फ़िल्म रिव्यू - ओमेर्टा : एक पाकिस्तानी आतंकवादी के जीवन पर बनी बेहद ज़रूरी फ़िल्म
हंसल मेहता और राजकुमार राव की जोड़ी की एक और फ़िल्म.
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फोटो - thelallantop
"मैं बेहद विनम्र भाव से इस बात को कहना चाहता हूं कि आतंकवाद एक बुरी शय है. इसकी उपज और इसके अंत, दोनों में ही बुराई छिपी है. ये बुरा है क्यूंकि ये घृणा से जन्म लेता है और इसका अंत बुराई ही इसलिए होता है क्यूंकि आतंकवाद ने हमेशा तोड़ने में विश्वास किया है, जोड़ने में नहीं. आतंकवाद का मूल आधार अपराध है. मैं इस दुनिया में हर आतंकवादी घटना के विक्टिम और उनके परिजनों के लिए शांति की कामना करता हूं. प्लीज़, आतंकवाद अब और नहीं. ये मौत की ओर जाती सड़क है." ~ 2014 में कहे गए पोप फ्रांसिस के शब्दओमेर्टा. इटली से आया हुआ शब्द जिसका मतलब होता है अपराधियों द्वारा खाई गई एक ऐसी कसम, जो उन्हें पुलिस या दुश्मनों को कोई भी ख़ुफ़िया जानकारी देने से रोकती है. हंसल मेहता की फ़िल्म का टाइटल भी यही है - ओमेर्टा. इस फ़िल्म में राजकुमार राव आतंकवादी उमर सईद की भूमिका निभा रहे हैं. पूरा नाम - अहमद उमर सईद शेख. इंग्लैंड में पलने-बढ़ने वाला लड़का, जिसने बोस्निया में हुई हिंसा से व्यथित होकर उसका बदला लेने की ठानी और आईएसआई से ट्रेनिंग लेने के बाद दिल्ली में 4 विदेशी नागरिकों का अपहरण कर तिहाड़ में कैद हुआ. कंधार विमान अपहरण में रिहा हुआ, डेनियल पर्ल को किडनैप किया और उसकी हत्या कर दी और फिर पाकिस्तान की जेल में फांसी के इंतज़ार में है. ये एक मामूली यात्रा नहीं है. एक बेहतरीन शतरंज का खिलाड़ी जिसने जूनियर लंदन चैम्पियनशिप जीती, लंदन स्कूल ऑफ़ इकोनॉमिक्स में पढ़ा, वो आईएसआई की गोद में बैठा और पाकिस्तानी इंटेलिजेंस में अपनी जगह बना ली और बिन लादेन का मुंहबोला बेटा कहलाने लगा. ये यात्रा साधारण हो ही नहीं सकती. ओमेर्टा फ़िल्म किसी आतंकवादी की कहानी नहीं है. असल में ये एक लेयर नीचे जाकर बात करती है. ये उस मानसिक हालत के बारे में चुपचाप बात करती है, जो एक शतरंज के खिलाड़ी को हैवान में तब्दील करने की ताकत रखती है. ये फ़िल्म उस माहौल के बारे में बात करती है, जिसके आस-पास मौजूद होने से एक शानदार दिमाग उन लोगों के कब्ज़े में आ जाता है, जिनका मकसद इस दुनिया में बंदूकों की खेती करना होता है. ये लोग उस एक दिमाग की तलाश में रहते हैं, जो या तो खोखले हों या इस कदर भरे हों कि उसमें मौजूद एक चिंगारी को वो बड़ी आग में तब्दील कर इंसानियत को जलाकर राख कर दें. फ़िल्म से पहले ऐसे सवाल उठे थे कि क्यूं एक आतंकवादी को मेन कैरेक्टर बनाकर फ़िल्म बनाई जा रही है. असल में ये एक बेहद ज़रूरी कदम था, जो हिंदी फ़िल्मों में कम से कम इस स्टाइल में तो नहीं ही दिखाया गया था. एक आतंकी को मुख्य किरदार में रखने का सबसे बड़ा फ़ायदा ही ये था कि उसकी हैवानियत पूरी तरह से नंगी होकर आपके सामने खड़ी होती है. उसमें और आपकी आंखों के बीच कोई पर्दा या कोई फ़िल्टर मौजूद नहीं होता है. और यही वो मौका होता है, जहां आपको किसी के कुकर्मों का फ़र्स्ट हैंड एक्सपीरियंस होता है. ये वो मौका होता है, जब आप आपनी आंखें और कान बंद कर स्क्रीन पर चल रहे उस मंज़र के बीत जाने का इंतज़ार करते हैं. और इसी तरह आप किसी की क्रूरता को अनुभव कर अपने अंदर इस विश्वास को कायम करते हैं कि अमुक किरदार की तरह आप कोई भी ऐसा कदम नहीं ही उठाएंगे. अक्सर मिर्च के तीखेपन को जानने के लिए उसे चबाना पड़ता है. ओमेर्टा वही मिर्च है.

ओमेर्टा में एक जगह पर डैनी (डेनियल पर्ल, वॉल स्ट्रीट जर्नल के पत्रकार, जिन्हें अगवा कर मार दिया गया था) उमर सईद से कहते हैं - "Nobody lives but the conflict lives on." ये वाक्य इस फ़िल्म का निचोड़ और यकीनन इसके जन्म का कारण था. हंसल ने लल्लनटॉप से बात करते हुए कहा भी था कि एक जगह जब हम एक देश की सफलताओं और उपलब्धियों के बारे में बात कर रहे हैं, तो उसी वक़्त हमें इस बारे में भी बात करनी चाहिए कि वहां क्या गड़बड़ चल रहा है और उसके नतीज़े क्या मिल रहे हैं. टकराव चलता आ रहा है. एक उमर सईद जो कि 2002 से अपनी फांसी के इंतज़ार में बैठा हुआ है, अगर कैद भी हुआ (हालांकि उसने 26 नवंबर को मुंबई में हुए हमलों के दौरान कैद से ही भारतीय और पाकिस्तानी एम्बेसी में कुछ ऐसे कॉल्स किए कि दोनों देशों के बीच युद्ध के हालात बन गए) तो लगातार चल रही इस इंडो-पाक भसड़ से और कितने ही उमर सईद पैदा होने की पूरी संभावना है. ऐसा लगातार हो भी रहा है. इसकी रोकथाम के लिए क्या हो रहा है, मालूम नहीं पड़ रहा है. अगर कुछ हो भी रहा है, तो वो कतई कारगर होता नहीं दिख रहा. फ़िल्म ओमेर्टा एक बेहद ज़रूरी और बहुत ही ज़िम्मेदारी से बनाई गई फ़िल्म है. इसके लिए इंटेंस शब्द का इस्तेमाल करना पूरी तरह से ठीक रहेगा. ब्रिटिश एक्सेंट में बोलते राजकुमार राव इस रोल के लिए बहुत वक़्त तक याद किए जाएंगे. आपके किए कुछ बड़े काम ऐसे होते हैं, जिनके बारे में गली-मोहल्ले के लड़के शाम को लाइट चली जाने के बाद बात करना वाजिब नहीं समझते लेकिन उस काम के लिए आपको बुज़ुर्गों की ढेरों दुआएं मिलती हैं. ये फ़िल्म वैसा ही एक काम है. इसकी कोई बम्पर ओपनिंग नहीं होगी और न ही ये मिनट भर में सवा सौ करोड़ रुपए कमा लेगी. लेकिन ओमेर्टा अपना काम करेगी. वो आपको सोचने पर मजबूर करेगी. आपको खुद से सवाल करने के लिए भी उकसाएगी.
ये बेहद अच्छी बात है कि हंसल मेहता ने इस फ़िल्म में दिखाई जाने वाली हिंसा को किसी भी तरीके से ड्रमेटिक नहीं बनाया है. कहीं भी दूर से आती नमाज़ की आवाज़ नहीं है. कहीं भी अंधेरे से भरे कमरे और उसमें लटकते बल्ब नहीं हैं. कहीं भी चीखते हुए गोलियों की बौछार करते और टाइट फ्रेम में आतंकी का चेहरा या आंखें दिखाते शॉट्स नहीं हैं. फ़िल्म सनी देओल और सलमान खान की आतंकवाद वाली फ़िल्मों की लीग के आस-पास भी नहीं फटकती (जो कि अपेक्षित ही था) और इसके लिए पूरी टीम का थैंक यू. एक बार फिर - इसी सब कुछ ने उमर सईद शेख के किरदार को और भी असल, शातिर और डरावना दिखाया.