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सैम बहादुर - मूवी रिव्यू

विकी कौशल को देखकर लगता है कि उन्होंने किरदार को समझा है. उसके आत्मविश्वास को पूरी तरह खुद में आत्मसात किया है. देखकर लगता है कि ये कॉन्फिडेन्स पहले उनके सीने में उतरा. उसके बाद वो उनकी चाल, हाथों के हाव-भाव, भौंहों में बहता चला गया.

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sam bahadur review vicky kaushal
तमाम खामियों के बावजूद भी फिल्म ‘सैम द हीरो’ की लेगेसी को अच्छे से सेलिब्रेट करती है.
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यमन
1 दिसंबर 2023 (Published: 03:24 PM IST) कॉमेंट्स
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‘सैम बहादुर’ बनाने से पहले मेघना गुलज़ार ने सैम मानेकशॉ के बारे में पढ़ा. जो सामने आया उसे पढ़कर उनका कहना था, ‘क्या बंदा है ये’. इसी सोच, इसी नज़र के साथ उन्होंने भवानी अय्यर और शांतनु श्रीवास्तव के साथ मिलकर ‘सैम बहादुर’ की कहानी लिखी. खुद फिल्म को डायरेक्ट किया. आयरन लेडी प्रधानमंत्री को ‘स्वीटी’ बोल देने वाले फील्ड मार्शल के रोल के लिए विकी कौशल चुने गए. कैसी लगी ‘सैम बहादुर’, उस बारे में बात करते हैं. कहानी, फिल्म की अच्छी-बुरी बातें जानने से पहले जनता का सवाल होता है कि पिच्चर देखनी चाहिए या नहीं, हमें बस ये बता दो. उसका जवाब है कि ‘सैम बहादुर’ देखी जानी चाहिए. फिल्म में विकी कौशल का बेहतरीन काम है. क्लाइमैक्स कमज़ोर है, लेकिन इनके बावजूद भी ये देखी जाने लायक फिल्म है. 

फिल्म सैम मानेकशॉ के पैदा होने से लेकर 1971 की जंग तक की कहानी दिखाती है. कैसे उनका नाम सायरस से सैम पड़ा. विभाजन के दौरान वो क्या कर रहे थे. कश्मीर को इंडिया का हिस्सा बनाने में उन्होंने क्या भूमिका निभाई थी. एंटी-नेशनल कहकर उन पर इंक्वायरी क्यों बिठाई गई. 1962 में उनके सैंडविच की ब्रेड के बीच की स्टफिंग कम क्यों होती जा रही थी. कैसे वो आदमी पॉलिटिक्स और आर्मी को कोसों दूर रखता था. अपने फौजियों के सम्मान के लिए नेता तक को झाड़ सकता था. क्या हुआ जब उन्होंने कहा कि अगर मैं पाकिस्तानी आर्मी का जनरल होता, तो 1971 की जंग पाकिस्तान जीतता. फिल्म उनके लड़कपन से लेकर भारत के पहले फील्ड मार्शल बनने तक का सफर तय करती है. 

# ‘लंडन इज़ माय फेवरेट सिटी...इन यूरोप’

हमने सैम मानेकशॉ के किस्से-कहानियां सुने हैं. कैसे वो एक कमरे में आते और तपाक से हर नज़र उन पर टिक जाती. कैसे दिल खोलकर जीने में वो कोई संकोच नहीं करते थे. कैसे उनकी ज़िंदगी के कैनवस को पूरा करने के लिए लार्जर दैन लाइफ रंगों की ज़रूरत पड़ती है. मेघना गुलज़ार भी उन्हें इसी नज़र से देखती हैं. फिल्म पूरे समय सैम को लेकर विस्मय में रहती है. चाहे फिर वो उनके डायलॉग के बाद आने वाला म्यूज़िक हो, या उनके आसपास के फौजी हों जो उन्हें आंखें बड़ी कर के हैरानी से देखते हैं. ये फिल्म की अपनी गेज़ या नज़र है. एक बेहतरीन बायोपिक है 'भाग मिलखा भाग'. वहां हम मिलखा सिंह के किरदार का पूरा आर्क देखते हैं. पाकिस्तान में जन्मा एक लड़का. विभाजन ने बुरी यादें दीं. खुद की मेहनत से देश का टॉप एथलीट बनता है. ग्लोबल स्टेज पर देश का प्रतिनिधित्व करता है. वहां की गई गलती के बाद खुद से आंखें नहीं मिला पाता. अपने प्रायश्चित की ओर बढ़ता है. इस पूरी जर्नी में हमने घटनाएं देखीं. वो घटनाएं जिन्होंने मिलखा सिंह को 'फ्लाइंग सीख' बनाया. 'सैम बहादुर' ऐसी घटनाओं से वंचित दिखती हैं. ऐसे इवेंट्स नहीं दिखते जिन्होंने पारसी लड़के को इंडिया का पहला फील्ड मार्शल बनाया. ऐसा महसूस होता है कि सैम के किस्से किसी किताब से निकालकर बस चिपका दिए गए. यहां मेघना गुलज़ार का डायरेक्शन सिनेमा के मीडियम को पूरी तरह से फायदा नहीं उठाता.             

sam bahadur
फिल्म सैम की पर्सनल लाइफ को ज़्यादा स्पेस नहीं देती.

मुझे लगा था कि फिल्म उनके लार्जर दैन लाइफ नायक बनने के पीछे की घटनाओं के साथ थोड़ा समय बिताएगी. उनकी परवरिश या बचपन के ऐसे किस्से दर्शाएगी, जिन्होंने उस पारसी लड़के में इतना आत्मविश्वास फूंका. फिल्म ऐसा नहीं करती. हम हमेशा ऐसे ही सैम से मिलते हैं जो कॉन्फिडेंस से लबरेज़ है. सैम मानेकशॉ की ज़िंदगी बड़ी और लंबी दोनों थीं. उस लिहाज़ से एक फिल्म में सबकुछ फिट नहीं किया जा सकता. यही वजह है कि उनके शुरुआती सालों को कम स्पेस मिलता है. फिल्म किसी भी तरह जल्दी-से-जल्दी 60 के दशक और 1971 की जंग तक पहुंचना चाहती है. इस बीच उनकी पर्सनल लाइफ को थोड़ी जगह देने की कोशिश की गई. खासतौर पर उनकी पत्नी सिलू के साथ बिताया गया वक्त. वो अपने नौकर स्वामी के साथ मज़ाक कर रहे हैं. कुत्तों के दांत ब्रश कर रहे हैं. सैम का व्यक्तित्व इतना बड़ा है कि फिल्म उसी को कवर करने में मसरूफ दिखती है. इसी के चलते हम कभी नहीं देख पाते कि वो कैसे पिता हैं. या वो अपनी पत्नी के साथ शादी की सालगिरह कैसे मनाते हैं. 
‘सैम बहादुर’ का क्लाइमैक्स भी फिल्म के बिल्डअप को डांवाडोल करने का काम करता है. 1971 की जंग में सैम हाथ में हथियार उठाकर लड़ने नहीं गए थे. उनका सारा रोल स्ट्रैटेजी बनाने तक सीमित था. फिल्म उस पूरी जंग को एक गाने और मोंटाज के साथ निकाल देती है. एंडिग बहुत हड़बड़ाई हुई सी लगती है. 

तमाम खामियों के बावजूद भी फिल्म ‘सैम, द हीरो’ की लेगेसी को अच्छे से सेलिब्रेट करती है. तीन मज़बूत डायलॉग बताते हैं जिन्होंने असरदार ढंग से अपना काम किया: 

“जंग हमें किस्से देती है और औरतों को बुरे ख्वाब.”

“याहया पार्टीशन को महसूस कर रहा है, उसे समझ नहीं रहा.”

“सैम किसी को हेट नहीं करता, वो बस खुद से ज़्यादा प्यार करता है.”

# ‘आई एम ऑलवेज़ रेडी स्वीटी’

‘सैम बने विकी कौशल को पहले सीन में देखकर लगा कि क्या देव आनंद जैसा लहजा पकड़ने की कोशिश की गई है. अगर ऐसा होता तो किरदार को कैरिकेचर बनने में ज़रा भी देर नहीं लगती. लेकिन किसी भी पॉइंट पर विकी कैरिकेचरिइश या मज़ाकिया किस्म के नहीं लगते. उनको देखकर लगता है कि उन्होंने किरदार को समझा है. उसके आत्मविश्वास को पूरी तरह खुद में आत्मसात किया है. देखकर लगता है कि ये कॉन्फिडन्स पहले उनके सीने में उतरा. उसके बाद वो उनकी चाल, हाथों के हाव-भाव, भौंहों में बहता चला गया. विकी ने ऐसा किरदार निभाया, जिसे आसानी से इम्प्रेशनेबल या प्रभावित हुआ जा सके. उनकी नीली चमकीली आंखों को देखकर लगता है कि इस आदमी ने पहले ही सब कुछ ठान लिया है. अब बस करने जा रहे हैं. सैम के जिस एटिट्यूड की कहानियां हमने सुनी है, विकी अपने किरदार को वो देते हैं. एक सीन है जहां सैम अपने घर लौटते हैं. उनके कहने से पहले ही आपको पता है कि वो अपने साथ कोई बुरी खबर लाए हैं. उस सीन से पहले हम सैम को अपने बच्चों के साथ समय बिताते नहीं देखते. तब सैम अपनी सोती हुई बच्ची को देखता है, उसके बगल में एक खिलौना रखता है. ये सीन चंद पलों का है. विकी यहां कुछ नहीं कहते. लेकिन उनके माथे की शिकन से ही सब साफ हो जाता है.  

vicky kaushal
विकी ने अपने करियर की बेस्ट परफॉरमेंसेज़ में से एक डिलीवर की है.  

उनके अलावा सान्या मल्होत्रा, फातिमा सना शेख और मोहम्मद ज़ीशान अय्यूब के काम की भी तारीफ होनी चाहिए. सान्या ने सैम की पत्नी सिलू का रोल किया. वहीं ज़ीशान पाकिस्तानी राष्ट्रपति याहया खान बने. सैम और इंदिरा गांधी इस कहानी के दो सबसे मज़बूत स्तम्भ थे. दोनों जब पहली बार आमने-सामने आते हैं, ठीक उसी पॉइंट पर इंटरवल किया गया. इंदिरा और सैम के किस्से इतिहास के स्टूडेंट्स को क्यों पढ़ाए जाते हैं, वो इन दोनों की केमिस्ट्री देखकर साफ हो जाएगा. फातिमा ने अपनी डायलॉग डिलीवरी के ज़रिए इंदिरा का लहजा पकड़ने की कोशिश की है. उन्होंने पॉज़ेस का सही इस्तेमाल किया है. फिर आते हैं ज़ीशान अय्यूब. पहली नज़र में वो पहचान में ही नहीं आते. प्राॉस्थेटिक ने अपना काम कर दिया. लेकिन ज़ीशान की परफॉरमेंस सिर्फ प्रॉस्थेटिक पर निर्भर नहीं करती. उन्होंने डायलॉग और लाहौर वाले एक्सेंट पर काम किया है.  

काश सिनेमा के एक पहलू से पूरी फिल्म को बचाया जा सकता. 'सैम बहादुर' के केस में वो नहीं होता. फिल्म की एक्टिंग जिन खंबों पर खड़ी है उन्हें खड़ा करने के लिए कोई ठोस ढांचा नहीं. 

वीडियो: विक्की कौशल ने एनिमल और सैम बहादुर क्लैश पर कहा,एक छक्के-चौके मारेगी, दूसरी स्ट्राइक रोटेट करेगी

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