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सुप्रीम कोर्ट में केंद्र सरकार के तर्क, 'न्यायपालिका की राय कब लेनी है, ये सुप्रीम कोर्ट नहीं राष्ट्रपति खुद तय करेंगे'

केंद्र सरकार ने हाल ही में आए एक अदालती फैसले पर कड़ी आपत्ति जताई है, जिसमें राष्ट्रपति को Bills की Constitutionality पर Supreme Court की राय लेने का निर्देश दिया गया है.

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केंद्र सरकार ने सुप्रीम कोर्ट में अपनी आपत्ति दर्ज कराई है. (इंडिया टुडे)
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आनंद कुमार
18 अगस्त 2025 (Published: 08:14 AM IST)
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केंद्र सरकार ने सुप्रीम कोर्ट (Supreme Court) में कहा है कि न्यायपालिका (Judiciary) यह तय नहीं कर सकती कि राष्ट्रपति (President) कब और किस विधेयक के मामले में शीर्ष अदालत की राय ले सकते हैं. विधेयकों की संवैधानिकता पर राष्ट्रपति को सुप्रीम कोर्ट की राय लेने के लिए बाध्य करने वाले फैसले पर केंद्र सरकार ने आपत्ति जताई है. सरकार की ओर से कहा गया कि अदालतें राष्ट्रपति को यह निर्देश नहीं दे सकतीं कि राष्ट्रपति अपने पूर्ण विवेक का प्रयोग करते हुए कैसे, कब और किन मुद्दों पर सुप्रीम कोर्ट की राय लें.

टाइम्स ऑफ इंडिया की रिपोर्ट के मुताबिक, केंद्र सरकार ने राज्य विधानसभा में पारित विधेयकों पर कदम उठाने के लिए राज्यपालों और राष्ट्रपति के लिए निश्चित समय सीमा तय करने पर भी आपत्ति जताई है. केंद्र सरकार ने कहा कि राज्यपालों और राष्ट्रपति पर निश्चित समय सीमा थोपने का मतलब होगा कि सरकार के एक अंग द्वारा ऐसी शक्तियों का प्रयोग करना जो संविधान में उसे नहीं मिली हैं. और इससे 'संवैधानिक अव्यवस्था' पैदा होगी.

केंद्र सरकार ने राष्ट्रपति के संदर्भ में दी गई लिखित दलीलों में यह बात कही है. इसमें संवैधानिक मुद्दे उठाए गए हैं कि क्या राज्य विधानसभा द्वारा पारित विधेयकों से निपटने के संबंध में समयसीमा निर्धारित की जा सकती है.

CJI की अध्यक्षता में 5 जजों की बेंच करेगी सुनवाई

चीफ जस्टिस बीआर गवई की अध्यक्षता वाली 5 जजों की बेंच 19 अगस्त को इस मामले में आगे सुनवाई करेगी. इससे पहले केंद्र सरकार ने कहा कि कानून का कोई भी संवैधानिक प्रस्ताव जिसमें राष्ट्रपति से प्रत्येक आरक्षित विधेयक को सुप्रीम कोर्ट को भेजने की संवैधानिक अपेक्षा की जाती है, संवैधानिक व्यवस्था के खिलाफ है. केंद्र ने सुप्रीम कोर्ट की पीठ के इस प्रस्ताव को अस्वीकार करने के तीन कारण बताए हैं.

अनुच्छेद 200 और 201 में सुप्रीम कोर्ट की भूमिका का जिक्र नहीं

सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता ने केंद्र सरकार की ओर से नोट दाखिल किया है. इसमें बताया गया कि अनुच्छेद 200 और 201 में यह परिकल्पना की गई है कि राष्ट्रपति अपने विवेक से यह निर्णय लेंगे कि किसी विधेयक को अनुमति देनी है या नहीं. इन प्रावधानों में अनुच्छेद 143 के अंतर्गत सुप्रीम कोर्ट की किसी भूमिका का उल्लेख नहीं है.

विधायिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका के अपने अपने अधिकार क्षेत्र

केंद्र सरकार की ओर से कहा गया कि इस तरह के प्रस्तावों से लगता है कि संविधान से जुड़े प्रश्नों पर केवल न्यायपालिका ही निर्णय ले सकती है. जबकि संविधान यह मानता है कि विधायिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका तीनों अपने-अपने अधिकार क्षेत्र में संविधान की व्याख्या करने के लिए सक्षम और अधिकृत हैं. विधायिका बहस के दौरान किसी विधेयक की संवैधानिकता पर विचार करती है. वहीं राष्ट्रपति और राज्यपाल किसी विधेयक को रोकने, स्वीकृत करने या फिर उसे रेफर करते समय अपने विवेक का प्रयोग करते हैं. और न्यायपालिका अपनी कार्यवाही के जरिए किसी अधिनियम की वैधता का निर्णय करती है.

ये भी पढ़ें - 'सुप्रीम कोर्ट से कमतर नहीं होता हाईकोर्ट...', CJI गवई को ऐसा क्यों कहना पड़ा?

न्यायपालिका को विधेयक की विषय वस्तु की जांच का अधिकार नहीं

केंद्र सरकार ने अपने नोट में कहा कि ऐसा कोई भी प्रस्ताव संवैधानिक विशेषाधिकार को न्यायिक आदेश में बदल देता है, जोकि अस्वीकार्य है. केंद्र सरकार ने कहा कि संविधान न्यायपालिका को ऐसे विधेयक की विषय-वस्तु की जांच करने का अधिकार नहीं देता है, जो राज्यपाल या राष्ट्रपति की मंजूरी के बिना अभी तक कानून नहीं बना है. 

वीडियो: सुप्रीम कोर्ट में आवारा कुत्तों पर क्या सुनवाई हुई? कपिल सिब्बल ने क्या दलील दी?

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