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फिल्म रिव्यू: सेक्स एजुकेशन

सेक्स पर खुलके बात करने वाली एक बेहतरीन फिल्म, जो ज़रूर देखी जानी चाहिए.

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फिल्म सेक्स एजुकेशन को बनाया है प्रणव पटेल और उनके चार साथियों ने मिलकर.
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श्वेतांक
3 जुलाई 2018 (Updated: 3 जुलाई 2018, 09:22 AM IST)
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इंडिया में सेक्स उन एक जरूरी मसलों में से एक है जिसपर बात करने भर से भी हम कतराते हैं. अपनी सुविधानुसार एक नाम ढूंढ लिया है- 'टैबू'. हर दूसरे मसले को उस कैटेगरी में डालकर कर बात करने से कन्नी काट लेते हैं. जो लोग कर-देख चुके हैं, वो तो निकल जाते हैं. लेकिन जिसे आगे जाकर करना है, वो बेचारा क्लूलेस पड़ा हुआ है. उसे लगता है, जैसे पोर्नोग्राफिक फिल्मों में दिखाया जाता है, सबकुछ वैसे ही होता है. जी हां, यहां सेक्स की ही बात हो रही है. क्योंकि इसी मसले पर एक फ़िल्म आई है. नाम ही है 'सेक्स एजुकेशन'. डायरेक्टर हैं प्रणव पटेल.
हम सेक्स-कॉमेडी जॉनर को एक्सप्लोर करने जितने मॉडर्न हो गए हैं, लेकिन सेक्स एजुकेशन (यानी किसी इंसान को सेक्स के बारे में पढ़ाना/बताना) टैबू है. बच्चे सेक्स को क्या और कैसे समझें, इस बारे में हमारी कोई पहल नहीं है. स्कूल में रिप्रोडक्शन वाला चैप्टर टीचर्स स्किप कर गए और घर पे मम्मी-पापा.
ये फ़िल्म पहले हिंदी में बनने वाली थी लेकिन लेकिन प्रोड्यूसर नहीं मिलने के कारण फिल्म नहीं बनी. गेशिप (Gayship) जैसे विवादित मुद्दे को स्वीकार कर आगे बढ़ चुकी हिंदी फ़िल्म इंडस्ट्री को ये टॉपिक बहुत बोल्ड लगा. किसी ने भी इस तरह की 'अश्लील' फिल्म में पैसा लगाने से इनकार कर दिया. हालांकि अब ये फिल्म बन चुकी है. गुजराती भाषा में. कमाल की बात ये कि इसे सिर्फ पांच लोगों ने मिलकर बनाया है. लेकिन डायरेक्ट सिर्फ प्रणव ने किया है. आधी लड़ाई तो प्रणव और उनकी टीम ने यहीं जीत ली. बची-खुची जो थी, वो सेंसर बोर्ड से लड़कर जीतनी पड़ी.
फिल्म में संजय ने एक टीचर का रोल किया है, जिसे अपने स्टूडेंट की बहन से प्यार हो जाता है.
फिल्म में संजय ने एक टीचर का रोल किया है, जिसे अपने स्टूडेंट की बहन से प्यार हो जाता है.

फ़िल्म है एक स्कूल टीचर और एक स्टूडेंट की कहानी. दोनों ही अपने एक्सपीरियंस की वजह से ऐसी जगह अटके हैं, जहां उन्हें सेक्स एजुकेशन की सख्त जरूरत है. टीचर को बताने की और स्टूडेंट को जानने की. हालांकि ये दो अलग-अलग कहानियां हैं. इस फ़िल्म से जुड़ी सबसे अच्छी बात यही है कि ये फ़िल्म बन पाई. उसके साथ बोनस में आता है सेक्स से जुड़ा बेसिक नॉलेज, उससे होने वाली बीमारियां और उसके उपाय. और सबसे जरूरी, सेक्स संबंधी भ्रमों का टूटना. वो भी बिलकुल साफ-सुथरे ढंग से. फिल्म में शरीर के सभी प्राइवेट पार्ट्स को बिना किसी संकोच या बायोलॉजिकल झोल लगाए दिखाया गया. जैसा है, वैसा दिखाया गया है. कोई लाग-लपेट नहीं. क्योंकि यहां जो भी दिखाया जा रहा था, उसका मकसद आपको उत्तेजित करना नहीं, कुछ काम की बात बताना था. जो फिल्म के आखिर तक आप काफी हद कर समझ भी जाते हैं. हम खरेपन को छोड़कर परफेक्शन के आदि हो गए हैं, जो गैरजरूरी है. लेकिन 'सेक्स एजुकेशन' जरूरी है.
फिल्म में एक सीन है, जहां एक स्टूडेंट को पहली बार पीरियड होता है.
फिल्म में एक सीन है, जहां एक स्टूडेंट को पहली बार पीरियड होता है यहीं से टीचर की जर्नी शुरू होती है.

हमारे साथ समस्या ये है कि हमारी पहुंच बहुत ऊंची हो गई है. जो चाहते हैं, वो देखते हैं, सुनते हैं. इसलिए अब कुछ भी नया लगना बंद हो गया है. अगर आप यही फिल्म तब देखते जब आपके क्लास में रिप्रोडक्शन वाला चैप्टर चल रहा होता, तो बड़े मन से, उत्सुकता के साथ बैठते. तब भले ही आपके देखने की मंशा कुछ और होती लेकिन फिल्म बनाने के पीछे की मंशा सार्थक हो जाती. इसलिए हमें इसे टेक्नॉलोजी के झोल से बाहर निकलकर बनाने वाले की नीयत और हिम्मत देखनी चाहिए. इस फिल्म की एक दिक्कत ये है कि इसके लिए ज़्यादा रिसर्च नहीं की गई है. या शायद मेकर्स बेसिक बातें ही बताना चाहते हों.
येशा और सामर्थ ने फिल्म में स्कूल स्टूडेंट का रोल किया है, जिसे किसी दूसरे लड़के से प्यार हो जाता है और कुछ ऐसा होता, जिससे उनका सामना सेक्स एजुकेशन जैसे मसले होता है.
फिल्म के एक सीन में येशा और सामर्थ. येशा ने फिल्म में एक स्कूल स्टूडेंट का रोल किया है, जिसे किसी दूसरे लड़के से प्यार हो जाता है और कुछ ऐसा होता, जिससे उनका सामना सेक्स एजुकेशन जैसे मसले होता है.

आपने सेक्स किया हो या नहीं, इस फिल्म को देखने के बाद आप कुछ जरूरी और कायदे की चीज़ सीखते हैं. अगर फिल्म ने इतना कर दिया, तो उसका बनना सार्थक हो गया. ये फिल्म तकनीक या सिनेमाई पैमाने पर भले ही बहुत प्रभावशाली नहीं है, लेकिन इसके गाने और बैकग्राउंड म्यूज़िक बहुत प्यारा है. फिल्म में बंदिश वज़ का म्यूज़िक है और लिरिक्स हैं फिल्म में मुख्य किरदार निभाने वाले संजय प्रजापति का. और दोनों ही जबरदस्त हैं. (वो भी तब जब आप गुजराती भाषा नहीं समझते और सबटाइटल से काम चलाना पड़ता है).
'सेक्स एजुकेशन' नाम की ये फ़िल्म डायरेक्टर प्रणव पटेल की ईमानदार पहल का एक नतीजा है, जिसका मक़सद इस बात को ज़्यादा से ज़्यादा लोगों तक पहुंचाना है. और ये बात बिलकुल सीधे-सपाट शब्दों में कही गई है. कहानी और किरदारों की मदद से. कई तरह की बुनियादी खामियों के बावजूद 'सेक्स एजुकेशन' एक कमाल की फ़िल्म है, क्योंकि इसने आने वाले फ़िल्ममेकर्स के लिए एक रास्ता खोल दिया है. बता दिया है कि इस तरह की बातें भी फिल्मों में हो सकती हैं. जिस तरह के परफेक्ट फ़िल्म होने की उम्मीद हम सेक्स एजुकेशन से कर रहे थे, अगले दस सालों में इसी फिल्म की वजह से वो हमें देखने को मिलेंगी.


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