एक निश्चित ब्याज़ भी मिलता है, जो FD वग़ैरह से कहीं अधिक होता है. ये पैसा उसे रिटायरमेंट के वक्त एक मुश्त मिल जाता है.
हम हर जगह था के बदले है इसलिए यूज़ कर रहे हैं, क्यूंकि जीपीएफ़ अब भी उन लोगों के लिए वैलिड है जिनकी जॉइनिंग 1 जनवरी, 2005 से पहले हुई.
अब आप कहेंगे कि अगर सरकार ने जीपीएफ़ बंद किया तो एनपीएस में एकमुश्त 60% पैसे निकालने का भी तो विकल्प दिया. तो अब जीपीएफ़ और एनपीएस के अंतर को भी समझ लेते हैं-
# जहां जीपीएफ़ में आप 10 साल की जॉब हो चुकने के बाद कभी भी, जमा हुए पैसों का 75% तक निकाल सकते हैं, वहीं एनपीएस में आप मेच्योरटी से पहले सिर्फ़ ‘अपने जमा किए’ पैसों का 25% निकाल सकते हैं. यानी जो भी पैसा जमा हुआ, उसमें से सरकार का कॉन्ट्रीब्यूशन हटाइए, फिर जो बाज़ार ने प्रॉफ़िट दिया उसे हटाइए, फिर जो बचा उसका 25%. ये अमाउंट निकालने के लिए आपको कम से कम 3 साल एनपीएस में इन्वेस्टेड रहना ज़रूरी है.
एक उदाहरण, जिससे समझ आता है कि आप एनपीएस में कितना पार्शल विड्रॉल कर सकते हैं. एक उदाहरण, जिससे समझ आता है कि आप एनपीएस में कितना पार्शल विड्रॉल कर सकते हैं.


# जीपीएफ़ में आप ’बच्चे का पांचवी में एडमिशन करना है’, ’घर का फ़र्नीचर ख़रीदना है’, ’भांजे की शादी करनी है’ जैसे छोटे-मोटे कारण बताकर भी पैसे निकाल सकते हैं. जबकि एनपीएस में सिर्फ़ दो या तीन कारण हैं जिनके चलते आपको पार्शल विड्रॉल की अनुमति मिलेगी. जिसमें शामिल है इंवेस्टर या उसपर निर्भर किसी व्यक्ति की जानलेवा बीमारी और बच्चों की हायर एजुकेशन.
और हां,जीपीएफ़ में, कई क्रिटिकल केसेज़ में आप 90% तक का भी पार्शल विड्रॉल कर सकते हैं.
# जीपीएफ़ में आप मेच्योरटी से पहले कितनी भी बार पार्शल विड्रॉल कर सकते हैं, बस दो पार्शल विड्रॉल्स के बीच 4-6 महीने का अंतर होना आवश्यक है. जबकि एनपीएस में कुल तीन बार ही पार्शल विड्रॉल किया जा सकता है, और दो विड्रॉल्स के बीच में कम से कम 5 वर्ष का अंतर होना आवश्यक है.
यानी,जीपीएफ़ और ओपीएस दोनों को बंद करके एनपीएस शुरू किया गया, लेकिन इसमें चाहे जिसका फ़ायदा-नुक़सान हुआ हो, ऊपर की बातों से ये तो क्लियर है कि केंद्र सरकार के कर्मचारियों को तो इसका बेतरह नुक़सान ही हुआ है. तभी तो जिनकी भर्ती 1 जनवरी, 2005 के आसपास हुई है उनमें से भी कई लोग हाल-हाल तक केस लड़ते रहे, और अंततः केस जीतकर ओपीएस में स्विच कर गए. इनमें से ज़्यादातर वे लोग थे जिनका सेलेक्शन, इग्ज़ाम या जिनकी पोस्ट के लिए वैकेन्सी तो 1 जनवरी, 2005 से पहले ही निकल गई थी, लेकिन इनकी जॉइनिंग 1 जनवरी, 2005 या उसके बाद हुई.
जिस तरह ‘पे कमीशन’ डीए वग़ैरह केंद्र सरकार के बाद, राज्य सरकारें भी लागू कर देती हैं उसी तरह एनपीएस को भी राज्य सरकारों ने लागू कर दिया था. अभी दिल्ली चुनाव के दौरान उड़ती-उड़ती ख़बर आई थी कि केजरीवाल सरकार एनपीएस से ओपीएस पर शिफ़्ट होने की सोच रही है. ये सच था, प्रोपोगेंडा था या झूठ या, इसपर ध्यान मत दीजिए. गौर इस बात पर करिए कि अगर ऐसा हो जाता तो ये कर्मचारियों के लिए सुहाने दिन वापस आ जाने सरीखा होता. तभी तो इस मुद्दे की एक चुनावी यूटीलिटी थी.
# बड़ा बदलाव, और बड़ी असफलता-
तो जहां ये एनपीएस केंद्र के सरकारी कर्मचारियों के लिए जनवरी, 2005 से आवश्यक कर दी गई थी, वहीं धीरे-धीरे ये अलग-अलग राज्य के सरकारी कर्मचारियों के लिए भी लागू होती चली गई. इसके बाद 1 मई, 2009 को इस स्कीम को प्राइवेट कर्मचारियों के साथ-साथ देश के आम आदमी के लिए भी खोल दिया गया. लेकिन सरकारी कर्मचारियों के उलट, ये स्कीम बाकी सभी भारतीयों और एनआरआई के लिए वैकल्पिक थी.
2005 में OPS से NPS में आ जाने वाली सरकार के प्रधानमंत्री (तस्वीर: AP) 2005 में OPS से NPS में आ जाने वाली सरकार के प्रधानमंत्री (तस्वीर: AP)


बाद में भी इसमें छोटे-मोटे परिवर्तन किए गए, लेकिन 11 साल पहले सभी लोगों के लिए इसे खोल देना सबसे बड़ा परिवर्तन रहा. अब फ़ाइनेंशियल एक्सप्रेस की ख़बर आ रही है कि
, जहां सरकारी कर्मचारियों के लिए ये स्कीम आवश्यक थी, वहीं बाक़ियों ने इसमें कोई ख़ास रुचि नहीं दिखाई है. सांख्यिकी में बात करें तो पिछले 11 सालों में इसमें साढ़े बारह लाख के क़रीब लोगों ने ही स्वेच्छा से इनरॉल किया है. 68 लाख के क़रीब सरकारी कर्मचारियों के लिए तो ख़ैर ये मेंडेटरी है.
इतने कम इनरॉलमेंट इसलिए आश्चर्यचकित करते हैं, क्यूंकि ये किसी भी अन्य प्राइवेट पेंशन स्कीम से कहीं ज़्यादा फ़ायदेमंद है. प्राइवेट पेंशन स्कीम मतलब जो पेंशन या रिटायरमेंट पॉलिसी लोग इंश्योरेंस कंपनीज़ (जैसे एलआईसी, प्रूडेंशियल वग़ैरह) से ख़रीदते हैं-
# जहां बाकी पेंशन प्लान में आपको पॉलिसी एक्टिव रखने के लिए हर साल कम से कम 15 से 25 हज़ार रूपये जमा कराने होते हैं, वहीं एनपीएस में ये न्यूनतम राशि मात्र 6,000 रूपये है.
# जहां बाकी पेंशन प्लान की मेच्योरिटी में आप अधिकतम 34 प्रतिशत पैसा ही एकमुश्त ले सकते हैं, वहीं एनपीएस में ये सीमा 60 प्रतिशत तक की है.
# आपके पैसे से ज़्यादा से ज़्यादा रिटर्न आए, ये सोचकर ऐसी किसी भी पॉलिसी का जिसका पैसा डायरेक्ट मार्केट में लगता है, उसे ‘फंड मैनेजर’ द्वारा मैनेज किया जाता है. इस एवज़ में हर मार्केट लिंक्ड प्लान एक मैनजमेंट फीस चार्ज करता है. जहां ये चार्ज बाकी पेंशन प्लान में सवा से डेढ़ प्रतिशत है, वहीं एनपीएस में ये राशि ना के बराबर है. (0.01%).
IMP: सरकारी कर्मचारियों का पैसा एलआईसी, एसबीआई और यूटीआई के फंड मैनेजर, मैनेज करते हैं. सरकारी कर्मचारी कुछ नियमों अधीन इन तीनों में से किसी भी फंड मैनेजर (फंड हाउस) या इनके परम्यूटेशन-कॉम्बिनेशन्स को चुन सकते हैं. वहीं बाक़ी इंवेस्टर्स को एनपीएस इन तीन के अलावा कुछ और विकल्प भी देता है. ये विकल्प हैं- एचडीएफ़सी, आईसीआईसीआई, कोटक, बिरला सन लाइफ़ और रिलायंस.
इंवेस्टर्स साल में दो बार अपने फंड को बदल सकते हैं. मतलब एचडीएफ़सी के बदले अग़र कोटक या एसबीआई के बदले एलआईसी से अपने पैसे मैनेज करवाने हैं तो ऐसा एक साल में दो बार किया जा सकता है. या फिर डेट फंड से इक्विटी या इक्विटी से डेट फंड, ये भी साल में दो बार किया जा सकता है.
# दोनों ही तरह की पॉलिसी लेने पर आपको अधिकतम डेढ़ लाख रुपए तक की इनकम टैक्स रिबेट मिलती है. 80CCC के अंतर्गत. वहीं एनपीएस में आपको इसके ऊपर 50 हज़ार रुपए की इनकम टैक्स रिबेट और मिल जाती है. 80CCD(1b) के अंतर्गत.
# क्यूं हुए कम लोग इनरॉल-
आपने देखा कि प्राइवेट कंपनियों के इंश्योरेंस प्लान की तुलना में, लगभग हर पॉईंट पर, एनपीएस इक्कीस ही ठहरती है. फिर भी डेटा बता रहा है कि ये लोगों को आकर्षित नहीं कर पा रही. क्यूं?
# सबसे बड़ा कारण है मार्केटिंग. जहां प्राइवेट इंश्योरेंस कंपनीज़ अपने प्रोडक्ट की जमकर मार्केटिंग और एडवर्टाइज़िंग करती हैं वहीं एनपीएस के बारे में तो कई बार उन्हें भी ज़्यादा जानकारी नहीं होती, जिन नोडल ऑफ़िसेज़ से इसे लिया जा सकता है. साथ ही प्राइवेट इंश्योरेंस कंपनीज़ हर पॉलिसी की बिक्री पर सेल्समेन को कमीशन वग़ैरह देती है. एनपीएस क्यूं ही देगी? यानी एनपीएस इसलिए कम नहीं चलती क्यूंकि एंड यूज़र्स को प्राइवेट कंपनियों की पेंशन स्कीम से ज़्यादा फ़ायदा मिलता है, बल्कि इसलिए कम चलती है, क्यूंकि बिचौलियों को प्राइवेट कंपनियों की पेंशन स्कीम से ज़्यादा फ़ायदा मिलता है. इसे ही तो ‘पुश सेलिंग’ कहते हैं. मतलब अपने माल को धक्का देकर उपभोक्ता को बेचना.
# प्राइवेट इंश्योरेंस कंपनीज़ अपने उपभोक्ताओं को ढेर सारे विकल्प देती है. जिसमें इन्वेस्टमेंट के विकल्प (इंवेस्टर अपने पैसे को मार्केट में लगाएं या उसपर एक निश्चित ब्याज़ ले लें), ट्रांजिक्शन के विकल्प (प्रीमियम किन किन माध्यमों से भर सकते हैं, फंड कैसे-कैसे स्विच कर सकते हैं) और पॉलिसी के विकल्प (टर्म, मैच्योरटी, प्रीमियम की फ़्रीक्वेंसी, नॉमिनी) शामिल हैं. हालांकि गौर करेंगे तो इसमें से कुछ विकल्प तो एनपीएस में भी होते हैं, लेकिन फिर, बैक टू पॉईंट वन, उनको बताएगा कौन? ऑफ़ कोर्स, दी लल्लनटॉप के अलावा.
प्राइवेट इंश्योरेस कंपनीज़ कैसे एग्रेसिवली विज्ञापन करती हैं. प्राइवेट इंश्योरेस कंपनीज़ कैसे एग्रेसिवली विज्ञापन करती हैं.


# थोड़ी बहुत भसड़ सरकार ने भी मचाई हुई है. इतनी सारी सरकारी स्कीम्स हैं. ये ‘विकल्पों की अधिकता’ दूसरे वाले पॉईंट से इसलिए अलग है क्यूंकि अगर सरकार एक से ज़्यादा पेंशन या इन्वेस्टमेंट स्कीम्स लाएगी तो ज़ाहिर है वो सारे इंवेस्टर्स अलग-अलग स्कीम में बंट जाएंगे, जिन्हें केवल सरकारी स्कीम्स ही लेनी हैं. यानी साढ़े बारह लाख का डेटा सिर्फ़ एनपीएस स्कीम का डेटा है, न कि सरकार की इंवेस्टेमेंट पॉलिसीज़ या पेंशन पॉलिसीज़ में इन्वेस्टेड सभी लोगों को. एनपीएस के अलावा एपीवाय (अटल पेंशन योजना), प्रधानमंत्री श्रम योगी मानधन, प्रधानमंत्री कर्म योगी मानधन स्कीम, स्वालंबन स्कीम जैसी और भी सरकारी पेंशन स्कीम हैं. इनके चलते कंफ़्यूजन भी क्रियेट हुआ है, जैसे स्वालंबन स्कीम को एपीवाय में मर्ज़ कर दिया गया.
ये तो सिर्फ़ पेंशन वाले इन्वेस्टमेंट प्लान्स हैं, इनके अलावा एससीएसएस (सीनियर सिटिज़न सेंविंग स्कीम), एनएससी (नेशनल सेविंग सर्टिफ़िकेट), एनएसएस (नेशनल सेविंग स्कीम), पीपीएफ़ (पब्लिक प्रॉविडेंट फंड), किसान विकास पत्र, सुकन्या समृद्धि योजना जैसे ढेरों सरकारी इन्वेस्टमेंट प्लान हैं. कुछ केस स्पेसिफ़िक (जैसे सिर्फ़ बुजुर्गों के लिए, लड़कियों के लिए) और कुछ जेनरिक हैं.
# सरकारी योजना होने के नाते, हर चीज़ बहुत ही हील-हवाली वाले रवैए की है. एनरॉलमेंट प्रोसेस से लेकर, इनकी वेबसाइट तक की तुलना किसी प्राइवेट इंश्योरेंस कंपनी की क्रमशः एनरॉलमेंट प्रोसेस और वेबसाइट से करके देखिए. जहां वेबसाइट का वही आईआरसीटीसी वाला हिसाब किताब है, माइनस मोनोपॉली. वहीं एनरॉलमेंट प्रोसेस में कोई सहायता करने वाला भी नहीं. यानी अगर कोई इससे आकर्षित होकर ख़ुद इसके पास आए, इसे ख़रीदने के लिए (पुल सेलिंग) तो भी वो अंततः थक हार कर वापस लौट जाता है.
# एनपीएस से जुड़े कुछ और स्पेसिफ़िकेशन-
हालांकि अभी तक तीन-चार तुलनाएं भर कर देने से हमें एनपीएस से जुड़ी लगभग सारी जानकारियां मिल गई हैं. और हम कह सकते हैं कि एनपीएस एक रिटायरमेंट स्कीम है, जिसमें हमें टैक्स बेनिफ़िट भी मिलते हैं. लेकिन जो महत्वपूर्ण जानकारियां छूट गईं, वो यूं हैं-
# एनपीएस दो तरह का होता है. ‘टियर वन’ और ‘टियर टू’. ‘टियर वन’ तो वही है, जिसके बारे में हमने ऊपर डिस्कस किया. ‘टियर टू’ की जहां तक बात है, ये सभी के लिए वैकल्पिक एनपीएस है. सरकारी कर्मचारियों के लिए भी. लेकिन ‘टियर टू’, वही लोग ले सकते हैं जिन्होंने पहले से ही ‘टियर वन’ लिया हुआ है. मतलब ‘टियर टू’, अलग से नहीं ली जा सकती. इसलिए ही इसे ‘टियर वन’ का या पूरे ही एनपीएस का राइडर भी कहा जा सकता है.
‘टियर टू’ मार्केट लिंक्ड सेविंग प्लान की तरह है, जिसमें आप कितना भी पैसा, कभी भी, डाल या निकाल सकते हैं. लेकिन इसमें कोई टैक्स बेनिफ़िट नहीं मिलता है.
# एनपीएस को पीएफ़आरडीए (पेंशन फंड रेगुलेटरी एंड डिवेलपमेंट अथॉरिटी) रेगुलेट करती है. मतलब पीएफ़आरडीए एनपीएस के लिए वही है जो बैंक्स के लिए आरबीआई.
भारत में ज़्यादातर लोग अपने वर्तमान को लेकर श्योर नहीं हैं, फ़्यूचर सिक्यूरिटी का तो क्या ही कहें? ऐसे में सरकार कैसे इन लोगों का भविष्य सुरक्षित करेगी? (सांकेतिक तस्वीर: AP) भारत में ज़्यादातर लोग अपने वर्तमान को लेकर श्योर नहीं हैं, फ़्यूचर सिक्यूरिटी का तो क्या ही कहें? ऐसे में सरकार कैसे इन लोगों का भविष्य सुरक्षित करेगी? (सांकेतिक तस्वीर: AP)


# ये एक टैक्स फ़्री रिटर्न है. EEE कैटेगरी का. E मतलब एग्जेंप्ट. यानी छूट. और तीन बार E मतलब तीन स्तर पर छूट. कहां-कहां? पैसा जमा करते हुए, पैसे के एक्यूमलेट होते हुए, और पैसे को निकालने के दौरान, कहीं पर भी आपको टैक्स नहीं देना पड़ेगा. (पैसे के एक्यूमलेट होते हुए टैक्स नहीं देना पड़ेगा मतलब- जो आपको आपके पैसे पर प्रॉफ़िट हो रहा है, उसपर भी आपको सरकार को कोई पैसा नहीं देना पड़ेगा.)
# आप एनपीएस में अपना अकाउंट ऑनलाइन या ऑफ़लाइन दोनों तरीक़े से खोल सकते हैं. ऑनलाइन खाता खोलने के लिए ये रहा लिंक.

‘टियर टू’ अकाउंट भी इन दोनों विकल्पों से खुलवा सकते हैं, साथ ही ‘टियर टू’ अकाउंट आप एनपीएस के ऐप से भी खोल सकते हैं.
एक बार खाता खुला तो आपको एक यूनीक नंबर मिल जाता है जिसे प्रेन (परमानेंट रिटायरमेंट अकाउंट नम्बर). इसमें ‘परमानेंट’ शब्द इसलिए ही जुड़ा है, क्यूंकि आप इसे ताउम्र बदलवा नहीं सकते और न ही एक बंदे को दो या दो से अधिक प्रेन मिलते हैं. मतलब किसी अर्जेंसी में इसे एक जगह से दूसरी जगह शिफ़्ट करना ही एकमात्र विकल्प है. इसलिए ही ये पोर्टेबल भी है. तो अगर, कोई सरकारी कर्मचारी बीएसएनएल की केंद्रीय जॉब छोड़कर उत्तर प्रदेश पर्यटन की राज्य स्तरीय नौकरी करने लग जाता है तो उसे नया प्रेन नहीं मिलेगा. बल्कि पुराने को ही बीएसएनएल से यूपी टूरिज़्म में शिफ़्ट करवाना होगा.


वीडियो देखें-

मोदी सरकार के पास जिस 'बैड बैंक' का प्रस्ताव है, वो भारत का बैंकिंग सिस्टम बदल देगा?-

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