The Lallantop
Advertisement
  • Home
  • Entertainment
  • Leila: Web Series Review in Hindi | Huma Qureshi | Siddharth | Deepa Mehta | Netflix

लैला वेब सीरीज़: 'उम्मीद' कि भविष्य इतना भी बुरा नहीं होगा, 'आशंका' कि इससे भी बुरा हो सकता है

'आर्यावर्त' के बच्चे, मोबाइल पर टॉम-जेरी नहीं देखते. वो जोशी जी के 'बाल चरित्र' वाले वीडियो देखते हैं.

Advertisement
Img The Lallantop
फोटो - thelallantop
pic
दर्पण
25 जून 2019 (Updated: 25 जून 2019, 05:35 AM IST) कॉमेंट्स
font-size
Small
Medium
Large
font-size
Small
Medium
Large
whatsapp share
NDTV में एक बहस चल रही थी. उस बहस ने मुझे एक नया शब्द सिखाया. शायद योगेंद्र यादव ने टॉस किया था वो शब्द- इलेक्ट्रोरल अथॉरिटेरियनिज़म. मतलब ऐसी राजशाही जहां चुनाव होते हैं. अब बताइए ऐसी राजशाही कैसे संभव है? जब सरकार हम अपनी पसंद की चुन रहे हैं, तो राजशाही कहां? उत्तर भी उसी बहस में दिया गया था. कि सब कुछ लोकतंत्र की तरह होता है. चुनावों में भी कोई बेईमांटी नहीं होती. लेकिन जो सरकार बनती है, उसपर चेक रखने वाली संस्थाएं या तो बूढ़ी हो जाती हैं, या मर जाती हैं. और इसलिए हर बार, बार बार, वही सरकार चुनकर आती है जो ‘प्रोपगेंडा’ नाम के सिद्धांत में महारत हासिल कर चुकती है.
क्या हम इसी इलेक्ट्रोरल अथॉरिटेरियनिज़म वाले युग में जी रहे हैं? आप खुद से पूछिए. सारी संस्थाएं बेहतर तरीके से काम कर रही हैं. शायद! या कम से कम परसेप्शन तो ऐसा ही है. लेकिन...
इस 'लेकिन' को इस उदाहरण से समझिए. एक इंडस्ट्री है. उसमें सारे डिपार्टमेंट हैं. ह्यूमन रिसोर्स. मार्केटिंग. प्रॉडक्शन. IT. सारे. लेकिन एक डिपार्टमेंट नहीं है- क्वॉलिटी कंट्रोल. शायद आपने इस डिपार्टमेंट का नाम सुना हो, शायद नहीं. लेकिन इसके न होने से इंडस्ट्री में माल तो बनता है, लेकिन वो माल मानकों पर खरा है या नहीं इसकी कोई गारंटी नहीं. ये उस इंडस्ट्री के अंदर का डिपार्टमेंट होकर भी उस इंडस्ट्री का दुश्मन होता है. और फिर इसको गाली भी पड़नी ही है. भीतर से ही. इसको ख़त्म करने की साज़िश भी होनी ही है. भीतर से ही. और जो काम इसके साथ सबसे आसानी से हो सकता है वो ये कि ये रहे, मगर पिंजरे का तोता बन कर. बस नाम भर का. कि देखो हमारे पास ये भी है- क्वॉलिटी कंट्रोल डिपार्टमेंट. ये करता क्या है? गॉड नोज़!
कि देखो हमारे पास प्रेस है. ये करती क्या है? सरकार पर चेक रखती है या सरकार का पीआर मैनेज करती है? गॉड नोज़! कि देखो हमारे पास लोकतंत्र है. ये करता क्या है? सोच-समझकर अपने भाग्य विधाताओं का चुनाव करता है या प्रोपगेंडा की बांसुरी बजाने वालों के पीछे उन चूहों की तरह चल पड़ता है, जिनको गहरी खाई में गिरना है? गॉड नोज़!
सबसे पीछे जिनकी तस्वीर लगी है, वो जोशी जी हैं. आगे स्काई डॉम प्रोजेक्ट का थ्री डी मॉडल. (लैला के यू ट्यूब ट्रेलर का स्क्रीन ग्रैब) सबसे पीछे जिनकी तस्वीर लगी है, वो जोशी जी हैं. आगे, ब्लू कलर में है स्काई डॉम प्रोजेक्ट का थ्री डी मॉडल. (लैला के यू ट्यूब ट्रेलर का स्क्रीन ग्रैब)

और गॉड नोज़ के बाद जो होता है वो हर उत्तर 'गॉड' पर ही छोड़ दिया जाता है. इस सबके बीसेक साल बाद जो होता है, या जो हो सकता है उसी एक संभावना का नाम है- लैला. प्रयाग अकबर की लिखी हुई इसी नाम की किताब से उपजी है ये.

'लैला' कहानी है एक हिंदू मां की. जिसका पति मुसलमान होने के कारण मारा गया. इसका बहाना बना स्वीमिंग पूल का पानी. मां-बेटी अलग कर दी गईं. पूरी सीरीज़ उसी बेटी को तलाश करने की यात्रा है. हुमा कुरैशी बनी हैं 'लैला' की मां- शालिनी रिज़वान चौधरी. पूरी सीरीज़ में आपको हुमा ही दिखेंगी. शालिनी रिज़वान चौधरी से शालिनी तिवारी बनाए जाने की कोशिश में. उनके अलावा जो किरदार सबसे ज्यादा दिखते हैं, उनमें से एक हैं 'रंग दे बसंती' के भगत सिंह. यानी सिद्धार्थ. यहां भानु. जो 'विद्रोही' बने हैं. ऐसा किरदार जो दुश्मनों के बीच रहकर चुपके से अपना काम करता है. दीपा मेहता (अर्थ, फायर और वाटर वालीं) ने इस सीरीज को शंकर रमन और पवन कुमार के साथ मिलकर बनाया है. 'गुड़गांव' के डायरेक्टर शंकर रमन अपनी बेहतरीन सिनेमटोग्रफ़ी के चलते नेशनल अवार्ड पा चुके हैं. उनका असर 'लैला' को वैसा ही भयावह बनाने में मदद करता है, जितना भयावह बनाने वालों ने सोचा होगा.
'लैला' अपने दौर से आगे की कहानी है. ठीक-ठीक 2047 की. उसी मिट्टी की कहानी, जहां के आप और हम हैं. मगर भविष्य के किसी कालखंड में. जब देश का नाम 'आर्यावर्त' है. वो एक ऐसी जगह है, जहां पानी से कीमती कुछ नहीं. जहां बारिश में आसमान कोलतार के रंग का पानी उड़ेलता है. असल में ये ऐसे दौर की कहानी है, जहां पानी के नाम पर पुराना सिस्टम क्रैश कर गया. नया सिस्टम बना. हर बिरादरी के अपने 'घेटोज़'. जिनके चारों तरफ ऊंची-ऊंची दीवारें.
ऐसा नहीं कि पूरा देश ही 'आर्यावर्त' हो. उसके पार भी मुल्क है. मगर वो 'अस वर्सेज़ देम' वाली दुनिया है. वो आर्यावर्त के लिए बाहरी हैं. बाहरी गरीब हैं. मैचे-कुचैले, बेहाल झुग्गियों वाले हैं. वो बूंद-बूंद पानी को तरसते हैं. उनके बच्चे पैदा होते ही अधेड़ हो जाते हैं. मतलब स्कूल नहीं जाते. मुंह-हाथ पर मैल की मोटी-मोटी तहें जमी हुईं और वो किसी अंधेरे दड़बे में कूड़ा बीनते हैं. और झुंड में नारे लगाते हैं- आर्यावर्त मुरादाबाद. बाकी आर्यावर्त चमकता है. वहां अमीरों की जेबों में अथाह पैसा है, इसीलिए उनके घरों के स्वीमिंग पूल में नीला पानी भरा है. सब ऐसे नहीं आर्यावर्त में. यहां भी गरीब हैं. जिनका काम बस अमीरों के लिए खटना, उनका हुक्म बजाना है. मगर वो जो 'बाहरी' हैं, उनके पास अभावों में भी ज्यादा मानसिक शांति है. शायद इसलिए कि उनका 'टारगेट फिक्स' हो गया है. आर्यावर्त के अंदर सारी विलासिता है. फिर भी एक डर है वहां लोगों में. किसी अनहोनी का. कुछ अनचाहा घट जाने का. वैसे बाहर या भीतर, असल देखें तो सब अपने-अपने ख़ौफ में हैं.
पानी की कमी अब जितनी है उस हिसाब से लीला की कम से कम एक भविष्यवाणी तो समय से पहले ही सही होती लगती है. (लैला के यू ट्यूब ट्रेलर का स्क्रीन ग्रैब) पानी की कमी अब जितनी है उस हिसाब से लीला की कम से कम एक भविष्यवाणी तो समय से पहले ही सही होती लगती है. (लैला के यू ट्यूब ट्रेलर का स्क्रीन ग्रैब)

आर्यावर्त को चलाता है एक जोशी (संजय सूरी) नाम का आदमी. जोशी क्या चलाता है, समझिए कि उसकी तस्वीरें, उसके पोस्टर्स, उसके वीडियो चलाते हैं लोगों को. उस 'आर्यावर्त' के बच्चे, एकदम छोटे और अबोध बच्चे, मोबाइल पर टॉम-जेरी टाइप कार्टून नहीं देखते. वो जोशी के 'बाल चरित्र' वाले वीडियो देखते हैं. उनकी मांएं गर्व से अपनी मेड्स को बताती हैं- ये रोये तो इसको जोशी जी के वीडियो दिखा देना. दिनभर देखता रहेगा.

'लैला' के 'आर्यावर्त' में गांधी की तस्वीर लगाना क्राइम है. ऐसा नहीं कि गांधी को याद रखने वाले बचे नहीं. बस वो डरते हैं. डर का इलाज- वो दोतरफ़ा तस्वीर रखते हैं. एक तरफ गांधी. पलट दो तो मुस्कुराते हुए जोशी जी. ताकि जब कोई सरकारी आदमी औचक पहुंचे, तो झट से मुस्कुराते जोशी को आगे कर दिया जाए.
मोबाइल जैसी चीजें मॉर्डन होने का बैरोमीटर हैं, तो 'लैला' का आर्यावर्त बहुत आगे है. मगर बाकी चीजों में ये किसी बीते समय की याद दिलाता है. झुंड में आते हैं रेफरेंस. जैसे- हिटलर का नाजी जर्मनी. जहां अलग-अलग बिरादरियों (खासतौर पर हिंदू-मुसलमान, सवर्ण-दलित) के बच्चे थू-थू की नज़र से देखे जाते हैं. उन्हें 'मिश्रित' कहा जाता है. उनके लिए कोई जगह नहीं. रेफरेंस चीन और सोवियत के सिस्टम का भी है. जहां लोगों की 'वफ़ादारी' जांचने के लिए उनके पीछे जासूस लगाए जाते थे. उनके घर में कैमरे लगाए जाते थे. फिर 'वफ़ादारी' टेस्ट में फेल होने पर उन्हें मार डाला जाता था.
सोसायटी में अपने 'जात-धर्म' के अलावा किसी को चाहना, उससे शादी करना, उससे सेक्स करना पाप है. ऐसा करने वाली औरतें 'दूष' हैं. उनके लिए 'शुद्धि केंद्र' बने हैं. उन्हें जबरन उठाकर वहां लाया जाता है. इन केंद्रों पर शुद्धि के नाम पर कोई भी आता-जाता 'आर्यावर्त' का पिट्ठू उन्हें 'रंडी' पुकार सकता है. उनके जूते बजा सकता है. वो अपने परिवार से दूर कर दी जाती हैं. पेट से हुईं तो जबरन उनका बच्चा गिरा दिया जाता है. फिर खूब जतन करके उनका माइंडवॉश किया जाता है. वो 'शुद्ध' हुईं या नहीं, ये तय करने के लिए उनकी परीक्षा ली जाती है. परीक्षा में फेल होना, मतलब जीवन पर घिसटते हुए जीना. और जीतने के लिए क्या करना होगा? शायद अपने साथ वालों को जहरीली गैस देकर चेंबर में मार देना. और इन सबको अंजाम देता है गुरु मां नाम का किरदार जिसे आरिफ ज़कारिया ने नफ़रत हो जाने की हद तक उम्दा तरीके से जिया है.
उन चार किताबों के मुखपृष्ठ, जिनका इस रिव्यू में ज़िक्र है. उन चार किताबों के मुखपृष्ठ, जिनका इस रिव्यू में ज़िक्र है.

आर्यावर्त. एक ऐसा डिस्टोपियन समाज जिसे यूटोपिया की तरह प्रोजेक्ट किया जा रहा है. मने ऐसा रावण राज जिसे राम राज्य कहकर पेश किया जा रहा है. कट्टर शरिया राज कैसा होता है, ये देखने के लिए हमारे पास तालिबान, ईरान और सऊदी हैं. ऐसे ही 'लैला' कट्टर हिंदुत्ववादी सिस्टम है. शरिया से काफी मिलता-जुलता. वैसा ही मैनिपुलेटिव. हर चीज धर्म से चलती हुई. वहां कला की जगह नहीं.

एक सीन में मोहन राव नाम का किरदार शालिनी से कहता है-


नाच गाना पेंटिंग पोएट्री, ये सब कला नहीं बला है. आर्ट फार्ट. समय भी बर्बाद होता है और दिमाग भी खराब होता है.
यही मोहन राव रात ढलने के बाद अपने कमरे का दरवाजा बंद करके धीमी आवाज़ में आंख बंदकर नूरजहां को गाते सुनता है-
मुझसे पहली सी मुहब्बत मेरे महबूब न मांग.
'तालिबान' और ISIS की तरह यहां भी चौराहे पर लोग फांसी चढ़ाए जाते हैं. फिल्म के एक सीन में भानु शालिनी से कहता है-
दीक्षित सर मारे गए. पति-पत्नी दोनों को बीच चौराहे पर लटका दिया. लोग ताली मार रहे थे, जब उनकी गरदन टूटी.
इसी सीन में आगे भानु कहता है-
चॉइस तो आर्यावर्त में किसी के पास नहीं है शालिनी.
झुग्गी में रहने वाली 'रूप' जो पूंजीवाद को गाली देती है और समय आने पर शालिनी की हेल्प भी करती है. (लैला के यू ट्यूब ट्रेलर का स्क्रीन ग्रैब) झुग्गी में रहने वाली 'रूप' जो पूंजीवाद को गाली देती है और समय आने पर शालिनी की हेल्प भी करती है. (लैला के यू ट्यूब ट्रेलर का स्क्रीन ग्रैब)

'आर्यावर्त' की चमकदार कॉलोनियों में रहने वाले लोग मिडिल लेवल मैनेजमेंट हैं. वे या तो अपने बड़ों से इसलिए डरकर रहते हैं कि अपने से छोटों को डरा सकें या अपने से छोटों को इसलिए डराते हैं क्योंकि उन्हें ऊपर से डराया गया है. या शायद ये दोनों चीज़ें एक ही सिक्के के दो पहलू हैं. कारण जो भी हो, एक डर का समाज निर्मित हो चुकता है. जहां जो डर गया, समझो मरने से बच गया. ये 'शोले' के गब्बर का जंगलराज नहीं, 'लैला' के 'जोशी' का 'एनिमल फार्म' है. फार्म, जहां 'इंसान' पाले जाते हैं. इंसान जो शायद मैट्रिक्स की तरह ही सोये हुए हैं. बस उसकी तरह सोये दिखते नहीं. ये ऐसी तानाशाही है, जहां समान विचारधारा वालों को तरक्की मिलती है. जहां असमानता को छुपाने की भी कोशिश नहीं की जाती.

कुछ दिनों पहले मैं जावेद अख़्तर को सुन रहा था, उन्होंने ठीक-ठीक क्या कहा याद नहीं. मगर सार यही था कि- मुझे एज़ अ मुस्लिम उतना ही डर लगता है जितना आपको एज़ अ हिंदू लगना चाहिए. डर अगर होगा तो हर कहीं होगा. डराने वाले समर्थकों को डर लगेगा. ये छोटी सी बात है, लेकिन बड़ी 'बैंग ऑन टारगेट'.
सीरीज़ के एक एपिसोड में एक बड़ा सा शॉपिंग मॉल है. वहां हफ्ते भर से कोई ग्राहक नहीं आया. और जो सबसे पहला है उसे 10% का डिस्काउंट इसलिए क्योंकि वो पहला है. शायद पूंजीवाद यहां अपने सबसे भयानक रूप में सामने आता है. जहां पूंजी नहीं. रुपया पैसा हो तो हो, पर पूंजी नहीं. पानी नहीं. जंगल, पर्वत, हवा. कुछ नहीं. जीने की बुनियादी चीजें नहीं हैं. गैरज़रूरी कूड़े से बाज़ार लदा है.
ये वेब सीरीज़ का कोई सीन नहीं, दिल्ली का गाज़ीपुर है. इसके बारे में हाल ही में खबर आई थी कि इसकी ऊंचाई ताजमहल से भी ज़्यादा होने जा रही है. (तस्वीर- रॉयटर्स) ये वेब सीरीज़ का कोई सीन नहीं, दिल्ली का गाज़ीपुर है. इसके बारे में हाल ही में खबर आई थी कि इसकी ऊंचाई ताजमहल से भी ज़्यादा होने जा रही है. (तस्वीर- रॉयटर्स)

ये शॉपिंग मॉल वाला सीन लैला का एक डरावना सीन है, जहां ये खाली सुनसान सा शॉपिंग मॉल चाइना की किसी 'घोस्ट सिटी' का प्रतिनिधित्व करता है. यहां से निकलने वाले खरीददार को सोचिए किस बात की सबसे ज़्यादा चिंता है? उसकी प्रायॉरिटी लिस्ट में सबसे ऊपर क्या है? वो निकलने से पहले कौन सी चीज़ सुनिश्चित करना चाहता है? ये कि उसकी खरीददारी के रिवॉर्ड पॉइंट्स उसके अकाउंट में जुड़े या नहीं.

'एनिमल फार्म' का रेफरेंस दिया था ऊपर. इसे लिखा था जॉर्ज ओरवेल ने. उनकी दूसरी किताब है- 1984. इसी का ही एक भारतीय वर्ज़न है लैला. कहीं पढ़ा था कि लेफ्टिज़्म अपने एक्सट्रीम में अगर डिक्टेटरशिप हो जाती है तो राइट हो जाता है फासिज़म. इसलिए लैला '1984' के लेफ्ट का ही दक्षिणपंथी वर्ज़न है. 'बिग ब्रदर आपको देख रहा है'. जोशी आपको देख रहा है. कुछ महीनों पहले 'घोउल' आई थी. जिसमें किताबें जलाई जाती हैं. 'लैला' उन किताबों के जल चुकने के बाद के समाज को दिखाती है.
वो जहां जब हमारे दिमाग को ग़ुलाम किया जाता है, तो उसमें सबसे पहले ये फीड किया जाता है कि तुम आज़ाद हो.
सिंगल मदर का अपनी बेटी को खोजना और उस दौरान उसे किसी धार्मिक संस्थान या ऐसे किसी ऑर्थोडॉक्स कॉज़ से जबरिया/उसकी मर्ज़ी के बिना जोड़ देना, ये परमाईस 'द हैंडमेड्स टेल' नाम की अमेरिकी वेब की कॉपी लगता है. जो लोग ये तर्क रखेंगे कि, ‘लैला’ प्रयाग अकबर की लिखी हुई इसी नाम की बुक का अडॉप्टेशन है, उनको बताना चाहूंगा कि ‘दी हैंडमेड’स टेल’ भी मार्गरेट की लिखी हुई इसी नाम की बुक का अडॉप्टेशन है.
‘द हैंडमेड्स टेल’ में 'व्यभिचार' का आरोप लगाकर औरतों को एक सेक्स स्लेव बना के सिर्फ और सिर्फ इसी लिए जिंदा रखा जाता है ताकि इनसे बच्चे पैदा करवाएं जाएं. (स्क्रीन ग्रैब- द हैंडमेड्स टेल के यू ट्यूब ट्रेलर का स्क्रीन ग्रैब) ‘द हैंडमेड्स टेल’ में 'व्यभिचार' का आरोप लगाकर औरतों को एक सेक्स स्लेव बना के सिर्फ और सिर्फ इसी लिए जिंदा रखा जाता है ताकि इनसे बच्चे पैदा करवाएं जाएं. (स्क्रीन ग्रैब- द हैंडमेड्स टेल के यू ट्यूब ट्रेलर का स्क्रीन ग्रैब)

'हैंडमेड' को भी लैला की तरह, लेकिन उससे भी ज़्यादा शार्प विज़न कहा जा सकता है जो आपको दिखा देता है कि आज आप जिस व्यवहार को (इंटरकास्ट मैरिज, लिव इन, गे-लैस्बियन रिलेशन वगैरह) को व्यभिचार/पाप का टैग देकर पुरातन समाज को ग्लोरीफाई करते हो, उस पुरातन समाज में क्या-क्या हो सकता है.

'ये कलयुग है. कलयुग के बाद फिर से सतयुग को आना है.' इस पर विश्वास करते हुए आज समाज के हर क्षेत्र में 'आ अब लौट चले' का रिवाज नहीं एक अभियान शुरू किया जा रहा है. दुनिया के हर कोने से आवाज़ें आना शुरु हो गई हैं.  इस कलयुग में व्यभिचार फैला दिया गया है, हमें पुनः अपने उत्थान की तरफ जाना होगा. इतिहास जानता है कि विश्व के किसी भी धर्म ने अपने प्रारब्ध में ही स्त्रियों को समान अधिकारों से वंचित रखा है. हर धर्म में स्त्री का एकमात्र धर्म खून की शुद्धता को बनाये रखना और वंशवृद्धि करना ही रहा है. समाज में जब भी रूढ़िवादिता आने लगती है तो उसका सीधा और पहला प्रभाव स्त्रियों पर पड़ता है. फिर चाहे स्त्रियां कितने की ऊंचे तबके, कुल या समाज से क्यों न हो. 'हैंडमेड' में पति अश्वेत था तो यहां लैला में मुस्लिम.
'लैला' और 'द हैंडमेड्स टेल' के मेन प्लॉट बीच कई और समानताएं हैं. लेकिन अब हम लैला के एक दूसरे सब-प्लॉट की बात करें तो, वो 'स्काई डॉम' के नज़दीक घूमता है. स्काई डॉम, जोशी (संजय सूरी) का एक अति-महत्वाकांक्षी प्रॉजेक्ट. जिसमें प्रदूषण और बेकाबू हो चुके मौसम की मार झेल रहे आर्यावर्त को एक पारदर्शी गुंबद से छा दिया जाएगा. ये डॉम आर्यावर्त को सारी प्राकृतिक आपदाओं से बचा ले जाएगा. मगर इसकी कीमत है. ये कीमत उन्हें चुकानी होगी, जो इस स्काई डोम से बाहर रहते हैं. अमेरिका और यूरोप के देश प्रगति करते हैं, तो आर्कटिक में वॉलरस मरते हैं. ईस्ट अफ्रीका में कूड़ा बढ़ता है. बस यही हाल स्काई डॉम का भी है.
जोशी (संजय सूरी) एक इंसान से प्रोपोगेंडा ज़्यादा लगता है. डर की ह्यार्की का हेड. (लैला के यू ट्यूब ट्रेलर का स्क्रीन ग्रैब) जोशी (संजय सूरी) एक इंसान से प्रोपोगेंडा ज़्यादा लगता है. डर की ह्यार्की का हेड. (लैला के यू ट्यूब ट्रेलर का स्क्रीन ग्रैब).

डिमोलिशन मैन. एक हॉलीवुड मूवी थी. उसकी भी रह-रहकर याद आती रही. उसमें भी समाज इतना परफेक्ट कि गाली देने पर भी आपको एक स्लिप पकड़ा दी जाएगी. इतना शिष्ट कि सेक्स भी बुरा माना जाने लगेगा. इतनी शांति की पुलिस वाले डिफेंस करना, लड़ना भूल चुकेंगे. ऐसा कैसे हो सकता है? फिर राज़ खुलता है कि यदि धरती के ऊपर एक आर्यावर्त है तो धरती के नीचे, अंडरग्राउंड में वो लोग रहते हैं जो भूख मिटाने के लिए चूहे खाने पड़ते हैं. वही अमेरिका, यूरोप की प्रगति और ईस्ट अफ्रीका में बढ़ रहे कूड़े के ढेर का सटल रिलेशन.

सीरीज़ में एक बहुत बड़ी कमी है कि किसी करैक्टर का 'करैक्टर आर्क' विकसित नहीं होता. एक छोटी, झुग्गी में रहने वाली लड़की एक बड़ा किरदार निभाकर गायब हो जाती है, लेकिन उसे लेकर शालिनी बिल्कुल चिंतित नहीं दिखती. या चिंतित दिखती भी है तो उसे सायस ढूंढने का प्रयास नहीं करती. कुछ करैक्टर्स जैसे हैं, वैसे क्यूं है इसका उत्तर नहीं मिलता. कुछ परिस्थितयां जैसी हैं, वैसी क्यूं हैं, ये सवाल भी अनुत्तरित रह जाता है. मैंने वो किताब नहीं पढ़ी, जिसपर ये सीरीज़ बेस्ड है इसलिए ये 'बेनिफिट ऑफ़ डाउट' दिया जा सकता है कि शायद इसके और सीज़न आएं और सारे नहीं भी तो कई सवालों के उत्तर उनमें दे दिए जाएं. और वैसे भी जिस तरह से ये सीरीज़ समाप्त हुई है, वो एक और सीज़न की संभावना बनाती है.
एक और कमी है इसकी डार्कनेस. जब आप कोई इतना डार्क कॉन्सेप्ट रखें तो कम से कम कुछ ह्यूमर या कुछ 'इस्केप मोमेंट्स' तो रखें ही. होने को ऐसी चीज़ें बनी हैं जो मृत्यु के स्तर तक डार्क हैं लेकिन फिर आपको हमेशा अपने टारगेट ऑडियंस का खयला रखना चाहिए. 'आर्ट' क्रियेट करने का दंभ वेब सीरीज़ के पहले सीन से अंतिम सीन तक बना रहता है. इसके लिए फैज़ की गज़लों का भी आश्रय लिया जाता है, लेकिन वो भी बहुत प्लास्टिक लगता है. यानी ओवरऑल दिक्कत ये है आपने कॉन्सेप्ट कमाल का चुना 10 में से 7 अंक वहीं पा लिए, लेकिन बाकी 3 अंक पाने के लिए आपने ज़्यादा एफर्ट नहीं किए.
 
सिद्धार्थ के किरदार से 'भगत सिंह' का चित्र शायद इसलिए उभरता है क्यूंकि ऐसा ही किरदार उन्होंने रंग दे बसंती में भी किया था, हां लेकिन यहां पर उसके किरदार के कुछ ब्लैक और ग्रे शेड्स भी हैं. (लैला के यू ट्यूब ट्रेलर का स्क्रीन ग्रैब) सिद्धार्थ के किरदार से 'भगत सिंह' का चित्र शायद इसलिए उभरता है क्यूंकि ऐसा ही किरदार उन्होंने रंग दे बसंती में भी किया था, हां लेकिन यहां पर उसके किरदार के कुछ ब्लैक और ग्रे शेड्स भी हैं. (लैला के यू ट्यूब ट्रेलर का स्क्रीन ग्रैब)

लैला का एक ड्रॉबैक ये भी है कि ये लेफ्ट आइडियोलॉजी को रेस्क्यू के रूप में देखता है. लेकिन ये बात इसमें इतनी सटल है कि यूएस की स्ट्रीमिंग वेबसाइट नेटफ्लिक्स को शायद इसका पता नहीं चल पाया.

आर्ट सत्ता के हाथ की कठपुतली बन जाता है, लेकिन वो आर्ट ही है जो सत्ता चंद लोगों से छीनकर पूरे समाज को दे देता है. 'लैला' नाम के आर्ट की अपनी कमियां होंगी जिनकी समीक्षा टेक्निकल स्तर पर कीजिए, लेकिन स्वीकार कीजिए कि कई पैरलल यूनिवर्सेज़ में इस वाले भविष्य की संभावना बहुत ज़्यादा है. बल्कि कई चीजें तो हो भी रही हैं. बस हमसे दूर घट रही हैं, तो हमारा हिस्सा नहीं बनीं. हमको लगता है हमारे साथ नहीं होगा. अगर आप पॉज़टिव होकर सोच रहे हैं कि ऐसा, इतना बुरा, संभव नहीं. तो दूसरा पक्ष सोचिए- क्या पता भविष्य नाम की वास्तविकता इससे भी डरावनी हो. क्योंकि ये तो तय है कि और कुछ न सही, तो भी हवा-पानी का ख़ौफ तो लगभग तय ही है. हम जिस हाल में हैं, आगे हमें और हमारी पीढ़ियों को शायद पानी के लिए एड़ियां घिसते हुए मरना होगा. कब, पता नहीं. मगर बहुत जल्द, ये तय है.
बाकी जो 'इस्लामोफोबिया' लैला का हिस्सा है, उसका कुछ तो आस-पास दिखता भी है. आप शायद कहें कि ये इस्लामोफोबिया आपको नहीं दिखता. यहूदियों को लेकर जर्मनी में जो नफ़रत थी, वो भी अगर समय रहते जर्मनी वालों को दिख गईं होतीं तो वो भी सदियों तक चलने वाली ग्लानि से बच गए होते.



वीडियो देखें:

मूवी रिव्यू: कबीर सिंह-

Advertisement