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फ़िल्म रिव्यूः घोड़े को जलेबी खिलाने ले जा रिया हूं

मौजूदा समय की एक महत्वपूर्ण इंडी-आर्टहाउस फ़िल्म. डायरेक्टर हैं अनामिका हक्सर.

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Ghode Ko Jalebi Khilane Le Ja Riya Hoon movie still, Lallantop Cinema review by gajendra singh bhati
फ़िल्म 'घोड़े को जलेबी' के एक दृश्य में आकाश जैन 'जुनूनी' का किरदार. (Photo: Anamika Haksar/Platoon)
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11 जून 2022 (Updated: 20 जून 2022, 20:43 IST)
Updated: 20 जून 2022 20:43 IST
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"घोड़े को जलेबी खिलाने ले जा रिया हूं" एक लंबा टाइटल लग सकता है परन्तु वो है नहीं. लंबे नामों वाली फ़िल्में अक्सर लीक पर नहीं चलने जा रही होती हैं. वे कुछ नया कहने की कोशिश कर रही होती हैं, या उन्हें ऐसा लग रहा होता है कि वे कुछ नया कहने जा रही हैं. बेन एफ्लेक ने 1993 में 15 मिनट लंबी फ़िल्म बनाई थी. टाइटल था - I Killed My Lesbian Wife, Hung Her on a Meat Hook, and Now I Have a Three-Picture Deal at Disney. खासा लंबा टाइटल था, लेकिन नएपन को लेकर अपनी महत्वाकांक्षा ये फ़िल्म पूरी न कर सकी. अपने नाम के अर्थ के अनुरूप ये एक सतही, अप्रासंगिक कहानी बनकर रह गई. हालांकि बेन यहां से खिसकते खिसकते 'अर्गो' जैसी कामयाब "अमेरिकी फ़िल्म" डायरेक्ट करने तक ज़रूर पहुंचे.

1988 में विश्व सिनेमा के दर्शकों को चकराने वाली एक फ़िल्म आई थी - ओम दरबदर. डायरेक्टर थे कमल स्वरूप. इस उत्तर आधुनिकतावादी (postmodernist) फ़िल्म में दर्शन भी था, पौराणिक संदर्भ भी, राजनीतिक टिप्पणियां भी. एक लड़के ओम की कहानी, बड़े बड़े मेंढकों की कहानी. और इसके अलावा सबकुछ बेहद absurd. अजीब. बेढ़ंगा. तिरछा. न समझ आने वाला. कला फ़िल्मों में ये absurd अभिव्यक्ति की सीमाओं को खोलने का बहुत बड़ा साधन होता है. अपनी फ़िल्ममेकिंग में कुछ ऐसा ही रास्ता लेती है डायरेक्टर-राइटर अनामिका हक्सर की 'घोड़े को जलेबी.'

ये फ़िल्म विचित्र है. इसमें मल्टीपल जॉनर हैं. कई रूपक हैं. फ़िल्म का form सामान्य नहीं है, बल्कि हाइब्रिड है. इसमें डॉक्यूमेंट्री है, सिनेमा है, एनिमेशन है. जैसे एक सीन में ये हाइब्रिड फॉर्म नज़र आती है जहां पुरानी दिल्ली में रिक्शा खींचने वाले, जेबकतरे, ठेले-चाय-कचौरी वाले किसी डॉक्यूमेंट्री की तरह दर्ज किए गए हैं, उनके बीच सिनेमाई तौर पर रघुबीर यादव एक कैरेक्टर बने दिखते हैं जो कचौरियां तल रहा है, और फिर उनकी कढ़ाई में से काली, लक्ष्मी और दूसरी देवियां निकलती हैं, जो कि एनिमेशन वर्क होता है. ठीक उसके बाद एक लड़का दौड़ता हुआ आ रहा होता है, कहते हुए - “छदम्मी काका, छदम्मी काका, भैय्या ने मेरे लिए नई शर्ट लाई”. और वो दौड़ते दौड़ते हवा में जंप लेता है, जैसे वायर केबल लगा ऋतिक या टाइगर श्रॉफ उछला हो. यहां ये देवियां और इस लड़के का उछलना जादुई यथार्थवाद (Magic realism) हो जाता है.
  
ऐसे समय में जब इंडिपेंडेंट सिनेमा या आर्टहाउस सिनेमा का एक बड़ा धरातल स्टूडियोज़ ने अपने में मिला लिया है, ऐसे में सच्ची इंडी फ़िल्मों का प्रवाह बहुत धीमा हो गया है. 'घोड़े को जलेबी' एक ऐसी ही विरली, ईमानदार इंडी फ़िल्म है, जो स्वतंत्र रूप से बनाई गई है और लंबे वक्त की मशक्कत के साथ बनाई गई है. एक प्रश्न इस पल में उमड़ता है कि क्या दर्शकों में ऐसे पारखी भी रह गए हैं जो इन चीजों को, इस आर्ट को समझते हैं. जो ये समझते हैं कि 'घोड़े को जलेबी' जैसी फ़िल्म की एक मिनट की फुटेज में भी जो दिखता है उससे आनंद कैसे लेना है. यही वो सीखना है जो इंगेजिंग, ग्रिपिंग एंटरटेनमेंट वाली सीरीज़ और फ़िल्मों की बाढ़ में हमें स्वतंत्र सिनेमाई कृतियों की चाह बनाए रखने और उन्हें appreciate कर पाने लायक रखेगा.

हाइपर-एंटरटेनमेंट से शिथिल हो चुकी हमारी मस्तिष्क की नसों के लिए 'घोड़े को जलेबी' एक चुनौती है. इसी चुनौती का चरम बेला तार की 'द टुरिन हॉर्स' है. रघुबीर यादव के दृश्य, पतरू पाकेटमार के दृश्य, संगीत और जादुई यथार्थवाद वाले दृश्य, ये फ़िल्म को हर तरह के दर्शकों के लिए सहज बनाते हैं. सुई, अन्न का दाना, जलभर कटोरी वाली कहानी महर्षि कणाद की याद दिलाती है जो कण कण चुनकर उसी का भोजन करते थे और भोजन करते समय एक कण भी ज़ाया नहीं होने देते थे. इस तरह की कहानी फ़िल्म के मेकर्स की संवेदनाओं और मूल्यों के बारे में बहुत कुछ कहती है.

फ़िल्म की ऐसी नैतिक ताकत ही उसके प्रति आकृष्ट करती है. ऐसे समय में जब sub-altern यानी सबसे निम्न स्तर पर बैठे समाज के दले-थके इंसानों को हमारे एंटरटेनमेंट में न तो कोई प्रतिनिधित्व मिलता है, न उन्हें लेकर दर्शकों और निर्देशकों के मन में कोई भी संवेदना बची है. इसीलिए फ़िल्मों और वेब सीरीज़ के विषयों में उनके विषय नहीं होते. वे अगर कहीं होंगे भी तो किसी के.जी.एफ. या किसी आर.आर.आर. में किसी को हीरो और मसीहा बनाने के लिए सबसे ज्यादा द्रवित करने वाले रिएक्शन देने के लिए ही होंगे. वे रोते रहेंगे, त्राहिमाम करते रहेंगे. मैले, बदबूदार कपड़ों में दिखेंगे और साफ-सुथरे महंगे कपड़ों में हीरो-हीरोइन को दुआएं दे रहे होंगे. स्टोरीटेलर्स द्वारा इन घायल, असहाय, निम्नपदीय लोगों का ऐसा दुरुपयोग घृणा से भर देता है. 'घोड़े को जलेबी' इन्हीं sub-altern की प्रतिनिधि फ़िल्म है. इनकी कहानी सुनाती है. कई जगहों पर हम बहुत असहज होते हैं इनकी पीड़ा देखकर.    

जैसे - फ़िल्म में हम उन गरीबों-त्रस्त लोगों-भिखारियों की असली लावारिश लाशें देखते हैं जो फुटपाथों पर मिलती हैं. एक सीन है जहां एक रिक्शा जा रहा है. जिस पर लिखा है - लावारिश लाशों का रिक्शा. वो दो लाशों को उठाने के लिए आया है. सामने पर्यटकों का एक समूह खड़ा है, पुरानी दिल्ली की वॉक पर आया है. शिल्प, स्थापत्य और मुगलकालीन इतिहास के उलट ये वॉक है पुरानी दिल्ली के sub-altern की. पतरू पाकेटमार का आइडिया है ये. क्योंकि वो बेचैन था, इन लोगों की कहानी कहने के लिए. उसकी ये असल लोगों की दुखद कहानियां सुनकर पर्यटकों के इस समूह में से एक कॉरपोरेट टाइप बंदा ये कहते हुए चला जाता है कि - हमारी सीएसआर ये कभी मंजूर नहीं करेगी. वहीं दूसरी लड़की जिसने शरीर पर एक कॉज़ का फीता पहना होता है - save polar bears. वो कहती है - I think, I'll rather save the polar bears. और, वहां से चली जाती है. जैसा कटाक्ष यहां Corporate Social Responsibility (CSR) वालों और पर्यावरण-वन्यजीवों की चिंता करने वालों पर है, वैसा ही कई अन्य चीजों पर भी दिखता है. एक सीन है जहां भरी दुपहरी में मजदूर भार से लदी मालगाड़ी खींच रहा होता है और डीओपी सौम्यनंद साही का कैमरा ज़ूम इन करता है, उसके जिस्म पर बह रही पसीने की बूंदे नजर आती हैं, सूरज की तपती किरणों से पक चुका त्वचा का रंग दिखता है. पीछे से कुछ गीत सा सुनाई देती है - “पिता आएगा, लाल रंग के खिलौने लाएगा, सो जा मेरे बेटे सो जा”. फ़िल्म के शुरू में एक सोते आदमी को सपने में पुरानी दिल्ली में कहीं लाल झंडा लहराते हुए भी दिखता है. क्रांति सफल होते हुए दिखती है. यहां पर जाहिर है रूपक वामपंथ की ओर है कि उनके sub-altern की देखो क्या गत है. कि राजनीति ने भला क्या किया.

फ़िल्म में आकाश जैन 'जुनूनी' का पूरा ट्रैक भी है जो पुरानी दिल्ली की वॉक करवाता है पर्यटकों को. उसकी भाषा में सुंदर शिल्प है, उर्दू के लच्छे हैं, मुगल इतिहास का रोमैंटिक वर्जन है. हालांकि वो असल में एक आम दिल्ली वाला है, जो गुस्सा होने पर गाली बकता है. जिसके भाषाई शिल्प में जो शिष्टता है, वो पर्यटकों के गायब होने के साथ ही छू हो जाती है. एक मार्मिक सीन है जहां उसके ही समुदाय वाले उसे किसी गली में रोक लेते हैं और तंग करते हैं - "ओ जय जिनेंद्र जैन साब. कभी कभी मंदिर में भी चले जाया करो." "ओ, ये क्या हिंदु मुसलमान लगा रक्खी है, दाढ़ी भी बिल्कुल वैसी बना ली है. भाषा भी आजकल वैसी बोलने लगा है. और जब देखो तब ये मिनी पाकिस्तान में घूमता रहता है." "ओए, कान में से रुई निकाल के धरम करम की भी सुन लिया कर. जैनी है (तू)." जाहिर है फ़िल्म समकालीन भारत की इस प्रबल होती नस को भी छूती है.

भांत-भांत के मजदूर, रिक्शा वाले. भूखे, पसीने से लथपथ, खांसते, जूझ रहे, खुले में ठेलों पर ही सो रहे. चोर-उचक्के. पागल. उत्पीड़ित औरतें. गरीब. अपनी दुखभरी दास्तानें लेकर बैठे निम्नपदीय. आधी रात को झगड़ रही, एक दूसरे को रंडी बोल रही वेश्याएं. सुबह खुले में सार्वजनिक रूप से नहा रहे, बाल संवार रहे, शौच के लिए निवृत होने जा रहे मज़दूर. ये सब असल दुनिया के वो स्याह सच हैं, जिन्हें हमने अपने सपनों में भी ढक रखा है. सब ठीक है, सब सुखी हैं, घोड़े को जलेबी खिलाने ले जाया जा रहा है. देख लो.  

जिसमें जरा भी संवेदना और समझ है जीवन को. उसके लिए अंत से पहले रघुबीर यादव का किरदार गाता है -
तुझको ख़ुदा कहूं, या ख़ुदा को ख़ुदा कहूं 
दोनों की शक्ल एक है, किसको ख़ुदा कहूं 
तो संभलकर बैठना, ऐ हुस्न-ए-लैला देखने वालों 
तमाशा ख़ुद न बन जाना, तमाशा देखने वालों
तमाशा ख़ुद न बन जाना, तमाशा देखने वालों..

Video: इंटरव्यू इंडी/आर्ट फ़िल्म “घोड़े को जलेबी खिलाने ले जा रिया हूं” के मेकर्स का

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