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जोगवा: वो मराठी फिल्म जो विचलित भी करती है और हिम्मत भी देती है

अच्छी फ़िल्में देखने का शौक है तो 'मराठी सिनेमा' को इग्नोर कर ही नहीं सकते.

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उपेंद्र लिमये को इस रोल के लिए नेशनल अवॉर्ड मिला था.
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मुबारक
30 सितंबर 2017 (Updated: 11 जुलाई 2018, 07:54 AM IST) कॉमेंट्स
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हिंदी सिनेमा भले ही ढर्रे से चिपका दिखाई दे रहा हो, लेकिन रीजनल भाषाओं में बहुत बढ़िया काम हो रहा है. मराठी सिनेमा तो इस मामले में जैसे मशाल लेकर आगे चल रहा है. फ़िल्में कैसी होनी चाहिए इसका ट्यूटोरियल हिंदी वालों को मराठी फिल्मकारों से लेना चाहिए. पिछले दशक भर में नेशनल अवॉर्ड जीतने वाली फिल्मों की लिस्ट पर नज़र भर मार लीजिए. ज़्यादातर फ़िल्में मराठी की दिखाई देंगी. मराठी सिनेमा को समर्पित इस सीरीज 'चला चित्रपट बघूया' (चलो फ़िल्में देखें) में हम आपका परिचय कुछ बेहतरीन मराठी फिल्मों से कराएंगे. वर्ल्ड सिनेमा के प्रशंसकों को अंग्रेज़ी से थोड़ा ध्यान हटाकर इस सीरीज में आने वाली मराठी फ़िल्में खोज-खोजकर देखनी चाहिए. 



हम शुरू करेंगे 2009 में रिलीज़ हुई एक मास्टरपीस फिल्म 'जोगवा' से. 'जोगवा' एक फिल्म के अंदर कई फिल्मों का कोलाज सा है. कई सारे मुद्दों को एक साथ छूने की बेहद प्रभावशाली कोशिश है. अंधश्रद्धा, देवदासी प्रथा, निरक्षरता, लैंगिकता, समलैंगिकता, सामाजिक अन्याय, दलित समाज की खस्ताहाली...
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क्या कुछ नहीं एक्सप्लोर किया गया है इस फिल्म में! ख़ास बात ये कि इतने सारे मुद्दों को छूते हुए कहीं भी ऐसा नहीं लगता कि मुंह से बड़ा निवाला उठा लिया हो फिल्म मेकर्स ने. सब कुछ परफेक्ट है. कुछ फ़िल्में ऐसी होती हैं कि जिसके हर एक फ्रेम से आपको प्यार हो जाता है. मेरे लिए 'जोगवा'' ऐन ऐसी ही फिल्म है. 'जोगवा' विचलित भी करती है और हिम्मत भी देती है.
'जोगवा' को उस साल पांच नेशनल अवॉर्ड मिले थे.
'जोगवा' को उस साल पांच नेशनल अवॉर्ड मिले थे.

कहानी महाराष्ट्र और कर्नाटक के बॉर्डर पर बसे एक गांव की है. 'जोगवा' का मतलब है वो भिक्षा जो घर-घर घूम के मांगी जाती है. हालांकि इसे मांगने वाले भिखारी नहीं हैं. ये भक्त हैं. मां यल्लम्मा के. इनका जीवन ही यल्लम्मा देवी को समर्पित है. लेकिन रुकिए. एक पेच है. ये स्वेच्छा से भक्त नहीं बने हैं. अंधश्रद्धाओं के भयावह दुष्चक्र ने इन्हें इस ज़िंदगी में ला पटका है. ये ज़िंदगी कैसे अभिशाप बनती है ये सुली और तायप्पा के माध्यम से हम पर आहिस्ता-आहिस्ता खुलता जाता है. इन दो घंटों में क्या नहीं होता एक दर्शक के साथ! आप विचलित होते हैं, उलझते हैं, गुस्से से भर जाते हैं.
देवी को अर्पित किए गए ऐसे पुरुषों को 'ज़ोगता' और महिलाओं को 'ज़ोगतिन' कहते हैं.
सुली अभी-अभी जवान हुई कन्या है. उम्मीदों से भरी. स्वच्छंद, उन्मुक्त ज़िंदगी के सपने देखने वाली. एक दिन उसकी चोटी बांधते वक़्त मां को उसके बालों में एक 'ज़ट' मिलती है. ज़ट माने बालों का गुच्छा. मां सन्नाटे में आ जाती है. ज़ट का मिलना बहुत बड़ा अपशगुन माना जाता है. झाड़फूंक करने वाली लोकल ओझा फतवा सुना देती है कि देवी यल्लम्मा ने सुली को चुन लिया है.

बेफिक्री के आलम में सुली. मुक्ता बर्वे इस रोल के लिए शानदार चयन था.
अब उसे अपना सारा जीवन यल्लम्मा को समर्पित करना होगा. तमाम ज़िंदगी भीख मांगकर गुज़ारा करना होगा. सुली के पिता इस अन्याय को न होने देने की भरसक कोशिश करते हैं. पर ईश्वरीय सिस्टम और समाज की हठधर्मिता से लड़ने का माद्दा उनमें नहीं है. सुली को उस ज़िंदगी में कदम रखना ही होगा, जहां दाखिला पाने की पहली शर्त अपनी तमाम इच्छाओं को कुचलना है.
तायप्पा का केस सुली से ज़्यादा भयानक है. उसे तो एक छोटी सी बीमारी का खामियाज़ा भुगतना पड़ रहा है. तायप्पा के पेशाब में ख़ून आने लगा. उसकी इस अलामत को देवी यल्लम्मा का प्रकोप माना जाता है. प्रायश्चित क्या है! तायप्पा को पूरी उम्र देवी की सेवा करनी होगी. इतना ही नहीं, ये काम उसे औरतों की तरह साड़ी पहनकर करना होगा. उधर तायप्पा है कि साड़ी पहनने के ज़िक्र भर से शर्मिंदगी की कब्र में गड़ा जाता है. वो नहीं चाहता ये करना. पर सुली की ही तरह उसके पास भी कोई ऑप्शन नहीं है.
तायप्पा और सुली का वनवास शुरू.

इन दोनों की ज़िंदगियां आपस में टकराती हैं. तानी नाम की महिला की एक संगीत मंडली है. ये मंडली गांव-गांव घूमकर देवी रेणुका/यल्लम्मा के गीत सुनाती है. उससे हासिल कमाई से अपना पेट भरती है. सुली और तायप्पा इसी मंडली का हिस्सा बन जाते हैं. आगे की ज़िंदगी कठिन है.
ज़ोगतिन को गांव की प्रॉपर्टी मानने की परंपरा है. ज़ाहिर है यौन शोषण की हाज़िरी लगनी ही है. हर आता-जाता सुली को भोग लेना चाहता है. उधर तायप्पा भी इससे अछूता नहीं. उससे कईयों को उम्मीद है कि वो समलैंगिक संबंध स्थापित कर लेगा. उसके पास चारा ही क्या है! मंडली के अंदर ही कई लोग उसे शिकार समझते हैं. बाहर की दुनिया तो उसका क्रूरता की सीमा तक मज़ाक उड़ाती ही है. थर्ड जेंडर को मिलने वाली तमाम मानसिक यंत्रणाएं उसके हिस्से भी आती हैं. उसका मन शर्ट-पैंट पहनने को छटपटाता है. उसके अंदर का मर्द इस थोपे गए जनानेपन को फेंक देना चाहता है. लेकिन वो बेबस है. और ये बेबसी भयानक है.
बेबसी तायप्पा की आंखों से टप-टप टपकती है.

ऐसे माहौल में भी प्रेम पनपता है. लेकिन उन्हें तो प्रेम करने की परमिशन है ही नहीं. देवी को नाराज़ कैसे किया जा सकता है? ज़ाहिर है एक बहुत बड़ा टकराव निश्चित है. इन दो उपेक्षित आत्माओं का हश्र क्या होता है, ये फिल्म देखकर जान लीजिएगा.
'जोगवा' के कई सशक्त पहलू हैं. सबसे ख़ास तो इसकी स्क्रिप्ट है, बेहद कसी हुई और टू दी पॉइंट. एक भी - आई रिपीट - एक भी सीन गैरज़रूरी नहीं है. दरअसल 'जोगवा'' तीन उपन्यासों पर आधारित है. चौन्ड़क', 'भंडार भोग' और 'दर्शन'. पहले दो डॉक्टर राजन गावस ने लिखे है तो 'दर्शन' के लेखक चारुता सागर हैं.
डायरेक्शन कमाल का है. राजीव पाटिल ने बेहद संवेदनशील ढंग से कहानी कही है. कोई हैरानी नहीं है कि इस फिल्म ने नेशनल अवॉर्ड जीता. एक नहीं बल्कि कई सारे. अभिनय की बात करें तो मुक्ता बर्वे और उपेंद्र लिमये ने कमाल कर दिया है. किसी एक्टर की सफलता इसी में है कि वो अपने किरदार का दर्द दर्शकों को महसूस करवाए. इस फिल्म में ये बार-बार होता है. फ्रेम दर फ्रेम होता है.
अजय-अतुल का संगीत इतना शानदार था कि तारीफों की चौतरफा बौछार हुई उन पर. इस एक गाने के लिए दोनों सिंगर्स को नेशनल अवॉर्ड मिला.

'जोगवा' को मस्ट वॉच फिल्मों की लिस्ट में तुरंत ऐड कर लेना चाहिए.


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