दोस्तों की इस टोली ने मोबाइल एप से बच्चों के लिए बहुत अच्छा काम किया है
आज उसके इस एप को सात लाख से ज़्यादा लोग इस्तेमाल करते हैं.
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रितेश और उनका ग्रुप पाने कॉलेज के दिनों से ही कुछ करना चाहते थे जिससे लोगों की लाइफ आसान हो जाए.
बिहार के छपरा जिले का एक लड़का है. रितेश नाम का. बहुत बातूनी है. आईआईटी दिल्ली से मैकेनिकल इंजीनियरिंग की पढ़ाई की है. लड़के ने एक एप्लीकेशन बनाई है. मोबाइल एप्लीकेशन. रितेश इंडिया के एजुकेशन सिस्टम से बहुत त्रस्त था. इसलिए उसने ECKOVATION नाम का एप्लीकेशन बनाई. इसमें टीचर्स और बच्चे एक दूसरे से जुड़ सकते हैं. पढ़ सकते हैं, पढ़ा सकते हैं. दरअसल हमारे हिंदुस्तान की शिक्षा व्यवस्था में दिक्कत ये है कि हमारे पास क्वालिटी टीचर्स नहीं हैं. बहुत से हैं भी तो बच्चों से दूर हैं. किसी दूसरे पेशे में हैं. मास्टरी में पैसा नहीं है न इसलिए. इन्ही समस्याओं का काट ये लड़का हमारे लिए इस एप्लीकेशन के रूप में लाया है. लेकिन इसके लिए सिर्फ रितेश नहीं उनका पूरा ग्रुप बधाई का पात्र है.
# जब लोग कुछ अच्छा कर जाते हैं तो उनकी जीवनी लिखी/पढ़ी जाती है
बचपने से होनहार रहे होंगे. एक दम गरीब होना भी क्राइटेरिया है लेकिन ये उसमें नहीं थे. पापा छपरा के एक कॉलेज में प्रोफेसर थे. पापा से ज्ञान भी मिला था, 'सफलता की सबसे आसन राह शिक्षा है'. बच्चा अभी मस्ती मजाक कर ही रहा था कि लाइफ सीरियस हो गई. पापा की डेथ हो गई. घरवालों का रेगुलर डायलॉग चालू हो गया कि पापा का नाम तुम्हें ही आगे बढ़ाना है टाइप्स. रितेश को कोटा भेजा गया कि वहां जाओ और इंजीनियरिंग की तैयारी करो. लड़के को आईआईटी में पढ़ने का मन था वो भी दिल्ली वाली में. 2007 के पेपर में बैठे. रैंक 5000 के करीब आया. बीएचयू हाथ थामने को तैयार था लेकिन इन्हें तो आईआईटी दिल्ली जाना था. फिर से लग गए. अगले साल रैंक आया 360. दिल्ली अब दूर नहीं थी. एडमिशन हो गया.

IIT हर इंजीनियरिंग करने वाले लड़कों का सपना होता है.
# कॉलेज जाते ही रैंचो की आत्मा समा गई
कॉलेज में रितेश ने 'सरस' नाम की एक सोसाइटी बनाई. सोसाइटी बहुत काम की थी. स्टूडेंट्स और जन दोनों के कल्याण के लिए थी. इस सोसाइटी का काम था स्टूडेंट्स के इनोवेटिव असाइनमेंट या प्रोजेक्ट्स को लैब और टीचर्स ही न देखें-जानें बल्कि उसका इस्तेमाल हो. उससे लोगों की मदद हो. कुछ चीज़ें निकाली गईं, यूज़ में लाई गईं. लेकिन कॉलेज के लौंडों की पहुंच न बस गेट के अंदर तक ही होती है. और फिर भाईसाब पासआउट भी हो गए.
# खेत के मजदूर को देखा, आईडिया मिला, एप बना दिया
शुरू से ही कुछ ऐसा करना चाहते थे जिससे लोगों को मदद मिले. उनका काम आसान हो सके. इंजीनियरिंग करने का कुछ तो फायदा हो. उसके बाद कॉलेज पूरा होने पर जॉब का भी प्रेशर होता है. तो इन्होने BOSCH कंपनी जॉइन कर ली. जॉइन करना दो तरह से फायदेमंद रहा. पहला ये कि पैसा आने लगा और दूसरा सीखने को मिला कि चीज़ों या प्रोडक्ट्स को पब्लिक तक कैसे पहुंचाते हैं. दो साल नौकरी किए फिर छोड़छाड़ के गांव चल दिए. साथ में एक दिल्ली वाले दोस्त को भी ले आए. बोले, चलो तुम्हें गांव दिखा लाएं. लौंडे तो लाइफ से ऐसे ही उचटे रहते हैं. साथ हो लिया. गांव पहुंचे और वादा पूरा करने खेत में निकले.

आज कल फ़ोन हर घर तक पहुंच गया है और लोग इसका भरपूर फायदा उठा रहे हैं. (सांकेतिक तस्वीर)
खेत में पहुंचे तो एक किसान/मजदूर अपने फ़ोन पर फुल-वोल्यूम में भोजपुरी गाना सुन रहा था. पूछे 'भईया कउन गाना सुनत हउअ', जवाब आया 'बढ़िया बा का? नंबर बोल द देत हईं'. और उसने तुरंत वो गाना Whatsapp से शेयर कर दिया. अब बेचारे दोनों लौंडे भौंचक्के रह गए. लेकिन आइडिया कौंधा कि अगर ये लोग व्हाट्सएप जैसी चीज़ें इतनी आसानी से चला सकते हैं तो कुछ और क्यों नहीं. यहीं से शुरू हुआ एप्लीकेशन बनाने का सफर.
# कैसे काम करता है ये एप
Eckovation: Group Learning and Messaging नाम का ये एप ऑनलाइन टीचिंग की सुविधा उपलब्ध कराता है. यहां टीचर्स अपना स्टडी मटीरियल अपलोड करने के साथ ही उसपर अपना वीडियो भी अपलोड कर सकते हैं. यहां कुछ लोग ग्रुप्स में भी पढ़ाई कर सकते हैं. एक दूसरों के प्रॉब्लम्स सोल्व कर सकते हैं. बेसिक सभी कोर्सेज तक़रीबन फ्री हैं जबकि प्रोफेशनल कोर्सेज के लिए आपको कुछ रकम चुकानी पड़ेगी. एंड्राइड फ़ोन में इस एप को आप गूगल प्लेस्टोर पर जाकर Eckovation टाइप करके सर्च करने के बाद डाउनलोड कर सकते हैं.

इस तरह से इस एप पर ग्रुप बनाकर बच्चे सवाल जवाब करते हैं.
# DAV/ DPS जैसे संस्थान भी इस्तेमाल करते हैं ये एप
गांव-गांव घूमकर सर्वे किया गया. पता चला मोबाइल यूजर्स बहुत हैं. 2014 में एप्लीकेशन पर काम शुरू हुआ और दिसम्बर 2015 में एप्लीकेशन लॉन्च हो गया. फिलहाल इस एप्लीकेशन से तक़रीबन 7 लाख लोग जुड़े हुए हैं. इस एप में KG से लेकर UPSC तक की पढ़ाई होती है. इससे जरूरतमंद स्टूडेंट्स को काबिल टीचर्स मिलने लगे. कहीं ग्रुप डिस्कशन चल रहा है तो कहीं वीडियो देखकर सवाल हल किया जा रहा है. मतलब बहुत कारगर एप्प है. इसे दिल्ली और बिहार के DAV और DPS जैसे संस्थान भी इस्तेमाल में ला रहे हैं.

DAV or DPS जैसे संस्थान भी इस एप्लीकेशन को इस्तेमाल कर रहे हैं.
रितेश कहते हैं कि जिस दिन बच्चे गांव से पलायन कर पढ़ने के लिए शहर आना छोड़ देंगे उस दिन उनका मक़सद और सपना दोनों पूरा हो जाएगा. हम उम्मीद करते हैं कि रितेश का ये काम यूं ही ज़ारी रहे. ज़्यादा से ज़्यादा लोगों तक पहुंचे. और उनका सपना जल्दी से साकार हो जाए.
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