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जापान पोर्न इंड्रस्टी का असली सच ये है

जापान सरकार के नए बिल में क्या है? पोर्न इंडस्ट्री से बचकर निकले लोगों ने क्या खुलासा किया?

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जापान सरकार के नए बिल में क्या है? (फोटो- AFP,AP)
जापान सरकार के नए बिल में क्या है? (फोटो- AFP,AP)
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अभिषेक
14 जून 2022 (Updated: 16 जून 2022, 12:35 AM IST) कॉमेंट्स
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दो देश हैं. अफ़्रीका में. बाउंड्री साथ में लगती है. मगर ये साझापन बाउंड्री तक ही सीमित है. असल में दोनों एक-दूसरे के कट्टर वाले दुश्मन हैं. इन सबके बीच एक विद्रोही गुट है. उसने अपने ही देश में एक शहर पर क़ब्ज़ा कर लिया. कायदे से उस देश को विद्रोहियों से लड़ना चाहिए. लेकिन वो अपने पड़ोसी को धमका रहा है. कह रहा है, तुम्ही जने हो इस गुट को. तुम संभाल लो. नहीं तो हम हमला कर देंगे.

फिर एशिया का एक देश है. 2017 में यहां विपक्ष में एक पार्टी पनपी. इससे सत्ताधारी दल को ख़तरा लगा. उसने विपक्षी पार्टी को बैन करा दिया. फिर उसके नेता पर देशद्रोह का केस लगा दिया. अब उसको सज़ा भी हो गई है. इन सबके पीछे जो शख़्स है, वो 37 सालों से देश की सत्ता चला रहा है और अब तो उसके सामने की हर चुनौती भी खत्म हो गई है.

एशिया का एक और देश है. भारत का पड़ोसी. पाकिस्तान. पाकिस्तान के एक प्रांत में पिछले कुछ दशकों में 50 हज़ार से अधिक लोग गायब हुए हैं. इसके पीछे कौन है, ये सबको पता है. सरकार को भी. इसके बावजूद कोई कुछ क्यों नहीं करता?

और बताएंगे, जापान की पोर्न इंडस्ट्री का घिनौना सच. नए लोगों को इस इंडस्ट्री में लाने के लिए ग़लत तरीके से फंसाया जाता है. फिर उन्हें ब्लैकमेल किया जाता है. इसकी वजह से कई लोग सुसाइड कर चुके हैं. अब जापान सरकार पोर्न इंडस्ट्री पर लगाम कसने की तैयारी कर रही है. संसद में नया बिल लाया गया है. इस बिल को निचले सदन से मंज़ूरी भी मिल गई है. अभी भी बहस चल रही है. इन सबके बीच सर्वाइवर्स अपनी दिल दहलाने वाली कहानियां दुनिया के सामने बयां कर रहे हैं.

आज हम जानेंगे,

- जापान सरकार के नए बिल में क्या है?
- पोर्न इंडस्ट्री से बचकर निकले लोगों ने क्या खुलासा किया?
- और, जापान को नए कानून की ज़रूरत क्यों पड़ी?

सूचना समाप्त. अब शो को आगे बढ़ाते हैं. जहां बात जापान की पोर्न इंडस्ट्री की होगी.

पहले कुछ अनुभव सुन लीजिए.

नंबर एक.

साकी कोज़ाई एडल्ट फ़िल्मों की स्टार रहीं है. 2016 में उन्होंने न्यूज़ एजेंसी AFP को अपनी कहानी सुनाई थी. साल 2010 की बात है. साकी टोक्यो में बस का इंतज़ार कर रहीं थी. वहीं पर उन्हें एक शख़्स ने उनको अप्रोच किया. बातचीत में पता चला कि साकी को नौकरी की तलाश है. उस शख़्स ने उन्हें तुरंत नौकरी ऑफ़र की. कहा कि वो उन्हें स्टार बना देगा.

saki kozai

पहले दिन जब साकी काम पर पहुंचीं, वहां का नज़ारा ही अलग था. उनको कैमरे पर सेक्स करने के लिए कहा गया. उन्हें इस बात का कतई इल्म नहीं था.
साकी ने कहा,

“मैं अपने कपड़े नहीं उतार पाई. मुझे बस रोना आ रहा था.”

लेकिन उनका रोना उन्हें बचा पाने में नाकाम रहा. वो वापस लौटना चाहतीं थी. लेकिन उन्हें धमकी दी गई कि अगर वापस गई तो भारी-भरकम ज़ुर्माना चुकाना पड़ेगा. घरवालों को सब बता दिया जाएगा.

साकी को हार माननी पड़ी. जापान में ये कहानी इकलौती नहीं है. साकी जैसी कई लड़कियों को प्रलोभन और धमकी के ज़रिए पोर्न फ़िल्मों में काम करने के लिए मजबूर किया जाता है.

कुछ मकड़जाल हैं, जिनके जरिए नए लोगों को पोर्न इंडस्ट्री में लाया जाता है और उन्हें फंसाकर रखा जाता है. मसलन,

- उन्हें ज़ुर्माना भरने के लिए धमकाया जाता है.
- कॉन्ट्रैक्ट में ऐसे नियम रखे जाते हैं, जिसके चलते नौकरी छोड़कर जाना मुश्किल हो जाता है.
- उन्हें चेताया जाता है कि कोई दूसरी नौकरी नहीं देगा.
- अगर लड़की काम करने से मना कर दे तो एजेंट यूनिवर्सिटी कैंपस या उनके घरों में जाकर ज़ुर्माना मांगते हैं. उनके करीबियों को परेशान करते हैं.

अब दूसरा अनुभव सुनिए.

जून 2016 में क्योडो में पुलिस ने एक टैलेंट एजेंसी से जुड़े तीन लोगों को गिरफ़्तार किया. उनके ऊपर एक महिला ने कैमरे पर बलात्कार करने का आरोप लगाया था. महिला को 2009 में मॉडल के तौर पर हायर किया गया था. फिर उसे एक वीडियो प्रोडक्शन कंपनी के पास भेजा गया. वहां उससे ज़बरदस्ती एडल्ट फ़िल्मों में काम कराया गया. जब भी उसने काम छोड़ने की कोशिश की, वहां मौजूद स्टाफ़ उसे धमकाते रहे. उससे कहा गया कि घरवालों को तुम्हारी पहचान बता दी जाएगी. तुम्हारे मां-बाप से ज़ुर्माना वसूला जाएगा. कई सालों तक वो ये कुकृत्य झेलती रही. फिर उसने हिम्मत करके पुलिस में रिपोर्ट लिखाई. तब जाकर आरोपियों को गिरफ़्तार किया जा सका.

अब तीसरी कहानी सुनिए.

ये रिपोर्ट जून 2022 में जापान टाइम्स में छपी थी. इसमें एक सर्वाइवर ने नाम बदलकर अपनी कहानी सुनाई थी. नाम रखा, माइको. कुछ बरस पहले तक वो एक एजुकेशन कंपनी में काम करतीं थी. फिर कंपनी पर संकट आया. नौकरी चली गई. हालत इतनी ख़राब हुई कि माइको घर का किराया नहीं दे पा रहीं थी. एक दिन उन्होंने इंटरनेट पर पोर्न टाइप किया. उन्हें वहां खाली जगह दिखी. माइको को लगा कि कम समय में ज़्यादा पैसे कमाए जा सकते हैं. इससे तंगी दूर हो जाएगी.
माइको इंटरव्यू देने गईं. उन्हें पहले ही दिन नौकरी मिल गई. माइको ने न्यूड मॉडलिंग शुरू की. उन्हें ठीक-ठाक पैसे भी मिले . फिर एक पार्टी में उन्हें कुछ पीने के लिए दिया गया. इसके बाद वो बेहोश हो गईं. जब उनकी बेहोशी टूटी, वो एक दूसरे शख़्स के साथ कमरे में थी. इस घटना के बाद उस शख़्स ने माइको को एक साल तक ब्लैकमेल किया. धमकी देता रहा कि वो माइको की तस्वीरें रिलीज़ कर देगा.

माइको ने इससे बचने के लिए दूसरा रास्ता निकाला. उन्हें लगा कि अगर वो पोर्न फ़िल्मों में काम करने लगीं तो ब्लैकमेल थम जाएगा. उन्होंने एक पोर्न डायरेक्टर से बात की. माइको को काम भी मिल गया. लेकिन समय के साथ ये हिंसक होता चला गया. एक मौके पर उन्हें 50 पुरुषों के साथ ऐक्ट करने के लिए कहा गया. माइको को शराब का सहारा लेना पड़ा. उन्होंने बताया कि बिना शराब के वो कैमरे के सामने खड़ी भी नहीं हो पातीं थी. इसका असर उनकी याद्दाश्त पर भी पड़ा. माइको दबाव में रहने लगीं. इन सबके बावजूद एजेंसी ने उन्हें प्लास्टिक सर्जरी करवा के सेक्स वर्क करने की सलाह दी थी.

जब माइक को लगा कि अब नहीं हो पाएगा. तब उन्होंने दिवालिया होने के लिए अप्लाई कर दिया. अंतत: माइको ने पोर्न इंडस्ट्री छोड़ दी. अब वो अकेले रहतीं है. उन्हें हमेशा ये डर सताता है कि उनके बारे में घरवालों को पता चल जाएगा.

अब सवाल आता है कि आज हम जापान की पोर्न इंडस्ट्री की कहानी क्यों सुना रहे हैं?
जैसा कि हमने ऐपिसोड की शुरुआत में बताया, जापान की संसद में पोर्न इंडस्ट्री को रेगुलेट करने के लिए बिल लाया गया है. जापान की संसद का नाम है, नेशनल डायट. संसद के दो सदन हैं. निचले सदन को हाउस ऑफ़ रेप्रजेंटेटिव्स और ऊपरी सदन को हाउस ऑफ़ काउंसिलर्स कहा जाता है. निचले सदन ने बिल को पास कर दिया है. ऊपरी सदन में जून में चर्चा होनी है.

इस बिल के पास होने से क्या होगा?

- पोर्न इंडस्ट्री में काम करने वाले लोग अपनी मर्ज़ी से कॉन्ट्रैक्ट रद्द कर पाएंगे. अगर वो ऐसा करते हैं तो वीडियो वेंडर्स फ़ुटेज हटाने के लिए बाध्य होंगे.
- कॉन्ट्रैक्ट साइन करने और शूटिंग के बीच में कम से कम एक महीने का वक़्त होना चाहिए. और, शूटिंग और पब्लिक रिलीज़ के बीच में कम से कम चार महीने का अंतर रखना होगा. ये समय लोगों को विचार करने के लिए दिया गया है, कि वो इस फ़ील्ड में काम करना चाहते हैं या नहीं.

जानकारों की मानें तो इस कानून से नौजवानों को इंडस्ट्री में फंसने से बचाया जा सकेगा. हालांकि, ये बस शुरुआत भर है. अभी ऐसा माहौल तैयार करने की ज़रूरत है, जिसमें पीड़ित खुलकर अपने साथ हुए अपराध की कहानी बयां कर सकें और दोषियों को सज़ा मिले. अगर पीड़ितों को उचित माहौल नहीं दिया गया तो कानून की सफ़लता पर संशय बरकरार रहेगा.

ये था हमारा बड़ी ख़बर सेग्मेंट. अब सुर्खियों की बारी.

पहली सुर्खी पाकिस्तान से है. सिंध विधानसभा के सामने प्रदर्शन कर रहे लोगों की गिरफ़्तारी के बाद मामला गर्म हो गया है. प्रदर्शनकारी अपने गायब करीबियों के बारे में जानने के लिए इकट्ठा हुए थे. गिरफ़्तारी के ख़िलाफ़ कई नेताओं ने विरोध दर्ज़ कराया है.

07 जून को खुफिया अधिकारियों ने डोडा बलोच और ग़मशाद बलोच को उनके घर से उठा लिया था. इसके बाद से दोनों का कोई अता-पता नहीं है. डोडा और ग़मशाद, दोनों कराची यूनिवर्सिटी में पढ़ाई कर रहे थे. उनके घरवालों और मानवाधिकार संगठनों ने इस घटना का प्रोटेस्ट किया. 12 जून की रात वे सिंध विधानसभा के गेट पर पहुंच गुए. पुलिस ने उन्हें उठाने की कोशिश की. जब वे नहीं हटे तो उन्हें बुरी तरह घसीटते हुए ले जाया गया. बाद में उन्हें रिहा कर दिया गया. हालांकि, अभी भी सरकार असली मुद्दे पर बात करने से हिचक रही है.

वॉयस फ़ॉर बलोच मिसिंग पर्सन्स (VBMP) गायब हुए बलोच नागरिकों के लिए आवाज़ उठाती रही है. उनका दावा है कि अभी तक 53 हज़ार से अधिक बलोच नागरिकों को ज़बरदस्ती उठाया जा चुका है. उनके बारे में अभी तक पता नहीं चल सका है. पाकिस्तान सरकार इस आंकड़े को कम करके बताती है. लेकिन वो आगे बढ़कर ज़िम्मेदारी लेने में असमर्थ है. इसके पीछे की वजह मिलिटरी एस्टैबलिशमेंट से जुड़ी है. लोगों के मिसिंग होने की अधिकतर घटनाओं के पीछे उनकी खुफिया एजेंसी ISI है. ISI आतंकवादी का टैग लगाकर लोगों को उठाती रही है. इनमें कुछ आरोप फ़ैक्चुअल होते हैं. बाकी का इस्तेमाल बलोच नागरिकों पर दहशत कायम करने के लिए किया जाता है. ISI इन आरोपों से इनकार करती है. वो कहती है कि गायब हुए लोग पहाड़ों में छिप गए होंगे या उन्हें तालिबान ने मार दिया होगा.

डोडा बलोच और ग़मशाद बलोच

जैसा कि चलन है, पाकिस्तान में चुनी हुई सरकार से ज़्यादा शक्ति सेना के पास है. इसलिए, सब जाहिर होने के बावजूद इन घटनाओं पर लगाम नहीं लग रही है. इमरान ख़ान जब प्रधानमंत्री नहीं बने थे, तब उन्होंने भी गायब बलोच नागरिकों को वापस लाने का वादा किया था. उलटा ये हुआ कि उनके कार्यकाल में मिसिंग बलोच नागरिकों की संख्या काफ़ी बढ़ गई. जानकारों का मानना है कि नए-नवेले प्रधानमंत्री शहबाज़ शरीफ़ से किसी तरह की उम्मीद बेमानी होगी.

इन घटनाओं पर पाकिस्तान की बाकी संस्थाएं क्या कर रहीं है?

2006 में पाकिस्तान की सुप्रीम कोर्ट ने इन घटनाओं की सुनवाई शुरू की थी. लेकिन कुछ समय बाद ही तत्कालीन राष्ट्रपति परवेज़ मुशर्रफ़ ने सभी जजों को बर्ख़ास्त करके आपातकाल लगा दिया था.

2011 में पाकिस्तान सरकार ने मिसिंग पर्सन्स की जांच के लिए एक कमीशन बनाया. सितंबर 2020 में इंटरनैशन कमिशन ऑफ़ ज्यूरिस्ट्स (ICJ) ने एक रिपोर्ट छापी. इसमें सामने आया कि 09 सालों में कमिशन एक भी आरोपी को सज़ा नहीं दिलवा पाया. ऐसी स्थिति में बलोच नागरिकों के लिए न्याय की संभावना क्षीण हो जाती है.

दूसरी सुर्खी डेमोक्रेटिक रिपब्लिक ऑफ़ कॉन्गो से है. अफ़्रीका के दो बड़े देशों के बीच युद्ध की आहट सुनाई दे रही है. डी आर कॉन्गो का एक विद्रोही गुट है, मार्च 23 मूवमेंट. शॉर्ट में इसे M23 के नाम से भी जाना जाता है. इस गुट ने डी आर कॉन्गो की सरकार के ख़िलाफ़ मोर्चा खोल रखा है. यूएन की एक रिपोर्ट के अनुसार, M23 को बनाने के पीछे रवांडा की सरकार थी. रवांडा इसससे इनकार करता है. M23 अभी चर्चा में क्यों है?

12 जून को इस गुट ने डी आर कॉन्गो के बुनागाना शहर पर क़ब्ज़ा कर लिया. इससे डी आर कॉन्गो नाराज़ हो गया. उसने कहा कि रवांडा ने हमारे ऊपर हमला किया है. हम अपनी ज़मीन के लिए जान लड़ा देंगे. अभी तक रवांडा सरकार का इसपर कोई जवाब नहीं आया है. अगर इस मामले को शांति से नहीं सुलझाया गया तो रक्तपात रोकना असंभव होगा.

ये तो हुई वर्तमान की बात. दोनों देशों के बीच झगड़े का बैकग्राउंड क्या है?

डी आर कॉन्गो और रवांडा दोनों पर ही बेल्जियम का शासन था. दोनों देश 1960 के दशक में आज़ाद हुए. दोनों ही जगहों पर सिविल वॉर और तख़्तापलट रोज़मर्रा की घटना थी. अप्रैल 1994 में रवांडा में जनसंहार हुआ. बहुसंख्यक हुतू आबादी ने कम-से-कम 08 लाख तुत्सी और उदार हुतू लोगों को अपना निशाना बनाया था. जब नियम-कानून पटरी पर लौटे, तब हत्यारों की तलाश शुरू हुई. उनमें से अधिकतर भागकर पड़ोस के देशों में छिप गए. रवांडा का आरोप है कि डी आर कॉन्गो ने जनसंहार के दोषियों को अपने यहां शरण दी. दोनों देश एक-दूसरे के इलाके में अलग-अलग विद्रोही गुटों के जरिए अशांति फैलाने का इल्ज़ाम भी लगाते रहते हैं.

M23 ऐसा ही एक गुट है. इसमें अधिकतर तुत्सी समुदाय के लोग हैं. उनका कहना है कि वे डेमोक्रेटिक फ़ोर्सेस फ़ॉर द लिबरेशन ऑफ़ रवांडा (FDLR) से मुक़ाबला कर रहे हैं. FDLR में वैसे हुतू शामिल हैं, जो रवांडा जनसंहार के बाद भागकर डी आर कॉन्गो आ गए थे. रवांडा में इस समय पॉल कगामी की सरकार चल रही है. कगामी तुत्सी हैं. इसलिए, कथित तौर पर M23 को रवांडा सरकार सपोर्ट करती है. M23 को सबसे बड़ी कामयाबी नवंबर 2012 में मिली थी. तब इसने गोमा नाम के एक शहर को जीत लिया था. उस समय यूएन और कॉन्गो की सेना ने मिलकर उन्हें पीछे धकेल दिया. 

फिर डी आर कॉन्गो की सरकार ने उनके साथ समझौता कर लिया. दोनों पक्षों के बीच सीज़फ़ायर हो गया. M23 के कई लड़ाकों को सेना में नौकरी मिल गई. एक दशक तक मामला शांत रहा. मई 2022 से ये गुट एक बार फिर एक्टिव हो गया है. मई में M23 ने डी आर कॉन्गो के एक आर्मी बेस पर हमला किया था. अब उसने एक शहर पर क़ब्ज़ा कर लिया है. डी आर कॉन्गो, रवांडा के साथ आर-पार के मूड में है. अफ़्रीकन यूनियन कमीशन ने शांति की अपील की है. लेकिन जिस तरह से ताली एक हाथ से नहीं बजती, उसी तरह शांति एकालाप से नहीं आती. देखना दिलचस्प होगा कि दोनों देश किस राह पर आगे बढ़ते हैं.

आज की तीसरी और अंतिम सुर्खी सरकारी दमन परियोजना से जुड़ी है. ये मामले क्यूबा और कम्बोडिया से हैं. पहले क्यूबा की ख़बर.

क्यूबा में सरकार के ख़िलाफ़ प्रोटेस्ट करने के लिए 381 लोगों को सज़ा सुनाई गई है. इनमें से कईयों को 25 बरस की जेल भी हुई है. कुछ लोगों को सज़ा के तौर पर कम्युनिटी सर्विस करनी होगी. जिन लोगों को सज़ा हुई है, उनके ऊपर राजद्रोह, पब्लिक में अराजकता फैलाने, मारपीट और डकैती जैसे इल्ज़ाम थे.

क्यूबा में बिना सरकार की इजाज़त के एक साथ इकट्ठा होना दंडनीय अपराध है. इसके बावजूद जुलाई 2021 में हज़ारों लोगों ने प्रोटेस्ट में हिस्सा लिया. वे बढ़ती महंगाई और खाने-पीने के सामानों और दवाओं की कमी से आजिज आ चुके थे. जैसी कि परंपरा रही है, सरकार ने कहा कि ये विदेशी साज़िश है. प्रोटेस्ट करने वाले भाड़े के गुंडे हैं. विदेश से चंदा लेकर नाम ख़राब कर रहे हैं. क्यूबा का.

सरकार ने बलप्रयोग के ज़रिए प्रोटेस्ट को दबा दिया. एक हज़ार से अधिक लोगों को गिरफ़्तार किया गया. ट्रायल चला. बकौल मानवाधिकार संगठन, दिखावे वाला ट्रायल. मार्च 2022 में करीबन सौ लोगों को 06 से 30 बरस की जेल हुई. इसी कड़ी में अब 387 लोगों को सज़ा दी गई है. आने वाले दिनों में और भी प्रोटेस्टर्स की नियति तय हो सकती है.

ये तो हुआ क्यूबा का मामला. क्यूबा अमेरिका के दक्षिण में पड़ता है. ऐसा नहीं है कि दमन परियोजना सिर्फ़ उधर तक ही सीमित है. ये कार्यक्रम एशिया में भी बदस्तूर जारी है. हम कम्बोडिया की बात कर रहे हैं.

कम्बोडिया की एक अदालत ने नामी वकील और विपक्षी नेता थियरी सेंग और उनके साथियों को देशद्रोह के केस में दोषी करार दिया है. सेंग को छह बरस की सज़ा हुई है. उनके साथियों को 05 से 08 बरस के लिए जेल भेजा गया है.

पूरा मामला क्या है?

2012 में कम्बोडिया में दो पार्टियों ने आपस में विलय कर लिया. कैंडललाइट पार्टी और ह्यूमन राइट्स पार्टी. इस गठजोड़ से एक नई पार्टी बनी. कम्बोडिया नेशनल रेस्क्यू पार्टी (CNRP). इसको लोगों का सपोर्ट भी मिलने लगा. 2017 के चुनावों में इसने सत्ताधारी कम्बोडियन पीपुल्स पार्टी (CPP) को कड़ी टक्कर दी. CPP 1979 से कम्बोडिया की सत्ता चला रही है. पार्टी के मुखिया हुन सेन पिछले 37 सालों से कम्बोडिया की सत्ता चला रहे हैं. जब CNRP ने उन्हें चुनौती दी, तब उन्हें ज़मीन खिसकने का डर हुआ. फिर CNRP के ऊपर इल्ज़ाम लगाया गया कि ये पार्टी प्रधानमंत्री हुन सेन का तख़्तापलट करने की साज़िश रच रही है. नेताओं को गिरफ़्तार कर लिया गया. मामला सुप्रीम कोर्ट में गया. सुप्रीम कोर्ट के चीफ़ जस्टिस CPP की परमानेंट कमिटी के मेंबर थे. उन्होंने फ़ैसला सुनाया कि CNRP को भंग कर दिया जाए. इसके बाद हुन सेन को चैलेंज करने वाला कोई नहीं बचा.

यहां से सरकार ने CNRP के बचे-खुचे नेताओं को निशाना बनाना शुरू किया. हालिया मामला 2019 की एक फ़्लाइट से जुड़ा है. 2019 में विपक्षी नेता सैम रैन्सी वापस वतन लौट रहे थे. लेकिन उन्हें वापस नहीं आने दिया गया. इस घटना का आरोप थियरी सेंग पर लगाया गया. कहा गया कि सेंग ने ही रैन्सी को वापस लाने का प्लान बनाया था. अभी वाली सज़ा इसी केस में सुनाई गई है. ख़बर क्यूबा की हो या कम्बोडिया की, चेतावनी पूरी दुनिया के लिए है. नहीं चेते तो ना लोक रहेंगे, ना तंत्र रहेगा और ना ही लोकतंत्र रहेगा.

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