'दिल्ली से माइक्रोमैनेजमेंट नहीं...', सुप्रीम कोर्ट ने मॉब लिंचिंग से जुड़ी याचिका पर क्या कह दिया?
Supreme Court on mob lynching PIL: कोर्ट ने कहा कि वो 2018 में ‘तहसीन एस पूनावाला बनाम भारत संघ के मुख्य मामले’ में पहले ही निर्देश पारित कर चुकी है. ये निर्देश संविधान के अनुच्छेद 141 के मद्देनजर सभी प्राधिकारियों के लिए बाध्यकारी हैं और वो इसका पालन करने के लिए बाध्य हैं.

सुप्रीम कोर्ट ने ‘मॉब लिंचिंग और गौरक्षकों द्वारा की जाने वाली हिंसा की घटनाओं’ से जुड़ी एक लंबित जनहित याचिका (PIL) का निपटारा कर दिया है. कोर्ट ने कहा है कि ऐसे मामलों से जुड़े विक्टिम्स क़ानून में उपलब्ध उपायों का सहारा लें. कोर्ट का कहना है कि हर राज्य में स्थिति अलग-अलग होगी. ऐसे में दिल्ली से सब कुछ मैनेज करना सुप्रीम कोर्ट के लिए संभव नहीं होगा (SC disposed PIL on mob lynching and cow vigilantism).
जस्टिस बीआर गवई और जस्टिस के विनोद चंद्रन की पीठ मामले की सुनवाई कर रही थी. इस दौरान, पीठ ने कहा कि वो 2018 में ‘तहसीन एस पूनावाला बनाम भारत संघ के मुख्य मामले’ में पहले ही निर्देश पारित कर चुकी है. ये निर्देश संविधान के अनुच्छेद 141 के मद्देनजर सभी प्राधिकारियों के लिए बाध्यकारी हैं और वो इसका पालन करने के लिए बाध्य हैं.
मामला क्या है?दरअसल, नेशनल फ़ेडरेशन ऑफ़ इंडियन वूमेन (NFIW) ने एक जनहित याचिका दायर की थी. लाइव लॉ की ख़बर के मुताबिक़, इस याचिका में मॉब लिचिंग के मामलों में कथित बढ़ोतरी के बारे में चिंता जताई गई, ख़ास तौर पर गौरक्षकों द्वारा. साथ ही, कई तरह की मांगें की गईं.
मसलन, मॉब लिंचिंग के विक्टिम्स को मुआवजे के रूप में ‘न्यूनतम एकसमान राशि’ देने के प्रावधान लाए जाएं. इस पर कोर्ट ने कहा,
मुआवजे की राशि मामले-दर-मामला आधार पर अलग-अलग होगी. साधारण चोट से पीड़ित व्यक्ति और गंभीर चोट से पीड़ित व्यक्ति को एकसमान मुआवजा नहीं दिया जा सकता. यानी अधिकारियों को मुआवजे के संबंध में कोई एकसमान निर्देश जारी नहीं किया जा सकता. क्योंकि ऐसा करने से कोर्ट्स या ऑथोरिटीस मुआवजे के निर्धारण में उपलब्ध विवेकाधिकार से वंचित हो जाएंगे. ऐसा निर्देश अन्यायपूर्ण होगा.
याचिका में 13 राज्य अधिनियमों/नोटिफ़िकेशंस की वैधता को चुनौती देने की मांग की गई. ये अधिनियम/नोटिफ़िकेशन मवेशी तस्करी समेत कई चीज़ों को रोकने के लिए प्राइवेट व्यक्तियों/संगठनों को पुलिस शक्तियां देती हैं कि वो परिसर में प्रवेश करें, वाहनों को जब्त करें.
इस पर कोर्ट का कहना था कि अगर कोई ऐसे अधिनियमों/नोटिफ़िकेशंस से नाखुश हैं, तो इन्हें चुनौती देने के लिए उस क्षेत्राधिकार वाले हाई कोर्ट्स का दरवाजा खटखटाएं. कोर्ट ने कहा कि एक जनरल याचिका पर इतने सारे राज्यों के अधिनियमों/नोटिफ़िकेशंस की वैधता पर एक साथ जांच नहीं किया जा सकता.
बताते चलें, 2023 से लंबित इस मामले में आला अदालत ने पिछले साल 5 राज्यों (असम, छत्तीसगढ़, तेलंगाना, महाराष्ट्र और बिहार) को जनहित याचिका के जवाब में जवाबी हलफनामा दाखिल करने के लिए कहा था. साथ ही, हलफनामा दाखिल न करने पर चेतावनी जारी की थी.
कोर्ट का निर्देश था कि पाचों राज्यों के हलफनामे उनके संबंधित मुख्य सचिवों द्वारा दाखिल किए जाएं. ऐसा न करने पर, मुख्य सचिव ख़ुद पेश होकर कारण बताएं कि उनके ख़िलाफ़ कार्रवाई क्यों न की जाए. बाद में सभी राज्यों ने हलफनामे दायर किये.
लेकिन 11 फ़रवरी को कोर्ट का कहना था कि दिल्ली में बैठकर विभिन्न राज्यों/केंद्र शासित प्रदेशों में इस मुद्दे की निगरानी करना संभव नहीं है. वहीं, केंद्र सरकार की तरफ़ से सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता ने पक्ष रखा. उन्होंने कहा कि मॉब लिचिंग अब BNS के तहत एक अलग अपराध है, जिसके नतीजे भुगतने पड़ते हैं. अगर कोई समस्या है, तो अधिसूचनाओं को हाई कोर्ट में चुनौती दी जा सकती है. दूसरी तरफ़, याचिकाकर्ता की तरफ़ से वकील निज़ाम पाशा पेश हुए थे.
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