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उन सबके लिए है ये फिल्म, जिन्होंने अपनी स्कूल लाइफ में किसी से प्यार किया है

क्या आपको याद है अपने स्कूल के ज़माने का प्यार?

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मुबारक
26 जुलाई 2018 (Updated: 26 जुलाई 2018, 11:44 AM IST) कॉमेंट्स
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मराठी सिनेमा को समर्पित इस सीरीज़ 'चला चित्रपट बघूया' (चलो फ़िल्में देखें) में हम आपका परिचय कुछ बेहतरीन मराठी फिल्मों से कराएंगे. वर्ल्ड सिनेमा के प्रशंसकों को अंग्रेज़ी से थोड़ा ध्यान हटाकर इस सीरीज में आने वाली मराठी फ़िल्में खोज-खोजकर देखनी चाहिए... 
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आज की फिल्म है 'शाळा'. शाळा' मतलब स्कूल.
इससे पहले कि हम आज की फिल्म पर बात करे, एक किस्सा सुनाता हूं. एक बहुत बड़ी फ़िल्मी हस्ती थीं. गायिका भी, अदाकारा भी. नाम नहीं बताऊंगा. अपने निजी जीवन में उनकी बहुत सी प्रेम कहानियां रहीं. कुछेक उन्होंने बिंदास कबूलीं तो कुछेक पर चुप लगा गईं. बहरहाल, एक इंटरव्यू के दौरान उनसे पूछा गया,
"आपकी मुहब्बतों के इतने किस्से सुनाई देते हैं. इतने लोगों से आपका नाम जुड़ा. उनमें से कौन है जो आपको सबसे ज़्यादा याद आता है?"
उनका जवाब बड़ा ही प्यारा था. उन्होंने कहा,
"जब-जब भी इश्क की बात चलती है, मुझे अपने स्कूल के दिनों का एक लड़का याद आता है. वो, जो मुझे छुप-छुप के देखा करता था लेकिन कभी कुछ कहने की हिम्मत नहीं कर पाया. उससे ज़्यादा मासूम मुहब्बत मुझसे और किसी ने नहीं की."
बस, इसी मासूम मुहब्बत की कहानी है 'शाळा'. न सिर्फ मुहब्बत की कहानी है बल्कि उस संदूक को खोलने का प्रयास है जिसमें हमारे स्कूली दिनों की यादें संजोकर रखी गई हैं. एक बार ये पिटारा खुलने की देर है, आप फिल्म के साथ बहते चले जाते हैं.
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कहानी 1975 के दौर की है. देश में आपातकाल लगा हुआ है. आपातकाल, जिसे ग्लैमरस नाम दिया गया है. अनुशासन पर्व. ऐसे वक़्त में कान्हेगांव नाम के गांव के एक स्कूल के एक साल की कहानी है 'शाळा'. चार दोस्त हैं. मुकुंद जोशी, सुरेश म्हात्रे, चित्रे और फावड्या. नौवीं क्लास में पढ़ते हैं. न सिर्फ साथ पढ़ते हैं बल्कि वो तमाम काम करते हैं जो टीन एज के सारे बच्चे इस उम्र में करते ही करते हैं. इन्हीं में से एक है छुप-छुप कर लड़कियों को देखना. एक अंडर कंस्ट्रक्शन इमारत उनका अड्डा है. वहां वो कभी-कभी पढ़ाई भी कर लेते हैं. म्हात्रे का केवड़ा नाम की एक लड़की पर दिल आया है जिसकी घोषणा वो गाहे-बगाहे करता ही रहता है.
जोशी को भी प्यार है किसी से. ऐसा प्यार जिसे उसने सबसे छुपाकर रखा हुआ है. अपने जिगरी दोस्तों से भी. क्लास की सबसे सुंदर लड़की शिरोड़कर उसके दिमाग पर हर वक़्त छाई रहती है. शिरोड़कर का सानिध्य ज़्यादा से ज़्यादा मिले इसलिए वो, वो ट्यूशन भी जॉइन कर लेता है जो उसके घर से बहुत दूर है, लेकिन, जहां शिरोड़कर आती है.
शिरोड़कर से लगाव की ये हद है कि उसे डांटने वाली बेंद्रे मैडम से वो अपने ढंग से बदला लेता है. बोर्ड पर अनुशासन पर्व लिखता है. यानी कि अप्रत्यक्ष रूप से ये कहता है कि क्लास में भी मैडम ने आपातकाल लगा रखा है. बदले में भयानक मार खाता है. किसी भी बहाने वो शिरोड़कर की नज़र में रहना चाहता है.
शिरोड़कर.
शिरोड़कर.

बहरहाल, 'शाळा' सिर्फ इस प्रेम कहानी की फिल्म नहीं है. इसमें और भी बहुत कुछ है. इसमें आपातकाल का विरोध करते कुछ युवकों का साहस भी मिलेगा आपको और एक बिंदास लड़की को चरित्रहीन समझने वाली मानसिकता के खिलाफ खड़ा नरु मामा भी.
जोशी के क्लास की एक लड़की है. जो बिंदास अपने बॉयफ्रेंड के साथ भटकती है. इस वजह से सारी क्लास उसे चालू समझती है. ऐसे में नरु मामा जोशी को जो सीख देता है वो तमाम बच्चों को उनके शुरुआती दिनों में ही रटा देनी चाहिए. वो कहता है,
"देश पढ़ाकू बच्चों के दम पर तरक्की नहीं करता, देश तरक्की करता है उन बच्चों की वजह से, जो तमाम आलोचकों को नकारकर आगे बढ़ते रहने का हौसला दिखाते हैं. जो बिंदास प्रेम करते हैं."
उधर जोशी धीरे-धीरे शिरोड़कर की नज़रों में हीरो बनता जा रहा है. लग रहा है कि प्रेम की ये कली खिलकर फूल ज़रूर बनेगी. तभी कुछ ऐसा होता है जिसकी वजह से परवान चढ़ते प्रेम के पेड़ पर बिजली गिर जाती है. हीरो बनने का तमन्नाई जोशी विलेन बनकर रह जाता है. हम राज़ नहीं खोल रहे हैं. आप फिल्म देखकर जान लीजिएगा. जोशी उस त्रासदी से कैसे उबरता है. कैसे उसका संघर्ष जीवन के प्रति उसके नज़रिए को साफ़ करता जाता है ये यकीनन देखने लायक है.
मुकुंद जोशी.
मुकुंद जोशी.

एक्टिंग के फ्रंट पर सभी कलाकार बेहद ईमानदार लगते हैं. मुकुंद जोशी के रोल में अंशुमन जोशी एक टीनएजर की अंदरूनी छटपटाहट बेहद कामयाबी से परदे पर उतारते हैं. पहला प्यार, उसकी बेचैनी, इम्प्रेशन जमाने की हड़बड़ी और बड़ों को पता न चल जाए इसका डर. सारे रंग हैं उनकी एक्टिंग में. उसके दोस्त सुरेश म्हात्रे के रोल में केतन पवार बेहद सहज हैं. उन्होंने पूरी कन्विक्शन से अपना किरदार निभाया है. क्लास का वो दबंग छात्र, जो आप चाहते हैं कि आपकी साइड हो. केतकी माटेगावकर बहुत प्यारी लगी हैं. उनकी निभाई शिरोडकर के हिस्से संवाद कम आए हैं लेकिन वो अपनी बॉडी लैंग्वेज से बहुत कुछ कह जाती हैं. सुंदर तो लगती ही हैं.
स्कूल के बाकी सभी बच्चे ऐन वैसे ही लगते हैं जैसे कि असल स्कूल में होते हैं. जैसे कभी हम थे. देविका दफ्तरदार, संतोष जुवेकर, दिलीप प्रभावळकर, अमृता खानविलकर. इन सबने स्कूल टीचर्स की भूमिका में जान डाल दी है. जोशी के पापा के रोल में नंदू माधव बहुत भले लगे हैं. एक ऐसा शख्स, जो अपने किशोर उम्र के बेटे की समस्याएं समझने के लिए उत्सुक है. जितेंद्र जोशी का निभाया नरु मामा टॉप फॉर्म में है.
बेंद्रे मैडम.
बेंद्रे मैडम.

'शाळा' इसी नाम की एक किताब पर बनी है. मिलिंद बोकिल की ये किताब अप्रतिम है. मस्ट रीड टाइप. बहुत कम फ़िल्में होती हैं जो किताब से सिनेमा बनते वक़्त ईमानदार रह पाती हैं. 'शाळा' उन अपवादों में से एक है. जितनी प्यारी किताब है, उतनी ही शानदार फिल्म. डायरेक्टर सुजय डहाके इसके लिए बधाई के पात्र हैं. उन्होंने लिखित शब्दों को दृश्यों में बदलते वक़्त उनकी आत्मा से छेड़खानी नहीं की है. इसी वजह से ये फिल्म बेहतरीन बन पड़ी है. इसे उस साल की बेस्ट मराठी फिल्म का नैशनल अवॉर्ड भी मिला था.
स्पोर्ट्स डे.
स्पोर्ट्स डे.

'शाळा' हर उस शख्स की फिल्म है जो कभी स्कूल गया है. चाहे फिर वो क्लास का सबसे मेधावी छात्र हो या फिर बैक बेंचर. ये फिल्म उन सबके लिए तोहफे के समान है जो अपने स्कूल के दोस्तों को मिस करते हैं. न सिर्फ दोस्तों को बल्कि टीचर्स को, स्कूल के मैदान को, अपने क्लासरूम को, स्कूल की घंटी को, अन्ताक्षरियों को, स्कूल ट्रिप को, स्पोर्ट्स डे को, चॉक फेंककर की जाने वाली की लड़ाई को, स्कूल की इमारत को, बीच की छुट्टी में की जाने वाली शरारतों को, उन हाथापाइयों को जो आपने किसी क्लासमेट से की और बाद में गहरे दोस्त बन गए. और हां, उस पहली मुहब्बत को भी जिससे कुछ कहने का आपका हौसला न हुआ.


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