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पी.ए. संगमा, कांग्रेस का वो नेता जिसे बीजेपी ने अपनी सरकार बचाने की कोशिश में लोकसभा सौंप दी थी

संगमा ने सोनिया गांधी के खिलाफ बगावत क्यों की थी?

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1997 में लोकसभा स्पीकर रहे पी ए संगमा ने हंगामें से आजिज़ आकर अचानक ही लोकसभा को अनिश्चित काल के लिए स्थगित कर दिया था.
4 मार्च 2021 (Updated: 4 मार्च 2021, 11:23 IST)
Updated: 4 मार्च 2021 11:23 IST
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तारीख थी 24 नवंबर 1997. सोमवार का दिन. दोपहर के भोजनावकाश के बाद लोकसभा की कार्यवाही शुरू होती है. लेकिन हमेशा की तरह फिर हंगामा शुरू. शीतकालीन सत्र के पहले 2 दिन (20 और 21 नवंबर) हंगामे के कारण पूरी तरह धुल चुके थे, और तीसरे दिन भी वही स्थिति थी. इसके बाद स्पीकर ने बोलना शुरू किया,


"माननीय सदस्यगण,

आज मैं बेहद दुख और पीड़ा का अनुभव कर रहा हूं. मैं कांग्रेस पार्टी के सदस्यों की भावनाओं को समझ सकता हूं. राजीव गांधी हत्याकांड की जांच कर रहे जैन कमीशन की लीक हुई एक कथित रिपोर्ट के मुद्दे पर वे सरकार में शामिल  DMK के मंत्रियों का इस्तीफा मांग रहे हैं. तीन दिनों से संसद की कार्यवाही को ठप कर रहे हैं. ठीक इसी तरह मैं  DMK के सदस्यों की भावनाओं को भी समझता हूं. तभी सदन की Business advisory committee (कार्यमंत्रणा समिति) ने भी तय किया कि 25 नवंबर को इस मुद्दे पर सदन में चर्चा कराई जाएगी. उसमें सभी पक्षों को अपनी बात रखने का मौका दिया जाएगा. लेकिन इसके बावजूद सदन में लगातार हंगामा हो रहा है. कोई कामकाज नहीं हो रहा है. अतः अभी इसी समय से सदन की कार्यवाही को अनिश्चित काल के लिए स्थगित किया जाता है."

लोकसभा स्पीकर का यह फैसला सुनकर पूरा देश सन्न रह गया. भारत के संसदीय इतिहास में न तो इसके पहले और न ही बाद में कभी ऐसा हुआ कि किसी संसद सत्र को कोई स्पीकर गुस्से में आकर अनिश्चित काल के लिए स्थगित कर दे. किसी को स्पीकर से इतने कड़े फैसले की उम्मीद नहीं थी. लेकिन यह सब हुआ. वह भी उस स्पीकर ने किया, जो कहता था कि 'मैं स्कूल टीचर रह चुका हूं और मुझे क्लास चलाने का अच्छा अनुभव है. इसलिए सदन चलाने में कोई मुश्किल नहीं आएगी.'

पाॅलिटिकल किस्सों में आज हम बात कर रहे हैं 11वीं लोकसभा के अध्यक्ष रह चुके पूर्णो अगितोक संगमा की, जिन्हें आमतौर पर लोग पीए संगमा के नाम से जानते थे. आज उनकी पुण्यतिथि है.


पी ए संगमा 9 बार लोकसभा का चुनाव जीते थे.
पीए संगमा 9 बार लोकसभा का चुनाव जीते थे.
मास्टर साहब से मुख्यमंत्री तक का सफर

पीए संगमा की शुरुआत होती है मेघालय के गारो हिल के इलाके तुरा से. तुरा मेघालय के गारो हिल में एक बेहद पिछड़ा इलाका है. इसी इलाके से पीए संगमा आते थे. उनके स्कूली दिनों में इस इलाके में कई-कई किलोमीटर के बाद कोई एक स्कूल हुआ करता था. ऐसे में एक इटालियन पादरी जिओनी बतिस्ता बुशोलिन की मदद से संगमा को तुरा के गवर्नमेंट हाई स्कूल में दाखिला मिला. आगे की पढ़ाई उन्होंने शिलॉन्ग और डिब्रूगढ़ से पूरी की. पाॅलिटिकल साइंस में मास्टर्स करने के बाद वे डिब्रूगढ़ के डाॅन बास्को हाई स्कूल में पाॅलिटिकल साइंस पढ़ाने लगे. लगभग चार साल (1968 से 72) तक वहीं टीचिंग की. उसके बाद टीचिंग छोड़कर वापस गारो हिल के अपने इलाके में. वहां यूथ कांग्रेस की नेतागिरी करने लगे.

उन दिनों यूथ कांग्रेस के कामकाज पर संजय गांधी की पैनी नजर रहती थी. इंदिरा गांधी भी अक्सर शिलॉन्ग जाती रहती थीं. इसी दरम्यान उनकी नजर पड़ी पीए संगमा पर. बस फिर क्या था. संगमा को 1977 के लोकसभा चुनाव में तुरा से टिकट थमा दिया गया. यह चुनाव पूरे देश में कांग्रेस की दुर्दशा की पटकथा लिख गया. खुद इंदिरा और संजय भी चुनाव हार गए. लेकिन पीए संगमा कांग्रेस के उन 153 ख़ुशनसीब लोगों में से थे, जिन्हें लोकसभा में बैठने का मौका मिल गया था. 1980 से लाल बत्ती (मंत्री पद) भी मिलने लगी. लेकिन संगमा को सबसे बड़ा ब्रेक तब मिला, जब राजीव गांधी ने उन्हें मेघालय का मुख्यमंत्री बनाकर शिलॉन्ग भेज दिया. वे 2 साल मुख्यमंत्री रहे. राजीव गांधी ने 1991 में फिर संगमा को दिल्ली वापस बुलाने का फैसला किया. मगर इस बार राजीव ख़ुद दिल्ली नहीं पहुंच पाए, क्योंकि तमिलनाडु के श्रीपेरुंबुदूर में एक मानव बम विस्फोट में उनकी मौत हो गई.


राजीव गांधी के साथ पी ए संगमा (बाएं).
राजीव गांधी के साथ पीए संगमा (बाएं).

इसके बाद पीवी नरसिंह राव का जमाना आया. संगमा की गिनती नरसिंह राव के बेहद विश्वासपात्र लोगों में होने लगी थी. राव ने उन्हें पहले कोयला, फिर श्रम और आखिरी दिनों में सूचना-प्रसारण मंत्री बनाया. बतौर सूचना-प्रसारण मंत्री जिम्मेदारी होती है कि वह प्रसारण माध्यमों के कामकाज पर नजर रखे, साथ ही सरकार की छवि बनाने का भी काम करे. लेकिन पीए संगमा नरसिंह राव की छवि बनाने में नाकाम रहे, क्योंकि उन पर पहले ही झारखंड मुक्ति मोर्चा रिश्वत कांड और लक्खुभाई पाठक चीटिंग केस का साया पड़ चुका था. नतीजा यह रहा कि नरसिंह राव के नेतृत्व में कांग्रेस 1996 का चुनाव हार गई.


लोकसभा स्पीकर बनने वाले पहले विपक्षी सांसद

यह 1996 का साल था. गर्मियों के दिन थे. मई का महीना होने की वजह से तापमान काफी बढ़ा हुआ था. लेकिन उस वक्त दिल्ली का सियासी तापमान तो और भी ज्यादा बढ़ा हुआ था. पीवी नरसिंह राव की सरकार अपना कार्यकाल पूरा कर चुकी थी. लोकसभा के चुनाव भी हो चुके थे. लेकिन जनादेश किसी एक दल या गठबंधन के पक्ष में नहीं था. भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) सबसे बड़ी पार्टी के तौर पर उभरी थी. लेकिन बहुमत से बहुत दूर. कांग्रेस के लिए 1977 के बाद यह दूसरा मौका था, जब वह दूसरे नंबर पर रही थी. ऐसे में राष्ट्रपति शंकर दयाल शर्मा ने भाजपा संसदीय दल के नेता अटल बिहारी वाजपेयी को प्रधानमंत्री पद की शपथ दिला दी. उनसे 15 दिनों के भीतर बहुमत साबित करने को कह दिया.

लेकिन बहुमत के पहले भी वाजपेयी सरकार को एक टेस्ट देना था. और वह टेस्ट था लोकसभा के नवनिर्वाचित सदस्यों के शपथ ग्रहण के बाद होने वाला स्पीकर का चुनाव. मुख्य विपक्षी दल कांग्रेस ने पीए संगमा को अपना उम्मीदवार बनाने का ऐलान कर दिया था. कांग्रेस की तरफ से संगमा का नामांकन भी हो गया. संयुक्त मोर्चे की ओर से कामरेड हरकिशन सिंह सुरजीत ने उन्हें समर्थन की घोषणा भी कर दी.

सुरजीत के इस ऐलान के बाद सत्तारूढ़ भाजपा पसोपेश में पड़ गई. उसे लगने लगा कि यदि अपना कैंडिडेट उतारा गया तो वह सदन के संख्या बल के सामने नहीं टिकेगा. आज ही तय हो जाएगा कि वाजपेयी सरकार के पास सदन में बहुमत नहीं है. लिहाजा भाजपा की तरफ से बीच की लाइन लेते हुए कहा गया कि पार्टी को बतौर स्पीकर पीए संगमा के नाम पर कोई एतराज नहीं है. 24 मई 1996 को संगमा सर्वसम्मति से स्पीकर चुन लिए गए. वाजपेयी सरकार का शक्ति परीक्षण 4 दिन बाद होने वाले विश्वास प्रस्ताव तक टल गया. संगमा से पहले (जीबी मावलंकर से लेकर शिवराज पाटिल तक) सत्ता पक्ष के लोग ही लोकसभा स्पीकर बनते रहे थे. लेकिन संगमा के स्पीकर चुने जाने के साथ ही यह परंपरा टूट गई थी.


पूर्व प्रधानमंत्रियों - चंद्रशेखर और अटल बिहारी वाजपेयी के साथ पी ए संगमा (सबसे दाएं).
पूर्व प्रधानमंत्रियों - चंद्रशेखर और अटल बिहारी वाजपेयी के साथ पीए संगमा (सबसे दाएं).
विश्वास प्रस्ताव की लोकसभा

11वीं लोकसभा का कार्यकाल केवल 19 महीने (मई 1996 से दिसंबर 1997 तक) का रहा. लेकिन इस लोकसभा में 3 प्रधानमंत्री आए और गए. 4 बार विश्वास प्रस्ताव पेश किया गया, जो आज तक किसी लोकसभा में नहीं हुआ. इन चारों विश्वास प्रस्तावों पर हुई जोरदार बहस के दरम्यान सदन का संचालन पीए संगमा ने किया था. 2 बार तो विश्वास प्रस्ताव रखने की नौबत संगमा की ख़ुद की पार्टी के अध्यक्ष सीताराम केसरी की वजह से आ पड़ी थी. इतना ही नहीं, जब बतौर प्रधानमंत्री इंद्र कुमार गुजराल अपनी सरकार का विश्वास प्रस्ताव पेश कर रहे थे, तब खुद संगमा ने स्पीकर के आसन पर बैठे-बैठे मजाकिया लहजे में कह दिया था,


"11वीं लोकसभा को भविष्य में विश्वास प्रस्तावों की लोकसभा के नाम से भी लोग याद करेंगे."

इसी लोकसभा में जब इंद्र कुमार गुजराल की सरकार गिरी, तब 'राष्ट्रीय सरकार' (National Government) की बात भी राजनीतिक हलकों में चलने लगी. राष्ट्रीय सरकार मतलब ऐसी सरकार जिसमें सभी पार्टियां हिस्सेदार हों. और तब इस सरकार के प्रधानमंत्री के तौर पर कुछ और लोगों के साथ पीए संगमा का भी नाम लिया जाने लगा. इस बाबत एक इंटरव्यू के दौरान वरिष्ठ पत्रकार प्रीतीश नंदी ने जब संगमा का मन टटोलना चाहा तो उन्होंने जवाब दिया था,


"यदि ईश्वर ने चाहा तो ख़ुद ही प्रधानमंत्री पद मेरे पास चलकर आ जाएगा. इसके लिए प्रयास करने से थोड़े न कुछ होता है."

खैर, राष्ट्रीय सरकार की सिर्फ बातें हुईं, क्योंकि ऐसी कोई सरकार भारत के परिप्रेक्ष्य में संभव नहीं दिखती. पहले भी एक बार जब चंद्रशेखर सरकार गिरी थी, तब ख़ुद अटल बिहारी वाजपेयी ने राष्ट्रपति आर वेंकटरमण को कहा था कि 'आपको राष्ट्रपति पद छोड़ कर ख़ुद एक राष्ट्रीय सरकार का नेतृत्व करना चाहिए क्योंकि यही समय की जरूरत है.' लेकिन वेंकटरमण ने वाजपेयी की इस सलाह पर कोई रुचि नहीं दिखाई थी. उन्होंने अपनी किताब My Presidential Years में भी इस प्रसंग का जिक्र किया है.


तत्कालीन प्रधानमंत्री एच डी देवेगौड़ा के साथ लोकसभा स्पीकर पी ए संगमा (बीच में).
तत्कालीन प्रधानमंत्री एच डी देवेगौड़ा के साथ लोकसभा स्पीकर पीए संगमा (बीच में).
बहुमत का चक्कर और दोबारा स्पीकर बनते-बनते रह गए

बतौर लोकसभा स्पीकर पीए संगमा ने बेहद कुशलता से सदन का संचालन किया था. यही वजह थी कि उन्हें 12वीं लोकसभा का अध्यक्ष बनाने की भी तैयारी चल रही थी. यहां तक कि प्रधानमंत्री वाजपेयी और सरकार के लोग भी इसपर सहमत हो गए थे. स्वयं संसदीय कार्यमंत्री मदन लाल खुराना ने संगमा को फ़ोन कर बधाई भी दे दी थी. गृह मंत्री लाल कृष्ण आडवाणी ने विपक्ष के नेता शरद पवार को भी सूचित कर दिया था कि संगमा ही स्पीकर के सर्वसम्मत कैंडिडेट होंगे. लेकिन सियासत का सबसे बड़ा सच यही है कि किसी भी राजनैतिक दल के लिए बहुमत का जुगाड़ हमेशा से प्राथमिकता सूची में सबसे उपर होता है. यही वाजपेयी सरकार के साथ भी था, क्योंकि उन्हें भी हफ्ता दिन के भीतर लोकसभा में बहुमत का जुगाड़ करना था. नंबर कम पड़ रहे थे. लिहाजा रात भर में सब कुछ बदल गया. चंद्रबाबू नायडू ने वाजपेयी सरकार को अपना समर्थन दे दिया और इसके एवज में उनकी पार्टी के जीएमसी बालयोगी को लोकसभा स्पीकर बनाया गया. संगमा इस पूरे घटनाक्रम पर अवाक रह गए थे.

पढ़े: कैसे जीएमसी बालयोगी की भलमनसाहत ने वाजपेयी सरकार गिरवा दी थी?


विदेशी मूल का मुद्दा और कांग्रेस छोड़ी

महज 1 वोट से अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार गिरने के बाद 12वीं लोकसभा भंग हो चुकी थी. नए चुनाव की तैयारी शुरू हो गई थी. लोकसभा भंग हुए 3 सप्ताह हो गए थे. उधर इंग्लैंड में क्रिकेट का वर्ल्ड कप शुरू हो चुका था. तारीख थी 15 मई 1999. उस दिन इंग्लैंड में टीम इंडिया साउथ अफ्रीका के खिलाफ अपने अभियान का आगाज कर रही थी. यहां तक कि मैच शुरू होने के पहले कांग्रेस मुख्यालय में जब शरद पवार और प्रणव मुखर्जी मिले तो वे दोनों भी आपस में उस मैच की ही चर्चा कर रहे थे.

लेकिन जब मैच शुरू हुआ तब थोड़ी ही देर बाद नया विवाद सामने आ गया. दरअसल फील्डिंग कर रही साउथ अफ्रीकी टीम के कप्तान हैंसी क्रोनिए एक इयरपीस लगाकर अपने कोच बाॅब वूल्मर से जुड़े हुए थे. तमाम टीवी चैनलों पर यह खबर चलने लगी कि ये क्रिकेट के नियमों के खिलाफ है. चारों तरफ बस एक ही न्यूज थी - क्रोनिए के कान में लगी इयरपीस.
हालांकि बवाल मचने पर अंपायर ने वह इयरपीस निकलवा दी थी.


कांग्रेस से निकाले जाने के बाद शरद पवार, तारिक़ अनवर और पी ए संगमा (दाएं से बाएं) ने मिलकर राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी (NCP) का गठन किया था.
कांग्रेस से निकाले जाने के बाद शरद पवार, तारिक़ अनवर और पीए संगमा (दाएं से बाएं) ने मिलकर राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी (NCP) का गठन किया था.

भारतीय समयानुसार चार बजते-बजते हैंसी क्रोनिए और उनका इयरपीस न्यूज चैनलों से गायब हो गया. और उनकी जगह ले ली एक चिट्ठी ने. इस चिट्ठी को कांग्रेस कार्यसमिति के 3 सदस्यों - शरद पवार, तारिक़ अनवर और पीए संगमा - ने लिखा था. तीनों ने कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी के विदेशी मूल का मुद्दा उठा दिया था. शरद पवार और तारिक़ अनवर के सोनिया विरोधी होने का मतलब तो लोगों को समझ आ रहा था. सोनिया की सक्रियता से शरद पवार के प्रधानमंत्री बनने का सपना धाराशायी होता दिख रहा था, जबकि तारिक़ अनवर तो चचा केसरी की रुख्सती के बाद से ही किनारे लगे हुए थे. लेकिन संगमा के बागी होने का मामला राजनीतिक पंडितों की समझ से बाहर था, क्योंकि सोनिया गांधी उन पर बहुत भरोसा करती थीं. पचमढ़ी के कांग्रेस अधिवेशन के बाद कांग्रेस में नई जान फूंकने के लिए सोनिया ने जो टास्क फोर्स बनाई थी, उसकी सदारत भी संगमा को ही सौंपी गई थी.

बहरहाल, कई दिनों के हंगामें के बाद तीनों नेताओं को कांग्रेस से निकाल बाहर किया गया. उस दौर के अखबारों में तीनों को 'अमर-अकबर-एंथोनी' कहा जाने लगा था. पार्टी से निकाले जाने के बाद तीनों नेताओं ने मिलकर राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी (NCP) का गठन किया.


निकाले जाने के बावजूद सोनिया की सभा में पहुंचे

1999 में 12वीं लोकसभा भंग हो चुकी थी. पीए संगमा भी कांग्रेस से निकाले जा चुके थे. लिहाजा वे अपनी नई पार्टी NCP के टिकट पर तुरा लोकसभा सीट से चुनाव लड़ रहे थे. वे 6 बार कांग्रेस के टिकट पर यहां से जीत चुके थे. लेकिन इस बार वे पंजा के बजाए घड़ी चुनाव चिह्न पर चुनाव लड़ रहे थे. कांग्रेस ने उनके मुकाबले के लिए एक स्थानीय नेता अतुल मराक को टिकट दिया था. अतुल के समर्थन में चुनाव प्रचार करने सोनिया गांधी भी पहुंची और उनकी सभा में काफी भीड़ भी जुटी. लेकिन सबको आश्चर्य तब हुआ जब लोगों ने भीड़ के बीच पीए संगमा को भी खड़े देखा. सोनिया गांधी मंच से संगमा के खिलाफ बोलती रहीं और भीड़ में खड़े संगमा मंद-मंद मुस्कुराते रहे. बाद में जब पत्रकारों ने इस बाबत उनसे सवाल किया तो उन्होंने कहा,


"चुनावी रैलियों में अपने विरोधी की बातों को भी सुनने जाना चाहिए. पहले के जमाने में ऐसा खूब होता था लेकिन अब यह कल्चर खत्म होता जा रहा है."

2012 के राष्ट्रपति चुनाव में प्रणव मुखर्जी (बाएं) और पी ए संगमा (दाएं) के बीच मुकाबला हुआ था.
2012 के राष्ट्रपति चुनाव में प्रणव मुखर्जी (बाएं) और पीए संगमा (दाएं) के बीच मुकाबला हुआ था.

बहरहाल चुनाव संगमा ही जीते. लेकिन 2004 आते-आते NCP से भी उनका मोहभंग हो गया. लोकसभा चुनाव के पहले उन्होंने बयान दे दिया कि यदि वाजपेयी जैसे बड़े नेता का मुकाबला करना है तो विपक्ष की तरफ से पीवी नरसिंह राव जैसे बड़े नेता का चेहरा सामने किया जाना चाहिए. लेकिन उनकी इस सलाह पर किसी ने ध्यान नहीं दिया और विपक्ष ने कांग्रेस की अगुवाई में बिना किसी चेहरे के मैदान में उतरने का फैसला किया. इसके बाद संगमा ने NCP छोड़ दी. वे इसलिए NCP छोड़ने पर मजबूर हुए क्योंकि उन्हें लगा कि यदि विपक्षी गठबंधन चुनाव जीतता भी है तो सोनिया गांधी ही प्रधानमंत्री पद की दावेदार होंगी और ऐसे में उनका समर्थन करना संगमा के लिए बेहद मुश्किल होगा.

इसके बाद संगमा ममता बनर्जी की तृणमूल कांग्रेस में शामिल हो गए. लेकिन अफसोस की बात यह रही कि उस चुनाव में तृणमूल कांग्रेस के टिकट पर सिर्फ 2 लोग (पीए संगमा और ममता बनर्जी) संसद पहुंच पाए थे. केंद्र में विपक्षी गठबंधन की सरकार बनी और मनमोहन सिंह की, जो नरसिंह राव के दौर में संगमा के कैबिनेट कलीग थे.

2006 में पीए संगमा NCP में वापस आ गए. 2009 का लोकसभा चुनाव वे खुद नहीं लड़े. अपनी जगह बेटी अगाथा संगमा को लड़ाया. वे जीतीं और मनमोहन सिंह की सरकार में राज्य मंत्री भी बनीं. 2012 के राष्ट्रपति चुनाव में प्रणव मुखर्जी को कांग्रेस पार्टी की ओर से उतारा गया. उनके मुकाबले में भाजपा के नेतृत्व वाले NDA की तरफ से पीए संगमा को कैंडिडेट बनाया गया. पर इस चुनाव में कांग्रेस का मैनेजमेंट ज्यादा दमदार निकला. यहां तक की NDA की घटक जनता दल यूनाइटेड और शिवसेना ने भी प्रणव मुखर्जी का सपोर्ट कर दिया. नतीजा यह हुआ कि प्रणव मुखर्जी बड़े आराम से राष्ट्रपति का चुनाव निकाल ले गए. पीए संगमा को हार का मुंह देखना पड़ा. उसके बाद 2014 में पीए संगमा खुद तुरा सीट पर चुनाव लड़े और नवीं दफा लोकसभा पहुंचे. लेकिन इस दफा वे 2 साल तक ही सांसद रह पाए. 4 मार्च 2016 को उन्हें हार्ट अटैक आया और वे चल बसे. उनके निधन के बाद उनकी राजनीतिक विरासत को उनके बेटे कोनराड संगमा ने संभाला और आजकल वे मेघालय के मुख्यमंत्री हैं.


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